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श्रम से उपार्जित खावें, अकेले न खावें



श्रम से उपार्जित खावें, अकेले न खावें

-पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय

मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता: सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी।। (ऋग्वेद १०/११७/६, तैत्तिरीय ब्राह्मण २८/८/३, निरुक्त ७/३)

अन्वय :- अप्रचेता: मोघं अन्नं विन्दते। स तस्य वध इत्। स आर्यमरणं न पुष्यति। न स सखायां पुष्यति। केवलादी केवलाघ: भवति। इति अहं सत्यं ब्रवीमि।।
अर्थ- (अप्रचेता:) बुद्धि शून्य अर्थात् मूर्ख आदमी (मोघ अन्नं) मुफ्त का भोजन, बिना कमाया हुआ भोजन (विन्दते) पाने का यत्न करता है अर्थात् अपने भोजन के लिए कुछ करना नहीं चाहता। (स) उसका ऐसा व्यापार (तस्य) उसके (वधइत्) नाश का ही कारण है। (केवलादी) जो अकेला खाने वाला है वह (केवलाघ:) केवल पाप का भागी (भवति) होता है। (सत्यं ब्रवीमि) मैं सत्य कहता हूं अर्थात् इस कथन के सच होने में किंचन मात्र भी सन्देह नहीं है।

व्याख्या :- जीवन के दो बड़े विभाग हैं। एक भोग और दूसरा कर्म। प्रश्न यह है कि इन दोनों का महत्व समान है अथवा एक गौण है और दूसरा मुख्य। यदि ऐसा है तो मुख कौन है और गौण कौन है?
तुलसीदास का कहना है कि-
कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
जो जस करै सो तस फल चाखा।।
अर्थात् कर्म प्रधान है और भोग गौण। अब तनिक अपनी प्रवृत्तियों पर विचार कीजिये। आपका मन क्या गवाही देता है? आपने एक घोड़ा मोल लिया। उससे कुछ काम लेंगे और कुछ उसे भोजन देंगे। उसे कुछ करना है और कुछ भोगना है। आपको सवारी देना उसका कर्म है, दाना घास खाना उसका भोग है। उन दोनों में से मुख्य कौन हैं और गौण कौन? आप चूंकि भोजन देते हैं इसलिए काम लेते हैं अथवा काम लेते हैं इसलिए भोजन देते हैं। आप की प्रथम भावना क्या थी और दूसरी भावना क्या हुई? आप कहेंगे कि हमको घोड़े से काम लेना था। इसलिए हमको उसके खरीदने की इच्छा हुई। और क्योंकि बिना भोजन दिए काम लेना असम्भव है अतः उसको भोजन भी देते हैं। यदि बिना भोजन दिये आप काम ले सकते तो केवल उसके काम की ही परवाह करते, उसके खाने की नहीं। जो बेगार में काम कराते हैं वे जानते हैं कि बेगार वाला बिना भोजन के भी काम करने पर मजबूर होगा। इसलिये वह भोजन की परवाह नहीं करते। अतः सिद्ध हुआ कि कर्म मुख्य है और भोग गौण। आवश्यक होते हुये भी उसकी आवश्यकता को प्राथमिकता नहीं दी जा सकती।

