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Showing posts from June, 2019

आर्य धर्म विश्वव्यापी धर्म बनेगा- राजर्षि शाहू महाराज का ऐतिहासिक भाषण

आर्य धर्म विश्वव्यापी धर्म बनेगा। 【राजर्षि शाहू महाराज का ऐतिहासिक भाषण】 हिन्दी अनुवाद [मूल मराठी से]- सौ० दिपाली बाजीराव शिंदे संपादक- डॉ विवेक आर्य, प्रियांशु सेठ दि० 8 मार्च 1920 को सौराष्ट्र के भावनगर में अखिल भारतीय आर्यसभा (आर्यसमाज) की परिषद हुई। इस सभा के प्रमुख अतिथि राजर्षि शाहू महाराज[i] ने भाषण किया। महाराज ने भाषण में स्वामी दयानंदजी के जीवन कार्य बताकर उन्होंने दिखाया हुवा वैदिक धर्म ही देश को जागृत कर सकता है, ऐसा विश्वास प्रकट किया। इस कारण वैदिक धर्म को अधिक महत्व है। इस वैदिक धर्म का मैंने स्वीकार किया ऐसे उन्होंने जाहिर किया था। स्वामी दयानंद जी का बताया हुआ यह धर्म विश्वव्यापी बनेगा ऐसा आशीर्वाद उन्होंने प्रकट किया। सज्जनो, हम थोड़ा भारतवर्ष के इतिहास पर नजर डालते हैं। हजार वर्ष पूर्व के भारतवर्ष और आज के भारतवर्ष में जमीन और आसमान का अंतर है। आज पराक्रम, ज्ञान, धर्मशिलता, उदारता सद्गुण लुप्त हो गये हैं। हजारों कुसंस्कार और रूढी परंपराओं से भरा हुवा भारतवर्ष देखकर आश्चर्य नहीं होता। बालविवाह, बहुविवाह, मद्यपान, स्त्रियों को शिक्षा पर पाबंदी, वर्णश्रम ध

वेद, वैदिक और भारतीय ज्योतिष साहित्य में पृथ्वी

वेद, वैदिक और भारतीय ज्योतिष साहित्य में पृथ्वी -डॉ० ब्रजमोहन जावलिया प्रस्तुत लेख में ब्रह्माण्ड में अनेक पृथिवियों, पृथ्वी के गोल होने, पृथ्वी की गति, ऊपरी आवरण और गर्भ, आकर्षण-शक्ति, मूल तथा पृथ्वी पर समुद्र और हिन्दुओं के विभिन्न ग्रन्थों (शास्त्रों) में वर्णित वनस्पति के विषय में लेखन का प्रयास किया गया है। अथर्ववेद (८/९/१) में 'कतमस्या पृथिव्या:' में हमें इस विराट नभोमण्डल में उक्त छन्दांश से ज्ञात होता है कि ब्रह्माण्ड में अनेक पृथ्वीलोक हैं। साथ ही यह भी कहा गया है कि 'कालोऽमूंदिवमजनयत्काल इमा: पृथिवीरुत' और काल ने इस ब्रह्माण्ड के सूर्य और टिमटिमाते तारों के विधान ने इन्हें जन्म दिया है। यहां यह स्पष्ट है कि इस ब्रह्माण्ड में अनेक पृथ्वीलोक हैं। अथर्ववेद (२०/८१/१ तथा १३/२०) में तथा ऋग्वेद (८/७०/५) में यही तथ्य दुहराया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि जिस पृथ्वी पर हम निवास कर रहे हैं वही नहीं इस नभमण्डल में ऐसी अनेक पृथिवियां हैं। पृथ्वी गोल है- दूसरी जानकारी जो हमें मिलती है वह है कि पृथ्वी गोलाकार है। हमें जो सूर्य, ग्रह, नक्षत्र

