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अवतार-प्रकाश



अवतार-प्रकाश

[मौलाना अब्दुल्लाह के आलेख 'अवतार का सही अर्थ' का जवाब]

प्रियांशु सेठ

वेद व संस्कृत-व्याकरण शास्त्रों के महापण्डित व वेद-भाष्यकार महर्षि दयानन्दजी सरस्वती ने अपने पाखण्ड-खण्डनी ग्रन्थ 'सत्यार्थप्रकाश' के 'सप्तम समुल्लास' में "अज एकपात् [यजु० ३४/५३]" और "सपर्यगाच्छुक्रमकायम् [यजु० ४०/८]" जैसे वेद वचनों को उद्धृत करके यह सिद्ध किया है कि ईश्वर अपनी सर्वव्यापकता के कारण अजन्मा होने से शरीररहित अर्थात् जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त है। 'ईश्वर अपने काम अर्थात् उत्पत्ति, पालन, प्रलय आदि और सब जीवों के पुण्य पाप की यथायोग्य व्यवस्था करने में किञ्चित भी किसी की सहायता नहीं लेता अर्थात् अपने अनन्त सामर्थ्य से ही सब अपना काम पूर्ण कर लेता है', यह वचन भी महर्षि के हैं, जो कि पूर्ण रूप से वैदिक सिद्धान्तों के माफ़िक़ हैं। महर्षि द्वारा अवतारवाद के खण्डन से सम्पूर्ण अवतारवादियों की मण्डली में खलबली मच गई।
सर्वशक्तिमान् ईश्वर अपने गुण-कर्म-स्वभाव से सम्पूर्ण विश्व को धारण करता है, ऐसा वेदादि पवित्र ग्रन्थों का सत्य सन्देश है। मत-मतान्तरों का तथाकथित ईश्वर एकदेशीय या सातवें आसमान के सिंहासन पर विराजमान होकर मानवीय गुणों और भोग-विलासों से लिप्त रहने के कारण दिव्य और सात्विक गुणों से रहित है। आजकल कुछ अधर्मी अपने अल्लाह और पैग़म्बरों के भोग-विलासिता और गलतियों की ख़ुशामद करने के लिए अविद्वान् कोटि के भाष्यकारों के वेदार्थ से अवतारवाद का सिद्धान्त प्रकट करके ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता पर प्रश्नचिन्ह लगाया करते हैं। ऐसे में मेरा कर्त्तव्य है कि इनके आक्षेपों का सप्रमाण जवाब देकर इनकी बदहवास को चीख में बदल दूं जिससे यह फिर कलम उठाने के योग्य ही न रहें। सर्वव्यापक जगदीश्वर इन्हें सत्य स्वीकारने की शक्ति प्रदान करे!

पूर्वपक्षी- ऋग्वेद ६/२५/२ में 'अवतारी' शब्द आया है, जिसका अर्थ सायण ने विघ्न, संकट से पार करनेवाला बताया है। अवतारी शब्द के बाद "अवतृ'' से ही बननेवाला एक दूसरा शब्द "अवत्तर'' (१८/३/५) में मिलता है। सायण के अनुसार अत्यन्त लक्षण में समर्थ, जिसमें सारभूत अंश हो, वही अवतार कहा जाता है। अथर्ववेद के सायण भाष्य में इस शब्द की जो उत्पत्ति है, उसमें रक्षा का भाव शामिल है। अवतारवाद के मुख्य प्रयोजनों में रक्षा का भी स्थान रहा है।

उत्तरपक्षी- सर्वप्रथम आक्षेपकर्त्ता को सही लेख लिखने का अभ्यास करना चाहिए। आपने अपने लेख में अवत्तर के बाद, यह "१८/३/५" क्या लिख रक्खा है? क्या यह गणित का विषय है? अब्दुल्लाह जी! हम जानते हैं कि इस सन्दर्भ का ग्रहण अथर्ववेद के मन्त्र से है लेकिन नकल-चेप की आदत ने आपको इतना नाबीना बना दिया कि आपकी लेखनी की पूर्णता को नामंजूरी मिल गई। बेशक ऋग्वेद में "अव तारी:" शब्द आया है और उसका अर्थ सायण ही नहीं बल्कि अन्य विद्वानों ने भी संकट से पार करनेवाला किया है लेकिन आप इस मन्त्र में 'अव तारी:' शब्द से अवतरण ग्रहण करके भ्रम की नदी में गोता लगा रहे हैं। वास्तव में वेदार्थ को समझना आप जैसे फ़तवाशाहियों के सामर्थ्य के बाहर का है। आपका भ्रमभंजन करने के लिए हम मन्त्र का पूर्ण स्वरूप दर्ज करते हैं-

आभि: स्पृधो मिथतीररिषण्यन्नमित्रस्य व्यथया मन्युमिन्द्र।
आभिर्विश्वा अभियुजो विषूचीरार्याय विशोऽव तारीर्दासी:।। -ऋग्वेद ६/२५/२

आक्षेपकर्त्ता संस्कृत व्याकरण के क्षेत्र में बिल्कुल शून्य है। मन्त्र में अव तारी: "क्रियापद" है। यहां तारी: में "तिङन्त (प्रत्यय)" का प्रयोग हुआ है। अब्दुल्लाह जी को यह मालूम होना चाहिए कि जब हम किसी धातु से कोई लकार जोड़ते हैं तब उस लकार का लोप हो जाता है और उसके स्थान पर प्रत्ययों का प्रयोग होता है। कोई भी क्रियापद प्रत्ययों के बिना नहीं बन सकता। सायणादि आचार्यों ने यहां 'अव तारी:' को क्रियापद स्वीकार करके ही अर्थ किया है। यथा-

अनार्ष भाष्य-:
सायणाचार्य्यकृत भाष्य-
हे इन्द्र आभि: अस्मदीयाभि: स्तुतिभि: मिथती: शत्रुसैन्यानि हिंसती: स्पृध: अस्मदीया: सेना: अरिषण्यन् अहिंसन्। पालयन्नित्यर्थ:। अमित्रस्य शत्रो: मन्युं संग्रामादिषु विद्यमानं कोपं व्यथय नाशय। अपि च आभि: स्तुतिभिरेव अभियुज: अभियोक्त्री: विषूची: सर्वतो विद्यमाना: दासी: कर्मणामुपक्षपयित्री: विश्वा: सर्वा: विश: प्रजा: आर्याय यज्ञादिकर्मकृते यजमानाय अव तारी: विनाशय।।

वेंकटमाधवकृत भाष्य-
आभि: स्तुतिभि: स्पृध: आक्रोशन्ती: अहिंसन् अस्मान् अमित्रस्य व्यथ्य इन्द्र। तथा मन्युम् च तस्य व्यथय। आभि: विश्वा: अभियोक्त्री: विष्वगञ्चना: आर्याय विश: विनाशय आसुरी:।।

वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्यकृत भाष्य-
हे इन्द्र! तुम हमारी स्तुतियों द्वारा शत्रु सेना को मारने वाली हमारी सेनाओं की रक्षा करते हुए शत्रु के आक्रमण को निष्फल करो। यज्ञादि कार्य करने वाले मनुष्यों के कर्मों में विघ्न डालने वालों को नष्ट करो।

आर्ष भाष्य-:
श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामीकृत भाष्य-
पदार्थ- हे (इन्द्र) सेना के स्वामी आप (आभि:) इन राक्षसों वा सेनाओं से (मिथती:) शत्रुओं की सेनाओं का नाश करते हुए (स्पृध:) संग्रामों की (अरिषण्यन्) नहीं हिंसा करते हुए (अमित्रस्य) शत्रु की सेनाओं को (मन्युम्) क्रोध करके (व्यथया) पीड़ा दीजिये और (आभि:) इन रक्षा और सेनाओं से (आर्याय) उत्तम जन के लिए (विश्वा:) सम्पूर्ण (अभियुज:) अभियुक्त होने और (विषूची:) व्याप्त होने वाली (दासी:) सेविकाओं को और (विश:) प्रजाओं को (अव, तारी:) दुःख से पार करिये।
भावार्थ- वे ही सेना के स्वामी सत्कार करने योग्य हैं, जो अपनी सेना को उत्तम प्रकार शिक्षा दें तथा उत्तम प्रकार रक्षा कर और सत्कार करके युद्धविद्या में चतुर करके डाकुओं और अन्यायकारी शत्रुओं को निवारण करके अच्छी प्रजाओं की निरन्तर रक्षा करें।

श्री पण्डित जयदेव शर्मा, विद्यालंकार, मीमांसातीर्थ कृत भाष्य-
भा०- हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्! शत्रुहन्त:! सेनापते! राजन्! तू (आभि:) इन (अमित्रस्य) शत्रु की (मिथती:) हिंसा करती हुई (स्पृध:) सेनाओं को (मन्युम्) कोप कर के (व्यथय) पीड़ित कर। स्वयं (अरिषण्यन्) अपनी प्रजा का विनाश न करता हुआ (आभि:) इन सेनाओं द्वारा (विश्वा:) समस्त (विषूची:) विविध स्थानों पर विद्यमान (अभियुज:) आक्रमण करने वाले की (दासी:) प्रजा का नाश करने वाली सेनाओं को (अव तारी:) विनाश कर और (आर्याय) श्रेष्ठ पुरुष की (विश्वा:) समस्त (विषूची:) विविध प्रकार की (दासी: विश:) भृत्य वा दास के समान सेवा करने वाली प्रजाओं को (अव तारी:) संकट से पार कर।

वेदार्थ की प्रक्रिया के सन्दर्भ में सबसे प्राचीन संकेत तैत्तिरीय उपनिषद् में मिलता है, जिसमें इसके पांच अधिकरणों (प्रक्रियाओं) का निर्देश करते हुए लिखा है-
"अथात: संहिताया उपनिषदं व्याख्यास्याम:। पञ्चस्वधिकरणेषु। अधिलोकम्, अधिज्यौतिषम्, अधिविद्यम्, अधिप्रजम्, अध्यात्मम्।" -तैत्तिरीयोपनिषद् १/३/१

इससे ज्ञात होता है कि आचार्य लोग पहले अनेकविध वेदार्थ प्रस्तुत किया करते थे, किन्तु बाद में मुख्यतः तीन प्रक्रियाओं में ही वेदार्थ सीमित हो गया- आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक। सायण ने इस मन्त्र का आध्यात्मिक प्रक्रिया के अनुसार अर्थ किया है किन्तु स्वामी दयानन्दजी ने यहां आधिभौतिक प्रक्रियानुसार अर्थ किया है। दोनों ने इसे क्रियापद ही माना है अतः दोनों अर्थ सही हैं। महर्षि के भाष्य पर कोई उंगली नहीं उठा सकता क्योंकि उनकी वेदार्थ प्रक्रिया वैदिक कोष निरुक्त पर आधारित है। निरुक्तभाष्यकार दुर्गाचार्य ने स्वयं आधिभौतिक मन्त्रार्थ प्रक्रिया की सत्ता स्वीकार की है-
"मन्त्रार्थपरिज्ञानादेव ह्यग्नेराध्यात्माधिदैवाधिभूताधियज्ञेष्ववस्थानं याथात्म्यतो दृश्यते।" - निरुक्त, नैगमकाण्ड ४/१९/६ पर दुर्गाचार्यकृत टीका, पृष्ठ ३१५, श्रीवेंकटेश्वर प्रेस, मुम्बई, १९६९ से प्रकाशित

ऋग्वेद का यह मन्त्र तैत्तिरीय ब्राह्मण २/८/३/३ में भी आया है और वहां भी यह क्रियापद में गृहीत हुआ है। अतः इस मन्त्र से अवतार सिद्ध करना मौलाना साहब की शुद्ध बौखलाहट है। अब अथर्ववेद के मन्त्र पर विचार करते हैं। मन्त्र का पूर्ण स्वरूप निम्न प्रकार है-

उप द्यामुप वेतसमवत्तरो नदीनाम्।
अग्ने पित्तमपामसि।। -अथर्ववेद १८/३/५

इस मन्त्र में 'अवत्' अलग है और 'तर:' अलग है। अव धातु से शतृ प्रत्यय करके यहां अवत् शब्द बना है। क्योंकि तरः धातु के साथ अव उपसर्ग नहीं है [जो उपसर्ग होता तो 'प्रादय उपसर्गा: क्रियायोगे (अष्टा० १/४/५८)' क्रिया के योग में प्रादी उपसर्गों का प्रयोग होता है] इसलिए यहां अवत् में अव उपसर्ग नहीं अपितु धातु है और तृ धातु से तरः शब्द अलग बना है इसलिए यहां 'अवत्तर' का अर्थ अवतार या अवतरण कहीं से भी नहीं हो सकता। सायण ने इस मन्त्र के भाष्य में '... अवत्तर: अतिशयेन अवन् रक्षणसमर्थ: सारभूतांशो विद्यते।' ... 'अवत्तर इति। अव रक्षणे इत्यास्मात् लट: शत्रादेश:। तत: प्रकर्षार्थे तरप्।।' लिखकर अवतार का पक्ष नहीं लिया है फिर यहां पर अवतार सिद्ध करनेवाले आप कौन होते हैं?
इस मन्त्र के अर्थ की स्पष्टता पण्डित विश्वनाथ विद्यालंकारजी के अथर्ववेद भाष्य से सरलता से हो जाती है-

