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Showing posts from 2021

क्या स्वामी दयानन्द कृत संस्कार विधि फलित ज्योतिष पर आधारित है?

भ्रमोच्छेदन संस्कार विधि पर ज्योतिषाचार्य श्री कृष्ण चन्द्र शास्त्री का गर्हित आक्षेप [क्या स्वामी दयानन्द कृत संस्कार विधि फलित ज्योतिष पर आधारित है?] प्रियांशु सेठ (वाराणसी) सोशल मीडिया के माध्यम से पौराणिक ज्योतिषाचार्य श्री कृष्ण चन्द्र शास्त्री का "ज्योतिष और आर्यसमाज" नामक शीर्षक से एक लेख प्राप्त हुआ है। इसमें शास्त्रीजी ने स्वामी दयानन्द के प्रसिद्ध ग्रन्थ संस्कार विधि से कुछ सन्दर्भ उठाकर यह सिद्ध करने की कुचेष्टा की है कि स्वामी दयानन्दजी को अपने ग्रन्थ में फलित ज्योतिष अभीष्ट है। उन्होंने कहीं फलित ज्योतिष का खण्डन नहीं किया है। शास्त्रीजी ने यदि सत्यार्थप्रकाश ही ठीक से पढ़ लिया होता तो वह ऐसे आक्षेप कदापि न करते। स्वामी दयानन्द ज्योतिष को खगोलीय घटना, ग्रहों का विज्ञान, मौसमी विज्ञान, संवत्सर गणना, रश्मियों का प्रभाव, ऋतु परिवर्तन आदि की गणना करने वाला विज्ञान मानते थे। उन्होंने अपने कालजयी ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में स्पष्टतः फलित ज्योतिष पर प्रहार किया है। मगर ज्योतिष को फलित रूप देकर जनसामान्य को लूटने वाले लुटेरों को ढपोरशंख की भांति बजने का अभ्यास ह

अष्टाङ्ग योग का उद्देश्य

अष्टाङ्ग योग का उद्देश्य -प्रियांशु सेठ (वाराणसी) मनुष्य जीवन दो उद्देश्यों से बंधा है- श्रेय: (धर्म-मार्ग) और प्रेय: (भोग-मार्ग)। भोगवादी मनुष्य प्रेय: को अपने जीवन का उद्देश्य चुनकर सदैव क्षणिक सुख के पीछे भटकता रहता है, जबकि ब्रह्मवादी मनुष्य श्रेय: को अपने जीवन का उद्देश्य चुनकर दीर्घकालिक सुख की प्राप्ति में तपोरत रहता है। यह दीर्घकालिक सुख आत्मा का सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा से मेल होना है। भोग से दीर्घकालिक सुख की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती क्योंकि यह अविद्या और दुःखादि दोषों से लिप्त है। दर्शनकारों ने तीन प्रकार के दुःखों (आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक) से सर्वथा छूट जाना जीवात्मा का अन्तिम लक्ष्य बताया है। इस अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचने की कुञ्जी ही "योग" है। दार्शनिक जगत् में योग को सर्वमहत्त्वपूर्ण और प्रधान स्थान प्राप्त है। योग शब्द की निष्पत्ति युज् धातु से घञ् प्रत्यय से करण और भावार्थ में हुई है। व्याकरणाचार्य्य महर्षि पाणिनी ने गण पाठ में युज् धातु तीन प्रकार से प्रयोग में लायी हैं- "युज् समाधौ" (दिवादिगणीय) - समाधि, "युजिर योगे&q

मैं आर्यसमाजी कैसे बना?

