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Showing posts from April, 2020

क्या वेदों के चार विभाग वेदव्यास ने किए?

क्या वेदों के चार विभाग वेदव्यास ने किए? लेखक- प्रियांशु सेठ प्रायः वेदों के विषय में इस भ्रांति को प्रचारित किया जाता है कि वेद पहले एक थे और द्वापरान्त उन्हें वेदव्यास द्वारा चार भागों में विभाजित किया गया। इस भ्रांति को आधार बनाकर विधर्मी हमारे पवित्र ग्रन्थ वेदों पर अनुचित आक्षेप करते हैं। जैसे, यदि वेदों का विभाजन मनुष्य द्वारा हुआ तो इससे वेदों की अपौरुषेयता पर प्रश्नचिह्न लगता है। क्या वैदिक ईश्वर का सामर्थ्य अल्प है जो वह वेदों को चार भाग में प्रकाशित न कर सका? इत्यादि। इन आक्षेपों के प्रभाव से धार्मिक जनों की वेदों के प्रति श्रद्धा न्यून हो जाती है। इस आलेख में हम विधर्मियों के आक्षेपों का सप्रमाण और युक्तियुक्त जवाब देकर वेदों की अपौरुषेयता को आलोकित करेंगे। आर्यावर्तीय मध्यकालीन ग्रन्थकारों की वेदों के विषय में धारणा रही है कि वेद पहले एक था। उसे चार भागों में बांटने वाले भगवान् वेदव्यास थे। यथा- १.  महीधर अपने यजुर्वेदभाष्य के आरम्भ में लिखता है- "तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन्मनुष्यान्विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य

जवानों! जवानी यूं ही न गंवाना

जवानों! जवानी यूं ही न गंवाना [ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करने से मनुष्य ऐश्वर्यशाली बनता है। आज नौजवान ब्रह्मचर्य के व्रत को भूलकर भोगवाद की ओर भाग रहे हैं। ब्रह्मचर्य के अभाव में मनुष्य शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति से वंचित हो रहा है। आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व० पं० बुद्धदेव विद्यालंकार जी (स्वामी समर्पणानन्द जी) का यह लेख 'आर्य गजट' हिन्दी (मासिक) के मार्च १९७४ के अंक में प्रकाशित हुआ था। ब्रह्मचर्य की शक्ति को जानने के लिए नौजवानों यह लेख अवश्य पढ़ना चाहिए। -डॉ विवेक आर्य, प्रियांशु सेठ] मूर्ख और बुद्धिमान में बड़ा अन्तर होता है। मूर्ख अच्छी बात को भी बुरा बना लेता है और बुद्धिमान बुरी चीज को भी अच्छी बना लेता है। काजल का अगर सही प्रयोग किया जाये तो आंखों में डाला हुआ सुन्दरता को चार चांद लगा देता है मगर गलत ढंग से प्रयोग किया हुआ वही काजल इधर-उधर लग जाये तो अच्छी सूरत को भी भद्दा बना देता है। एक बुद्धिमान पुरुष ने आग पर चढ़ी हुई देगची को देखा, उसने अनुभव किया कि वो पानी जो पहले चुपचाप था भाप बनकर कितना जबरदस्त बन गया है जिसने ढक्कन को धकेल कर फेंक द

ईश्वर की स्तुति कैसे करें?

ईश्वर की स्तुति कैसे करें? लेखक- श्री मनोहर विद्यालंकार सखाय: क्रतुमिच्छ्त कथा राघाम शरस्य। उपस्तुतिं भोज: सूरिर्यो अह्रय:।। -ऋक् ८/७०/१३ पुरुहन्मा ऋषि:। इन्द्र: देवता। उष्णिक् छन्द:। भूमिका- परमेश्वर के कुछ भक्तजन एकत्रित हुए। वे नित्य नियम से पूजापाठ, भजन-कीर्तन किया करते थे, किन्तु उनकी स्तुति कभी स्वीकार नहीं होती थी। उन्हें सदा यही प्रतीत होता था कि परमेश्वर उन पर न केवल प्रसन्न नहीं है, अपितु रुष्ट रहता है। उनकी समझ में नहीं आता था, कि उनकी स्तुति में क्या कमी रह जाती है, जो उनकी प्रार्थनाएं पूरी नहीं होतीं। इसके विपरीत नास्तिक जन- जो कभी सन्ध्या-पूजा नहीं करते, उन्नत और समृद्ध होते जाते हैं। जब उनकी समझ में कुछ न आया तो वे लोग, पुरुहन्मा ऋषि के पास पहुंचे, और अपने अन्दर उठ रही विचिकित्सा को दूर करने के निमित्त प्रश्न किया- "हे भगवन्! आप ही हमारी शंका का निवारण कीजिये, और बतलाइये कि हम भक्तों को दुःख देने वाले उस ऐश्वर्यशाली परमेश्वर की स्तुति कैसे करें? हम तो उसकी स्तुति करते-करते थक गए, लेकिन हमारी कुछ सुनवाई नहीं होती। हम वैसे के वैसे गरीब बने