(अग्ने) हे अग्नि! तू (द्याम् उप अवत्) द्युलोक में उपस्थित है। (वेतसम्) बेंत आदि काष्ठों में (उप अवत्) उपस्थित है, (नदीनाम्) नदियों की (तरः) निचली भूमि में प्लुतियों के साथ गिरते प्रवाहों में (अवत्) उपस्थित है। तू (अपाम्) जलों का (पित्तम्) तेज (असि) है, या जलों का दिया हुआ है। सम्बोधन कवित्वशैली का है।
[मन्त्र में अग्नि के स्थान दर्शाए हैं। वह द्युलोक के नक्षत्रों तारागणों और सूर्य आदि में चमक रही है। बेंत आदि, जो कि जल में पैदा होते हैं, उन में भी अग्नि विद्यमान है। नदियों के प्रवाह निचली भूमि पर जब वेग से गिरते हैं, उन जलप्रपातों में भी अग्नि छिपी पड़ी रहती है, क्योंकि जलप्रपातों से विद्युत् उत्पन्न की जा सकती है। अग्नि मेघीय जलों में भी विद्युतरूप में विद्यमान है। पित्तम्= पित्त (Bile) गर्म होती है, इस लिये अग्नि को जलों का पित्त कहा है। अथवा पित्त= अपि+दा+क्त, यथा प्रत्तम्, अर्थात् जलों से अग्नि प्राप्त होती है। "अपि" के अकार का लोप, यथा- पिधानं, पिधेहि में। तरः= तृ प्लवने।]

पूर्वपक्षी- डॉ० कपिलदेव पाण्डेय ने लिखा है कि "अवतर'' शब्द का प्रयोग यजुर्वेद १७/६ में हुआ है। इस मंत्र में "अवतर'' प्रायः उतरने के अर्थ में गृहीत हुआ है। जैसा कि ऊपर उल्लेख हो चुका है कि "अवतर'' शब्द यजुर्वेद (१७/६) में आया है। इसका अर्थ ग्रिफ़्थ ने Descent बताया है। Oxford Advanced Learner's Dictionary में इसका अर्थ नीचे उतरना (Handing down) भी लिखा गया है (पृ० २३६)।

उत्तरपक्षी- हम आपकी चालबाज़ियों से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं। आप सिर्फ इतना बता दें कि इस मन्त्र में परमेश्वर के उतरने की बात कहां लिखी है? देखिए-

उप ज्मन्नुप वेतसेऽवतर नदीष्वा। अग्ने पित्तमपामसि मण्डूकि ताभिरागहि सेमं नो यज्ञं पावकवर्णँ शिवं कृधि।। -यजुर्वेद १७/६

Descend upon the earth, the reed, the rivers: thou art the gall, O Agni, of the waters. Will them come hither, female Frog, and render this sacrifice of ours bright-hued, successful. -Ralph Thomas Hotchkin Griffith

अब कहो, अब्दुल्लाहजी! ग्रिफिथ ने यहां खुद अवतर को क्रियापद माना है। हम इस मन्त्र पर श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामी का भाष्य उपस्थित करते हैं-

पदार्थ-: (उप) (ज्मन्) ज्मनि भूमौ। अत्र सुपां सुलुग्० [अष्टा० ७/१/३९] इति सप्तम्येकवचनस्य लुक्। ज्मेति पृथिवीनामसु पठितम्।। (निघं० १/१) (उप) (वेतसे) पदार्थविस्तारे (अव) (तर) (नदीषु) (आ) (अग्ने) वह्निरिव तेजस्विनी विदुषि! (पित्तम) तेज: (अपाम्) प्राणानां जलानां वा (असि) अस्ति (मण्डूकि) सुभूषिते (ताभि:) अद्भि: प्राणैर्वा (आ) (गहि) आगच्छ (सा) (इमम्) (न:) अस्माकम् (यज्ञम्) गृहाश्रमाख्यम् (पावकवर्णम्) अग्निवत् प्रकाशमानम् (शिवम्) कल्याणकारकम् (कृधि) कुरु।।
पदार्थ-: हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्विनी विदुषि (मण्डूकि) अच्छे प्रकार अलंकारों से शोभित विदुषि स्त्रि! तू (ज्मन्) पृथिवी पर (नदीषु) नदियों तथा (वेतसे) पदार्थों के विस्तार में (अव, तर) पार हो, जैसे अग्नि (अपाम्) प्राण वा जलों के (पित्तम्) तेज का रूप (असि) है, वैसे तू (ताभि:) उन जल वा प्राणों के साथ (उप, आ, गहि) हमको समीप प्राप्त हो (सा) सो तू (न:) हमारे (इमम्) इस (पावकवर्णम्) अग्नि के तुल्य प्रकाशमान (यज्ञम्) गृहाश्रमरूप यज्ञ को (शिवम्) कल्याणकारी (उप, आ, कृधि) अच्छे प्रकार कर।।
भावार्थ-: इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। स्त्री और पुरुष गृहाश्रम में प्रयत्न के साथ सब कार्य्यों को सिद्ध कर शुद्ध आचरण के सहित कल्याण को प्राप्त हों।

क्यों जी! आपको अपने मिथ्या लेख पर शर्म तो आ रही होगी न? इस मन्त्र का तात्पर्य यह है कि हे स्त्री! तू जल, नभ आदि विज्ञान को जानने वाली बन। पृथ्वी पर समृद्धि लाने के लिए योग्यता प्राप्त कर। अब जीव तो अवतरण अर्थात् जन्म लेता ही है। अंग्रेजी में एक वाक्य है- I crossed the river. अर्थात् मैं नदी पार कर गया। उसी प्रकार यहां स्त्री को पदार्थ विद्याओं में पार होने का सन्देश है।

पौराणिक भाष्यकार श्रीमदुवटाचार्य के अनुसार भी उपरोक्त मन्त्र में ईश्वरावतार का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है-
उप ज्मन्। जगती वा त्रिष्टुप्व। उपज्मन् उपावतर ज्मन् जसते ज्मा पृथिवी पृथिव्याम् उपवेतसे। उपावतर च वेतसे वेतसशाखायाम्। मण्डूका च वेतसशाखास्तत्र बद्धा भवन्ति वंशे तदयं मन्त्रोऽभिवदति। नदीष्वा। आ उपसर्गोऽध्यर्थे। अवतर च नदीषु। अधिशब्देनात्र लक्षणया अवका उच्यन्ते तत्प्रभवत्वात्। कस्मात्त्वमेवमस्माभि: प्राथ्र्यसे इत्यत आह। हे अग्ने, पित्तं अपाम् असि। यो यस्यावयवभूतो भवति न स तद्धिनस्ति तद्धर्मा च भवति। एवमग्निं संबोध्य अथेदानीं मण्डूकीमाह हे मण्डूकि, ताभिरद्भि: सहिता आयाहि। यासामग्नि: पित्तम्। याभिर्वा सह त्वमुत्पन्ना। या च त्वमग्नि: शान्त्यर्थमितश्चेतश्च नीयसे सा इमं न: अस्माकम् यज्ञं चयनलक्षणम्। पावकवर्णम् अग्निवर्णम्। शिवं शान्तम्। कृधि कुरु।।

