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Showing posts from March, 2020

Analysis of Atheist-Notion

Analysis of Atheist-Notion Writer- Pandit Haridev Ji Tark Kesari Presented By- Priyanshu Seth Translated In English By- DS Balaji Arya Question 1- What are the signs of an Athiest? Who is called an Athiest? Answer- Who declines the existence of God/Creator/Lord is primarily known as an Athiest. But Swamy Dayanand has mentioned ten types of Atheists- (1) Who does not Believe in God/Creator/Lord. (2) Who does not believe in Soul/Reincarnation, believes that Soul is made of Fire, Water, Air, and Soul. And that Soul is destroyed after death so, it's useless to worry about the afterlife. (3) Who does not believe in Vedas. (4) Who believes the creation to be merely an accident. (5) Who believes that God creates, destroys, boons and punishes randomly without a logical plan. (6) Who believes that entire creation is just a Co-Incidence. (7) Who himself claims to the Supreme Lord. (8) Who claims the entire existence is all eternal and never-ending. (9) Who only belives i

महर्षि दयानन्द और युगान्तर

महर्षि दयानन्द और युगान्तर -श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (हिन्दी के महाकवि) [कवि स्वभाव से ही बागी होता है। काव्य-कला के नियम भी उस पर बन्दिश न लगा पाते हैं। बगावत अगर सत्य की स्वीकृति हो तो कविता का ही दूसरा नाम बन जाती है। भला बगावत के बगैर कविता का चरित्र ही क्या है? कवि के भावों की सजावट कविता है और चरित्र की बगावत कवि-ता। इस लेख में कवि-ता ऋषि को प्रणाम करने आयी है और कविता पुष्प बरसाने। और यह अधिकार मिला है महाकवि निराला को, कि वे अपनी कलम तोड़ दें और दवात फोड़ दें। निस्सन्देह यह अवसर 'निराला' ने हाथ से जाने न दिया। परोपकारी ऋषि के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में यह लेख पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करता है। जिसमें एक ओर ऋषि के चरित्र का दर्शन करेंगे तो दूसरी ओर साहित्य का आनन्द भी ले सकेंगे। -डॉ० सुरेन्द्रकुमार] उन्नीसवीं सदी का परार्द्ध भारत के इतिहास का अपर स्वर्ण प्रभात है। कई पावन-चरित्र महापुरुष अलग-अलग उत्तरदायित्व लेकर, इस समय, इस पुण्य भूमि में अवतीर्ण होते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती भी इन्हीं में एक महाप्रतिभामंडित महापुरुष हैं। हम देखते हैं, हम

मैक्समूलर के विचारपरिवर्तन में महर्षि दयानन्द का प्रभाव

मैक्समूलर के विचारपरिवर्तन में महर्षि दयानन्द का प्रभाव लेखक- स्व० पं० युद्धिष्ठिर मीमांसक मैक्समूलर के कुछ पत्र अपनी पत्नी, पुत्र आदि के नाम लिखे हुए उपलब्ध हुए हैं। पत्र-लेखक पत्रों में अपने हृदय के भाव बिना किसी लाग-लपेट के लिखता है। अतः किसी भी व्यक्ति के लिखे हुए ग्रन्थों की अपेक्षा उसके पत्रों में लिखे विचार अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं। प्रारम्भिक विचार- मैक्समूलर के आरम्भिक काल में वेदों के सम्बन्ध में क्या विचार थे, इसके निदर्शनार्थ उसके कुछ उद्धरण नीचे देते हैं- १. सन् १८६६ के एक पत्र में मैक्समूलर अपनी पत्नी को लिखता है- "वेद का अनुवाद और मेरा यह संस्करण उत्तरकाल में भारत के भाग्य पर दूर तक प्रभाव डालेगा। यह उसके धर्म का मूल है और मैं निश्चय से अनुभव करता हूं कि उन्हें यह दिखाना कि यह मूल कैसा है, गत तीन सहस्त्र वर्ष में उससे उपजने वाली सब बातों के उखाड़ने का एक मात्र उपाय है।" २. एक पत्र में वह अपने पुत्र को लिखता है- "संसार की सब धर्मपुस्तकों में से 'नई प्रतिज्ञा' (ईसा की बाइबिल) उत्कृष्ट है। इसके पश्चात् कुरान जो आचार की शिक्षा में &#