इस सिद्धान्त के विरुद्ध एक बात कही जा सकती है। प्रायः संसार में लोग भोग के लिए ही कर्म करते हैं। यदि भोग की आशा नहीं होती तो नहीं करते। एक चिकित्सक इसलिए चिकित्सा नहीं करता कि उसे चिकित्सा का ज्ञान या सामर्थ्य है अपितु इसलिए कि उससे आर्थिक लाभ होगा। एक वकील इसलिए वकालत नहीं करता कि वह वकालत के काम में दक्ष है अपितु इसलिए कि उसे पैसा मिलता है। इसलिए लोगों ने अर्थ को ही सर्वोपरि माना है। सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयन्ति। कांचन का अर्थ है भोग।
यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो (अफलातून) ने अपने ग्रन्थ रिपब्लिक (शासन तंत्र) में इस प्रश्न पर अच्छा प्रकाश डाला है। वह कहता है कि क्या एक अध्यापक इसलिए अध्यापक कहलाता है कि वह अध्यापन का कार्य करता है अथवा इसलिए कि वह अमुक वेतन पाता है। एक डॉक्टर को आप इसलिए डॉक्टर कहते हैं कि वह डॉक्टरी करता है अथवा इसलिए कि वह इतना धन कमाता है। एक सैनिक का सैनिक नाम उसके कर्म के कारण हुआ अथवा उसकी वेतन के कारण। यह तो ठीक है कि अध्यापक, वकील सैनिक या डॉक्टर सब जीविका उपार्जन करते हैं और जीविका के लिये ही काम करते हैं। परन्तु यह बात तो सभी में सामान्य है। और यदि जीविका-उपार्जन को ही मुख्य माना जाय तो सब एक से होंगे, विशेषता न होगी। तथा हर एक का सम्मान उसकी आर्थिक मात्रा के अनुसार होना चाहिये। परन्तु समाज का ऐसा नियम तो नहीं है। एक रोगी मनुष्य डॉक्टर की खोज करता है तो उसकी धनाढ्यता को ना देखकर उसकी डॉक्टरी की योग्यता को देखता है। ऐसे डॉक्टर को बुलाओ जो डॉक्टरी अच्छी कर सके। यह प्रवृत्ति तुलसीदास के ऊपर के कथन को पुष्ट करती है कि न केवल 'विश्व' नामक परमात्मा ने ही अपितु विश्व मानव समाज ने कर्म को भोग पर प्रधानता दी है।
जब इतना निश्चित हो गया तो भोग को कर्म के आधीन रखना होगा, कर्म को भोग के अधीन नहीं। कर्म आधार है भोग आधेय है। आधेय बिना आधार के ठहर नहीं सकता। इसलिए वेदमन्त्र कहता है मोघं अन्नं विन्दते अप्रचेता: अर्थात् मुफ्त का खाने की इच्छा करने वाला मूर्ख है। वह भोग को प्रथमता देता है। यह बात सृष्टि के नियम के विरुद्ध है। जिस अंधेरनगरी में टका सेर भाजी और टके सेर खाजा बिकता था वह नगरी पूरी अंधेरनगरी न थी। कुछ तो उजाला भी था। पूरी अंधेरनगरी वह होती जहां खाजा और भाजी मुफ्त मिला करती। और टका कमाने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। डॉक्टर डॉक्टरी सीखता भी इसलिए है कि उसे पूर्ण विश्वास है कि जिस भोग की उसे आकांक्षा है सृष्टिक्रम उसको कर्म पर प्रधानता नहीं देता। मूल्य तो उसी चीज का दिया जाता है जो मूल्यवान् हो। कपड़ा अपने मूल्य से बड़ा है। मूल्य का मूल्य भी कपड़े की अपेक्षा से है ना कि मूल्य की अपेक्षा से, इसलिए कर्म की प्रधानता है और कर्म की अवहेलना अथवा बिना कर्म के भोजन की इच्छा करना परले दर्जे की मूर्खता है। जिस पुरुष को थोड़ी सी भी बुद्धि है वह ऐसी मूर्खता कभी नहीं करेगा। संसार को काम प्यारा है चाम नहीं।

वेद मन्त्र कहता है "सत्यं ब्रवीमि" इसका तात्पर्य यह है कि यह कोई छोटी बात नहीं है, जिसको सुनी-अनसुनी कर दिया जाय। मानव जीवन के विकास के लिए यह एक अत्यन्त गम्भीर बात है। मुफ्त भोजन खाने की इच्छा विश्वव्यापी और सांक्रमिक रोग है जिसने मानव जाति को सबसे अधिक पीड़ित किया है। हर नर नारी को इससे सतर्क रहने की आवश्यकता है। यह मीठा विष है जिसकी हानि को बुद्धिमान् मनुष्य ही सोच सकते हैं। "वध इत् स तस्य" जो इस रोग में फंस गया उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है। वह किसी प्रकार बच नहीं सकता।
इस कथन की तथ्यता पर थोड़ा सा विचार कीजिये। मुफ्त खाकर अपने ऊपर परीक्षण कर लीजिए अथवा दूसरे मुफ्तखोरों के जीवन का निरीक्षण कीजिये। कुदरत को यह अभीष्ट नहीं कि मुफ्तखोरों को रहने दे। थोड़ी देर के लिए सहन अवश्य करती है, वह भी उतना ही जितना हर पाप को। वह मनुष्य को अवसर देती है कि यदि वह स्वयं ही अपनी भूल का अनुभव करे और सुधर जाय तो अच्छा है। परन्तु इसमें दण्डविधान तो काम करता ही है। माता-पिता अपनी संतान की निर्बलताओं को यथाशक्ति तथा अत्यन्त सहिष्णुता के साथ सहन करते हैं और बड़ी से बड़ी भूलों की उपेक्षा करते हैं। परन्तु निठल्ली सन्तान से वह भी तंग आ जाते हैं और उनका भी स्वभाविक प्रेम-तन्तु टूट जाता है। इसलिये मुफ्तखोरी से बड़ा कोई पाप नहीं। और सर्वथा नाश ही उस पाप का एकमात्र दण्ड या प्रायश्चित है। इसलिए वेदमन्त्र ने कहा- वधइत् स तस्य। यहां 'इत्' विशेष अर्थ है। मनुष्य की स्वार्थ सिद्धि भी तभी होती है जब वह दूसरों के हित की बात सोचता है। व्यवसाय जगत् पर दृष्टि डालिये। कोई व्यवसाय चल नहीं पाता जब तक उसका आधार परार्थ न हो। कपड़े का व्यापारी दूसरों के हित को दृष्टि में रखकर कपड़े बनाता है। हलवाई दूसरों की रुचि को देखकर मिठाईयां बनाता है। आप जितना परहित को दृष्टि में रखकर व्यापार करेंगे उसमें उतनी ही अधिक सफलता होगी। हर व्यवसाय के लिए प्रश्न रहता है कि उसके साफल्य के लिए बाजार (मार्केट) चाहिए। 'बाजार' का क्या अर्थ? यही न कि जिस वस्तु को आप अपने स्वार्थ का साधन बनाना चाहते हैं उसमें दूसरे मनुष्यों का कितना हित निहित है। इससे विदित होता है कि परोपकार आपका पहला कर्तव्य और ध्येय होना चाहिए।

