मैं आर्य समाजी कैसे बना? -श्री पं० ठाकुरदत्त जी शर्मा मैं एक छोटे से ग्राम फतहवाल में उत्पन्न हुआ। बलहडवाल में प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की। वहां मौलवी इब्राहीम साहब बड़े सज्जन अध्यापक थे। अपने सम्प्रदाय के बड़े भक्त थे। वे हिन्दुधर्म के व्रत और कृष्णलीला आदि की निन्दा करते और "रोजा" आदि की प्रशंसा किया करते थे। मेरे हृदय पर इन बातों का प्रभाव पड़ा। जब एक बार घर में मुझ से दुर्गाष्टमी का व्रत रखने के लिए कहा गया तो मैंने कहा दिया था कि दिन भर आहार न करूँगा। यह क्या व्रत है कि व्रत का नाम रखकर उत्तम उत्तम पदार्थों से पेट भर लिया जाय। उस समय यह विचार न था कि इस विचार से रोजा भी लाभदायक नहीं, क्योंकि दो बार दिन को न खाकर रात्रि को खा लिया। इसमें कमी तो कुछ भी नहीं हुई। कुछ समय पश्चात् मैं हिन्दुसभा हाई स्कूल अमृतसर में पढ़ने के लिए आया। श्रीमान् मास्टर आत्माराम जी अमृतसरी हमें इतिहास पढ़ाया करते थे। जब इतिहास में यह वर्णन आया कि पुराने आर्य लोग गडरियों की भांति रहते थे। मांस सेवन करते थे। तब उन्होंने कहा कि ये बातें अशुद्ध हैं। वास्तव में वह युग इस समय से अच्छा था। फिर जब...