Skip to main content

सत्संग महिमा



सत्संग महिमा

कु० रविता आर्या सुपुत्री श्री ओ३म् आर्य

सत्संग-सतां संग: सत्संग:, सद्मिर्वा संग: अर्थात् सज्जन पुरुषों का या सज्जन पुरुषों से संग-समागम करना चाहिए। उनके मनोहर उपदेश सुनना और उन पर आचरण कर ब्रह्मचर्यादि उत्तम व्रतों का पालन करना चाहिए।
हमारे शास्त्र सत्संग की महिमा से भरे पड़े हैं। सज्जनों का संग करने से हमारे जीवन में पवित्रता आएगी, जिससे हम अपने वास्तविक उद्देश्य की ओर अग्रसर हो सकेंगे। सत्संग की महिमा अपार है। किसी कवि ने कितना सुन्दर कहा है-

चन्दनं शीतलं लोके चन्दनादपि चन्द्रमा:।
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगति:।।
अर्थात् संसार में चन्दन को शीतल माना जाता है। चन्द्रमा की सौम्य किरणें तो उसको भी अधिक शीतलतर है। किन्तु चन्दन और चन्द्रमा से भी अधिक शीतलतम साधु-संगति=साधु महात्माओं का सत्संग है।

अथर्ववेद में उत्तम और अधम पुरुषों के संग का वर्णन करते हुए बतलाया है-
दूरे पूर्णेन वसति दूरे ऊनेन हीयते।
महद्यक्षं भुवनस्य मध्ये तस्मै बलि राष्ट्रभृतो भरन्ति।।
अर्थात् उत्तम के साथ रहने से (दूरे वसति) सामान्य जनों से दूर रहता है। (ऊनेन) हीन के साथ रहने से भी (दूरे हीयते) पतित हो जाता है। (भुवनस्य मध्ये) सब लोक-लोकान्तरों में एक सबसे बड़ा पूजनीय देव परमात्मा है (तस्मै) उसी के लिए (राष्ट्रभृत: भरन्ति) राष्ट्र को धारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष बलि अर्पण करते हैं।

यद्यपि दूर तो दोनों ही होते हैं, परन्तु उत्तम का संग करने वाला आदरणीय तथा अधम का साथी निन्दनीय होता है। आचार्य चाणक्य ने तो दुर्जनों को सर्प से भयंकर बतलाया है-
सर्पश्च दुर्जनश्चैव वरं सर्प्नो न दुर्जन:।
सर्पो दशति काले दुर्जनस्तु पदे-पदे।।
अर्थात् सर्प और दुर्जन में से सर्प ही अच्छा है क्योंकि सर्प तो काल आने पर काटता है लेकिन दुर्जन तो पग-पग पर प्रहार करता है।

दुष्टों की मैत्री कभी स्थिर नहीं रहती। विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र में कहा है-
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण,
लघ्वी पुरा बुद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना,
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।
अर्थात् दुर्जनों की मित्रता आरम्भ में बहुत बड़ी होती है, किन्तु उत्तरोत्तर घटती ही जाती है, जैसे- प्रातःकाल छाया बहुत बड़ी होती है, किन्तु दोपहर तक कम होकर न्यूनतम रह जाती है। इसके विपरीत सज्जनों की मित्रता आरम्भ में नाममात्र होती है, किन्तु उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। इसलिए दुर्जनों की मित्रता को प्रारम्भ में फूला-फूला देखकर उसमें फंसना नहीं चाहिए। अतः हमेशा सज्जनों का संग करना चाहिए। क्योंकि-

मलयाचलगन्धनेन त्विन्धनं चन्दनायते।
तथा सज्जनसंगेन दुर्जन: सज्जनायते।।
अर्थात् जैसे मलयाचल चन्दन के पर्वत पर निकट का इंधन भी चन्दन बन जाता है, उसमें भी चन्दन जैसी सुगन्ध आने लगती है, ठीक उसी प्रकार सज्जनों की संगति से दुर्जन भी सज्जन बन जाते हैं।
'जैसा संग वैसा रंग' कहावत के अनुसार सत्संग करने से मनुष्य श्रेष्ठ बन जाता है और कुसंग में पड़कर अधम बन जाता है। संग का रंग अवश्य चढ़ता है।
कुछ दृष्टान्त देखिए जिन्होंने सत्संग को पाकर पुनः सन्मार्ग को ग्रहण किया।

नास्तिक मुंशीराम वकील बरेली में महर्षि दयानन्द जी के सत्संग में सम्मिलित हुआ था। वह उस समय सभी मर्यादाओं से पराङ्मुख हो चुका था, किन्तु महर्षि के उपदेशों का इतना गहरा प्रभाव हुआ कि वह नास्तिक मुंशीराम के स्थान पर ईश्वर का श्रद्धालु भक्त वीर सेनानी स्वामी श्रद्धानन्द बन गया।

इसी तरह एक दिन महर्षि दयानन्द जी को अमीचन्द ने एक गीत सुनाया। उसके गीत को सुनकर ऋषि अत्यन्त प्रसन्न हुए और कहा- 'अमीचन्द, तू है तो हीरा किन्तु कीचड़ में पड़ा है।' इतना कहा था कि शराबी, कबाबी और वेश्यागामी अमीचन्द सब पापों को छोड़कर सच्चा आर्य बन गया और अपना सम्पूर्ण जीवन आर्यसमाज के प्रचार कार्य में लगा दिया।