मैं आर्य समाजी कैसे बना? -श्रीयुत नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ मेरा संक्षेप से यही उत्तर है कि मैं जन्म का आर्यसमाजी हूँ। क्योंकि जब हमारे पूज्य पिता स्वर्गीय पं० श्री निवास राव जी राव महोदय आर्य सामाजिक विचार के हुए थे, तब हमारा जन्म भी नहीं हुआ था। हमारे पिता जी बम्बई पुलिस फोर्स में एक बड़े अफसर थे। उनके दौरे की सीमा बम्बई से दक्षिण में रायपुर तक और उत्तर में अजमेर तक थी। वे प्राय: डाकुओं की देख भाल में रहते थे, इस दशा में कभी किसी अवसर पर जब वे उत्तर भारत में आये हुए थे, तब ठीक नहीं कह सकता, किस स्थान पर, किन्तु जयपुर अथवा अजमेर का अनुमान किया जा सकता है, स्वर्गीय पं० लेखराम जी आर्य मुसाफिर से भेंट हो गई थी। तभी से उनके विचार परिवर्तित हो गये। तभी से हमारे घर में आर्य समाज का प्रवेश समझिये। वैसे तो हमारे पिता जी कट्टर पौराणिक थे। सबसे बड़े भाई नारायण राव और उनके छोटे भाई भीम राव के यज्ञोपवीत संस्कार में ५०००) रुपया लगाया था और उस उत्सव में वैश्या नृत्य भी कराया था। पं० लेखराम जी से भेंट होने के पश्चात् हमारे पिता के विचारों में बहुत परिवर्तन हुआ। परन्तु हमारी माता श्रीमती कृ

ज्योतिष पर पौराणिक गुटर-गूँ

ज्योतिष पर पौराणिक गुटर-गूँ -प्रियांशु सेठ (वाराणसी) प्रसिद्ध योगगुरु बाबा रामदेव ने बयान दिया कि "ज्योतिष विद्या ने क्यों नहीं कोरोना काल के बारे में पहले जानकारी दी। सारे मुहूर्त भगवान ने बना रखे हैं। ज्योतिषी काल, घड़ी, मुहूर्त के नाम पर बहकाते रहते हैं। बैठे-बैठे ही किस्मत बनाते हैं। किसी ज्योतिष ने यह नहीं बताया कि कोरोना आने वाला है।..." बाबा रामदेव के इस बयान से पौराणिक मण्डल में खलबली मच गई। एक ओर वैदिक एजुकेशनल रिसर्च सोसायटी के संस्थापक पं० शिवपूजन शास्त्री ने बाबा रामदेव को शास्त्रार्थ की चुनौती दे दी। दूसरी ओर काशी विद्वत परिषद के महामन्त्री डॉ० रामनारायण द्विवेदी ने कहा कि बाबा रामदेव अनर्गल बयानबाजी कर रहे हैं। दरअसल पौराणिक मण्डल ने कभी ज्योतिष के यथार्थ स्वरूप को समझा ही नहीं। अनार्ष ग्रन्थों को पढ़कर उसने फलित ज्योतिष की भ्रामक अवधारणाओं को स्थापित किया और पूरे मनुष्य समाज को कर्महीन तथा फल मात्र का उपासक बना दिया। आधुनिक युग के सुविख्यात समाज सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ "सत्यार्थप्रकाश" में फलित ज्योतिष पर कुछ ऐस

मैं आर्यसमाजी कैसे बना?

मैं आर्य समाजी कैसे बना? -श्रीयुत ला० रामप्रसाद जी बी०ए० मेरा आर्य समाजी होने पारिवारिक प्रभाव का पुण्य संस्कार है। मेरे स्वर्गीय भ्राता बाबू मदन सिंह जी आर्यसमाज लाहौर तथा आर्य प्रतिनिधि सभा के मन्त्री थे। जब डी०ए०वी० कालिज की स्थापना हुई तो इसके मन्त्री भी ये हो बने इस कारण हमारे गृह पर सामाजिक नेताओं का आना जाना रहता था। मैं भी पास बैठा हुआ वार्तालाप सुना करता था। इस प्रकार शनै-शनै सामाजिक बातों में मेरी रुचि हो गई। मैं डी०ए०वी० हाई स्कूल का सबसे पुराना विद्यार्थी हूँ। जिस दिन स्कूल खुला था मैं भी उसी दिन प्रविष्ट हो गया था। श्री लाला छबीलदास जी रईस हिसार का शुभ नाम पहला था, मेरा सातवां था। क्योंकि प्रारम्भ से मैंने डी०ए०वी० स्कूल में शिक्षा ग्रहण की इसलिए इस शिक्षा का भी मेरे जीवन पर प्रभाव पड़ा। भाई मदनसिंह जी के प्रभाव से हमारा पारिवारिक धर्म ही वैदिक धर्म हो गया था। इसलिए हमारा सामाजिक बनना स्वाभाविक था। मेरे पिता जी बड़े धर्मनिष्ठ थे परन्तु चूंकि उन दिनों में समाज का प्रारम्भ ही था इसलिए वे वैष्णव धर्म के अनुयायी थे। मैं चूंकि लाहौर में अपने भाई के पास रहा करता था इसल

मैं आर्यसमाजी कैसे बना?

