ईश्वर के स्वरूप का दार्शनिक और वैज्ञानिक विवेचन - वेद की नित्यता पर प्रकाश
(सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास के आधार पर)
लेखक- पं० क्षितिश कुमार वेदालंकार
[परोपकारी पत्रिका अपने 'ऐतिहासिक कलम से' नामक शीर्षक के माध्यम से पाठकों को कुछ ऐसे लेखों से परिचित करा रही है, जो 'आर्योदय' (साप्ताहिक) के सत्यार्थप्रकाश विशेषांक से लिये गये हैं। यह विशेषांक दो भागों में छपा था। पूर्वार्द्ध के सम्पादक श्री प्रकाशजी थे तथा उत्तरार्द्ध के सम्पादक पं० भारतेन्द्रनाथजी तथा श्री रघुवीर सिंह शास्त्री थे। यह विशेषांक विक्रम संवत् २०२० में निकाला गया था। यहां यह स्मरण रखना जरूरी है कि इस विशेषांक में जो लेख प्रस्तुत किये गये हैं वे पं० भारतेन्द्रनाथ जी ने विद्वानों से आग्रहपूर्वक लिखवाये थे, जो कि पण्डित जी अक्सर किया करते थे। उसी विशेषांक के कुछ चयनित लेख पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किये जा रहे हैं। जिनमें यह सप्तम लेख 'ईश्वर के स्वरूप का दार्शनिक और वैज्ञानिक विवेचन - वेद की नित्यता पर प्रकाश' आर्यजगत् के सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० क्षितिश कुमार वेदालंकार द्वारा लिखा गया है। -डॉ० सुरेन्द्रकुमार, सम्पादक- परोपकारी]
अनेक विद्वानों की यह धारणा है कि वेद में अनेक ईश्वरों का वर्णन है। पौराणिकों के विभिन्न सम्प्रदाय और उनमें पृथक्-पृथक् आराध्यदेवों का प्रचलन देखकर ही शायद उन्होंने यह धारणा बनाई हो। पौराणिकों के आचरण को देखकर उसे वेद पर आरोपित करने की भूल करनेवालों में सबसे आगे हैं वे पाश्चात्य विद्वान् जिनके वेद सम्बन्धी प्रभूत परिश्रम के आगे नत-मस्तक होकर भी हमें यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि वेद में अनेकेश्वरवाद (Polytheism) सिद्ध करने की उनकी चेष्टा दुश्चेष्टा मात्र है।
वेद में अनेक ईश्वरों के वर्णन की कल्पना एक और भ्रम पर ही आधारित है। आजकल विज्ञान की प्रत्येक शाखा में प्रचलित विकासवाद के आधार पर सोचनेवाले लोग यह समझते हैं कि ईश्वर की कल्पना बौद्धिक ज्ञान की पराकाष्ठा की द्योतक है, और वेद क्योंकि आदिम रचना है, इसलिए आदिकाल के लोगों की बुद्धि का विकास इतना नहीं हो सकता कि वे ईश्वर के एकत्व की कल्पना कर सकें। वे तो नदी-नालों, वृक्ष-वनस्पतियों, भूधरों, वर्षा, बादल, बिजली आदि प्राकृतिक विपर्ययों और भौतिक घटना-विलासों को ही देव समझकर पूजने लगे या उन्हीं में ईश्वरत्व की बुद्धि रखने लगे। विकासवाद-जनित इसी कपोल-कल्पना के आधार पर इस्लाम के मतानुयायी यहां तक कहने लगे कि संसार के बड़े धर्मों में हमारा धर्म सबसे अर्वाचीन है, इसलिए यह परिपूर्ण धर्म है और इस परिपूर्णता की कसौटी यह है कि इस्लाम में एकेश्वरवाद पर सबसे अधिक बल दिया गया है। 'तौहीद की अमानत सीने में है हमारे'- कहकर इसी एकेश्वरवाद को इस्लाम का सबसे बड़ा वरदान स्वीकार किया गया है। इस्लाम के इस एकेश्वरवाद की चकाचौंध से कुछ लोग इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने यहां तक कहने में संकोच नहीं किया कि मध्यकाल में शंकराचार्य ने अद्वैतवाद के दार्शनिक आधार पर ईश्वर के एकत्व का जो प्रचार किया वह इस्लाम के और मुसलमान सूफियों के एकेश्वरवाद से ही प्रेरित होकर किया। ऐसा कहने वाले भारतीय विद्वानों में पं० सुन्दरलाल, डॉ० ताराचन्द और केन्द्रीय शिक्षमन्त्री डॉ० हुमायूँ कबीर प्रभृति का नाम लिया जा सकता है।
ईश्वर एक है-
जहां तक वेद का सम्बन्ध है, उसकी बात वेद के ही आधार पर कही जाए तो अच्छा है, क्योंकि अन्य ग्रन्थों के आधार पर कही हुई बात परत:प्रमाण होगी और उसके विवाद का विषय बन जाने की भी सम्भावना है। इसके अलावा वेद स्वयं इतना समर्थ है कि उसे अपनी बात की पुष्टि के लिए किसी अन्य ग्रन्थ की सहायता की आवश्यकता नहीं।
वेद ने स्वयं ही उक्त गुत्थी सुलझा दी है। ऋग्वेद का एक मन्त्र है-
इन्द्र मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गुरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:।। -ऋक् १/१६४/४६
ज्ञानी लोग एक ही ईश्वर को अनेक नामों से पुकारते हैं- अग्नि, यम, मातरिश्वा, इन्द्र, मित्र, वरुण सुपर्ण, गरुत्मान्- सब उसी एक ईश्वर के नाम हैं। [देखिए सत्यार्थप्रकाश प्रथम समुल्लास- उसमें परमात्मा के इस प्रकार के १०८ नामों की व्याख्या की गई है।]
इसी प्रकार "य एकश्चर्षणीनां वसूनामिरज्यति" (ऋक् १/७/९), "य एक इद्विदयते वसु मर्त्ताय दाशुषे" (ऋक् १/८४/७), "ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्" (यजु० ४०/१), "भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्य:" (अथर्व० २/२/१)- इत्यादि अनेक मन्त्र चारों वेदों से उद्धृत किये जा सकते हैं, जिनसे ईश्वर का एकत्व प्रतिपादित होता है। विशेष बात यह है कि जहां ईश्वर की एकता के प्रतिपादक सैकड़ों मन्त्र हैं, वहां ईश्वर की अनेकता को सिद्ध करनेवाला एक मन्त्र भी प्रस्तुत करना कठिन है। इसी प्रसङ्ग में अथर्ववेद (१३/४/२) के १६ से १८ तक के मन्त्र ध्यान देने योग्य है-
"न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते।
न पञ्चमो न षष्ठ: सप्तमो नाप्युच्यते।
नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते।
स एष एक एकवृदेक एव।।"
-उसे दूसरा, तीसरा और चौथा नहीं कह सकते। पांचवां, छठा, सातवां भी नहीं कह सकते। आठवां, नवां, और दसवां भी नहीं कह सकते। वह एक ही है, अकेला ही जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करने वाला है। वह एक ही है।
अनेकेश्वरवाद का खण्डन करनेवाला और ईश्वर की एकता का प्रतिपादन करनेवाला इससे अधिक स्पष्ट और प्राञ्जल वर्णन संसार के अन्य किसी धर्मग्रन्थ में नहीं मिल सकता- यह बात चुनौती देकर कही जा सकती है। न सही अनेक ईश्वर, परन्तु वेद में अनेक देवताओं का तो वर्णन है? इसे कोई अस्वीकार नहीं करता। वेद में अनेक देवताओं का तो वर्णन अवश्य है, किन्तु उपासना के योग्य ईश्वर सर्वत्र एक ही बताया गया है। जहां तक देव या देवता शब्द की बात है, वहां सर्वत्र समझना यह है कि 'देव' शब्द 'दिवु' धातु से बनता है। उस 'दिवु' धातु का व्याकरणसम्मत अर्थ है- क्रीड़ा, विजिगीषा, व्यवहार, द्युति, स्तुति, मोद, मद, स्वप्न, कान्ति और गति। अर्थात् जिस किसी पदार्थ में इनमें से किसी भी गुण-विशेष का आधिक्य हो, वही देव कहलाएगा। संक्षेप में कह सकते हैं कि दिव्य गुण को धारण करनेवाली प्रत्येक वस्तु देवकोटि में आती है। पृथिवी, अग्नि, वायु, जल, चन्द्र, सूर्य आदि सब देव हैं, क्योंकि विशिष्ट गुणों को धारण करनेवाले हैं। विद्वानों को भी देव कहते हैं, क्योंकि वे अपनी विद्या के बल पर चमकते हैं। देववाची प्रत्येक शब्द प्रकारान्तर से परमात्मा का भी वाची होता है, क्योंकि आखिर सब देवों का अधिष्ठाता तो वही है। कौन-सा देववाची शब्द किस स्थान पर परमात्मा का वाचक है और किस स्थान पर अन्य पदार्थ का, इसका निर्णय प्रकरण के अनुसार करना होगा। देवता अनेक होने और भी आराध्यदेव केवल ईश्वर है और वह सब देवों का अधिष्ठाता है- वेद का यही सिद्धान्त है और इसमें कहीं शंका का स्थान नहीं है।
तैंतीस देवता-
यजुर्वेद में जो तैंतीस देवताओं का वर्णन आता है, उसकी व्याख्या शतपथ के अनुसार इस प्रकार है- आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, एक इन्द्र और एक प्रजापति (८+११+१२+१+१=३३) ये तैंतीस देवता हैं। पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, सूर्य और नक्षत्र- ये आठ वसु हैं, क्योंकि ये समस्त सृष्टि के वास-हेतु हैं; इनके बिना सृष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती। प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय और जीवात्मा ये ग्यारह रुद्र हैं, क्योंकि जब ये शरीर को छोड़कर जाने लगते हैं तो सबको रुलाते हैं। संवत्सर के बारह मास चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन ये बारह आदित्य हैं, क्योंकि ये सबकी आयु को लेते जाते हैं। इन्द्र है बिजली- अन्तरिक्ष में यह वृष्टि की जनक है और भूलोक में वैज्ञानिक क्रान्ति की जनक है- इसलिए ऋषि ने इसे परमैश्वर्य का हेतु बताया है। बिना उद्योगों के राष्ट्र समृद्ध नहीं हो सकता और बिना बिजली के उद्योगों का विस्तार नहीं हो सकता। उद्योगीकरण से राष्ट्र को ऐश्वर्यशाली बनाने के लिए ही बिजली की अधिकाधिक आवश्यकता है और इसीलिए इस दिशा में इतना प्रयत्न किया जाता है। प्रजापति है यज्ञ। यज्ञ को प्रजापति इसलिए कहा है कि यज्ञ के द्वारा ही वायुमण्डल की शुद्धि, वृष्टि, जल और औषधि की शुद्धि होती है तथा विद्वानों के संगतिकरण से अनेक शिल्पविद्याओं का विकास होता है और ये ही सब प्रजापालन में सहायक है।
क्या ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान सम्भव है?-
आप देवताओं की व्याख्या के चक्कर में पड़े हैं, परन्तु हम तो सब देवों के देव- ईश्वर की सत्ता को ही स्वीकार करते हैं। क्या ईश्वर का अस्तित्व किसी तरह सिद्ध किया जा सकता है?