श्रम से उपार्जित खावें, अकेले न खावें

श्रम से उपार्जित खावें, अकेले न खावें -पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता: सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी।। (ऋग्वेद १०/११७/६, तैत्तिरीय ब्राह्मण २८/८/३, निरुक्त ७/३) अन्वय :- अप्रचेता: मोघं अन्नं विन्दते। स तस्य वध इत्। स आर्यमरणं न पुष्यति। न स सखायां पुष्यति। केवलादी केवलाघ: भवति। इति अहं सत्यं ब्रवीमि।। अर्थ- (अप्रचेता:) बुद्धि शून्य अर्थात् मूर्ख आदमी (मोघ अन्नं) मुफ्त का भोजन, बिना कमाया हुआ भोजन (विन्दते) पाने का यत्न करता है अर्थात् अपने भोजन के लिए कुछ करना नहीं चाहता। (स) उसका ऐसा व्यापार (तस्य) उसके (वधइत्) नाश का ही कारण है। (केवलादी) जो अकेला खाने वाला है वह (केवलाघ:) केवल पाप का भागी (भवति) होता है। (सत्यं ब्रवीमि) मैं सत्य कहता हूं अर्थात् इस कथन के सच होने में किंचन मात्र भी सन्देह नहीं है। व्याख्या :- जीवन के दो बड़े विभाग हैं। एक भोग और दूसरा कर्म। प्रश्न यह है कि इन दोनों का महत्व समान है अथवा एक गौण है और दूसरा मुख्य। यदि ऐसा है तो मुख कौन है और गौण कौन है? तुलसीदास का कहना है कि-

वैदिक अङ्गिरस ऋषि

वैदिक अङ्गिरस ऋषि -आचार्य रामनाथ वेदालंकार इन्द्रेण युजा निःसृजन्त वाघतो व्रजं गोमन्तमश्विनम्। सहस्त्रं मे ददतो अष्टकण्र्य: श्रवो देवेष्वक्रत।। -ऋ० १०/६२/७ "राष्ट्रयज्ञ के ऋत्विज् मेधावी वे अङ्गिरस ऋषिगण राष्ट्रयज्ञ के ब्रह्मा राजा (इन्द्र) को सहायक पाकर पणियों द्वारा कैद किये हुए गौओं और अश्वों के समूह को छुड़ा लाते हैं तथा अष्टकर्णी गौएँ जनता को प्रदान कर देते हैं। इस प्रकार देवजनों में वे कीर्ति को प्राप्त करते हैं।" जब राष्ट्र गो-हीन और अश्वहीन हो जाता है, शत्रुओं द्वारा उसकी सम्पत्ति अपहृत कर ली जाती है, तब अङ्गिरस् ऋषि ही उस सम्पत्ति को वापिस लाते हैं। उदाहरणार्थ, अपने ही देश को लें। यहां किसी समय दुधारू गौएँ होती थीं, घी-दूध-दही की इस देश में नदियां बहती थीं। आज अच्छी नस्ल की गौएँ दुर्लभ हैं। किसी समय हवा से बातें करने वाले, सधे हुए, उत्कृष्ट कोटि के घोड़े होते थे। आज वैसे घोड़े भी दुर्लभ हैं। देश के अङ्गिरस् ऋषियों के गोरक्षा और पशुरक्षा क अभियान से ही देश अपनी पुरानी स्थिति को पा सकता है, किन्तु देश के इन्द्र, अर्थात् राजा या सरकार का साहाय्य मि

देवों का वैद्य - अश्विनी कुमार

देवों का वैद्य - अश्विनी कुमार प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ (वाराणसी) देवों के वैद्य अश्विनी कुमारों ने च्यवन (वृद्ध) को युवा बना दिया। अश्विनी कुमारों का नाम नासत्यौ भी है। निरुक्तकार महर्षि यास्क लिखते हैं- "नासिकाप्रभवौ बभूवतुरिति वा।" -निरु० ६/१३ अर्थात् जो नासिका से पैदा हुए हैं। प्राण और अपान की उत्पत्ति नासिका से है। ये प्राण और अपान देवों के चिकित्सक हैं। इन प्राण और अपान को वेदों में नासत्यौ और अश्विनी कहा है। देवों का अर्थ इन्द्रिय है। प्रत्यौहतामश्विना मृत्युमस्मद्देवानामग्ने भिषजा शचीभि:।। -अथर्व० ७/५३/१ अर्थात्- हे (अग्ने) हे परमात्मन् (देवानां) इन्द्रियों के (भिषजा) चिकित्सक (अश्विना) प्राण और अपान (अस्मत्) हमसे (मृत्युम्) मौत को (शचीभि:) अपनी क्रियाओं से (प्रत्यौहताम्) दूर कर देवें। अश्विनी कुमारों के बारे में सायण ने लिखा है- च्यवानं च्यवनमृषिं जीर्णं पुनः युवानं यौवनोपेतं चक्रथु: कृतवन्तौ।।  -ऋ० १/११८/६ (सायण भाष्य) अर्थात्- अश्विनी कुमारों ने युवावस्था से ढलते हुए वृद्ध च्यवन को फिर से युवा बना दिया। वे अश्विनी कुमार प्राण और