इस्लाम में स्त्री को किसी भी क्षेत्र में योग्यता प्राप्त करने का निषेध है सिवाय मर्दों से शारीरिक सम्बन्ध बनाने का। इसमें गृहाश्रम का भी कोई महत्त्व नहीं है अपितु केवल निकाह और तलाक के बाद हलाला का हुक़्म है, जो कि अल्लाह की दृष्टि में जायज है-
'ऐ रसूल! तू नहीं जानता कि शायद तलाक के बाद अल्लाह कोई नई तरक़ीब सुझा दे।' -मं० ७, पा० २८, सू० ६५, आ० १

अब देखिए, वह नई तरक़ीब क्या है-
'और यदि किसी ने पत्नी को तलाक दे दिया, तो उस स्त्री को रखना जायज़ नहीं होगा, जब तक वह स्त्री किसी दूसरे व्यक्ति से सहवास न कर ले फिर वह व्यक्ति भी उसे तलाक दे दे तो फिर उन दोनों के लिए एक दूसरे की तरफ़ पलट आने में कोई दोष नहीं होगा।' -मं० १, पा० २, सू० २, आ० २३०

वाह रे इस्लाम! तेरे क्या कहने? स्त्री उत्पीड़न की सौग़ात है तू!
अबू हुरैरा ने कहा कि रसूल ने कहा यदि कोई पति अपनी पत्नी को बिस्तर पर यौन सम्बन्ध बनाने के लिए पुकारता है और वह इससे इनक़ार कर देती है और गुस्से में सो जाती है तो स्वर्गदूत उसे सुबह तक शाप दे देंगे। -सही बुख़ारी, जिल्द ४, किताब ५४, हदीस ४६०

इस्लाम औरतों को केवल जहन्नम का दर्ज़ा देता है-
१. सही बुख़ारी, जिल्द १, किताब २, हदीस २८
२. सही बुख़ारी, जिल्द ४, किताब ५४, हदीस ४६४
३. सही बुख़ारी, जिल्द ७, किताब ६२, हदीस ६ और ३१
४. सही मुस्लिम, किताब ३, हदीस ८२६
५. मिश्कात, जिल्द ४, किताब ४२, हदीस २४

ऑक्सफ़ोर्ड का अर्थ अपने स्थान पर ठीक है परन्तु वह सुबन्त (प्रत्यय) है। अतः सिद्ध हुआ कि इस मन्त्र में अवतार क्रियापद है, तुलना करो शतपथ० ९/१/२/२७ से। उपरोक्त यजुर्वेदीय मन्त्र मैत्रायणी संहिता २/१०/१ में शब्दशः विद्यमान है और उस प्रकरण में ईश्वरावतार का जिक्र तक नहीं। आपने जहां-जहां अवतार से मिलता-जुलता शब्द पाया, उससे अवतार सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ा। आपका यह लेख चूँ-चूँ का मुरब्बा है, जिसमें परस्पर-विरोध पड़ा है। इसे हम आगे सिद्ध करेंगे।

पूर्वपक्षी- अवतार शब्द स्वयं बता देता है कि अवतार का भावार्थ ईश्वर का पृथ्वी पर अवतरण या उतरना नहीं होता, बल्कि इस शब्द का सही भावार्थ ईश्वर द्वारा पृथ्वी पर उतारा गया होता है। अवतार का अर्थ मूलतः "उतारा गया'' होता है, "उतरना'' नहीं। "अवतार' शब्द 'अव' उपसर्ग पूर्वक तृ प्लवन तरणयोः धातु से 'धत्र्' प्रत्यय का योग करने पर निष्पादित होता है, जिसका अर्थ "उतारा गया'' होता है। पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण के अपने सबसे प्रामाणिक ग्रन्थ अष्टाध्यायी (३/३/१२०) में इस शब्द की स्पष्ट व्याख्या करते हुए "अवतरणं अवतार'' लिखा है, जिसका अर्थ है: "नीचे उतारा गया।'' व्युत्पत्तिगत दृष्टि से "त्टृ'' और "स्त्टृ" धातुरूपों में बननेवाले अवतार शब्द का अर्थ होता है- वह स्थान या विग्रह जिसके माध्यम से अवतार हो वह स्थान या विग्रह जहाँ से अवतरण हो।" अर्थात् ईश्वर के पास से अवतार होता है। डॉ० वेदप्रकाश उपाध्याय का भी यही मत है। इससे स्पष्ट हुआ कि ईश्वर स्वयं अवतार ग्रहण नहीं करता, बल्कि वह संसार की गति और कार्यों में गड़बड़ी को दूर करने के लिए अपने दूत और पैग़म्बर भेजता है। दूसरे शब्दों में हम इसे अवतारवाद कह सकते हैं।

उत्तरपक्षी- पाणिनिकृत अष्टाध्यायी ३/३/१२० के अनुसार 'अवतार' शब्द करण एवं अधिकरण कारक में होता है।
१. करण- जिसके द्वारा अवतरण हो अर्थात् वह साधन। क्योंकि करण का अर्थ है साधन (साधकतमं करणम् -अष्टा० १/४/४२)।
२. अधिकरण- जिस स्थान पर अवतरण होता है।