यों तो ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने के लिए अन्य अनेक प्रकार की युक्तियां दी जा सकती हैं; किन्तु इस समुल्लास में ऋषि ने अद्भुत ढंग से ईश्वर की सत्ता सिद्ध की है। जितने वैज्ञानिकम्मन्य लोग हैं, वे यह कहते हैं कि हम तो केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं, अप्रत्यक्ष वस्तु तत्त्व में हमारी आस्था नहीं। प्रयोगशाला में बैठकर अपनी इच्छानुसार जिस पदार्थ को तोड़ने-फोड़ने, घटाने-बढ़ाने और उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया को जांचने की सुविधा वैज्ञानिक को न मिले उस पदार्थ की सत्ता में वह विश्वास करे भी कैसे? न्यूट्रोन, प्रोटोन, और इलेक्ट्रोन जैसे सूक्ष्म तत्त्वों तक पहुंचकर तो उसका 'अहम्' और भी फूल गया। वैज्ञानिक यह समझने लगा कि अणुबम बनाकर सृष्टि का संहार करने की कुञ्जी मैंने अपनी मुट्ठी में बन्द कर ली, इसलिए इस सृष्टि का कर्त्ता-धर्त्ता-संहर्त्ता मेरे सिवाय और कौन हो सकता है?
ऋषि ने कहा कि ईश्वर का भी प्रत्यक्ष होता है। ईश्वर प्रत्यक्ष न होने की जिस युक्ति के भरोसे नास्तिकों के सब सम्प्रदाय और आधुनिक वैज्ञानिकगण मन में फूले नहीं समा रहे थे, ऋषि ने उसकी जड़ ही काट दी।
ईश्वर का प्रत्यक्ष कैसे होता है, अब यह देखिए।
न्यायदर्शन के अनुसार, इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न जो निर्भ्रान्त और निश्चयात्मक ज्ञान है, वही प्रत्यक्ष कहलाता है। इन्द्रियां हैं- आंख, नाक, कान, जिह्वा, और त्वचा तथा मन। आंख से रूप का अनुभव होगा, नाक से गन्ध का, कान से शब्द का, जिह्वा से रस का और त्वचा से स्पर्श का। अब रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द तो गुण हैं, किन्तु जब इन्द्रियों का इन गुणों से सन्निकर्ष होता है, तब हम आत्मायुक्त मन से गुणी का प्रत्यक्ष करते हैं। विज्ञान की दृष्टि से पदार्थ उसको कहते हैं जिसमें भार हो और जो स्थान घेरे। इस व्याख्या के अनुसार जैसे रूप, रस आदि पदार्थों के गुण हैं; वैसे ही भार होना या स्थान घेरना भी गुण है; स्वयं पदार्थ नहीं। रूप, रस आदि का तो कोई भार भी नहीं होता, न ही वे स्थान घेरते हैं। समस्त संसार में जितने भी पदार्थ हैं उन सब के गुणों का ही सम्पर्क हमारी इन्द्रियों के साथ होता है और उनके गुणों के सम्पर्क से ही हम कहते हैं कि हमें अमुक पदार्थ अर्थात् गुणी का प्रत्यक्ष हो जाएगा। जिस प्रकार हम सामान्य व्यवहार में गुण से गुणी का प्रत्यक्ष करते हैं उसी प्रकार इस समग्र सृष्टि रचना-चातुरी को देखकर इसके रचयिता अर्थात् गुणी परमात्मा का प्रत्यक्ष होता है। यदि कहा जाए कि परमात्मा का इस प्रकार प्रत्यक्ष हम नहीं मानते तो लोक में भी किसी पदार्थ का प्रत्यक्ष सम्भव नहीं; यदि लोक में किसी भी पदार्थ का प्रत्यक्ष सम्भव है- जिससे न चार्वाक इनकार करते हैं, न विज्ञान को सर्वेसर्वा समझने वाले कम्युनिस्ट तथा अन्य नास्तिक- तो सृष्टि को देखकर सृष्टिकर्त्ता का भी प्रत्यक्ष मानना ही होगा। सृष्टि-रचना में कहीं चातुरी नहीं है, इस बात से कट्टर से कट्टर नास्तिक भी इनकार नहीं कर सकता। चातुरी गुण है और वही गुणी का प्रत्यक्ष करवाने में प्रमाण है।
एक अन्य युक्ति-
ईश्वर की सत्ता में एक और अकाट्य युक्ति है। नास्तिक लोग ईश्वर की सत्ता से भले ही इनकार करें, किन्तु जीवात्मा की सत्ता से इनकार करना उनके बस की भी बात नहीं। जीवात्मा की सत्ता का निषेध करना तो एक तरह से अपनी ही सत्ता का निषेध करना हुआ- और अहम्भाव से ओत-प्रोत वैज्ञानिकम्मन्य ऐसा कैसे कर सकता है? प्रश्न यह है कि जब मनुष्य परोपकार या भलाई का कोई काम करने लगता है, तब उसके मन में भलाई के लिए उत्साह और प्रेरणा कहाँ से पैदा होती है? और जब मनुष्य कोई अनाचार या बुराई का काम करने लगता है, तब उसके मन में भय, शंका और लज्जा की भावना कौन पैदा करता है? मनुष्य का मन तो सदा पानी की तरह नीचे की ओर, पतन की ओर, जाने के लिए उद्यत रहता है, उत्थान के पथ पर बढ़ने की उमंग उसमें कहां से पैदा होती है? कहना नहीं होगा कि यह काम परमात्मा की ओर से होता है। जीवात्मा तो इस विषय में सर्वथा तटस्थ है, बल्कि मन की गति के साथ ही चलने की ओर उसका झुकाव अधिक रहता है। अच्छाई की प्रेरणा और बुराई से संकोच ऐसी सार्वत्रिक भावना है कि पापी से पापी आदमी भी इसकी सच्चाई से मना नहीं कर सकता। परम दार्शनिक, परम वैयाकरण और साहित्यिक योगिराज भर्तृहरि ने इसीलिए ईश्वर की सिद्धि का एकमात्र प्रमाण 'स्वानुभूत्येकमानाय' कहकर दिया है- अर्थात् ईश्वर की सत्ता का एकमात्र प्रमाण अपनी अनुभूति है और जिसको एक बार अच्छाई के प्रेरक और बुराई के निवारक प्रभु की सत्ता की अनुभूति हो गई है, सारा संसार भी अपने तर्कजाल के अम्बार के बल पर उसे अनुभूति से विरत नहीं कर सकता। यही अनुभूति महापुरुषों को संघर्षों का और विपरत परिस्थितियों का मुकाबला करने की शक्ति प्रदान करती है।
ईश्वर सर्वव्यापक है-
अच्छा मान लिया कि ईश्वर है, किन्तु वह रहता कहाँ है? कोई कहता है कि वह गोलोक में रहता है, कोई कहता है कि क्षीरसागर में शयन करता है, कोई कहता है कि कैलाश पर निवास करता है, कुछ लोग चौथे आसमान पर और अन्य लोग सातवें आसमान पर उसका निवास बताते हैं। आखिर जब ईश्वर है, तो कहीं न कहीं रहता भी होगा ही?
रहता क्यों नहीं, रहता है, किन्तु कहीं या किसी एक स्थान पर नहीं रहता। ईश्वर सब स्थानों पर रहता है। कभी भी किसी ऐसे स्थान की कल्पना नहीं की जा सकती जहां ईश्वर न हो। वह सर्वव्यापक है। किसी स्थान-विशेष पर उसकी कल्पना करने से वह एकदेशी हो जाएगा। जो एकदेशी होगा, सर्वव्यापक नहीं हो सकता। दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं। जिन लोगों ने परमात्मा को किसी एक स्थान पर प्रतिष्ठित माना है वे प्रकारान्तर से उसके सर्वव्यापक होने का खण्डन करते हैं। किसी एक स्थान पर होने का अर्थ ही यह है कि वह उससे भिन्न स्थान पर नहीं है। जो यहां है और वहां नहीं या वहां है और यहां नहीं, वह सर्वव्यापक कैसा?
क्या ईश्वर साकार है?-
इसके साथ प्रश्न जुड़ा हुआ है कि परमात्मा साकार है या निराकार?