साधू की कहानी

साधू की कहानी लेखक- आचार्य मित्रसेन, एम०ए० सिद्धान्तालंकार प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ एक दिन स्वामी ध्यानानन्द अपनी प्रचार-यात्रा को चल दिये। वे प्रचार करते हुए हिमालय पर्वत के पास पहुंचने वाले ही थे कि उन्हें कहीं से विचित्र ध्वनि सुनाई पड़ी। उन्होंने देखा कि धू धू करके जंगल जल रहा था। जंगल के निकट रहने वाले अपनी सम्पत्ति को बचाने का यत्न कर रहे थे। तभी सबका ध्यान एक आश्चर्यजनक घटना की ओर आकृष्ट हुआ। सभी के मुख से निकल पड़ा- "हाय! तनिक उस पेड़ की ओर तो देखो। बेचारी चिड़िया अपने घोंसले के आस-पास कैसी चक्कर लगा रही है! अरे! आग की लपटें घोंसले के पास तक पहुंच गई है, नन्ही-सी चिड़िया, अह! वह कर ही क्या सकती है? वह वहां से उड़ क्यों नहीं जाती?" सभी मनुष्य अपनी सम्पत्ति की चिन्ता छोड़कर उसी चिड़िया की ओर देखने लगे। बहुत ही दर्दनाक दृश्य था, लपटें बढ़ते बढ़ते घोंसले के पास पहुंच गई, तब चिड़िया ने जो कार्य किया उसकी किसी को आशा तक न थी। वह शीघ्रता से घोंसले के पास उड़कर पहुंच गई। पहले उसने घोंसले के ऊपर दो तीन चक्कर लगाये और जब कोई उपाय न दीख पड़ा तो उसने अपने दोनों पंख नन्हें-नन्हें मु

श्री अरविन्द और आर्यसमाज

श्री अरविन्द और आर्यसमाज लेखक- आचार्य अभयदेव प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ मैं अभी आपके यज्ञ में सम्मिलित हुआ था। भारत के इस सुदूर कोने में ठेठ काश्मीरी लोगों को वेदमन्त्रों का उच्चारण करते हुए देख कर मुझे एक विशेष उल्लास हो रहा था। यह सब दयानन्द का प्रताप है। मेरे मन में यह भी आ रहा था कि आप वेदोच्चारण करने वाले लोगों को भारत के एक और महान् पुरुष का भी आशीर्वाद प्राप्त है। उसे बेशक आर्य समाजी लोग बहुत नहीं जानते पर असल में वह, वह पुरुष है जिसने कि स्वामी दयानन्द जी के बाद स्वामी दयानन्द द्वारा प्रवर्तित बातों को सबसे अधिक बढ़ावा दिया है। वह है भारत के एक अन्य महापुरुष श्री अरविन्द; जिन्हें कि अब लोग एक महान योगी के रूप में कुछ-कुछ जानते हैं। आपने मुझे अपने आर्यसमाज में कुछ भाषण करने के लिए इतने आग्रह और प्रेम से निमन्त्रित किया है तो मेरे मन में यह विचार आया है कि मैं आज आपको आर्य समाज और श्री अरविन्द इसी विषय पर कुछ बोलूं। आर्य समाज की सबसे मुख्य वस्तु है 'वेद'। यदि आर्यसमाज के कार्यक्रम में से वेद को हरा दिया जाये तो आर्यसमाज में कुछ भी कामकी चीज नहीं बच जायेगी। उस वे