मैं आर्य समाजी कैसे बना? -राज्यरत्न श्री मास्टर आत्माराम जी अमृतसरी जब मैं अमृतसर के राजकीय हाई स्कूल में मैट्रिक में शिक्षा प्राप्त करता था, उन दिनों आंग्ल-भाषा में लीथर व्रज साहब का इतिहास कण्ठ करना पड़ता था। उसमें जब मैं महमूद गजनवी के आक्रमणों का वर्णन याद किया करता था, उस समय हृदय में यह बात आती कि यदि सोमनाथ के शिवजी महाराज में बदला लेने की शक्ति होती तो वह अवश्य दुष्ट महमूद को अन्धा करके अपना चमत्कार दिखा सकते थे, पर उन्होंने कुछ न किया। अतः वह केवल पत्थर ही प्रमाणित हुआ, दिव्य शक्ति सम्पन्न नहीं। जैसा कि हम सब हिन्दू भक्त उनको मानते थे। सन् १८८६ में हमारी मैट्रिक कक्षा का एक घण्टा प्रतिदिन श्रीमान् पूज्य स्वर्गवासी पिता समान देवता स्वरूप श्री बाबू मुरलीधर साहब ड्राइंग मास्टर के पास होता था। मैं ईश्वर की कृपा से उनके विषय अर्थात् ड्राइंग, चित्रकारी आदि में अन्य सब मुसलमान और हिन्दू विद्यार्थियों से प्रथम रहा करता था। इसलिए जब वे मेरी कापी या चित्रकारी का कोई कागज देखकर नम्बर देते, या प्रशंसा करते, तब साथ ही आहिस्ता से कह देते कि- "आत्माराम तुम बड़े प्रसिद्ध रईस पर

मैं आर्यसमाजी कैसे बना?

मैं आर्य समाजी कैसे बना? -पं० अमर सिंह जी आर्यमुसाफिर मैं आर्य समाजी कैसे बना? पुराणों को पढ़ने से। पेशावर से कलकत्ता तक लम्बी जाने वाली सड़क पर जिला बुलन्दशहर में खुरजा से नौ मील अलीगढ़ की ओर अरनियां नामक एक छोटा सा ग्राम है, उसमें हमारा जन्म हुआ। हमारे पिता ठाकुर टीकम सिंह जी ने अनूपशहर जिला बुलन्दशहर में गंगा स्नान के पर्व के अवसर पर महर्षि दयानन्द जी महाराज को व्याख्यान देते हुए देखा। कुछ गुण्डों ने महर्षि के ऊपर झोली में भरकर धूल फेंकी। महर्षि के भक्त राजपूतों ने उनको पकड़ कर मारना पीटना चाहा। महर्षि ने कहा, "ये बच्चे हैं, मारो मत।" राजपूतों ने कहा, "महाराज ये सब दाढ़ी मूँछों वाले जवान और बूढ़े बूढ़े भी हैं, बच्चे नहीं हैं, हम इनको दण्ड देंगे।" ऋषिवर ने कहा, "चाहे बूढ़े हों, कम समझ होने से बालक ही हैं, इसलिए कदापि मत मारो।" पिताजी ने ये शब्द अपने कानों से सुने, पर स्वामी जी का उपदेश नहीं सुना था। उन्होंने लोगों से पूछा, "यह स्वामी कौन हैं और क्या प्रचार करते हैं?" तो कई लोगों ने कहा कि यह स्वामी दयानन्द हैं और ईसाइयों का प्रचार करते हैं,

मैं आर्यसमाजी कैसे बना?