वेदाध्ययन की आवश्यकता

वेदाध्ययन की आवश्यकता लेखक- स्वामी वेदरक्षानन्द सरस्वती प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ वेदों के अध्ययन एवं प्रचार की आज अत्यन्त आवश्यकता है। वेदों के साचार अध्ययन में ही मानव की सुख-शान्ति एवं उज्ज्वल भविष्य निहित है। परन्तु यह हो कैसे? हम वेद को दिव्य काव्य मानते हैं। हम वेद को सत्यविद्याओं की पुस्तक स्वीकारते हैं कि वैदिकधर्म ही सार्वभौम धर्म है। किन्तु इस मान्यता इस स्वीकारोक्ति तथा इस दावे का मूल्य क्या है? जब तक कि हम वेदों को सर्वगम्य बनाकर उन्हें मनुष्यमात्र तक नहीं पहुंचाते? भारतीय इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब तक वेद की विचारधारायें मानवों में प्रचलित रहीं, तभी तक इस देश की संस्कृति एवं सभ्यता संसार में सर्वोपरि रही। जब से वेदों का संकोच प्रारम्भ हुआ है, तभी से वेदानुयायियों के दैन्य-भावनायुक्त जीवन के प्रकरण का प्रारम्भ हुआ है। यही नहीं, शनै: शनै: वेद से हम इतने दूर होते गये कि कालान्तर में वेदों के लुप्त हो जाने तक की कल्पना कर ली गई। वर्तमान युग में वेदों का तात्पर्य इतना दुर्गम हो गया है कि उनके वास्तविक अभिप्राय की अटकले-मात्र लगाई जा रही हैं। वेद एक है औ

"लाला लाजपतराय की शिमला में स्थापित प्रतिमा" एवं "आर्य स्वराज्य सभा" का इतिहास

"लाला लाजपतराय की शिमला में स्थापित प्रतिमा" एवं "आर्य स्वराज्य सभा" का इतिहास डॉ विवेक आर्य, प्रियांशु सेठ आप सभी शिमला रिज की सैर करने जाते हैं, तो आपको लाला लाजपतराय की प्रतिमा के दर्शन होते हैं। लाला जी की प्रतिमा के नीचे लिखे पट्ट पर आपको आर्य स्वराज्य सभा द्वारा स्थापित लिखा मिलता है। यह आर्य स्वराज्य सभा क्या थी? इसकी स्थापना किसने की थी? "आर्य स्वराज्य सभा" की स्थापना - क्यों और कार्य" 1947 से पहले लाहौर आर्यसमाज का गढ़ था। आर्यसमाज के अनेक मंदिर, DAV संस्थाएं, पंडित गुरुदत्त भवन, विरजानन्द आश्रम, दयानन्द ब्रह्म विद्यालय, हज़ारों कार्यकर्ता आदि लाहौर में थे। आर्यसमाज के अनेक कार्यकर्ताओं में एक थे पंडित रामगोपाल जी शास्त्री वैद्य। आप पहले डीएवी में शिक्षक, शोध विभाग आदि में कार्यरत थे। आपने भगत सिंह को कभी नेशनल कॉलेज में पढ़ाया भी था।  कुशल और सफल चिकित्सक होने के अतिरिक्त श्री पं० रामगोपालजी शास्त्री वैद्य एक आस्थाशील दृढ़ आर्यसमाजी, ऋषि दयानन्द के अटूट भक्त और रक्त की अन्तिम बूंद तक हिन्दुत्व के सजग प्रहरी तथा अडिग राष्ट्रसेवक थे।