ईश्वर, जीवात्मा एवं प्रकृति विषयक आर्यसमाज के सिद्धान्त

ईश्वर, जीवात्मा एवं प्रकृति विषयक आर्यसमाज के सिद्धान्त -प्रियांशु सेठ ईश्वर- (१) ईश्वर एक है व उसका मुख्य नाम 'ओ३म्' है। अपने विभिन्न गुण-कर्म-स्वभाव के कारण वह अनेक नामों से जाना जाता है। (२) ईश्वर 'निराकार' है अर्थात् उसकी कोई मूर्त्ति नहीं है और न बन सकती है। न ही उसका कोई लिङ्ग या निशान है। (३)  ईश्वर 'अनादि, अजन्मा और अमर' है। वह न कभी पैदा होता है और न कभी मरता है। (४) ईश्वर 'सच्चिदानन्दस्वरूप' है अर्थात् वह सदैव आनन्दमय रहता है, कभी क्रोधित नहीं होता। (५) जीवों को उसके कर्मानुसार यथायोग्य न्याय देने के हेतु वह 'न्यायकारी' कहलाता है। यदि ईश्वर जीवों को उसके कुकर्मों का दण्ड न दे तो इससे वह अन्यायकारी सिद्ध हो जाएगा। (६) ईश्वर 'न्यायकारी' होने के साथ-साथ 'दयालु' भी है अर्थात् वह जीवों को दण्ड इसलिए देता है ताकि जीव अपराध करने से बन्ध होकर दुःखों का भागी न बने, यही ईश्वर की दया है। (७) कण-कण में व्याप्त होने से वह 'सर्वव्यापक' है अर्थात् वह हर जगह उपस्थित है। (८) ईश्वर को किसी का भय नहीं होता,

वैदिक धर्म का भक्त 'काले खाँ'

वैदिक धर्म का भक्त 'काले खाँ' अर्थात् 'कृष्णचन्द्र' प्रियांशु सेठ यह कहना तो नितान्त उचित है कि ऋषि दयानन्द की वैचारिक क्रान्ति ने न केवल किसी मत अथवा व्यक्ति विशेष को कल्याण का मार्ग दिखाया अपितु सारे मनुष्य समाज को मानवता के एकसूत्र में भी बांधने का प्रयत्न किया। महर्षि के विचार-शक्ति में इतना सामर्थ्य था कि उसके प्रभाव से अन्य मत वाले भी वैदिक धर्म की ओर प्रवेश कर सत्य-मार्ग के पथिक बन गए व वैदिक धर्म के प्रचार-कार्य में सम्मिलित हो गए। दूर-दूर के गांव में भी आर्यसमाज का डंका बजने लगा और लोग अपनी प्राचीन सभ्यता से अवगत होने लगे, तथा आर्य धर्म को जानने के प्रति लोगों की जिज्ञासा व रुचि बढ़ती गई। यह रुचि केवल हिन्दू मतावलम्बियों में ही नहीं अपितु सभी मतानुयायियों के समुदाय में दृष्टिगोचर होने लगी और लोग आर्यसमाज के उत्सवों, सम्मेलनों में आने-जाने लगे। सिरसा से कुछ मील की दूरी पर जिला हिसार के 'जलालाणा' ग्राम के निवासी "काले खाँ" के वैदिक धर्म के प्रति भक्ति कुछ ऐसी ही है। काले खां का जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। यह ३ वा ४ भाई थे। इस्ला

ईश्वर के स्वरूप का दार्शनिक और वैज्ञानिक विवेचन - वेद की नित्यता पर प्रकाश

ईश्वर के स्वरूप का दार्शनिक और वैज्ञानिक विवेचन - वेद की नित्यता पर प्रकाश (सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास के आधार पर) लेखक- पं० क्षितिश कुमार वेदालंकार [परोपकारी पत्रिका अपने 'ऐतिहासिक कलम से' नामक शीर्षक के माध्यम से पाठकों को कुछ ऐसे लेखों से परिचित करा रही है, जो 'आर्योदय' (साप्ताहिक) के सत्यार्थप्रकाश विशेषांक से लिये गये हैं। यह विशेषांक दो भागों में छपा था। पूर्वार्द्ध के सम्पादक श्री प्रकाशजी थे तथा उत्तरार्द्ध के सम्पादक पं० भारतेन्द्रनाथजी तथा श्री रघुवीर सिंह शास्त्री थे। यह विशेषांक विक्रम संवत् २०२० में निकाला गया था। यहां यह स्मरण रखना जरूरी है कि इस विशेषांक में जो लेख प्रस्तुत किये गये हैं वे पं० भारतेन्द्रनाथ जी ने विद्वानों से आग्रहपूर्वक लिखवाये थे, जो कि पण्डित जी अक्सर किया करते थे। उसी विशेषांक के कुछ चयनित लेख पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किये जा रहे हैं। जिनमें यह सप्तम लेख 'ईश्वर के स्वरूप का दार्शनिक और वैज्ञानिक विवेचन - वेद की नित्यता पर प्रकाश' आर्यजगत् के सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० क्षितिश कुमार वेदालंकार द्वारा लिखा गया है