मैं आर्य समाजी कैसे बना? -श्री पं० ठाकुरदत्त जी शर्मा मैं एक छोटे से ग्राम फतहवाल में उत्पन्न हुआ। बलहडवाल में प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की। वहां मौलवी इब्राहीम साहब बड़े सज्जन अध्यापक थे। अपने सम्प्रदाय के बड़े भक्त थे। वे हिन्दुधर्म के व्रत और कृष्णलीला आदि की निन्दा करते और "रोजा" आदि की प्रशंसा किया करते थे। मेरे हृदय पर इन बातों का प्रभाव पड़ा। जब एक बार घर में मुझ से दुर्गाष्टमी का व्रत रखने के लिए कहा गया तो मैंने कहा दिया था कि दिन भर आहार न करूँगा। यह क्या व्रत है कि व्रत का नाम रखकर उत्तम उत्तम पदार्थों से पेट भर लिया जाय। उस समय यह विचार न था कि इस विचार से रोजा भी लाभदायक नहीं, क्योंकि दो बार दिन को न खाकर रात्रि को खा लिया। इसमें कमी तो कुछ भी नहीं हुई। कुछ समय पश्चात् मैं हिन्दुसभा हाई स्कूल अमृतसर में पढ़ने के लिए आया। श्रीमान् मास्टर आत्माराम जी अमृतसरी हमें इतिहास पढ़ाया करते थे। जब इतिहास में यह वर्णन आया कि पुराने आर्य लोग गडरियों की भांति रहते थे। मांस सेवन करते थे। तब उन्होंने कहा कि ये बातें अशुद्ध हैं। वास्तव में वह युग इस समय से अच्छा था। फिर जब

ईश्वर का स्वरूप

ईश्वर का स्वरूप [ईश्वर के स्वरूप को लेखनीबद्ध करना सागर से जल को खाली करने के तुल्य है। मनुष्य ईश्वर की अनुभूति तो कर सकता है लेकिन उसके समस्त गुणों को लेखनीबद्ध करना मनुष्य के सामर्थ्य से बाहर है। ईश्वर अनन्त गुणोंवाला है। हम लेखनी के माध्यम से उसके स्वरूप के कुछ भाग का ही वर्णन कर सकते हैं। ईश्वर के स्वरूप को परिभाषित करते हुए आर्यसमाज के अद्वितीय विद्वान् 'शास्त्रार्थ महारथी श्री पण्डित शान्तिप्रकाश जी' ने एक बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख लिखा था। यह लेख 'आर्योदय' के श्रावणी माह, विक्रम संवत् २०२१ के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस लेख की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किया जा रहा है। -प्रियांशु सेठ] (१) ईश्वरीय सत्ता सर्वमान्य है। नास्तिक भी उसके संचालित नियमों का उल्लंघन नहीं कर पाते। ईश्वर नियामक होने से यम कहलाता है। यम का दूत मृत्यु है- मृत्युर्यमस्यासी द् दूत: प्रचेत:। चेताने वाला मृत्यु, यम नाम के नियामक परमेश्वर का दूत है। जो सर्वत्र मनुष्य और चौपाए पर छाया हुआ है। मृत्युरी द्वि पदां चतुष्पदाम्। मृत्यु दो पाऊं और चार पाऊं वाले सभी

प्रतिवादी-भयंकर व्याख्यान-वाचस्पति श्री पं० गणपति शर्मा - एक संस्मरण

प्रतिवादी-भयंकर व्याख्यान-वाचस्पति श्री पं० गणपति शर्मा - एक संस्मरण लेखक- स्व० श्री पं० नरदेव जी शास्त्री वेदतीर्थ [स्व० श्री पण्डित गणपति शर्मा आर्यजगत् में अवतीर्ण शास्त्रार्थ कला के अतुल्य महारथी और व्याख्यान-वाचस्पति जाने जाते हैं। शास्त्रार्थ में आपके शास्त्रीय प्रणिनाद से विपक्षी घुटने टेक देते थे। आपने वैदिक धर्म के ध्वज की गरिमा को अपनी प्रौढ़ विद्वत्ता से जनमानस के हृदय में प्रतिष्ठित कर दिया था। दुबले-पतले होने के बावजूद ओजस्विनी भाषा में लगभग ५ घण्टे धाराप्रवाह व्याख्यान देना आपकी अद्भुत कला थी। आपका जन्म राजस्थान के चूरू नगर में सं० १९३० वि० में पण्डित भानीरामजी वैद्य नामक ब्राह्मण के घर हुआ था। २२ वर्ष की अल्पायु में ही आप काव्य और व्याकरण दर्शन साहित्य आदि विविध विषयों के तलस्पर्शी प्रगल्भ विद्वान् बन गये। महर्षि दयानन्द के समकालीन वैदिक धर्म के प्रचारक रामगढ़ शेखावटी निवासी ब्र० पं० कालूराम जी योगी ने आपको वैदिक धर्म में दीक्षित किया था। कतिपय वर्षों तक आपने काशी तथा कानपुर में रहकर अध्ययन किया था। आपकी विद्वता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि तार्किकशिरोम