आपने करण एवं अधिकरण अर्थ में तो अवतार शब्द की व्युत्पत्ति की है परन्तु अर्थ करते समय 'उतारना' अर्थ किया है जो स्वयं के वचन में ही विरोधाभास है। आपने कहा अष्टा० ३/३/१२० में 'अवतरणं अवतार' लिखा है जो कि आपके वचनों से ही विरुद्ध है। क्योंकि यह तो भाव में हुआ और आप तो पहले ही करण + अधिकरण में प्रतिज्ञा कर चुके हैं। अभी तक करण एवं अधिकरण अर्थ में निष्पादित 'अवतार' शब्द का एक भी उदाहरण आप वेद से नहीं दिखा पाए हैं।
इस्लाम की मान्यतानुसार अल्लाह के दूत या पैग़म्बर भेजने का प्रयोजन संसार की गति और कार्यों में गड़बड़ी को दूर करना है। यहां प्रश्न उठता है कि अल्लाह ने संसार में ऐसी कौन-सी गड़बड़ी कर दी? क्या अल्लाह अपने कार्यों को ठीक करने में पैगम्बरों की मदद लेता है अथवा अल्लाह अल्पशक्तिमान् है? यदि यह कहें कि गड़बड़ी मनुष्यों ने की तथा उसे सुधारने के लिए पैग़म्बर आए तो कुरान के सूरा-अनफाल (सन् २ हिज़री में बद्र के युद्ध के बाद उतरी सूरा) की इस खूनी आयत का अवलोकन करें, जिसमें इनका अल्लाह खुद को खूनी ज़ाहिर करता है, और सत्याऽसत्य का निर्णय कर लें कि अल्लाह की मर्ज़ी के बग़ैर कोई कुकर्म या गड़बड़ी नहीं कर सकता-

"और (मुसलमानों) उन कुफ्फ़ार को तुमने क़त्ल नहीं किया बल्कि उनको तो अल्लाह ने क़त्ल किया और तुमने मुट्ठी पर ख़ाक नहीं फेंकी बल्कि अल्लाह ने ख़ाक फेंकी और ताकि अपनी तरफ से मोमिनीन पर खूब एहसान करे बेशक ख़ुदा (सबकी) सुनता और (सब कुछ) जानता है।" -मं० २, पा० ९, सू० ८, आ० १७

यह इस्लाम का प्रथम ऐतिहासिक युद्ध था। इस आयत पर मौलाना अज़ीजुल हक़्क़ उमरी की व्याख्या पढ़ें-
"आयत का भावार्थ यह है कि शत्रु पर विजय तुम्हारी शक्ति से नहीं हुई। इसी प्रकार नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने रण क्षेत्र में कंकरियां लेकर शत्रु की सेना की ओर फेंकी जो प्रत्येक शत्रु की आंख में पड़ गई। और वहीं से उन की पराजय का आरंभ हुआ तो उस धूल को शत्रु की आंखों तक अल्लाह ही ने पहुंचाया था। (इब्ने कसीर)" -कुर्आन मजीद और उसके अर्थो का हिन्दी भाषा में अनुवाद और व्याख्या, पृ० ३४०

इस आयत से इस्लाम जगत पर यह कलंक लगता है कि मनुष्यों के कुकर्मों का भी जिम्मेदार अल्लाह है और वह सबको अपनी मर्ज़ी से नियन्त्रित करता है (द्रष्टव्य- सूरा ८१, आयत २९)। इसके अनेकों प्रमाण कुरान में भरे-पड़े हैं; जैसे- ५/४०, ६/३९, ७/१५५, ९/११६, २९/६२, ४८/१४ इत्यादि। अतः सिद्ध हुआ कि इस संसार में अल्लाह स्वेच्छानुसार गड़बड़ी करता है और उसका ज़िम्मेवार मनुष्यों को ठहराता है फिर पैग़म्बर भेजकर अपनी तारीफ़ कमाता है अथवा इस्लाम यह स्वीकार करे कि अल्लाह कोई पैग़म्बर भेजता ही नहीं है बल्कि वह अल्पशक्तिमान् या काल्पनिक है। सच तो यह है कि अल्लाह और पैग़म्बरवाद का अस्तित्व मुहम्मद ने लाया था।
अल्लाह के दूत भेजने के पक्ष में आक्षेप-

१. ऊपर कुरान के मात्र एक प्रमाण से ही अल्लाह मियां कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं बचे। प्रश्न अब भी वही है कि अल्लाह को पैग़म्बर भेजने की आवश्यकता क्यों पड़ी? जब वह अनपढ़ मुहम्मद पर आयतें नाज़िल कर सकता है तो अपनी प्रेरणा या इच्छानुसार अच्छे मनुष्यों को नियन्त्रित करके गड़बड़ी ठीक भी तो कर सकता है?
२. अल्लाह किसे भेजता है रूह या अपने अंश को?
३. यदि रूह भेजता है तो इस्लाम के सिद्धान्त खण्डित होंगे क्योंकि कुरान के अनुसार मुसलमानी रूह सदैव जन्नत में रहेंगे (कुरान ३५/३५)। यदि अंश का भेजना मानेंगे तो अंश के सारे दोष आपके पक्ष में होंगे और अल्लाह साकार सिद्ध होगा। इत्यादि।

अब मुसलमानों के पास बचने का मात्र एक ही विकल्प शेष है कि वह अंधकार से निकलकर ''स्वतन्त्र कर्त्ता: - जो स्वतन्त्र अर्थात् स्वाधीन है वही कर्त्ता है (अष्टा० १/४/५४)' के सिद्धान्त को अपनाते हुए वेदों की ओर लौटें। वेद में ईश्वर को "शुद्धमपापविद्धम् (यजु० ४०/८)" कहा गया है, अर्थात् परमात्मा शुद्ध एवं निष्पाप है। प्लेटो का कथन है-
Well, but can you imagine God will be willing to lie, whether in words or deeds or to put forth a phantom of himself? -See Plato : Republic in Five Great Dialogues, translated by B. Jowett p. 285
अर्थात्- परमात्मा मिथ्याचारण नहीं कर सकता- न कथन में, न व्यवहार में। न वह अपनी जगह कोई नकली भगवान् (अपनी छायारूप) बना सकता है।

डॉ राधाकृष्णन ने क्या खूब लिखा है-
At a time when people are doing devil's work under divine sanction and consoling themselves by attributing everything to God's will, the principle of Karma insisted on the primacy of the ethical and identified God with the rule of law. Karma is not a mechanical principle, but a spiritual necessity. God is its supervisor, 'Karmadhyaksha'___. To the Hindu (who believes that the world is divine and everything is God) ethical rules are meaningless. If everything is God, there is no excuse for our interfering with the sacred duties of the pickpocket and the perjurer. -Radhakrishnan : Hindu View of Life P. 50,52
अर्थात्- जब लोग शैतान के काम कर रहे हों और ईश्वरीय इच्छा व व्यवस्था के नाम पर सब-कुछ ईश्वर के मत्थे मढ़ रहें हों तब कर्मसिद्धान्त परमात्मा को संवैधानिक शासक के रूप में प्रतिष्ठित कर नैतिकता पर बल देता है। कर्म कोई यान्त्रिक क्रिया नहीं, आध्यात्मिक आवश्यकता है। परमात्मा कर्मों का प्रेक्षक- कर्माध्यक्ष है। ... हिन्दू के लिए (जो यह मानता है कि जगत् ब्रह्मरूप है और जो कुछ होता है वह ईश्वर के लिए होता है) नैतिक मूल्यों का कोई अर्थ नहीं और एक जेबकतरे या मिथ्या साक्षी देनेवाले के पवित्र कृत्यों में हस्तक्षेप करने का कोई कारण (अधिकार) नहीं है।

