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Showing posts from July, 2019

अन्धविश्वास के पोषक तुलसीदास

अन्धविश्वास के पोषक तुलसीदास लेखक- प्रियांशु सेठ हिन्दी साहित्य में तुलसीदास का नाम एक आदर्शपूर्ण पद पर अंकित है। कहा जाता है कि पुरातन परम्परा को उजागर करने में तुलसीदास ने विशेष योगदान दिया था। अपने जीवन के सम्पूर्ण अनुभवों के सहारे इकहत्तर वर्ष की अवस्था में उन्होंने ‘रामचरितमानस’ का प्रणयन किया था। रामचरितमानस को हिन्दू समाज में स्थान विशेष प्राप्त होने के कारण कालान्तर में यह 'तुलसी-रामायण' के नाम से प्रख्यात है तथा पौराणिक समाज इसे अपनी सनातन संस्कृति की छवि मानता है। इसी रामचरितमानस को रामानन्द सागर ने 'रामायण' नाम देकर अपने टीवी सीरियल में दर्शकों को रामराज्य का वर्णन दिखाया था। तुलसीदासकृत यह ग्रन्थ पुरुषोत्तम श्रीराम के समकालीन न होने के कारण प्रमाणिक तथा विश्वसनीय नहीं है, यह बात पौराणिक पण्डित जानते हुए भी इसकी प्रशंसा के पुल बांधने शुरू कर दिए। परिणामस्वरूप जन सामान्य अपनी वैदिक संस्कृति, सभ्यता व परम्पराओं से भटकती चली गई और आज अकर्मण्यता के सागर में गोते लगा रही है। नीर-क्षीर विवेकी परमहंस स्वामी दयानंद सरस्वतीजी ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ

द्रविड़ समुदाय में व्याप्त अनार्यत्व एवं हिन्दी-विरोध सम्बन्धी भ्रान्तियाँ और उनका निवारण

द्रविड़ समुदाय में व्याप्त अनार्यत्व एवं हिन्दी-विरोध सम्बन्धी भ्रान्तियाँ और उनका निवारण -डॉ० सुरेन्द्रकुमार भारतीय शिक्षा-पद्धति में सुधार, परिष्कार और समयानुकूल परिवर्तन हेतु नीति-निर्धारण के लिए भारत सरकार ने विगत समय में प्रसिद्ध वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया था। उस समिति ने अपने सुझावों का प्रारूप ३१ मई २०१९ को मानव संसाधन मन्त्रालय को सौंप दिया। समिति ने अपने प्रारूप में 'त्रिभाषा फार्मूला' को पुनः लागू करने की सिफारिश की थी, जिसके अनुसार प्रत्येक विद्यार्थी को अपनी मातृभाषा, राष्ट्रभाषा हिन्दी और अन्तर-राष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी इन तीनों भाषाओं को आरम्भ से ही पढ़ना प्रस्तावित था। यद्यपि यह विचारार्थ केवल प्रारूप था जिस पर सरकार और जनता के विचार लिए जाने थे, किन्तु दक्षिण के, विशेषतः तमिलनाडु के राजनेताओं ने त्वरित प्रभाव से इसका विरोध करना आरम्भ कर दिया। अभी विरोध का दौर शुरुआत में ही था कि वर्तमान भारत सरकार इतनी भयभीत हो गई कि उसके चार-पांच वरिष्ठ मन्त्री मीडिया के माध्यम से बचाव में आ गये और उन्होंने अप्रत्याशित रूप स

जीवन में कर्म की प्रधानता

जीवन में कर्म की प्रधानता -पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ समा:। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।। (यजुर्वेद अध्याय ४०, मन्त्र २) अन्वय :- इह कर्माणि कुर्वन् एव शतं समा: जिजीविषेत्। एवं त्वयिनरे न कर्म लिप्यते। इत: अन्यथा न अस्ति। अर्थ- (इह) इस संसार में (कर्माणि) कर्मो को (कुर्वन् एव) करते हुए ही मनुष्य (शतं समा:) सौ वर्ष तक (जिजीविषेत्) जीने की इच्छा करे। (एवं) यही एक साधन है जिसके द्वारा (त्वयि नरे) तुझ मनुष्य में कर्म लिप्त न होंगे। (इत: अन्यथा) इससे भिन्न दूसरा कोई मार्ग (न अस्ति) नहीं है। व्याख्या :-इस मन्त्र में 'कर्म' का गौरव और माहात्म्य दिखाया गया है। विस्तृत व्याख्या करने से पहले मुख्य भावना को समझने का यत्न करना चाहिए। जब एक बार भावना हृदयंगम हो जाती है तो अन्य तत्वसम्बन्धी बारीक बातें समझने में सुगमता होती है। मुख्य भावना यह है- "कर्म करो तभी कर्म के बन्धनों से छुटकारा मिलेगा।" कर्म क्या है और कर्म का बन्धन क्या है। इसके लिए एक दृष्टान्त पर विचार कीजिये। एक चोर ने चोरी की। चोरी एक कर्म था। शासन की ओ