वेदों का दार्शनिक महत्त्व

वेदों का दार्शनिक महत्त्व लेखक- स्वामी दर्शनानन्द जी प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ प्यारे मित्रों! आप एक और भी ध्यान रखें कि जिस समय संसार में सूर्य की किरणें आनी आरम्भ होती हैं तो अन्धेरा एकदम से उड़ जाता है लेकिन दीपकों के प्रकाश से अन्धेरा बहुत कम उड़ता है और उसका प्रकाश दूर तक नहीं पहुंचता, इसलिये जिस पुस्तक से संसार की सम्पूर्ण मूर्खता नष्ट हो जाय और मनुष्यों में से द्वेष भाव हटकर एकता पैदा हो जाय वही ईश्वरकृत पुस्तक है। अब हम वेद में इन्हीं बातों की ढूंढ (खोज) करेंगे। यदि इस समय देश में देखा जाय कि कितनी बातें ऐसी हैं कि जिनके कारण मनुष्य आपस में भाई-भाई होने पर भी और बुद्धिमान् हो करके भी एक दूसरे के दुःखदाई शत्रु बन रहे हैं, जब हम भले प्रकार सोचते हैं तो ज्ञात होता है कि पहिली बात जिसने संसार को टुकड़ा-टुकड़ा किया ईश्वर के न मानने का है। जो लोग नास्तिक हैं वे ईश्वर का होना नहीं मानते। दूसरी बात ईश्वर की गणना की है अर्थात् ईश्वर एक है या अनेक? क्योंकि ईसाई तीन मानते हैं बाप, बेटा और पवित्र आत्मा। यवन एक मानते हैं। हिन्दू तीन मानते हैं, अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, शिव। जैनी २

"महर्षि दयानन्द एवं ब्रह्मचर्य"

"महर्षि दयानन्द एवं ब्रह्मचर्य" लेखक- ब्रह्मचारी इन्द्रदेव "मेधार्थी" (गुरुकुल झञ्जर) प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ समय-समय पर अनेक ऐसे लोकोत्तर महापुरुष हुये हैं जिन्होंने अपनी अद्भुत प्रतिभा एवं कर्मशीलता से संसार में मानवता की स्थापना की है। और ब्रह्मचर्य को अपने जीवन में धारण के साथ साथ लोक में भी प्रचार करने का यत्न किया है। किन्तु इस विषय में जितना उत्कर्ष महर्षि दयानन्द जी महाराज को उपलब्ध हुआ ऐसा अन्य महापुरुषों के जीवन में प्रायः नहीं दीख पड़ता। ब्रह्मचर्य के सब प्राणियों का विकास उनके जीवन में अन्तिम सीमा तक पहुंचा हुआ था। उनको हम ब्रह्मचर्य की साक्षात् साकार प्रतिमा एवं आप्त पुरुष मान सकते हैं। ब्रह्मचर्य शब्द की संसार में जितनी व्याख्याएं विद्यमान हैं, उन सबके वे आदर्श उदाहरण स्वरूप हैं। उनके इस ब्रह्मचर्य के महान् गुण को सभी विरोधी एवं प्राणघाती शत्रुओं तक ने मुक्त-कण्ठ से स्वीकार किया है। ब्रह्मचर्य का पालन सामान्य कार्य नहीं है। जिन लोगों को इस मार्ग पर चलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वही इसकी दुरूहता को अनुभव कर पाते हैं। वास्तव में यह का

Arya (Noble) Life

Arya (Noble) Life Writer- Pandit Rajaram Presented By- Priyanshu Seth Translated In English By- Gaurav Singh Time of awakening and first duty- Before sunrise that is in the dawn chant the name of Almighty God who is omnipresent, who is immortal and whose presence in incomparable with anything. That almighty has got the highest reverence. -Atharvaved 10.7.31 At the time of scattering of sunlight- Now see the scene of dawn with divine view. The divine revealings of almighty that have been described in Vedas are not only normal revelings but those show us the blessings of God, how it is showered upon us. So you look at them like that only. Divine ray of light has come from the wide spectrum of lights, this colorful ray is scattering in the sky. Like night leaves the space for dawn, similarly dawn has done it for sunlight. -Rigved 1.113.1 This has shown that an Arya should face that aspect of life that shows this type of light. These divine scenes create happiness, health