ईश्वर को साकार मान लेना जितना आसान है उतना ही कठिन है उसे साकार सिद्ध करना। जो साकार है, वह सर्वव्यापक कैसे हो सकता है? जो व्यापक नहीं, वह सर्वज्ञ भी नहीं हो सकता, सर्वान्तर्यामी भी नहीं। जिसका आकार होगा, वह परिमित होगा और परिमित वस्तु के गुण, कर्म, स्वभाव भी परिमित होंगे। परिमित वस्तु को सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, रोग, शोक और छेदन-भेदन का भी शिकार होना पड़ेगा। इसलिए ईश्वर न परिमित है, न ही साकार। साकार हो तो उसका कुछ न कुछ आकार होगा। वह लम्बा, चौड़ा, गोल, चपटा- कुछ तो होगा ही, उसका आयतन और आयाम दोनों ही मानने होंगे और आयतन तथा आयाम दोनों मानते ही वह भगवान् और विस्तारवान् में भौतिक-पिण्ड मात्र रह जाएगा।
यदि लम्बाई-चौड़ाई वाला कोई ज्यामितिक और भौतिक पिण्ड नहीं, तो क्या वह मानवाकृतिवाला कोई पदार्थ है? "God made the man in His image"- परमात्मा ने मनुष्य को अपनी नकल पर बनाया- यह कहनेवाले समझते हैं कि असल भी नकल से मिलता-जुलता ही होना चाहिए- अर्थात् परमात्मा की भी आदमी जैसी ही शक्ल है। परमात्मा को अवतार लेने वाला बतानेवाले भी ईश्वर की आदमी जैसी ही शक्ल मानते हैं। वैसे ही आंख, कान, नाक आदि सभी अवयव। ईसा को परमेश्वर का पुत्र मानने वाले ईसाई, हजरत मुहम्मद साहब को खुदा का भेजा हुआ खास पैगम्बर माननेवाले मुसलमान या राम और कृष्ण आदि के रूप में परमात्मा का अवतार मानने वाले पौराणिक बन्धु- ये सब इस दृष्टि से समान हैं। सबके मन में परमात्मा मनुष्य आकृतिवाला है और वैसे ही हस्तपादादि अवयवों से संयुक्त है। वेद में भले ही "अज एकपात्" कहकर प्रभु को अजन्मा और "सपर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरम्" कहकर उसे शरीररहित और नस-नाड़ी से रहित बताया गया हो एवं भले ही उपनिषदों में उसे "अपाणिपादो जवनो ग्रहीता स पश्यत्यचक्षु: स शृणोत्यकर्ण:" कहकर उसे हस्तपादादि कर्मेन्द्रियों और चक्षु-श्रोत्रादि ज्ञानेन्द्रियों से रहित बताया गया हो, किन्तु एक अन्ध-परम्परा चल पड़ी है और उसी के अनुसार लाखों-करोड़ों लोग अवतारवाद के अभिशाप से ईश्वर के मानवाकृति होने के भ्रम से निकल नहीं पाते। अवतारवाद को सबसे अधिक प्रश्रय देने वाला गीता का यह श्लोक है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।४/७।।
-श्री कृष्ण जी कहते हैं कि जब-जब धर्म का ह्रास होता है और अधर्म का विकास होता है, तब-तब मैं अपने आपको पैदा करता हूँ (शरीर धारण करके अवतार ग्रहण करता हूँ।)
गीता का उचित स्थान-
यहां गीता के सम्बन्ध में केवल इतना कह देना पर्याप्त है कि वह स्वतन्त्र ग्रन्थ न होकर महाभारत का एक अंश मात्र है, इसलिए उसकी प्रामाणिकता भी उतनी ही है जितनी महाभारत की। इसी से यह बात भी स्पष्ट हो जानी चाहिए कि गीता के सम्बन्ध में जो यह प्रवाद प्रचलित उसमें श्रीकृष्ण के मुख से निकले हुए वचन हैं ("या स्वयं पद्मानाभस्य मुखपद्माद् विनिस्सृता")- उसमें कोई तथ्य नहीं है। जिस तरह शेष महाभारत, जिसका असली नाम 'जय' है और जिसमें मूलतः केवल बीस हजार श्लोक थे, महर्षि व्यास की कृति है वैसे ही गीता भी महर्षि व्यास की ही रचना है। पूछा जा सकता है कि फिर गीता की इतनी लोकप्रियता का रहस्य क्या है? इसका उत्तर हम यह देंगे कि जिस प्रकार महात्मा गांधी के सर्व-धर्म-समन्वयवाद ने सभी धर्मावलम्बियों को अविरोध भाव से एकत्र होने की प्रेरणा दी और इसीलिए लोकसंग्रह की दृष्टि से महात्मा गांधी सबसे अधिक सफल और लोकप्रिय नेता कहे जा सकते हैं, वैसे ही गीता में सभी दार्शनिक सम्प्रदायों का ऐसा अद्भुत समन्वय है कि सभी को उनमें अपने पक्ष का पोषण मिल जाता है। इसीलिए गीता अपने चारों और इतना लोकसंग्रह कर सकी। दार्शनिक विवेचना करनेवालों को गीता में परस्पर-विरोधी बातें भी मिल जाएंगी, पर एक ही साथ 'रामाय स्वस्ति' और 'रावणाय स्वस्ति' कहनेवाले के पीछे जैसे राम और रावण दोनों के अनुयायी चलने को तैयार हो जाएंगे, बहुत कुछ वही हाल गीता का भी है।
श्लोक का अर्थ-
यदि समाजशास्त्र की दृष्टि से गीता के उक्त श्लोक की व्याख्या की जाए तो उसमें एक ऐसे ऐतिहासिक सत्य का उद्घाटन है जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता। जब-जब धर्म की ग्लानि और अधर्म का अभ्युत्थान का अर्थ यह समझा जा सकता है कि जब-जब किसी जाति का सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से अध:पतन हो जाता है तब-तब उसमें ऐसे महापुरुष पैदा होते हैं जो उस जाति को पतन के गर्त से निकालकर उन्नति के शिखर पर ले जाने का प्रयत्न करते हैं। इतिहास की शिक्षा यही है कि कोई भी महापुरुष जन्म से महापुरुष नहीं होता, किन्तु अपने समय की परिस्थितियां ही उसे महापुरुष बनाती हैं। पराधीन भारत में दयानन्द, श्रद्धानन्द, तिलक, रवीन्द्र, सुभाष प्रभृति जैसे नररत्न पैदा हुए, क्या वैसे नररत्नों की कल्पना स्वाधीन भारत में की जा सकती है। जितनी तीव्र क्रिया होगी, उतनी ही तीव्र प्रतिक्रिया होगी- यह विज्ञान का सिद्धान्त है। भारत का जितना तीव्र अध:पतन हुआ था उसी का यह परिणाम था कि उसने अनेक ऐसी विभूतियों को जन्म दिया जो केवल भारत-वन्द्य नहीं प्रत्युत विश्ववन्द्य है। दुःख को इसीलिए रसायन कहा जाता है।
यदि मनोविज्ञानपरक अर्थ इस श्लोक का किया जाए तो उसे यों समझा जा सकता है कि अपने चारों ओर धर्म को घटता और अधर्म को बढ़ता देखकर किसी दृढ़ संकल्प धर्मात्मा व्यक्ति के मन में यह भाव या सकता है कि मैं अधर्म का नाश करके धर्म का राज्य स्थापित करूँगा। यह भी एक शाश्वत सामाजिक प्रवृत्ति है जो सभी धार्मिक महापुरुषों के जीवन में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। इस प्रवृत्ति को हृदयंगम किये बिना विभिन्न देशों में पैदा हुए विभिन्न महापुरुषों के जीवन की व्याख्या की ही नहीं जा सकती। यही वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है। इसीलिए इस श्लोक से अवतारवाद सिद्ध करनेवालों को उत्तर देते हुए ऋषि ने लिखा है कि 'वेद-विरुद्ध होने से अवतार लेने की बात प्रमाण नहीं मानी जा सकती। किन्तु ऐसा हो सकता है कि श्रीकृष्ण धर्म की रक्षा करना चाहते थे कि मैं युग-युग में जन्म लेकर श्रेष्ठों की रक्षा और दुष्टों का नाश करूँ तो इसमें कुछ दोष नहीं।' "न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम् कामये। दुःखतप्तानां प्राणीनामार्तिनाशनम्।" मैं राज्य नहीं चाहता, स्वर्ग नहीं चाहता, मोक्ष भी नहीं, किन्तु दुःख से सन्तप्त नर-नारियों का दुःख-नाश करने के लिए इस लोक में जन्म ग्रहण करना चाहता हूं। यही तो महापुरुष की असली मनोभावना है और यह कितनी प्रबल होती है इसकी कल्पना इसी से की जा सकती है कि दुःखीजनों के दुःख-नाश के लिए वह राज्य, स्वर्ग, मोक्ष सभी को तिलाञ्जलि देने को तैयार है। मोक्ष न चाहने से ही यह अर्थ स्वयं निकल आता है कि मैं इस लोक में जन्म ग्रहण करना चाहता हूं।
जैसे वेद को समझने के लिए वेद स्वयं सहायक है, वैसे ही गीता ने भी बहुत बार अपनी गुत्थियां अपने आप खोल दी हैं। उक्त श्लोक में यही तो कहा है न- "तदात्मानं सृजाम्यहम्"- यहां 'आत्मानं' शब्द का क्या अभिप्राय है, यह गीता से ही पूछना चाहिए। जिस व्यक्ति ने गीता में 'तदात्मानं सृजाम्यहम्' लिखा, उसी ने लिखा है- 'योगी त्वात्मैव मे मतम्' अर्थात् योगी को तो मैं अपना आत्मा ही मानता हूं। अब 'तदात्मानं सृजाम्यहम्' में 'आत्मानं' शब्द के स्थान पर 'योगिनाम्' शब्द रखकर देखिए। 'तदा योगिनं सृजाम्यहम्' का अर्थ होगा- मैं योगी को पैदा करता हूँ। (वहां 'सृजामि' शब्द को लुप्तणिजन्त प्रयोग मानना होगा, अर्थात् 'सर्जयामि' के स्थान पर 'सृजामि' शब्द का प्रयोग हुआ है।) यदि 'सृजामि' को 'सर्जयामि' मानने में बाधा हो और उक्त श्लोक को श्रीकृष्ण के ही मुख का वचन मानना हो तो अर्थ यह हो जाएगा कि 'योगी के रूप में मैं जन्म लेता हूँ।'
अब जरा पूरे श्लोक का अर्थ देखिए 'जब-जब धर्म की ग्लानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं किसी योगी (महापुरुष) को पैदा करता हूँ।'- यह अर्थ समाज-शास्त्र के दृष्टिकोण से सर्वथा सुसंगत है या दूसरा अर्थ यह होगा; जब-जब धर्म की ग्लानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब कोई योगी (मैं) पैदा होता है (हूँ)।' यह अर्थ मनोविज्ञान की दृष्टि से सुसंगत है। इससे अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण और क्या हो सकता है?