पूर्वपक्षी- महाभारत (३३९/६४) और केन उपनिषद् (३/२) में "प्रादुर्भाव'' "अवतार'' के स्थान पर आया है, जिससे भी "अवतार'' के मूल अर्थ के निकट पहुँचा जा सकता है। दुर्भाग्य से "अवतार'' शब्द नितान्त ग़लत अर्थ में प्रचलित हो गया है।

उत्तरपक्षी- मुल्लाजी! कभी तो सत्य का आश्रय लेना सीखिये। न जाने अल्लाह आप मुसलमानों को झूठ बोलने की आदत से कब गुमराह करेगा?
पितृणां च महाभाग सततं संशितव्रत।
विविधानां च भूतानां त्वमुपास्योभविष्यसि।। -महाभारत, शान्तिपर्व ३३९/६४, गीताप्रेस गोरखपुर

इसमें आपको "प्रादुर्भाव" शब्द कहां दिखाई दे रहा है? सच तो यह है कि 'प्रादुर्भाव' शब्द श्लोक संख्या ६५ में पड़ा हुआ है लेकिन यह श्लोक परस्पर विरोध और प्रकरण-भंग होने के कारण प्रक्षेप है। हम अपने पक्ष में इसी अध्याय का एक अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत करते हैं जो आपकी ज़बान दराज़ी रोकने के लिये पर्याप्त है-

न दृश्यश्चक्षुषा योऽसौ न स्पृश्य: स्पर्शनेन च। न घ्रेयश्चैव गन्धेन रसेन च विवर्जित:।।२१।।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव न गुणास्तं भजन्ति वै। यश्च सर्वगत: साक्षी लोकस्यात्मेति कथ्यते।।२२।।
भूतग्रामशरीरेषु नश्यत्सु न विनश्यति। अजो नित्य: शाश्वतश्च निर्गुणोनिष्कलस्तथा।।२३।।
द्विर्द्वादशेभ्यस्तत्त्वेभ्य: ख्यातो य: पञ्चविंशक:। पुरुषो निष्क्रियश्चैव ज्ञानदृश्यश्च कथ्यते।।२४।।
यं प्रविश्य भवन्तीह मुक्ता वै द्विजसत्तमा:। स वासुदेवो विज्ञेय: परमात्मा सनातन:।।२५।। -महाभारत, शान्तिपर्व अध्याय ३३९, गीताप्रेस गोरखपुर (टीकाकार- पाण्डेय पं० रामनारायणदत्त शास्त्री)
अर्थात्- जो नेत्रों से देखा नहीं जाता, त्वचा से जिसका स्पर्श नहीं होता, गन्ध ग्रहण करनेवाली घ्राणेन्द्रिय से जो सूंघने में नहीं आता, जो रसनेन्द्रिय की पहुंच से परे है; सत्त्व, रज और तम नामक गुण जिसपर कोई प्रभाव नहीं डाल पाते, जो सर्वव्यापी, साक्षी और सम्पूर्ण जगत् का आत्मा कहलाता है, सम्पूर्ण प्राणियों का नाश हो जाने पर भी जो स्वयं नष्ट नहीं होता है, जिसे अजन्मा, नित्य, सनातन, निर्गुण और निष्कल बताया गया है, जो चौबीस तत्त्वों से परे पचीसवें तत्त्व के रूप में विख्यात है, जिसे अन्तर्यामी पुरुष, निष्क्रिय तथा ज्ञानमय नेत्रों से ही देखने योग्य बताया जाता है, जिसमें प्रवेश करके श्रेष्ठ द्विज यहां मुक्त हो जाते हैं, वही सनातन परमात्मा है। उसी को वासुदेव नाम से जानना चाहिए।

कहो अब्दुल्लाहजी! हमने महाभारत से भी ईश्वर के अवतार का निषेध सिद्ध कर दिया। केनोपनिषद् ३/२ में 'प्रादुर्भाव' नहीं बल्कि "प्रादुर्बभूव" शब्द आया है, जिसका अर्थ है प्रकट होना। यहां पर ब्रह्म और जड़ देवों का प्रसङ्ग है न कि संसार में प्रकट होने का। केनोपनिषद् के इस खण्ड में ईश्वर का आलंकारिक वर्णन किया गया है-

तद्धैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव।
तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति।। -केनो० ३/२

आचार्य राजवीर शास्त्रीजी कृत भाष्य-
पदार्थ- (तत्) उस ब्रह्म ने (ह) निश्चय करके (एषाम्) अग्नि आदि देवों की चेष्टा को (विजज्ञौ) सर्वज्ञभाव से जान लिया। (तेभ्यः) और उनके (अहंकार या मिथ्या ज्ञान को समाप्त करने के लिए) (ह) निश्चय से (प्रादुर्बभूव) ब्रह्म प्रकट हुए। वे देव (तत्) उस ब्रह्म को (न व्यजानत) नहीं जान सके कि (इदम् यक्षम्) यह अप्रतिम तेजयुक्त यक्ष (किम् इति) कौन है।
भावार्थ- यहां ब्रह्म का यक्ष रूप में प्रकट होना और अग्नि आदि देवों का उसे न जानना, एक आलंकारिक वर्णन है यथार्थ नहीं। ब्रह्म एक सर्वव्यापक चेतन सत्ता है, उसे अग्नि आदि जड़ देवता कदापि जान भी नहीं सकते। जैसे मुण्डकोपनिषद् में परमात्मा के मुख, नेत्रादि का आलंकारिक वर्णन किया गया है, वैसा ही यहां भी समझना चाहिए।
इस आख्यायिका का एक भाव यह भी है कि शरीर में भी पञ्चभूत कार्य कर रहे हैं। जब जीव परब्रह्म की उपासना से अद्भुत तेज व सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, तब अग्नि आदि के कार्य नेत्रादि इन्द्रियों में ऐसा गर्व पैदा हो जाता है कि यह तेज व शक्ति हमारी ही है। उस अहंकार को दूर करने के लिए भी इस आख्यायिका को बनाया है।
ब्रह्म के निराकार होने से उसका शरीरधारी होकर संवाद करना कदापि सम्भव नहीं है, पुनरपि यहां आख्यायिका के रूप में ब्रह्म की सर्वोत्कृष्टता का ज्ञान कराने के लिए वर्णन किया गया है। क्योंकि आख्यायिका के द्वारा कठिन विषय भी सरल व सुगम हो जाता है।
आलंकारिक आख्यायिका का स्पष्टीकरण-
यह समस्त संसार प्रकृति का विकार है। यह स्वयं न तो बन सकता और नहीं बिगड़ सकता है। इस का रचियता तथा प्रलय करने वाला परब्रह्म है। अतः अग्नि आदि देवों में ब्रह्म का विजय-महत्त्व अधिक है। परन्तु परब्रह्म इन्द्रियागोचर, सूक्ष्मातिसूक्ष्म तथा सर्वत्र व्यापक सत्ता है, उसका जानना सरल न होने से अनात्मज्ञानी भौतिक अग्नि आदि जड़ देवों को ही उत्कृष्ट मानकर परब्रह्म को मानने से इंकार कर देते हैं। ऐसे अनात्मवादी नास्तिक पुरुषों को समझाने के लिए उपनिषत्कार ने यह आलंकारिक गाथारूप में वर्णन किया है।...