परोपकार के दो रूप हैं। एक विनिमय अर्थात् जो आपके साथ जितनी भलाई करे उसका कम से कम उतना बदला तो तुम दे ही दो। दस रुपये की चीज पाकर उसको दस अवश्य दो। अर्थात् 'मोघ अन्न' की प्राप्ति मत करो। मत समझो कि चार रुपये में दस का माल मिल गया तो तुम लाभ में हो। यह मुफ्त के छः रुपये जिसको तुम लाभ समझते हो अन्त में तुम्हारे नाश का कारण सिद्ध होंगे। व्यवसाय में जिसको चालाकी और धोखाधड़ी कहा जाता है वह व्यवसाय की अवनति का कारण होता है। यदि सत्य के आधार पर समस्त जगत् की स्थिति है (सत्येनोतभिता भूमि: -ऋग्वेद १०/८५/१) तो व्यवसाय जो जगत् का ही एक छोटा सा अंश है असत्य पर कैसे टिक सकता है। कहते हैं कि व्यापार की सफलता के लिए साख चाहिए। साख का अर्थ ही यह है कि लोगों को विश्वास हो कि तुम दस रुपये में पूरे दस का माल देते हो। भारतवर्ष के प्राचीन ग्रन्थों में तथा ऐतिहासिक और अर्ध-ऐतिहासिक उदाहरणों में सत्य की बड़ी महिमा गाई गई है, परन्तु दुर्भाग्यवश वह महिमा धर्म ग्रन्थों और धर्म उपदेशों तक ही सीमित है। व्यावहारिक जीवन में उसका प्रयोग बहुत कम है। मैं यहां एक ही उदाहरण दूंगा। डर्बन में मुझे एक सुन्दर कम्बल दिया गया। उसमें फैक्ट्री की ओर से एक चिट लगी थी, उसमें लिखा था कि इस कम्बल में साठ प्रतिशत ऊन है, शेष रुई है। यदि भारतीय फैक्टरी होती तो यह लिखा होता कि इसमें शत प्रतिशत ऊन है। प्रसिद्ध है कि लंदन का कुंजड़ा आपको स्पष्ट कह देगा कि अमुक सेव खट्टा है। क्या प्रयाग और काशी में भी ऐसे कुंजड़े मिलेंगे? सुना है कि इंग्लैंड आदि देशों में पानी में दूध मिला कर बेचते हैं और स्पष्ट कहते हैं कि इतना दूध है और इतना पानी। क्योंकि पानी मिला दूध पचाने के लिए हल्का समझा जाता है। क्या भारत में कोई हलवाई ऐसा करेगा? क्या भारत के व्यवसाइयों को यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि "मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता:"।

