वेदों का दार्शनिक महत्त्व
लेखक- स्वामी दर्शनानन्द जी
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ
प्यारे मित्रों! आप एक और भी ध्यान रखें कि जिस समय संसार में सूर्य की किरणें आनी आरम्भ होती हैं तो अन्धेरा एकदम से उड़ जाता है लेकिन दीपकों के प्रकाश से अन्धेरा बहुत कम उड़ता है और उसका प्रकाश दूर तक नहीं पहुंचता, इसलिये जिस पुस्तक से संसार की सम्पूर्ण मूर्खता नष्ट हो जाय और मनुष्यों में से द्वेष भाव हटकर एकता पैदा हो जाय वही ईश्वरकृत पुस्तक है। अब हम वेद में इन्हीं बातों की ढूंढ (खोज) करेंगे। यदि इस समय देश में देखा जाय कि कितनी बातें ऐसी हैं कि जिनके कारण मनुष्य आपस में भाई-भाई होने पर भी और बुद्धिमान् हो करके भी एक दूसरे के दुःखदाई शत्रु बन रहे हैं, जब हम भले प्रकार सोचते हैं तो ज्ञात होता है कि पहिली बात जिसने संसार को टुकड़ा-टुकड़ा किया ईश्वर के न मानने का है। जो लोग नास्तिक हैं वे ईश्वर का होना नहीं मानते। दूसरी बात ईश्वर की गणना की है अर्थात् ईश्वर एक है या अनेक? क्योंकि ईसाई तीन मानते हैं बाप, बेटा और पवित्र आत्मा। यवन एक मानते हैं। हिन्दू तीन मानते हैं, अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, शिव। जैनी २४ मानते हैं, वरन् इससे भी अधिक, और आर्य एक मानते हैं। सारांश यह है कि इस बात में भिन्नता है।
तीसरा झगड़ा ईश्वर के स्थान का है अर्थात् ईश्वर कहाँ है? कोई सातवें आकाश पर मानता है अर्थात् यवन। ईसाई चौथे आकाश पर मानते हैं। जैनी मोक्षशिला (सिद्ध शिला) पर मानते हैं। हिन्दू वैकुण्ठ में मानते हैं। कोई क्षीर सागर में मानता है, कोई गोलोक में मानता है, शैवी कैलाश पर मानते हैं, सारांश यह कि इस बात में बड़ी-बड़ी भिन्नता विद्यमान हैं। चौथा झगड़ा इस बात का है कि ईश्वर कर्मों का फल किस प्रकार देता है? जैनी तो ईश्वर को फलदाता मानते ही नहीं। यवन कहते हैं कि "मुनकिर और नकीर" फरिश्ते कबर (समाधि) पर आकर मृतक से प्रश्न करते हैं और कयामत के दिन उनका हिसाब होता है। ईसाई भी कयामत के मानने वाले हैं। और हिन्दुओं का यह मत है कि यमदूत उसको यम लोक में ले जाते हैं। वहां चित्रगुप्त यमराज का मीर मुन्शी बही-खाता लिखता रहता है और उसके अनुसार हिसाब होकर कर्म फल दिया जाता है। तात्पर्य यह है कि इस बात में और भी बहुत-सी भिन्नतायें हैं। पांचवां झगड़ा इस बात का है कि ईश्वर ने संसार को किस वस्तु से पैदा किया। यवन कहते हैं कि अवस्तु से वस्तु को उत्पन्न किया अर्थात् 'कुन', कहते ही सब सृष्टि उत्पन्न हो गई। ईसाई भी अवस्तु से वस्तु मानने वालों के साथी हैं। जैनी तो उसकी उत्पत्ति मानते ही नहीं। हिन्दुओं में भी इस बात में बड़ी भिन्नता है। कोई तो अविद्या से जगत् की उत्पत्ति मानता है, कोई पंच भूतों से। तात्पर्य यह है कि यह बात भी झगड़े में पड़ी हुई है। छठा झगड़ा इस बात का है कि जीव और ईश्वर में भेद है या नहीं? यवन तो हमेओस्त (सर्वव्यापक) के मानने वाले हैं, हिन्दुओं में विशिष्टाद्वैत, अद्वैत, शुद्धाद्वैत इत्यादि बहुत प्रकार की भिन्नता है। सातवां झगड़ा इस बात का है कि अनादि पदार्थ कितने हैं। यवन एक, हिन्दू भिन्न-भिन्न, ईसाई तीन, जैनी सब संसार को अनादि मानते हैं। आठवां झगड़ा वह है जो इन सब झगड़ों की जड़ है। वह है कि मुक्ति किस प्रकार हो सकती है? जैनी कर्म से, यवन प्रार्थना से, ईसाई कुफारा से, हिन्दू उपासना-ज्ञान-कर्म इत्यादि भिन्न-भिन्न नियमों से मुक्ति मानते हैं।
प्यारे पाठकगण! ये आठ झगड़े हैं जिसके कारण इस समय संसार में आत्मिक और शारीरिक दोनों प्रकार की लड़ाई हो रही है। अब देखना यह है कि वैदिक शिक्षा इन आठ झगड़ों को दूर कर सकती है या नहीं? मैं इस समय केवल उपनिषद् का एक वाक्य जो ऋग्वेद के एक मन्त्र का स्पष्ट अनुवाद है प्रस्तुत करता हूं-