तर्क से अवतारवाद का खण्डन-
इस प्रकार किसी प्रमाण से अवतारवाद के सिद्ध होने की सम्भावना नहीं। रही तर्क की बात, क्या तर्क से अवतार सिद्ध किया जा सकता है? यह और भी कठिन है। जब एक बार ईश्वर को सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी और निराकार मान लिया, तब तर्क से ईश्वर का अवतार कैसे सिद्ध किया जा सकता है? जो निराकार और सर्वव्यापी है वह आकर ग्रहण करने के लिए मां के पेट में एक स्थानबद्ध कैसे रहेगा। फिर जो जन्म लेगा वह मरेगा भी अवश्य। जो जन्म और मरण दोनों के चक्कर में पड़ा वह सामान्य मनुष्य ही होगा, ईश्वर नहीं। कहा जाता है कि राक्षसराज रावण और पापी कंस को मारने के लिए राम और कृष्ण के रूप में ईश्वर को अवतार लेना पड़ा। कैसी बचकानी-सी बात है। सोचिए किसी चीज को बनाना अधिक आसान होता है या बिगाड़ना। जिस इमारत को सैकड़ों मजदूर मिलकर महीनों तक परिश्रम करके बनाते हैं और उसी को चन्द मजदूर चन्द दिनों में गिराकर रख देंगे। मानना ही होगा कि बिगाड़ने की अपेक्षा बनाना कहीं अधिक कठिन कार्य है। सो रावण और कंस जैसे व्यक्तियों को, फिर वह कितने ही शक्तिशाली क्यों न हो, पैदा करने के लिए यदि अवतार लेने की आवश्यकता नहीं पड़ी तो उन्हें मारने के लिए अवतार लेने की आवश्यकता क्यों पड़ती? जो ईश्वर सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय जैसे महान् कार्यों को करता है उसको किसी एक व्यक्ति का नाश करने के लिए भी अवतार लेना पड़े, इससे तो ईश्वर का नहीं किन्तु रावण और कंस का ही गौरव बढ़ता है। तब तो सर्वशक्तिमान् ईश्वर नहीं, रावण ही हुआ।
ईश्वर सर्वशक्तिमान् है-
वाह, जब ईश्वर को सर्वशक्तिमान् कहते हो, अर्थात् वह सब कुछ कर सकता है, तो फिर अवतार ग्रहण क्यों नहीं कर सकता?
यह भी एक बड़ा विचित्र भ्रम लोगों में फैला हुआ है। जिस प्रकार पौराणिक बन्धु परमात्मा को सर्वशक्तिमान् कहकर 'कर्तुमकर्तुमन्यथा-कर्तुम्' अर्थात् करे, न करे या विपरीत करे- की सामर्थ्य ईश्वर में मानते हैं, वैसे ही किरानी और कुरानी भी मानते हैं। निस्सन्देह पुराणियों से ही यह मनोवृत्ति किरानी और कुरानियों में गई है। जब ईसाई या मुसलमान कहते हैं कि हमारे पैगम्बर पर ईमान लाओ और उसकी सिफारिश से खुदा तुम्हारे सब गुनाह माफ कर देगा, तब वे भी परमात्मा की सर्वशक्तिमत्ता का यही अर्थ समझते हैं कि ईश्वर सब कुछ कर सकता है तो पापों को क्षमा क्यों नहीं कर सकता? प्रायः आर्यसमाज के साथ अन्य मतावलम्बियों का जब शास्त्रार्थ होता है तब बहुधा इस शब्द पर खूब विवाद होता है, परन्तु वे यह नहीं समझते कि ईश्वर की महत्ता सृष्टि के नियमों का उल्लंघन करने में नहीं, किन्तु सबसे उन नियमों का पालन करवाने में है। यदि नियामक ही नियमों का उल्लंघन करने लगे तो वह नियामक कहाँ रहा?
यों समझिये- राष्ट्र का संविधान एक बार बन गया अब उस संविधान की अवहेलना न राजा कर सकता है, न प्रजा। यदि कोई भी उसका उल्लंघन करेगा तो उच्चतम न्यायालय उसे तुरन्त अवैध ठहरा देगा और अवैध आचरण करनेवाले का स्थान जेल के अन्दर होगा। यदि कर्म करने की स्वतन्त्रता के अधिकार की दुहाई चोर और डाकू भी देने लगें तो किसी भी राज्य में न्याय और व्यवस्था कायम नहीं रह सकती। इसी प्रकार 'विषमप्यमृतं क्वचिद् भवेदमृतं वा विषमीश्वरेच्छया'- ईश्वर की इच्छा से चाहे जब अमृत विष बन जाए या विष अमृत बन जाए- तब संसार के जितने भी डॉक्टर हैं वे किसी भी रोग का उपचार न कर सकें। सृष्टि-रचना का, सृष्टि में उत्पन्न हुए प्रत्येक पदार्थ का एक विशेष नियम अथवा प्रयोजन है- उसी को सृष्टि-रचना का संविधान कहिए। सृष्टि के आदि में स्वयं ईश्वर ने ही वह संविधान बना दिया। उस संविधान का उल्लंघन न ईश्वर स्वयं कर सकता है और न ही उसकी प्रजा। राष्ट्रों के संविधान में सरकारों की इच्छा के अनुकूल संशोधन भी होते रह सकते हैं, किन्तु ईश्वर के सृष्टि-रचना के संविधान में संशोधन भी नहीं हो सकता। जो है, सो है, क्योंकि संशोधन अपूर्णता का द्योतक है और ईश्वर के संविधान में अपूर्णता हो नहीं सकती, इसलिए उसमें संशोधन भी नहीं हो सकता। ईश्वरीय संविधान तो सदा एक जैसा ही रहेगा। ईश्वर की सार्थकता इसी में है कि जितने ग्रह-नक्षत्र हैं और चराचर जगत् है, वह सब उसी के बनाए नियमों में गति करते रहें। यदि कहीं नियम का उल्लंघन हो गया तो सृष्टि-चक्र में व्याघात पड़ जाएगा।
उदाहरण के लिए गणित का नियम है, दो और दो चार होते हैं। यह नियम सार्वत्रिक है, इसे न मैं तोड़ सकता हूँ, न ईश्वर तोड़ सकता है। मैं तोडूंगा तो मुझे व्यवहार में कठिनाई होगी, यदि परमात्मा तोड़ेगा तो उसके समस्त सृष्टि-चक्र में व्याघात उपस्थित होगा। ऐसे ही कार्य-कारण का सिद्धान्त है- अर्थात् कारण के बिना कार्य नहीं हो सकता। इसे जैसे मैं नहीं तोड़ सकता, वैसे ही परमात्मा भी नहीं तोड़ सकता। इस नियम के टूटने पर अणुओं के घात-संघात और पदार्थों की क्रिया-प्रतिक्रिया में अव्यवस्था हो जाएगी और Cosmos के स्थान पर बहुत बड़ा chaos उपस्थित हो जाएगा।
सर्वशक्तिमान् का अर्थ-
कभी-कभी बड़े मनोरंजक प्रश्न भी इसी सिलसिले में किये जाते हैं। जैसे, परमात्मा अपने जैसा दूसरा परमात्मा बना सकता है या नहीं? यदि कहें कि नहीं बना सकता तो वह सर्वशक्तिमान् नहीं रहा। यदि कहें कि बना सकता है, तो ईश्वर एक नहीं रहा, दो हो गए और जो दूसरा ईश्वर बनेगा भी, वह हूबहू पहले जैसा नहीं होगा, क्योंकि वह नकल ही होगी। यदि नकल को असल से बिलकुल मिला भी दिया, तब भी दूसरा बना हुआ ईश्वर पहले ईश्वर से हजारों साल आयु में छोटा होगा, क्योंकि पहला ईश्वर सृष्टि के आदिकाल से चला आ रहा है और दूसरा ईश्वर उसके हजारों सालों बाद प्रश्नोत्तर-काल के समय बनाया गया। इसी तरह का दूसरा प्रश्न है; जैसे बच्चे खेल में मिट्टी-गारे से इतनी बड़ी ईंट बना लेते हैं कि वह उनसे भी नहीं उठती, क्या ऐसे ही ईश्वर भी इतनी बड़ी ईंट बना सकता है जो उससे भी न उठे? यदि कहें कि नहीं बना सकता, तो वही न बना सकने की अशक्ति वाली बात आ गई यदि कहें कि बना सकता है तो न उठा सकने की बात आ गई। सर्वशक्तिमान् वह दोनों तरह नहीं रहा। न हां कहने से, न ना कहने से। एक तीसरा प्रश्न; मेरी इच्छा के विरुद्ध यदि मेरा नौकर काम करे तो मैं उसे अपने घर से बाहर निकाल दूंगा, किन्तु यदि मैं ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध आचरण करूँ तो क्या परमात्मा मुझे अपने घर से बाहर निकाल सकता है? यदि ना कहें तो सर्वशक्तिमान् नहीं रहा, यदि हां कहें तो सर्वव्यापक नहीं रहा। आखिर परमात्मा मुझे अपने घर से बाहर निकालेगा कहां-क्या कहीं ऐसा स्थान है जहां परमात्मा न हो।