इस आख्यायिका का सन्देश यह है कि ब्रह्म एक सर्वव्यापक चेतन सत्ता है। जिस तरह नेत्र को अपनी शक्ति दिखलाने में बाह्य प्रकाश की सहायता अपेक्षित है, इसी प्रकार अग्न्यादि समस्त दिव्य शक्तियों को अपनी-अपनी शक्ति दिखलाने में ब्रह्म की सहायता अपेक्षित है। उसके बिना अग्नि एक तिनका भी जला नहीं सकता और वायु उड़ा नहीं सकता। इनकी सारी महिमा उस ब्रह्म के ही सहारे पर है, इस तात्पर्य को दर्शाने के लिए यह यक्ष की आख्यायिका अलंकार रूप से रची गई है। यक्ष= पूजनीय। अथर्ववेद १०/७/३८ में परमात्मा को यक्ष कहा गया है। खेद है कि केनोपनिषद् के इस खण्ड में अवतार ढूंढने वाले की बुद्धि का स्तर इतना निम्न है, जो ब्रह्म के अलंकारिक वर्णन को समझने में भी असक्षम है।
उपनिषदों में अवतारवाद का निषेध-
•दिव्यो ह्यमूर्त्त: पुरुष: स बाह्यान्तरो ह्यज:।
अप्राणो ह्यमना: शुभ्रो ह्यक्षरात्परत: पर:।। -मुण्डक० २/१/२
वह परमेश्वर अमूर्त्त, भीतर-बाहर व्यापक, अजन्मा, प्राणरहित, मनरहित और शुद्ध है।

•वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात्।
जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो हि प्रवदन्ति नित्यम्।। -श्वेता० ३/२१
वह पुरुष अजर, अमर, सर्वव्यापक, विभु व नित्य है। ब्रह्मवादी कहते हैं कि वह जन्म नहीं लेता।

यहां अवतार का स्पष्ट निषेध है। तथाकथित अवतरित ब्रह्म इन गुणों से युक्त नहीं होता।

पूर्वपक्षी- वरिष्ठ विद्वान् डॉ० सुरेन्द्र 'अज्ञात' लिखते हैं-
"एक दूसरी दृष्टि से भी ईश्वर का स्वयं अवतार धारण करना पूरी तरह असम्भव है। यजुर्वेद का कथन है कि ईश्वर इस संसार की प्रत्येक वस्तु में, इस संसार में हर स्थान पर, विद्यमान है-
ईशा वास्यमिदं सर्व यत्किंच जगत्यां जगत् (यजुर्वेद ४०/१)

अब जब ईश्वर संसार के कण-कण में पहले से ही विराजमान है, तब फिर वह अवतार क्यों और कैसे धारण कर सकता है? यदि एक सर्वव्यापक ईश्वर हर स्थान पर, हर वस्तु में पहले से ही विद्यमान है, तो वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर आ-जा कैसे सकता है? सर्वव्यापक होने से वह पहले से ही सर्वत्र मौजूद है। इस तरह हम देखते हैं कि ईश्वर को सर्वव्यापक मानना न केवल उसे अवतार लेने से रोकता है, बल्कि उसकी सर्वशक्तिमत्ता को भी प्रश्न चिन्हों से मण्डित करता है।"

उत्तरपक्षी- हम यह सिद्ध कर चुके हैं कि वैदिक सिद्धान्त अवतारवाद का प्रबल विरोधी है; अतः आपका और सुरेन्द्र अज्ञात का आक्षेप निराधार है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि ईश्वर कण-कण में विद्यमान है। यजुर्वेद में बताया है- "स ओत:प्रोतश्च विभू: प्रजासु" अर्थात् वह परमात्मा सर्वव्यापक होने से सब प्रजाओं में ओत-प्रोत है (यजु० ३२/८)। ऋग्वेद के अनुसार "स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठत्" अर्थात् वह पृथिवी आदि लोक-लोकान्तरों को सब ओर से घेरे हुए हैं (ऋग्० १०/९०/१)। 'वस्' धातु का 'वसने' तथा 'आच्छादने' दो अर्थों में प्रयोग होता है। इन दोनों अर्थों को व्यक्त करते हुए यजुर्वेद (४०/५) में कहा है- "तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत:" अर्थात् वह परमात्मा सब पदार्थों के भीतर भी विद्यमान है और बाहर भी। उपनिषत्कारों ने ईश्वर की सर्वव्यापकता को अत्यन्त सुन्दर शब्दों में प्रकट किया है-

सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम्। -श्वेता० १/१६
परमात्मा दूध में घी की भांति अदृष्टरूप में सृष्टि में समाया है।

तस्मिंल्लोका: श्रिता: सर्वे तदु नात्येति कश्चन। कठ० ५/८, ६/१
सब लोक-लोकान्तर उसी में प्रतिष्ठित हैं- आश्रित हैं, कोई भी उसे लांघकर बाहर नहीं जा सकता।

अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।। -कठ० ५/९
जैसे अग्नि सब जगत् में प्रविष्ट होकर प्रत्येक रूप में तद्रूप हो रहा है ऐसे ही वह एकमात्र सर्वभूतों के अन्दर व्यापक परमात्मा समस्त रूप वाले पदार्थों में व्यापक होकर इन सबसे बाहर भी विराजमान है।