महर्षि दयानन्द जी सरस्वती का शूद्रों के साथ महान उपकार

महर्षि दयानन्द जी सरस्वती का शूद्रों के साथ महान उपकार लेखक- डॉ० शिवपूजनसिंह कुशवाहा प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ महर्षि दयानन्द जी सरस्वती के प्रादुर्भाव के पूर्व शूद्रों, अछूतों व स्त्रियों के साथ अमानवता का व्यवहार किया जाता था। इनको समानाधिकार नहीं था। वेद-शास्त्रों के श्रवण करने तथा अध्ययन करने का प्रबल निषेध था। तत्कालीन सम्प्रदायप्रवर्तकों के इनके प्रति निम्नलिखित कठोर आदेश थे- 'श्रवणाध्ययनार्थप्रतिषेधात् स्मृतेश्च।' (वेदान्तदर्शन अ० १, पा० ३, सू० ३८) आद्य श्री स्वामी शंकराचार्य जी महाराज का भाष्य- "इतश्च न शूद्रस्थाऽधिकार: यदस्य स्मृते: श्रवणाध्ययनार्थप्रतिषेधो भवति, वेदश्रवणप्रतिषेधो वेदाध्ययनप्रतिषेधस्तदर्थज्ञानानुष्ठीनयोश्च प्रतिषेध: शूद्रस्य स्मर्यते। श्रवणप्रतिषेधस्तावत् - अथास्य वेदमुपश्रृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूरणम् इति। पद्यु ह वा एतच्छ्मशानं यच्छूद्रसस्तस्माच्छूद्रसमीपे नाध्येतव्यम् इति च। अतएवाऽध्ययनप्रतिषेध:। यस्य हि समीपेऽपि नाऽध्येतव्यं भवति, स कथमश्रृतमधीयीत। भवति च वेदोच्चारणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेद इति। अतएव चाऽर्थादर्थज्ञाना

सत्संग महिमा

सत्संग महिमा कु० रविता आर्या सुपुत्री श्री ओ३म् आर्य सत्संग-सतां संग: सत्संग:, सद्मिर्वा संग: अर्थात् सज्जन पुरुषों का या सज्जन पुरुषों से संग-समागम करना चाहिए। उनके मनोहर उपदेश सुनना और उन पर आचरण कर ब्रह्मचर्यादि उत्तम व्रतों का पालन करना चाहिए। हमारे शास्त्र सत्संग की महिमा से भरे पड़े हैं। सज्जनों का संग करने से हमारे जीवन में पवित्रता आएगी, जिससे हम अपने वास्तविक उद्देश्य की ओर अग्रसर हो सकेंगे। सत्संग की महिमा अपार है। किसी कवि ने कितना सुन्दर कहा है- चन्दनं शीतलं लोके चन्दनादपि चन्द्रमा:। चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगति:।। अर्थात् संसार में चन्दन को शीतल माना जाता है। चन्द्रमा की सौम्य किरणें तो उसको भी अधिक शीतलतर है। किन्तु चन्दन और चन्द्रमा से भी अधिक शीतलतम साधु-संगति=साधु महात्माओं का सत्संग है। अथर्ववेद में उत्तम और अधम पुरुषों के संग का वर्णन करते हुए बतलाया है- दूरे पूर्णेन वसति दूरे ऊनेन हीयते। महद्यक्षं भुवनस्य मध्ये तस्मै बलि राष्ट्रभृतो भरन्ति।। अर्थात् उत्तम के साथ रहने से (दूरे वसति) सामान्य जनों से दूर रहता है। (ऊनेन) हीन