इसी को कहते हैं 'उभयत:पाशा रज्जु:'- न हां कहने से छुटकारा मिले, न ना कहने से- दोनों ओर से गले में फन्दा। इसी प्रकार से अन्य अनेक मनोरंजक प्रश्न किये जा सकते हैं। इन सब फांसियों से बचने का केवल वही उपाय है जो ऋषि ने बताया है; अन्य कोई नहीं। अर्थात् सर्वशक्तिमान् का अर्थ यह नहीं है कि परमात्मा सब कुछ कर सकता है, बल्कि उसका अर्थ केवल इतना है कि परमात्मा के करने के जो काम हैं, अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय- वह स्वयं इतना समर्थ है कि इनके करने में उसे किसी अन्य की सहायता की अपेक्षा नहीं।
सर्वज्ञ और त्रिकालदर्शी-
सर्वशक्तिमान् के साथ ही दूसरा शब्द आता है- सर्वज्ञ। यदि परमात्मा सर्वज्ञ है अर्थात् वह सब कुछ जानता है तो वह अपना अन्त भी जानता होगा? यह प्रश्न भी शास्त्रार्थोपयोगी ही है। ज्ञान उसको कहते हैं जो यथार्थ हो- अर्थात् जो चीज जैसी हो उसे वैसा ही जानना ज्ञान है, इसके विपरीत अज्ञान है। ईश्वर क्योंकि अनन्त है, इसलिए उसे अनन्त समझना ही ज्ञान है, इसके विरुद्ध समझना अर्थात् परमात्मा को सान्त समझना या नाशवान् भौतिक पदार्थों को अनन्त समझना अज्ञान है। योगदर्शन के अनुसार 'क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:' ईश्वर अविद्यादि क्लेशों से रहित और इष्ट-अनिष्ट या मिश्रित फलदायक कर्मों की वासना से रहित और सब जीवों से विशिष्ट है, इसलिए सामान्य जीवों की तरह मरण द्वारा परमात्मा का जन्मान्तर नहीं होता और इस प्रकार उसके सम्बन्ध में यह प्रश्न नहीं बनता कि वह अपना अन्त जानता है या नहीं।
सर्वज्ञ का एक अर्थ है त्रिकालदर्शी- अर्थात् भूत, वर्तमान और भविष्यत् तीनों कालों को एक साथ प्रत्यक्ष देखनेवाला। यहां यह प्रश्न होता है कि ईश्वर यदि त्रिकालदर्शी है तो वह यह भी जानता है कि जीव भविष्य में क्या करेगा इससे जीव का भावी कर्म ईश्वर के ज्ञान से बंध (conditioned) गया। फिर जीव स्वतन्त्र कहां रहा? जीव भविष्य में जो कर्म करेगा, यदि परमात्मा को उसका पहले से ही ज्ञान है, तो जीव ने एक तरह से वही काम किया जो ईश्वर ने अपने ज्ञान द्वारा उसके लिए पहले से निश्चित कर दिया, फिर किसी पाप कर्म के लिए बेचारे जीव को दण्ड क्यों? यदि दण्ड मिलना ही हो तो परमात्मा को ही मिले। न परमात्मा वैसा जानता, न जीव वैसा कर्म करता।
एकरस काल-
यहां भी थोड़ा-सा भ्रम है। काल के जो तीन विभाग हैं- भूत, वर्तमान और भविष्यत्- ये केवल आपेक्षिक परिभाषाएं (Relative Terms) हैं। मुझे अपने घर की छत पर चढ़कर जितनी दूर तक का प्रदेश दिखाई देता है, यदि मैं हवाई जहाज में बैठकर देखूं तो उसकी अपेक्षा बहुत अधिक विस्तृत प्रदेश का अवलोकन कर सकता हूँ। उपग्रह में बैठकर अन्तरिक्ष की यात्रा करने वाले गागारिन और तेरेशकोवा जैसे यात्रियों को सारी पृथ्वी भी एकसाथ दीख जाती है। जैसे समीप और दूर की परिभाषाएं सापेक्ष हैं। वैसे ही भूत और भविष्य की परिभाषाएं भी सापेक्ष हैं। देश (Space) की दृष्टि से जिसे समीप और दूर कहते हैं उसी को काल (Time) की दृष्टि से वर्तमान तथा भूत और भविष्यत् कहते हैं।
यदि दार्शनिक दृष्टि से विश्लेषण करने बैठ ही जाएं तो काल के उक्त तीनों खण्डों का अस्तित्व सिद्ध करना कठिन हो जाएगा। देखिए- भूत क्या है, जो वर्तमान बीत चुका है, वही भूत है। और जो वर्तमान आगे आनेवाला है, वही भविष्यत् है। इस तरह भूत और भविष्य दोनों वर्तमान पर आधारित हैं। एक तरह से यह कहा जा सकता है- भूत और भविष्यत् वर्तमानरूपी नदी के दो तट हैं। यदि नदी नहीं, तो दोनों तट भी नहीं रहेंगे। अब वर्तमान पर विचार कीजिए कि यह क्या है? वर्तमान का कुछ भूत अंश है और कुछ अंश भविष्य- जिस क्षण को आप वर्तमान कहना चाहते हैं उसका भी कुछ अंश बीत चुका है और कुछ अंश आगे आने वाला है- आपके कहते-कहते और आपके पकड़ते-पकड़ते वर्तमान का क्षण फिसलकर भूत और भविष्यत् की कोटि में पहुंच जाता है अर्थात् वर्तमान, वर्तमान नहीं रहता और जब आपका वर्तमान ही टिक नहीं पाता तब उस वर्तमान के आधार पर चलने वाले आपके भूत और भविष्यत् कहां रुकेंगे- जब वर्तमान की ही नदी सूखी पड़ी है तब उसके भूत और भविष्यत् नामक दोनों तटों पर हरियाली कहां से आएगी? इसलिए कहना चाहिए काल अखण्ड और एकरस है। भूत और भविष्यत् की परिभाषाएं केवल अल्पज्ञ जीव के लिए हैं। जीवों के कर्मों की अपेक्षा से ही परमात्मा को त्रिकालज्ञ या त्रिकालदर्शी कहा जा सकता है, स्वतः परमात्मा के लिए त्रिकाल नहीं है- केवल एक ही महाकाल है और वह सदा उसके लिए वर्तमान ही है।
जीव कर्म करने में स्वतन्त्र-
इससे न जीव के कर्म करने की स्वतन्त्रता में बाधा आती है, न ही परमात्मा की सर्वज्ञता में। जैसा कर्म जीव करता है, वैसा ही परमात्मा जानता है, और वैसा ही वह फल देता है। परमात्मा को जैसे जीव के कर्म का ज्ञान अनादि है, वैसे ही जीव द्वारा किये गए कर्म के फल का ज्ञान भी अनादि है। ये दोनों ज्ञान उसके सत्य हैं। सार रूप से यह कहा जा सकता है कि जीव अल्पज्ञ केवल वर्तमान को जाननेवाला और कर्म करने में स्वतन्त्र है, परन्तु फल भोगने में परतन्त्र है; और परमात्मा सर्वज्ञ- सब कालों को जानेवाला और जीव को कर्मानुसार फल देने में स्वतन्त्र है। परमात्मा की कर्मानुसार फल देने की स्वतन्त्रता भी उच्छृंखलता नहीं है, अर्थात् न तो वह पाप क्षमा करता है, न ही पुण्य के लिए दण्ड देता है और न ही पाप को पुरस्कृत करता है। जैसा जिसका कर्म, वैसा उसका फल। परन्तु जीव यदि चाहे कि मेरे पाप-कर्म का फल मुझे न मिले जैसा कि आमतौर से लोग चाहते हैं, तो यह असम्भव है। कर्म का फल तो भोगना ही होगा? किस कर्म का कौन सा फल मिलेगा- यह ईश्वराधीन है और ईश्वर अपने बनाए संविधान के अधीन है।
अद्वैतवाद का खण्डन-
इस समुल्लास में ऋषि ने जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन करने वाले अद्वैतवादियों का जिस विद्वत्तापूर्ण ढंग से खण्डन किया है वह भी देखते ही बनता है। सुपठित भारतीय विद्वानों और साधु-सम्प्रदाय में अद्यापि इस वाद की बहुत मान्यता है। परन्तु, जिस आधार पर जीव और ब्रह्म की एकता स्थापित की जाती है, जैसे वह आधार निस्सार है वैसे ही उनके तर्क भी। परमात्मा के एकत्व के प्रति जो बौद्धिक रुझान आजकल दृष्टिगोचर होता है उसी का यह परिणाम है कि जीव और ब्रह्म को एक बतानेवाली फिलॉसफी आजकल बुद्धिवादी लोगों को अपनी ओर खींचती है। अद्वैतवादी जिन चार वाक्यों पर सबसे अधिक जोर देते हैं; वे चार वाक्य ये हैं-
प्रज्ञानं ब्रह्म।।१।। अहं ब्रह्मास्मि।।२।। तत्त्वमसि।।३।। अयमात्मा ब्रह्म।।४।।
इन चारों वाक्यों को वे वेद-वाक्य या महावाक्य बताते हैं; परन्तु इन चारों में से एक भी वेद-वाक्य नहीं है। महावाक्य तो ये हैं ही नहीं- किसी सत्यशास्त्र ने इनको महावाक्य नहीं लिखा और इनके कलेवर से इनको महावाक्य कह कौन सकता है? इनमें से पहला वाक्य ऐतरेय आरण्यक का है, दूसरा वाक्य बृहदारण्यक का है, तीसरा छान्दोग्य उपनिषद् का है और चौथा माण्डूक्योपनिषद् का है।