वैदिक काल में तोप व बन्दूक

वैदिक काल में तोप व बन्दूक लेखक- वैदिक गवेषक आचार्य शिवपूजनसिंहजी कुशवाहा 'पथिक', विद्यावाचस्पति, साहित्यालंकार, सिद्धान्तवाचस्पति प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ वैदिक काल में आर्यों की सभ्यता अत्यन्त उन्नति के शिखर पर थी। वेदों में सम्पूर्ण विज्ञानों का मूल प्राप्त होता है। वैदिक काल में 'तोप' व 'बन्दूक' का प्रचार था कि नहीं? देखिये इस विषय में महर्षि दयानन्द जी महाराज स्पष्ट रूप में लिखते हैं कि- प्रश्न- जो आग्नेयास्त्र आदि विद्याएं लिखी हैं वे सत्य हैं वा नहीं? और तोप तथा बन्दूक तो उस समय में थी या नहीं? उत्तर- यह बात सही है, ये शस्त्र भी थे क्योंकि पदार्थ विद्या से इन सब बातों का सम्भव है। पुनः- 'तोप' और 'बन्दूक' के नाम अन्य देशभाषा के हैं। संस्कृत और आर्यावर्त्तीय भाषा के नहीं, किन्तु जिसको विदेशीजन तोप कहते हैं संस्कृत और भाषा में उसका नाम 'शतघ्नी' और जिसको बन्दूक कहते हैं उसको संस्कृत और आर्यभाषा में 'भुशुण्डी' कहते हैं। इसकी पुष्टि स्वयं महर्षि दयानन्द जी महाराज वेद मन्त्र के द्वारा स्वयं इस प्रकार करते हैं। यथा- स्थ

क्या सांख्यकार कपिल मुनि अनीश्वरवादी थे?

क्या सांख्यकार कपिल मुनि अनीश्वरवादी थे? लेखक- स्वामी धर्मानन्द प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ माननीय डॉ० अम्बेदकरजी से गत २७ फर्वरी को मेरी जब उनकी कोठी पर बातचीत हुई तो उन्होंने यह भी कहा कि सांख्यदर्शन में ईश्वरवाद का खण्डन किया गया है। यही बात अन्य भी अनेक लेखकों ने लिखी है किन्तु वस्तुतः यह अशुद्ध है। सांख्य दर्शन में ईश्वर के सृष्टि के उपादान कारणत्व का निम्न सूत्रों द्वारा खण्डन किया गया है उसका यह अर्थ समझ लेना कि यह ईश्वरवाद मात्र का खण्डन है, अशुद्ध है। उदाहरणार्थ निम्न सूत्रों को देखिए- तद्योगेऽपि न नित्य मुक्त:।। सांख्य ५/७ अर्थात् यदि ईश्वर को इस सृष्टि का उपादान कारण माना जाएगा तो ईश्वर नित्य मुक्त नहीं समझा जाएगा, क्योंकि उपादान कारण मानने से उसमें रागादि की प्रवृत्ति माननी पड़ेगी जो नित्य मुक्त में नहीं हो सकती। प्रधान शक्ति योगाच्चेत् संगापत्ति:।। सांख्य ५/८ अर्थात् यदि ईश्वर और प्रकृति की शक्ति का योग मान लिया जाए तो संग की प्राप्ति से अन्योन्याश्रय होगा। ईश्वर को किसी आश्रय की आवश्यकता नहीं। सत्तामात्राच्चेत् सर्वैश्वर्यम्।। सांख्य ५/९ अर्थात् यदि ईश्वर को इस जग