परोपकार का दूसरा रूप है दान। जब आप मूल्य का विनिमय करते हैं तो पूरा बदला नहीं दे पाते। पूरे दाम चुकाने पर भी कुछ न कुछ रह जाता है। मनुष्य स्थूल रूप से तो दूसरों के परोपकार पर जीवित ही रहता है। परन्तु बहुत से परोक्ष, अदृश्य और सूक्ष्म रूप है, जिनका परिगणन कठिन होता है। जैसे आप किसी अंधेरी सड़क पर जा रहे हैं। किसी पास के मकान से विद्युत-दीपक की किरणें आ रही हैं। आप इनका मूल्य तो नहीं चुकाते, न मकान वाला आपसे विनिमय मांगता है। परन्तु आपको  उससे लाभ अवश्य हुआ है। यहां दान का प्रश्न उठता है। यह परोक्ष लाभ ही मुफ्त खोरी होगी यदि आप दान नहीं देते इसलिए छान्दोग्य उपनिषद् में धर्म के तीन काण्डों का निरूपण करते समय पहले काण्ड में दान को भी शामिल किया है (त्रयो धर्मस्कन्धा: यज्ञोऽध्ययनं दानमिति प्रथम: तप: एव।) जो 'मोघ अन्न' के पाप से बचना चाहता है उसे दान देना चाहिए। क्योंकि आप के भोगों में दूसरों की देन है। इसका बदला दान से ही हो सकता है। आप का दान सृष्टि के सूक्ष्म नियमों द्वारा उन तक भी पहुंच जाता है  जो आपसे अपने उपकारों का मूल्य नहीं मांगते। जो दान नहीं देता उसके लिए वेद कहता है कि वह (न अर्यमणं पुष्यति न सखायं पुष्यति) अर्थात् वह अपने किसी हितेषी का पोषण नहीं करता। अर्यमा का अर्थ है कि परम स्नेही (Bosom friend देखो मोनियर विलियम्स की संस्कृत डिक्शनरी)। 'सखा' का अर्थ है 'साथी' या "हम-पेशा" एक ही काम करने वाले।
अन्त में वेदमन्त्र ने दान न देने वाले कि घोर निंदा की है। केवलाघो भवति केवलादी जो अकेला खाता है उसके पास अन्त में 'पाप' के सिवाय कुछ शेष नहीं रहता। अर्थात् उसके समस्त पुण्य क्षीण हो जाते हैं। जब पुण्य क्षीण हो गए तो सुख किसका मिले? पुण्य के क्षीण होते ही सुखों का भी क्षय हो जाता है।

अंग्रेजी में एक कहावत है- दान धन का नमक है। (Charity is the salt of riches)। अंग्रेजी शब्द साल्ट का अर्थ है नमक। नमक का अर्थ है फलों को सुरक्षित रखने का साधन। जैसे यदि आप नींबू या आम को कई महीनों सुरक्षित रखना चाहे तो उसमें नमक मिलाकर रखें। नींबू या आम बिगड़ेगा नहीं। इसी प्रकार आप यदि अपने धन की रक्षा करना चाहते हैं तो दान देते रहिये। दान से धन घटता नहीं, बढ़ता है। दान उभयपक्षी हित है। हमसे दान पाने वाले का तो हित होता ही है, दान देने वाले का उससे कम हित नहीं होता। इसीलिए यास्काचार्य ने दान देने वाले को 'देव' संज्ञा दी है ('देवो दानाद् वा') दान दाता देव है। जो दान नहीं देता वह अदेव या असुर है। "केवलाघ" है। स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास में तैत्तिरीय उपनिषद् का दान की महिमा में एक सुन्दर उद्धरण दिया है-
"श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम्।"
'श्री स्वामीजी इसका अर्थ देते हैं श्रद्धा से देना, अश्रद्धा से देना, शोभा से देना, लज्जा से देना, भय से देना और प्रतिज्ञा से भी देना चाहिए। (तैत्तिरीय प्रपाठक ७ अनुवाक ११, सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास ३)'
अश्रद्धा और लज्जा से भी देने पर क्यों बल दिया गया? इसका तात्पर्य है कि कभी-कभी सात्विक भावनाओं की कमी होने पर यदि मनुष्य किसी पाप की प्रवृत्ति में फंसने लगता है तो समाज का भय उसे दल-दल में फिसलने से बचा लेता है। और कालान्तर में उसकी सतोगुणी प्रवृत्ति लौट आती है। डूबते को तिनके का सहारा। अश्रद्धा से देते-देते भी श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। अश्रद्धा और लज्जा से दिया हुआ दान भी दूसरों के उपकार में लगता ही है।

अथर्ववेद में अतिथि-सत्कार के सम्बन्ध में बहुत अच्छा उपदेश है जो 'केवलादी' के दोष का निरूपण करता है-
इष्टं च वा एष पूर्तं च गृहाणामश्नाति य: पूर्वोऽतिथेरश्नाति।। -अथर्ववेद ९/९/१
अर्थात् जो गृहस्थ अतिथि को बिना पहले खिलाये स्वयं खा लेता है वह घरों की श्री को खा जाता है अर्थात् नाश कर देता है।
अर्थात् गृह की शोभा इसी में है कि हम अकेले ना खायें।

[स्त्रोत- आर्ष क्रान्ति : आर्य लेखक परिषद् का मुख पत्र का मई २०१९ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

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