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा य: करोति। तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतन्नेतरेषाम्।।१२।।
पहिला प्रश्न यह था कि ईश्वर है या नहीं। दूसरा यह था कि ईश्वर एक है या अनेक। उसका उत्तर मिला कि एक है, क्योंकि नहीं का उत्तर 'है' कहने से और बहुत का उत्तर 'एक' कहने से आ गया। अब प्रश्न उत्पन्न हुआ कि एक क्यों है! और वह कहां है? उसका उत्तर मिला कि सर्वव्यापक है, क्योंकि जहां दो होंगे वहां बीच की दूरी अवश्य होगी और जहां दूरी हो वह परिमित होगा, इसलिये जो परमात्मा अनन्त है वह एक ही है और उसमें झगड़ा भी मिट गया कि वह कहां है, क्योंकि चौथे-सातवें आकाश या वैकुण्ठ, क्षीर सागर इत्यादि में मानने से परिमित हो जाता है। फिर प्रश्न उत्पन्न हुआ कि कहां व्यापक है। उसका उत्तर मिला कि (सर्वभूतान्तरात्मा) अर्थात् कुल जीवों और पदार्थों के भीतर विद्यमान है और ऐसा कहने से इस प्रश्न का उत्तर ही मिल गया कि ईश्वर कर्मों का फल किस प्रकार देते हैं अर्थात् वह प्रत्येक जीवात्मा के भीतर सब के कर्मों का साक्षी होकर देखता है और स्वयं ही उनका फल देता है। बहुत-से मित्र कहेंगे कि हिन्दुओं के यमलोक का सिद्धान्त क्यों न माना जाय लेकिन याद रहे कि एजेण्ट, पैगम्बर या दूत का मानना परिमित होने के रोग का निदान है, चूंकि परमेश्वर को यह रोग नहीं इसलिये उसके एजेण्ट या कारिन्दा, दूत इत्यादि कोई नहीं है। और न उसके दूत माने जा सकते हैं, क्योंकि जहां परमात्मा स्वयं विद्यमान न हो वहां पर उसके पैगम्बर, एजेण्ट और दूत काम करते हैं। इसलिये ऐसा कहने से सिवाय परमात्मा की अप्रतिष्ठा करने के और कोई लाभ नहीं। बही-खाते का रखना यह भूल के रोग की चिकित्सा है। क्योंकि परमात्मा को भूल का रोग नहीं है इसलिये उसके दरबार में लिखने का कोई काम नहीं। यह केवल सांसारिक राजाओं की जो थोड़े ज्ञान और थोड़ी शक्ति वाले हैं आवश्यकता है। कुछ मित्र यह कहेंगे कि 'मुनकिर' 'नकीर' के प्रश्नोत्तर को क्यों न मान लिया जाय? प्रथम तो यह वाक्य इस बात से मिथ्या है कि जब जीव शरीर से निकल जाता है तब उसको कबर में गाड़ते हैं। उस समय जो प्रश्न कबर पर किये जावेंगे वे शरीर से होंगे न कि जीव से। दूसरे, प्रश्न वह मनुष्य करता है जिसको उत्तर मिलने से पहले उसका ज्ञान नहीं होता, चूंकि ईश्वर सबका जानने वाला है इसलिये उस पर प्रश्न तथा उत्तर का अभियोग लगाना भी ठीक नहीं। तीसरे कयामत का सिद्धान्त तो सर्वांश में मिथ्या है, क्योंकि प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जीव मर कर कुल एक स्थान पर जाते हैं या अलग-अलग स्थानों पर? यदि कहो कि एक स्थान पर तो भलों को बुरों के साथ में बन्दीगृह में रखना ईश्वर के न्याय पर धब्बा है। यदि कहो कि नेकों को अच्छे स्थान पर भेजा जाता है और बुरों को दूसरे स्थान पर, तो बस समझो कि न्याय यहीं हो चुका, कयामत की आवश्यकता ही नहीं रही। यह सिद्धान्त तो केवल मूर्ख लोगों ने संसारी बादशाहों के बन्दीगृहों और कारागार को देखकर गढ़ लिया है, क्योंकि दुनिया में न्याय तिथि तक अपराधी बन्दीगृह में रहता है और उसके पश्चात् या तो वह छूट जाता है या कारागार में भेजा जाता है। पांचवां झगड़ा यह है कि ईश्वर ने संसार को किस वस्तु से बनाया? कुछ तो यह कहते हैं कि ईश्वर ने संसार को उत्पन्न ही नहीं किया, जैसा कि जैनी और बौद्ध, परन्तु उनका यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि बदलने वाली वस्तु अनादि नहीं हो सकती और यह दुनिया बदलने वाली है, इसलिये यह अनादि तो नहीं हो सकती। अब यवन कहते