ईश्वर सर्वव्यापक है अर्थात् सब जगह रहता है। यदि वह किसी स्थान विशेष पर रहता तो फिर वह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, सबका उत्पादक, पालनकर्त्ता और विनाश करने वाला नहीं हो सकता। आप जिस स्थान पर हैं उस स्थान से दूसरे स्थान पर कोई भी क्रिया कैसे कर सकते हैं? इसलिए ईश्वर सवर्त्र मौजूद रहकर अपने अनन्त सामर्थ्य से अपने कार्यों को पूर्ण करता है। यहां एक शंका उपस्थित होती है कि ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है तो मल-मूत्रादि दुर्गन्धयुक्त पदार्थों में भी होगा, क्या उसे दुर्गन्ध नहीं आती होगी? इसका उत्तर यह है कि परमात्मा शरीर-रहित है, घ्राणेन्द्रिय-रहित है। अतः जैसे हम शरीरधारी जीव गन्ध का अनुभव प्रत्यक्ष करते हैं, वैसे उस प्रक्रिया से (इन्द्रियों के माध्यम से) परमात्मा गन्ध का अनुभव या 'प्रत्यक्ष' नहीं करता है। हम शरीरधारी होने से कुछ गन्ध हमको 'सुगन्ध' प्रतीत होती हैं, और कुछ 'दुर्गन्ध'। जबकि 'अकायम्' ईश्वर को अपने लिए न कुछ 'सुगन्ध' है, और न ही 'दुर्गन्ध'। वह जगत् का अभोक्ता है - साक्षी मात्र - केवल द्रष्टा - 'अनश्नन् = न भोक्ता हुआ (ऋग्० १/१६४/२०)'। वह न सुगन्ध का भोग, अनुभव या अनुभूति करता है, न ही दुर्गन्ध का। ये सुगन्ध-दुर्गन्ध तो हम जीवों के भोग के लिए हैं। ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी होने से प्रकृति, पृथिवी एवं इन द्रव्यों के समस्त गुणों का पूर्ण ज्ञान रखता है परन्तु ज्ञान होते हुए भी वह गन्ध का भोग कदापि नहीं करता है - अभोक्ता होने से। शास्त्रों में कहा गया है कि ईश्वर निराकार (अशरीरी) होते हुए भी देखता है, सुनता है (अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः -श्वेता० ३/१९)। अतः हम जीव जिन गन्धादि प्राकृतिक गुणों का ज्ञान अथवा भोग इन्द्रियों के माध्यम से करते हैं, उन सभी गुणों का ज्ञान ईश्वर बिना किसी इन्द्रिय कर लेता है। परन्तु केवल ज्ञान, भोग नहीं - सर्वज्ञ और अभोक्ता होने से।

वेदोक्त ईश्वर के सर्वशक्तिमान् होने में प्रमाण-
सर्वशक्तिमान् का अर्थ यह नहीं कि ईश्वर कुछ भी कर सकता है? क्या वह कुरानोक्त अल्लाह की भांति लालची, धोखेबाज, मूर्ख, खूनी, दुःखी हो सकता है? नहीं। इससे तो ईश्वर किसी पापी के तुल्य कहलाएगा। सर्वशक्तिमान् का अर्थ है कि वह अपने कार्य बिना किसी की सहायता पूर्ण कर सकता है। ऋग्वेद ने उसे सर्वशक्तिमान् बतलाते हुए कहा है-

"दबाने की इच्छा रखने वाले उसे दबा नहीं सकते। लोगों से द्रोह करने वाले उसका द्रोह करके कुछ बिगाड़ नहीं सकते तथा न उस देव के सामने अभिमानी अभिमान कर सकते हैं।" -ऋग्० १/२५/१४

उपनिषद् भी वीणानिनाद करता हुआ उसकी सर्वशक्तिमत्ता की उद्घोषणा करती है-
एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि! सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठत:।
एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि! द्यावापृथिव्यौ विधृते तिष्ठत:।। -बृहदारण्यक० ३/८/९
अर्थात्- हे गार्गी! इस अविनाशी परमात्मा के ही शासन में चन्द्रादि लोक तथा द्युलोक और भूमि स्थित है। यदि वह शासक इनका सम्भालने वाला न हो तो ये लोक लोकान्तर नष्ट-भ्रष्ट हो जाएं।

अब रही बात अल्लाह की! तो उसकी सर्वशक्तिमत्ता की धज्जियां तो हम पूर्व ही उड़ा चुके हैं। अब उसकी सर्वज्ञता पर प्रकाश डालते हैं। कुरान में अल्लाह को अनेकों जगह सबकुछ जाननेवाला अर्थात् सर्वज्ञ घोषित किया गया है (२/७७,१८१,२२७, ३/१२१, ८/५३, २२/६१ आदि)। परन्तु इसी कुरान में अल्लाह की सर्वज्ञता प्रश्नचिन्हों को दावत देती है-

१. खुदा ने बताया गरज उन्होंने गाय हलाल की हालांकि उनसे उम्मीद न थी कि वह ऐसा करेंगे। -२/७१
समीक्षा- अरबी खुदा को उम्मीद न थी कि वे लोग गाय हलाल करेंगे। अब बताइये, कहां गई अल्लाह की सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता? खुदा ने अपनी सर्वज्ञता का स्वयं खण्डन करके स्वयं को अल्पज्ञ घोषित कर दिया।

२. अब खुदा ने तुम पर से अपने हुक्म का (बोझ) हल्का कर दिया और उसने देखा कि तुममें कमजोरी है तो अगर तुम में से जमे रहने वाले सौ होंगे तो दो सौ पर ज्यादा ताकतवर रहेंगे और अगर तुम में से हजार होंगे खुदा के हुक्म से वह दो हजार पर ज्यादा ताकतवर बैठेंगे। अल्लाह उन लोगों का साथी है जो जमे रहते हैं। -८/६६
समीक्षा- यह खुदा की कैसी सर्वज्ञता है कि वह मुसलमानों की ताकत का भी सही अन्दाजा नहीं लगा सका?

३. और ऐ पैग़म्बर! जिस क़िबले पर तुम थे हमने उसको इसी मतलब से ठहराया था ताकि हमको मालूम हो जावे कि कौन-कौन पैग़म्बर के आधीन रहेगा और कौन उल्टा फिरेगा। -२/१४३
समीक्षा- अरबी खुदा इसमें साफ-साफ कहता है कि वह यह नहीं जान पाया था कि कौन-कौन व्यक्ति पैग़म्बर के आधीन रहेगा और कौन खिलाफ रहेगा? यह बात खुदा जांच करने के बाद ही जान पाया था।

अब्दुल्लाहजी के अवतारवाद का खण्डन हो गया। इसके खण्डन के लिए एक मौलवी तो क्या इनके सरीखे लक्षों मौलवी क्यों न जान लड़ावें लेकिन उक्त प्रमाणों का खण्डन नहीं कर सकते। महर्षि मनु ने सत्य को सर्वोपरि मानते हुए क्या खूब कहा है- "सत्य से बढ़कर कोई धर्म और असत्य से बढ़कर कोई पाप नहीं है (मनु० ८/८२)।"

।।ओ३म्।।

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