प्रज्ञानं ब्रह्म का अर्थ है- ब्रह्म ज्ञानस्वरूप है या प्रकृष्ट ज्ञानवान् है। यह अर्थ सुसंगत है, इसमें कोई विप्रतिपत्ति नहीं, परन्तु ब्रह्म के ज्ञानस्वरूप होने से यह अर्थ कहाँ से निकल आया कि ब्रह्म के सिवाय और किसी में ज्ञान का लेश भी नहीं है। जीव ज्ञानवान् है, परन्तु वह अल्पज्ञ है। ब्रह्म सर्वज्ञ है, परन्तु सर्वज्ञ ब्रह्म की सत्ता स्वीकार करने से अल्पज्ञ जीव की सत्ता का निषेध नहीं हो सकता।
'अहं ब्रह्मास्मि' का अर्थ-
अहं ब्रह्मास्मि का अर्थ यह नहीं है कि मैं ब्रह्म हूँ- जैसा कि सामान्यतया समझा जाता है, परन्तु इसका अर्थ है- 'मैं ब्रह्मस्थ हूं।' पूछा जाएगा कि 'ब्रह्मास्मि' का अर्थ 'ब्रह्मस्थ हूं' यह कैसे कर दिया गया? इसके लिए साहित्यशास्त्र के गम्भीर अध्ययन की आवश्यकता है। साहित्य का शास्त्रीय विवेचन करने वाले मम्मट के 'काव्य-प्रकाश' नामक ग्रन्थ में इसके उदाहरण दिये गए हैं, जैसे 'मञ्चा: क्रोशन्ति'- अर्थात् मञ्च या मचान पुकारते हैं, परन्तु मचान तो जड़ हैं- वे कैसे बोल सकते हैं? तब यहां मञ्च के पुकारने के मुख्य अर्थ का बाध होकर तात्स्थ्योपाधि से यह अर्थ निकलता है कि 'मञ्चस्था: क्रोशन्ति' अर्थात् मचान पर बैठे हुए लोग पुकारते हैं। कान में आने वाली आवाज की दूरी बताने के लिए यहाँ 'मचान पर बैठे मनुष्य' न कहकर संक्षेप के लिए केवल 'मचान' ही कह दिया। ऐसे ही एक उदाहरण है- 'गंगायां घोष:' अर्थात् गंगा में गांव है (घोष=गांव), नदी के अन्दर कोई गांव कैसे हो सकता है? नदी में होगा तो बह न जाएगा? इसलिए यहां भी मुख्यार्थ का बाध होकर तात्स्थ्य वा तत्सहचरितोपाधि से यह अर्थ होता है कि गंगा-तट पर गांव है। नदी के सहचारी होने से उस गांव की शीतत्व पावनत्वादि विशेषताओं को बताने के लिए 'गंगा-तट पर' न कह कर सीधे 'गंगायां=गंगा में' कह दिया गया। केवल काव्यप्रकाश के उदाहरणों के बल पर ही ऐसा अर्थ नहीं किया गया है, किन्तु साहित्य में पदे-पदे ऐसे उदाहरण मिलते हैं, और तो और आम बोलचाल में भी दिन-रात हम इस प्रकार के प्रयोग करते हैं। हम पूछते हैं, "यह सड़क किधर जाती है?" भोले मुसाफिर सड़क कहीं नहीं जाती, यह तो वहीं की वहीं रहती है- सड़क जड़ है, परन्तु सड़कस्थ लोग आते-जाते हैं। है न वही तात्स्थ्योपाधि। या हम कहते हैं 'दीवार के भी कान होते हैं।' परन्तु क्या दीवार के कभी कान हो सकते हैं? यहां तत्सहचरितोपाधि से अर्थ यह होगा कि 'दीवार का सहचारी व्यक्ति तो कहीं कोई कान लगाकर हमारी बात नहीं सुन रहा?' यदि साहित्य में इस प्रकार अर्थ न किया जाये तो अनर्थ हो जाये।
पूछा जा सकता है कि ब्रह्मस्थ तो सभी पदार्थ हैं, फिर जीव को ही ब्रह्मस्थ क्यों कहते हो? उसका उत्तर यह है कि ब्रह्म से जैसा साधर्म्य और निकटता जीव की है वैसी अन्य किसी पदार्थ की नहीं और मोक्ष के समय तो जीव ब्रह्म का सहचारी होता ही है, इसलिए जीव को ही यह कहना शोभा देता है कि 'मैं ब्रह्मस्थ हूं।'
तीसरा वाक्य है 'तत्त्वमसि'। इस वाक्य का अर्थ दो तरह से किया जाता है। एक तो यह कि ब्रह्म (तत) तू जीव (त्वम्) है (असि) या हे जीव! तू (त्वम्) वह ब्रह्म (तत्) है असि)। परन्तु ये दोनों ही अर्थ असंगत हैं, क्योंकि तत् शब्द से ब्रह्म का अर्थ लेना ठीक नहीं। जिस छान्दोग्य उपनिषद् का यह वचन है, उसमें इससे पूर्व ब्रह्म शब्द का पाठ नहीं है, इसलिए इस शब्द की अनुवृत्ति नहीं आ सकती। इस अनुवृत्ति के झगड़े की आवश्कयता भी नहीं है, क्योंकि स्वयं छान्दोग्य उपनिषद् में 'तत्त्वमसि' वाक्य की व्याख्या की गई है। उपनिषद् ने तत् का अर्थ किया है; 'तदात्मक:' अर्थात् 'उस परमात्मावाला' जब इससे भी सन्तोष नहीं हुआ तो इसके लिए दूसरा शब्द दिया- 'तदन्तर्यामी'- वह अन्तर्यामी है, जिसमें इस प्रकार 'तत्त्वमसि' का अर्थ हुआ 'तदन्तर्यामी त्वमसि'- अर्थात् तू उस परमात्मा से युक्त है। यही अर्थ उपनिषद् का अविरोधी है। इस अर्थ से जीव और ब्रह्म की एकता नहीं बनती।
चतुर्थ वाक्य है- 'अयमात्मा ब्रह्म'। इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि- 'यह परमात्मा ब्रह्म है।' परमात्मा को तो ब्रह्म हम भी कहते ही हैं, इसलिये इस अर्थ में जीव और ब्रह्म की एकता नहीं बन सकती, परन्तु यदि आत्मा का अर्थ परमात्मा न लेकर केवल जीवात्मा ही लिया जाये तब उसे यों समझना होगा कि मोक्ष अवस्था में पहुंचने पर कोई योगी कहता है- 'अयमात्मा ब्रह्म'- अर्थात् मेरा जीवात्मा ब्रह्मस्थ या ब्रह्म का सहचारी है या ब्रह्म के अनुभव में इतना निमग्न है कि हम अविरोधी या एक अवकाशस्थ हो गये। तीसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि समाधि दशा में परमात्मा का साक्षात्कार होने पर योगी कहता है कि यह जो मुझमें व्यापक है वही ब्रह्म सर्वत्र व्यापक है। इन तीनों अर्थों में से किसी में भी वेदान्त-प्रतिपादित जीव-ब्रह्म की एकता सिद्ध नहीं होती।
जीव और ब्रह्म एक नहीं-
जब साहित्य की चर्चा आ गई तो प्रतिपक्षी ने कहा- लो साहित्य से ही जीव और ब्रह्म की एकता स्थापित करते हैं। साहित्य शास्त्र में तीन शक्तियां मानी जाती हैं, अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना। सो लक्षणा का एक प्रकार है जिसे भागत्यागलक्षणा कहते हैं। इसमें कुछ अंश छोड़कर और कुछ अंश ग्रहण करके पदार्थ का वर्णन किया जाता है। जैसे 'सोऽयंदेवदत्तो य उष्णकाले काश्यां दृष्ट:, स इदानीं प्रावृट्समये मधुरायां दृश्यते' अर्थात् यह वही देवदत्त है जिसे गर्मियों में काशी में देखा था और अब वह बरसात में मथुरा में दिखाई दे रहा है। वैसे जो चीज काशी में देखी थी वह मथुरा में कैसे हो सकती है और गर्मियों में जो चीज थी वही बरसात में कैसे हो सकती है? अवस्थान्तर और स्थानान्तर होने से वस्त्वन्तर भी होना चाहिए, परन्तु यहां वाक्य के काशी और उष्णकाल वाले भाग का त्याग करके देवदत्त के शरीर मात्र को लक्ष्य करके, भागत्यागलक्षणा के अनुसार देवदत्त को मथुरा में देखते ही पहचान लेते हैं कि यह तो देवदत्त है जिसे गर्मियों में काशी में देखा था। इसी प्रकार देश, काल, माया, उपाधि आदि जैसे ब्रह्म के साथ लगे हुए हैं वैसे ही जीव के साथ भी देश, काल, माया, उपाधि (अविद्या अल्पज्ञता) लगे हुए हैं। इन सब दृष्टियों से तो जीव और ब्रह्म में अभेद है ही, क्योंकि ये सब बातें दोनों में एक-सी (common) हैं, परन्तु ईश्वर सर्वज्ञ है और जीव अल्पज्ञ है- दोनों के इन दोनों भेदपरक वाक्यर्थों को छोड़कर भागत्यागलक्षणा के अनुसार हम केवल चेतन मात्र को लक्ष्य करते हैं। क्या इस तरह दोनों की एकता नहीं बन सकती? इसके अतिरिक्त जैसे ब्रह्म सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है वैसे ही जीव के भी अस्ति, भाति और प्रिय रूप हैं। इससे भी दोनों की एकता अर्थात् अद्वैत-सिद्धि क्यों नहीं हो सकती?