हैं कि असत् से सत् में आ गये परन्तु उनका यह कहना भी मिथ्या है, क्योंकि अवस्तु से वस्तु की उत्पत्ति या आग से सर्दी की उत्पत्ति मानना बुद्धि और ज्ञान के विरुद्ध है, परन्तु हमारे यवन भाई कहते हैं कि जब ईश्वर ने 'कुन' कहा तो दुनिया उत्पन्न हो गई। यहां पर सोचना चाहिए कि 'कुन' किसको कहा, क्योंकि 'कुन' विधि है और आज्ञा दूसरे पर होती है। जब दूसरा है ही नहीं तो 'कुन' कहना नितान्त झूठ हो गया। बहुत से हिन्दू कहते हैं कि अविद्या से जगत् बन गया परन्तु यह सिवाय ईश्वर के किसी दूसरी वस्तु को मानते ही नहीं, अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि तुम्हारी अविद्या कोई वस्तु है या नहीं। यदि कहें कोई वस्तु है तो स्वयं उनका सिद्धान्त मिथ्या हो गया क्योंकि वस्तु नहीं तो अवस्तु से वस्तु की उत्पत्ति हो नहीं सकती। इन सारी अशुद्धियों को देखकर वेद ने उनके दूर करने के लिए उत्तर दिया कि 'जो एक सूक्ष्म प्रकृति से अर्थात् वस्तुओं के परमाणुओं से बहुत प्रकार की स्थूल वस्तुएं बनाता है।'
छठा झगड़ा संसार में यह पड़ा हुआ है कि जीव और ब्रह्म एक हैं या अलग-अलग? इसका उत्तर दिया गया कि उस आत्मा में रहने वाले को, अर्थात् जीव और ईश्वर का आधार-आधेयभाव सम्बन्ध है, सम्बन्ध सदैव दो में होता है इसलिये जीव और ब्रह्म दो पदार्थ हैं।
सातवां झगड़ा यह था कि पदार्थ अनादि कितने हैं, उत्तर मिला जो उसके भीतर दीखते हैं अर्थात् देखने वाला जीव और देखने की वस्तु प्रकृति और उसके भीतर देखने के योग्य परमात्मा यह तीन पदार्थ ही अनादि हैं।
फिर प्रश्न यह था कि मुक्ति किस प्रकार हो सकती है? उत्तर मिला, जो ईश्वर एक सारे जगत् में व्याप्त रूप सब की आन्तरिक अवस्था को जानने वाला और अपने आप कर्म का फल देने वाला प्रकृति से जगत् का उत्पादक और जीव ब्रह्म का भेद, इन तीन पदार्थों को अनादि मानते हैं उन्हीं की मुक्ति हो सकती है दूसरों की नहीं। प्यारे पाठकगण! हमारे मित्र बहुधा कह उठेंगे कि तुम्हारी मुक्ति उसी तरह की है जिस तरह की ईसाई कहते हैं कि ईसामसीह पर विश्वास लाने से मुक्ति होती है। मुसलमान मुहम्मद के अनुग्रह से मुक्ति मानते हैं, लेकिन उनका यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि यह तो प्रत्येक मनुष्य जानता है कि जिस स्थान पर पुलिस अफसर मौजूद हो वहां पर कोई भी चोरी नहीं करता जबकि उसको विश्वास हो कि मैं घूंस देकर बच नहीं सकता। इसी तरह जो मनुष्य ईश्वर को सब स्थानों में और सब कर्मों का फल देने वाला मानता है वह कहीं भी पाप नहीं कर सकता, फिर उसे कष्ट किस तरह हो सकता है! और जो ईश्वर को परिमित मानते हैं उनके मत में तो ईश्वर का होना न होना बराबर है और प्रकृति से जगत् की उत्पत्ति मानने का तात्पर्य यह है कि जिससे ज्ञात रहे कि इस जगत् में आनन्द नहीं क्योंकि सत् प्रकृति है, सत्चित् जीव अर्थात् आत्मा और सत्चित् आनन्द परमात्मा है। जब प्रकृति सत् ठहरी और जगत् उसका कार्य है तो जगत् से आनन्द की इच्छा करना ठीक नहीं और तीन पदार्थों के नित्य मानने से यह लाभ है कि प्रकृति की उपासना से दुःख होता है और परमात्मा की उपासना से सुख होता है। और जीव, सुख-दुःख और बन्ध-मोक्ष दोनों से भिन्न साक्षीरूप है। और संसार के जितने मत हैं सब में इस बात के अज्ञान से सहस्त्रों त्रुटियां हो गईं कि पाप कौन कराता है, पुण्य कहां से होता है। परन्तु उचित उत्तर नहीं था, वैदिक धर्म ने उसका उत्तर ऐसा दिया कि अब कहने का अवकाश नहीं अर्थात् प्रकृति संसर्ग से मूर्खता और पाप उत्पन्न होता है जिसका फल दुःख है और परमात्मा के संसर्ग से पुण्य उत्पन्न होता है जिसका फल सुख है।
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