वज्र से कठोर तथा फूलों से कोमल थे स्वामी रामेश्वरानन्द जी महाराज

वज्र से कठोर तथा फूलों से कोमल थे स्वामी रामेश्वरानन्द जी महाराज कन्हैया लाल आर्य, उपप्रधान आत्मशुद्धि आश्रम बहादुरगढ़ संस्कृत साहित्य के एक उज्ज्वल रत्न थे आचार्य भवभूति जी। इन्होंने एक उत्तम पुस्तक की रचना की है जिसका नाम है 'उत्तर राम चरितम्'। इस पुस्तक में भवभूति जी ने भगवान राम का उस समय का वर्णन किया है जब उनकी धर्मपत्नी सीता जी का अपहरण हो जाता है, उस समय भगवान् राम वहां पर वन के वृक्षों, वहां विद्यमान पक्षियों, पशुओं, वनस्पतियों, पर्वतों, नदी-नालों से भावविहल होकर सीता का पता पूछते हैं। उस समय सीता की एक सखी वासन्ती राम के इस कोमल रूप को देखकर आश्चर्य प्रकट करते हुए कहती है- वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादाये। लोकोत्तराणां चेतांसी को हि विज्ञातुमर्हति।। उत्तम पुरुषों का चरित्र वज्र से भी कठोर और फूलों से भी कोमल होता है, उसे जानने में कौन समर्थ हो सकता है? अर्थात् वासन्ती ने जिस राम के वज्र स्वरूप को देख रखा हो वह उसके कुसुम रूप को देखकर आश्चर्य व्यक्त करती है इसी प्रकार हम जब अपने चरित नायक स्वामी रामेश्वरानन्द जी महाराज के जीवन को देखते हैं तो हमें अनायास

गायत्री

गायत्री स्वामी समर्पणानन्द कर्मयोगी कहते हैं कि कर्म करो। भगवान् है या नहीं इस झगड़े में क्या मिलेगा? भक्तियोगी कहते हैं कि नाम भजते रहो। यही सबसे बड़ा कर्म है। परन्तु निरा नाम-भजन तो आलस्य और अकर्मण्यता का ही प्रच्छन्न और इसीलिये अति भयंकर रूप है। दूसरी ओर भक्तिहीन कर्म चाबीहीन घड़ी के समान है, एक बार घड़ी खड़ी हो गई तो दुबारा कौन चलाए। भक्तिहीन कर्मयोग भारी मूर्खता है। शक्ति का भण्डार तो है पर हम उससे लाभ नहीं उठाते। भगवान् भक्तों की बुद्धि को प्रेरणा देता है, परन्तु भक्त नाम आलसी और अकर्मण्य का तो नहीं। "धियो यो न: प्रचोदयात्"। हम उसका ध्यान करें जो हमारी बुद्धियों और कर्मों को प्रेरणा दे। यह भक्तियोग है। परन्तु यह प्रेरणा किसको मिलती है, क्या कर्महीन आलसियों को? कदापि नहीं। प्रेरणा उन्हें मिलती है जो निरन्तर उसे अपने अन्दर धारण करते हैं। यह कर्मयोग है। यह कर्मयोग कैसे है- प्रभु को अपने अन्दर धारण करना सर्वश्रेष्ठ कर्म है। प्रश्न उठता है कि प्रभु क्या कोई कुर्त्ता, धोती, पगड़ी एवं अंगरखा है जो धारण किया जाता है। इसका उत्तर वेद इन शब्दों में देता ह

आचरण के छिद्र

आचरण के छिद्र -डॉ० रूपचन्द्र 'दीपक' प्रधान आर्य समाज श्रृंगारनगर, लखनऊ यन्मे छिद्रं चक्षुषो हृदयस्य मनसो वातितृण्णं बृहस्पतिर्मे तद्दधातु। शं नो भवतु भुवनस्य यस्पति:। -यजुर्वेद ३६/२ पदार्थ :- (यत्) जो (में) मेरे (चक्षुष:) नेत्र की, (हृदयस्य) अन्तःकरण की (छिद्र) न्यूनता (वा) वा (मनस:) मन की (अतितृण्ण्म्) व्याकुलता है (तत्) उसको (बृहस्पति:) ईश्वर (मे) मेरे लिए (दधातु) पूर्ण करे। (य:) जो (भुवनस्य) संसार का (पति:) रक्षक है, वह (न:) हमारे लिए (शम्) कल्याणकारी (भवतु) होवे। नेत्रों के छिद्र नेत्रों के कुछ छिद्र निम्नलिखित हैं- (१) दृष्टिदोष अर्थात् ठीक से न देख पाना। (२) जिस वस्तु वा मनुष्य पर दृष्टि पड़े, उसे भीतर तक न समझ पाना। (३) किसी पर कुदृष्टि डालना। (४) नेत्रों में स्नेह का अभाव। यह बहुत बड़ी कमी है। इसे दूर करने हेतु वेद में प्रार्थना की गयी है- मित्रस्याऽहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। -यजुर्वेद ३६/१८ अर्थात् मैं सब प्राणियों को स्नेह की दृष्टि से देखूं। (५) उत त्व: पश्यन्न ददर्श वाचम्। -ऋग्वेद १०/७१/४ यदि हम नेत्रवान् होकर भी शत्र