ब्रह्मसूत्र के शारीरिक (शारीरिक नहीं) भाष्य के अनुसार वेदान्ती लोग ६ पदार्थों को अनादि मानते हैं, एक जीव, दूसरा ईश्वर, तीसरा ब्रह्म, चौथा जीव और ईश्वर का भेद, पांचवां अविद्या और छठा अविद्या और चेतन का योग। परन्तु, इनमें से केवल ब्रह्म ही अनादि और अनन्त है, शेष पांच अनादि किन्तु सान्त हैं, जैसे कि नैयायिकों का प्रभाव होता है। इन पांचों का आदि किसी को विदित नहीं, इसलिए ये अनादि हैं, किन्तु अज्ञान समाप्त होते ही इन पांचों का अन्त हो जाता है इसलिए सान्त हैं, परन्तु ब्रह्म का न आदि है, न अन्त, इसलिए वह अनादि और अनन्त दोनों है। संकोच से यह कहा जा सकता है कि वेदान्तियों का यह सब वाग्जाल मात्र है- वास्तव में तो उनके मत में ब्रह्म और अविद्या दो ही मुख्य हैं और इन दो में ही उनके छहों पदार्थों का अन्तर्भाव हो जाता है। अब प्रश्न यही है कि नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-स्वभाव और सर्वव्यापक ब्रह्म से अविद्या का सम्पर्क हुआ ही कैसे? यदि स्वभाव से ही अविद्या का सम्पर्क मानें तो ब्रह्म शुद्ध नहीं रहा, यदि स्वभाव के बिना सम्पर्क मानें तो उसकी आवश्यकता ही क्यों पड़ी? जब तक अविद्या और ब्रह्म का योग नहीं, तब तक कारणोपाधि ईश्वर और कार्योपाधि जीव भी कैसे बनेंगे? फिर उन्होंने ब्रह्म और अविद्या दोनों को अनादि मान लिया, उनका भी अद्वैत कैसे रहा- यह द्वैत न हो गया? ब्रह्म और अविद्या इन दोनों को साथ-साथ मानना तो बहुत कुछ वैसी ही कल्पना है जैसे ईसाई या मुसलमान खुदा और शैतान को साथ-साथ मानते हैं। वहां जैसे शैतान खुद को बरगलाता है वैसे ही यहां अविद्या ब्रह्म को विकृत करती है।
जहां तक भाग-त्याग-लक्षणा के अनुसार ब्रह्म और जीव के समानता द्योतक लक्षणों को लेकर और भेदपरक लक्षणों को छोड़कर दोनों की एकता सिद्ध करने का प्रयत्न है, उसके बारे में यही कहा जा सकता है कि यदि इस तरह एकता स्थापित करने लगेंगे तो संसार में अव्यवस्था फैल जाएगी। यह तो वैसा ही हेत्वाभास है जैसे 'जानवर उसको कहते हैं जिसमें जान हो और आदमी में क्योंकि जान है इसलिए आदमी भी जानवर है।' क्या जान होने की समानता मात्र से आदमी और जानवर का एकत्व प्रतिपादित किया जा सकता है? जैसे चींटी मुख से खाती, आंख से देखती और पांवों से चलती है, वैसे ही सब आदमी भी करता है इसलिए क्या चींटी और आदमी को एक माना जाएगा? देखना यह है कि दोनों पदार्थों में साधर्म्य कितना है और वैधर्म्य कितना? इसी साध्य के आधार पर प्राणियों का जलचर, स्थलचर और स्तनपायी आदि के रूप में वर्गीकरण होता है। यह ठीक है कि ब्रह्म और जीव दोनों में चेतनता या साधर्म्य है, परन्तु उनमें वैधर्म्य कितना है, इस पर भी कभी विचार किया है? ब्रह्म सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अपरिच्छिन्न, अनन्त ज्ञान-बल-क्रिया-सम्पन्न आनन्दस्वरूप है, परन्तु जीव अल्पज्ञ, अल्पशक्तिसम्पन्न, परिच्छिन्न और इच्छा-द्वेष-प्रयत्न-सुख-दुःखादि से युक्त है, इसलिए जीव और ब्रह्म एक नहीं हो सकते।
अद्वैतवाद का मूल- बौद्ध दर्शन-
इसी स्थान पर यदि दर्शनशास्त्र के इतिहास की दृष्टि से शंकराचार्य के अद्वैतवाद के सिद्धान्त पर विचार कर लिया जाए तो शायद अनुचित न हो। शंकराचार्य अद्वैतवाद के प्रवर्तक माने जाते हैं। अद्वैतवाद के सिद्धान्त पर जो लोग इस्लाम और सूफी सम्प्रदाय की छाप देखते हैं, उनका भ्रम निवारण करने के लिए भी अद्वैतवाद का ऐतिहासिक विवेचन अभीष्ट है। परिवर्तनशील जगत् का आदिकारण और यथार्थ तत्त्व ब्रह्म है, यह तो वेद और उपनिषदों ने प्रतिपादित कर दिया था, परन्तु यह जगत् सर्वथा असत्य है, यह स्थापना शंकर की ही है, परन्तु शंकर के इस मायावाद वा अद्वैतवाद का जनक है- बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन का शून्यवाद। भारत में चिरकाल से यह जनश्रुति चली आ रही है कि शंकर प्रच्छन्न बौद्ध है और उसका अद्वैतवाद प्रकारान्तर से बौद्ध दर्शन का ही उद्रेक है। विज्ञानभिक्षु ने सांख्य प्रवचन भाष्य की भूमिका में पद्म पुराण का यह श्लोक उद्धृत किया है 'मायावादमसच्छास्त्रं प्रच्छन्नं बौद्धमेव तु।' मायावाद असत् शास्त्र है और वह छिपा हुआ बौद्ध दर्शन ही है।
वेदान्ती अद्वैत तत्त्व की स्थापना करने के लिए जिस प्रकार सत्ता का निरूपण पारमार्थिक और व्यावहारिक दो स्तरों पर करते हैं, 'सत्ता' का इस प्रकार दो स्तरों पर भेद सबसे पहले नागार्जुन ने ही किया था। नागार्जुन जिसे 'शून्य' (Absolute) कहता है, उसी को शंकराचार्य 'ब्रह्म' कहते हैं। वस्तु तत्त्व का सर्वथा लोप करके सम्पूर्ण विश्व को 'निःस्वभाव' और 'शून्य रूप' से प्रस्तुत करने वाला यह शून्यवाद सर्वथा निषेधवाद (Nihilism) नहीं है, किन्तु शून्यवाद का कहना है कि समस्त दृश्यमान जगत् परस्पर सापेक्ष है, इसलिए वह किसी निरपेक्ष (Absolute) तत्त्व की और इंगित करता है। यह निरपेक्ष तत्व ही 'शून्य' है। यह शून्य (nothing) नहीं है, (something) है, परन्तु वह (something) केवल शून्य है। इस शून्यवाद को एक तरह से 'अद्रव्य का सिद्धान्त' (No-Substance Theory) कह सकते हैं- यही बौद्धों का अनात्मवाद है।
शून्य को समझने के लिए एक दृष्टान्त दिया जा सकता है। ज्यामिति पढ़ाने वाला शिक्षक कहता है कि बिन्दु (ponit) उसको कहते हैं जिसमें न लम्बाई हो, न चौड़ाई या सरल रेखा (straight line) उसको कहते हैं, जिसमें केवल लम्बाई ही लम्बाई हो, चौड़ाई न हो, परन्तु क्या बिन्दु कागज पर बनाया जा सकता है जिसकी न लम्बाई हो, न चौड़ाई हो। या क्या कोई ऐसी सरल रेखा कभी खींची जा सकती है जिसकी केवल लम्बाई हो और चौड़ाई न हो। जब भी कोई बिन्दु बनेगा- उसकी कुछ न कुछ लम्बाई भी होगी, कुछ न कुछ चौड़ाई भी। ऐसे ही, जब भी सरल रेखा बनेगी, उसकी कुछ न कुछ चौड़ाई अवश्य होगी परिभाषा के अनुसार बिन्दु या सरल रेखा की सत्ता असम्भव है, परन्तु इसी कारण न बिन्दु की सत्ता से इन्कार किया जा सकता है, न सरल रेखा की सत्ता से।
इसी तरह जितने भी द्रव्य हैं वे देश (space) की दृष्टि से फैले हुए (extended) है, और काल (Time) की दृष्टि से स्थिरता (duration) वाले हैं। संसार के ऐसे किसी भी पदार्थ की कल्पना हम नहीं कर सकते जिसे देश और काल ने परिच्छिन्न न कर रखा हो। यही आइन्स्टीन का सापेक्षवाद है। प्रत्येक वस्तु देश और काल की अपेक्षा से है, क्योंकि बिना देश और काल के हम किसी पदार्थ की कल्पना कर ही नहीं सकते। जैसे देश और काल ही असली उपाधि या माया हो, जो किसी भी पदार्थ के पैदा होते ही उसे घेर लेती हो, परन्तु यथार्थ तत्त्व वह है जो काल और देश के बन्धन से परे है, इनसे निरपेक्ष होने के कारण ही उसे (Absolute) कहना होगा- वही शून्य है। इस प्रकार शून्य की व्याख्या होगी- ऐसा तत्त्व जो समय की दृष्टि से चौड़ाई में (temporally) लम्बाई में (vertically) और देश की दृष्टि से चौड़ाई (horizontally) में सब ओर से बंटा हुआ हो। अर्थात् वह निरवयव है, उसमें अनेक अवयवों में रहने वाला कोई अवयवी द्रव्य नहीं। वह शून्य (positive) चीज है, (negative) नहीं।
जो व्याख्या शून्य की है, वही व्याख्या ब्रह्म की है। जिस प्रकार उपर्युक्त विवेचन शून्य पर घटित होता है, ठीक उसी प्रकार वह विवेचन ब्रह्म के साथ भी ज्यों का त्यों अक्षरशः घटित होता है। इस तरह ऐसा लगता है कि वैदिक दर्शनों का खण्डन करने के लिए और अपने अनात्मवाद की स्थापना के लिए बौद्धों ने जो सूक्ष्म और गम्भीर दार्शनिक मन्थन किया वही सारा 'आधार सामग्री' (raw material) के रूप में शंकर को मिल गया और शंकर ने बौद्धों का खण्डन करने के लिए उस सब सामग्री को ज्यों का त्यों अपना लिया। इतना ही नहीं, प्रत्युत शंकर ने उस समस्त दार्शनिक सामग्री को अपना रंग देकर (finish) उन्हीं के हथियारों से उन्हीं के तर्कजाल को काट दिया। जिन तर्कों से वे अनात्मवाद की स्थापना करते थे, उन्हीं तर्कों से शंकर ने आत्मवाद की स्थापना की। बौद्ध जिस निरपेक्ष तत्त्व को 'शून्य' कहते थे, उसी निरपेक्ष तत्त्व को शंकर ने ब्रह्म कहा। परन्तु बौद्धों की शून्यवाद की फिलॉसफी में अपनी अद्वैतवाद की कलम लगाने से शंकर को माया, उपाधि और अविद्या का भी अनादित्व स्वीकार करना पड़ा। इसके बिना उसके तथाकथित ब्रह्म का मण्डन ही न बन पाता।
यह थोड़ा-सा विवेचन हमने इसीलिए किया है जिससे कतिपय आधुनिक राष्ट्रीय नेताओं और उच्चपदस्थ विद्वानों को यह कहने का अवसर न रहे कि शंकर के अद्वैत पर इस्लाम के एकेश्वरवाद की छाया है। शंकर ने इस्लाम से कुछ नहीं लिया, जो कुछ लिया वह बौद्धों से लिया और यह बात भारतीय दार्शनिक परम्परा के इतिहास में समीचीनतया ठीक बैठती है।
ईश्वर की वैज्ञानिक परिभाषा-
यों ब्रह्मसूत्र में 'जन्माद्यस्य यत:' और योगदर्शन में 'क्लेश कर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:' कहकर ईश्वर की अपने ढंग से परिभाषा की गई है, परन्तु दार्शनिक और वैज्ञानिक दृष्टि से यदि ईश्वर की कोई व्याख्या करनी हो तो हम वेद का निम्न मन्त्र उपस्थित करेंगे-
यो भूतञ्च भव्यञ्च सर्वं यश्चाधितिष्ठति।
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।। -अथर्व० १०/८/१
अर्थात् जो भूत और भविष्यात्मक काल का तथा सर्वत्र आकाश रूप से व्याप्त देश (space) का अधिष्ठाता है और जो केवल आनन्दस्वरूप है, उस ज्येष्ठ ब्रह्म को नमस्कार है। (प्रकरणानुसार वेद में ब्रह्म शब्द प्रकृति और जीवात्मा का भी वाचक बनकर आया है, इसलिए यहां ज्येष्ठ ब्रह्म कहा है क्योंकि ब्रह्म केवल परमात्मा का ही वाचक है।
लौकिक ग्रन्थों में ईश्वर की एक परिभाषा महामुनि भर्तृहरि के नीतिशतक में मिलती है। यह देखकर आश्चर्य होता है कि व्याख्या में ईश्वर सम्बन्धी दार्शनिक और वैज्ञानिक उलझनें सर्वथा समाप्त हो जाती हैं। ईश्वर की वैज्ञानिक व्याख्या करनेवाला वह श्लोक यह है-
दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानन्तचिन्मात्रमूर्तये।
स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे।।
-दिशाओं और कल के बन्धन से रहित, अनन्त चितिमात्र ही जिसकी मूर्ति है और अपनी अनुभूति ही जिसमें एकमात्र प्रमाण है, उस शान्त तेज को नमस्कार है।
दिशा और काल के बन्धन की व्याख्या हम शून्य वाले प्रकरण में कर चुके हैं। अनन्त का अर्थ है (infinite) जो गणित-शास्त्र का (infinite) है- अर्थात् जिसमें कभी परस्पर न मिलनेवाली समानान्तर रेखाएं भी मिल जाती हैं- वैसे ही परमात्मा में भी सब विरोधों का परिहार हो जाता है इसलिये वह अनन्त है। 'स्वानुभूत्येकमानाय' की भी यथास्थान चर्चा हो चुकी है। शान्त और तेज शब्द भी परस्पर विरोधी है- जो शान्त होगा वह तेज नहीं होगा और जो तेज होगा वह शान्त नहीं होगा। परन्तु परमात्मा का तेज ऐसा ही है जो शान्त भी है और तेज भी- जैसे दीपक की लौ होती है।
वेद सबके लिए-
इसके आगे ऋषि ने वेद-सम्बन्धी चर्चा की है। इस सम्बन्ध में निम्न बातों का प्रतिपादन किया है। वेद ईश्वरकृत हैं, सृष्टि के आदि में बनाए गये हैं, ईश्वर नित्य है इसलिये उसकी रचना होने के कारण वेद भी नित्य हैं- अर्थात् प्रत्येक सर्गारम्भ में ये ही वेद आते हैं। ऋषि न केवल वेद के शब्दों को, किन्तु उनके अर्थों को भी ईश्वरप्रदत्त मानते हैं- अर्थात् पुस्तक रूप में तो वेद अनित्य हैं, किन्तु ज्ञानरूप में जहां तक शब्दों और उनके अर्थों का सम्बन्ध है, वेद नित्य है। इसी प्रसङ्ग में उन्होंने विकासवाद का भी खण्डन किया है। वेदज्ञान का प्रकाश अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा इन चारों ऋषियों पर हुआ। जो ब्राह्मण ग्रन्थ हैं उस में वेदों की व्याख्या है, परन्तु वे ग्रन्थ स्वयं वेद नहीं हैं। जो वेदों की शाखाएं हैं, वे भी शाखा मात्र हैं, वेद-कोटि में नहीं आती- अर्थात् चारों वेदों के ब्राह्मण, छह अंग, छह उपांग, चार उपवेद और वेदों की ११२७ शाखाएं, ये सब महर्षियों के बनाए ग्रन्थ हैं। ये सब परत:प्रमाण हैं और स्वतःप्रमाण केवल चार वेद ही हैं। वेदों की भाषा संसार की सब भाषाओं की मूल है, वेदभाषा किसी देश-विदेश की भाषा नहीं है। जिस भाषा में वेद हैं, यदि वह किसी देश की भाषा होती तो उससे परमात्मा का पक्षपात प्रकट होता। जैसे ईश्वर द्वारा रचित सृष्टि के अन्य पदार्थों पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता, वैसे ही वेदों पर भी ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं है- वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी वर्णों और संसार के सब देशवासियों के लिए हैं।
विकासवाद के अनुयायी वैज्ञानिक यह कहते हैं कि वेदों को ईश्वररचित मानने की कोई आवश्यकता नहीं, Trial and Error के सिद्धान्त के अनुसार जैसे बच्चा गिरते-पड़ते अन्त में चलना सीख ही लेता है, वैसे ही मानवजाति भी विकास करते-करते वेदज्ञान तक पहुंच जाएगी।
मानवीय ज्ञान नैमित्तिक-
इसके उत्तर में निवेदन है कि मानव में तथा सृष्टि के अन्य प्राणियों में एक बहुत बड़ा अन्तर है। अन्य प्राणियों के गुण-कर्म-स्वभाव जैसे भी होते हैं जन्मकाल से ही होते हैं। इसीलिए वे जो काम करते हैं, वह पशु-प्रवृत्ति या Animal Instinct कहलाती है। जो मांसाहारी प्राणी हैं उनके बच्चों को मांस खाना या जो वनस्पतिभोजी हैं उनके बच्चों को वनस्पति खाना सिखाना नहीं पड़ता। अपने इस स्वभाव को वे बदल भी नहीं सकते। शेर कभी घास नहीं खाएगा और गाय कभी मांस नहीं खाएगी। इसी तरह भैंस का बच्चा या बत्तख अपने जन्मकाल से ही बिना सिखाए पानी में तैरना जानते हैं, परन्तु आज तक यह कभी नहीं देखा कि किसी बड़े से बड़े तैराक का बालक भी बिना सिखाए पानी में तैरना जानता हो। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि मनुष्य का जितना भी ज्ञान है, वह नैमित्तिक है। मनुष्य अपने माता-पिता या साथियों का अनुकरण करके या किसी गुरु के सिखाने से ही सीखता है। यदि मनुष्यसमाज से अलग करके किसी बालक को जानवरों से भरे समाज में या एकान्त में रख दिया जाए तो उसमें न वाणी का विकास होगा, न अन्य मानवीय ज्ञान का। इस प्रकार के परीक्षण अनेक बार किये जा चुके हैं। जो जंगली जातियां हैं, वे हजारों सालों से असभ्यता का शिकार हैं। यदि स्वयं ज्ञान का विकास होता तो इस वैज्ञानिक युग में जंगली जातियां कहीं दृष्टिगोचर नहीं होतीं, परन्तु उचित मार्ग-निर्देशन मिलने पर उनके जीवन में भी परिवर्तन परिलक्षित होता है। जैसे वर्तमान समय में हम अपने गुरुओं से पढ़कर विद्वान् होते हैं। वैसे ही सृष्टि के आरम्भ में अग्नि आदि ऋषियों को परमात्मा ने वेदों का ज्ञान दिया और उसके बाद से फिर गुरु-शिष्य परम्परा चल पड़ी। वेद की आवश्यकता ऋषि ने इन शब्दों में प्रकट की है, "जैसे माता-पिता अपने सन्तानों पर दया दृष्टि कर उनकी उन्नति चाहते हैं, वैसे ही परमात्मा ने सब मनुष्यों पर कृपा करके वेदों को प्रकाशित किया है, जिससे मनुष्य अविद्यान्धकार के भ्रमजाल से छूट कर विद्या-विज्ञान रूप को प्राप्त होकर आनन्द में रहें और विद्या तथा सुखों की वृद्धि करते जाएं।"
ईश्वरीय ज्ञान का अर्थ-
वेद 'ईश्वरीय ज्ञान' है, यह कहते हुए एक भ्रम भी हो सकता है जिसका निराकरण कर देना आवश्यक है। 'ईश्वरीय ज्ञान' शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं- एक तो ईश्वर-सम्बन्धी ज्ञान, और दूसरे ईश्वर द्वारा प्रदत्त ज्ञान। यदि वेद में ईश्वर-सम्बन्धी ज्ञान ही माना जाए, जैसा कि अनेक लोग उन्हें 'आध्यात्मिक ग्रन्थ' कहकर प्रकट करना चाहते हैं, तो वह वेद के स्तर को गिरा देना होगा। क्योंकि वेद में केवल ईश्वर-सम्बन्धी ज्ञान ही नहीं है, उसमें जीवात्मा और प्रकृति सम्बन्धी और मानव जीवन सम्बन्धी ज्ञान का भी अक्षय भण्डार है। इसलिये 'ईश्वरीय ज्ञान' का अर्थ ईश्वर द्वारा प्रदत्त ज्ञान ही समझना चाहिए- तभी आर्यसमाज के तीसरे नियम में वर्णित ऋषि की यह घोषणा अर्थवती सिद्ध होगी-
"वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।"
-'आर्योदय (साप्ताहिक) १९६३' का सत्यार्थप्रकाश विशेषांक
[स्त्रोत- परोपकारी : महर्षि दयानन्द सरस्वती की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा का मुख पत्र का मार्च २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
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