पेशावर में सिपाही लेखराम को २५ वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालने का आदेश दिया था। महर्षि के ब्रह्मचर्य का उस पर ऐसा प्रभाव हुआ कि उसने पच्चीस के स्थान पर ३६ वर्ष तक पालन किया और आगे चलकर वही लेखराम, धर्मवीर पण्डित लेखराम के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे, जिन्होंने सत्संग से अपने जीवन की काया पलट दी। संसार में हम कोई भी काम करते हैं तो उसमें लाभ के साथ-साथ हानि की सम्भावनाएं भी होती हैं, परन्तु सत्संग में लाभ ही लाभ होता है, हानि की कोई सम्भावना नहीं रहती।
पथिक जी ने सत्संग का वर्णन करते हुए कितना सुन्दर गीत लिखा है-

पी सद्ज्ञान का जल रे मना।
सत्संग वाली नगरी चल रे मना।।
इस नगरी में ज्ञान की गंगा,
जो भी नहाए हो जाए चंगा,
मल-मल के हो निर्मल रे मना।। सत्संग...।
सत्संग का यह असर हुआ है,
बाहर से सब बदल गया है,
अन्दर से तू बदल रे मना।। सत्संग...।
सत्संग के हैं अजब नज़ारे,
बहुत सुहाने बहुत ही प्यारे,
पा सुख-शान्ति का फल रे मना।। सत्संग...।
सत्संग का तो फल है निराला,
मन-मन्दिर में करके उजाला,
कर जीवन को सफल रे मना।। सत्संग...।
किस्मत का चमका है सितारा,
उदित हुआ है भाग्य तुम्हारा,
अवसर जाए न निकल रे मना।। सत्संग...।
चल के 'पथिक' शुभकर्म कमा ले,
इस अवसर से लाभ उठा ले,
देर ना कर इक पल रे मना।। सत्संग...।

[स्त्रोत- आर्य प्रतिनिधि : आर्य प्रतिनिधि सभा हरियाणा का पाक्षिक मुखपत्र का मई द्वितीय २०१९ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

Comments

Popular posts from this blog

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो!

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो! वर्तमान समय में मनुष्यों ने भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय अपनी मूर्खता से बना लिए हैं एवं इसी आधार पर कल्पित धर्म-ग्रन्थ भी बन रहे हैं जो केवल इनके अपने-अपने धर्म-ग्रन्थ के अनुसार आचरण करने का आदेश दे रहा है। जैसे- ईसाई समाज का सदा से ही उद्देश्य रहा है कि सभी को "ईसाई बनाओ" क्योंकि ये इनका ग्रन्थ बाइबिल कहता है। कुरान के अनुसार केवल "मुस्लिम बनाओ"। कोई मिशनरियां चलाकर धर्म परिवर्तन कर रहा है तो कोई बलपूर्वक दबाव डालकर धर्म परिवर्तन हेतु विवश कर रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक सम्प्रदाय साधारण व्यक्तियों को अपने धर्म में मिला रहे हैं। सभी धर्म हमें स्वयं में शामिल तो कर ले रहे हैं और विभिन्न धर्मों का अनुयायी आदि तो बना दे रहे हैं लेकिन मनुष्य बनना इनमें से कोई नहीं सिखाता। एक उदाहरण लीजिए! एक भेड़िया एक भेड़ को उठाकर ले जा रहा था कि तभी एक व्यक्ति ने उसे देख लिया। भेड़ तेजी से चिल्ला रहा था कि उस व्यक्ति को उस भेड़ को देखकर दया आ गयी और दया करके उसको भेड़िये के चंगुल से छुड़ा लिया और अपने घर ले आया। रात के समय उस व्यक्ति ने छुरी तेज की और उस

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर प्रियांशु सेठ हमारे पौराणिक भाइयों का कहना है कि मूर्तिपूजा प्राचीन काल से चली आ रही है और तो और वेदों में भी मूर्ति पूजा का विधान है। ईश्वरीय ज्ञान वेद में मूर्तिपूजा को अमान्य कहा है। कारण ईश्वर निराकार और सर्वव्यापक है। इसलिए सृष्टि के कण-कण में व्याप्त ईश्वर को केवल एक मूर्ति में सीमित करना ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव के विपरीत है। वैदिक काल में केवल निराकार ईश्वर की उपासना का प्रावधान था। वेद तो घोषणापूर्वक कहते हैं- न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः। हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः।। -यजु० ३२/३ शब्दार्थ:-(यस्य) जिसका (नाम) प्रसिद्ध (महत् यशः) बड़ा यश है (तस्य) उस परमात्मा की (प्रतिमा) मूर्ति (न अस्ति) नहीं है (एषः) वह (हिरण्यगर्भः इति) सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों को अपने भीतर धारण करने से हिरण्यगर्भ है। (यस्मात् न जातः इति एषः) जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा जो प्रसिद्ध है। स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्य

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती प्रियांशु सेठ आजकल सदैव देखने में आता है कि संस्कृत-व्याकरण से अनभिज्ञ विधर्मी लोग संस्कृत के शब्दों का अनर्थ कर जन-सामान्य में उपद्रव मचा रहे हैं। ऐसा ही एक इस्लामी फक्कड़ सैयद अबुलत हसन अहमद है। जिसने जानबूझकर द्वेष और खुन्नस निकालने के लिए गायत्री मन्त्र पर अश्लील इफ्तिरा लगाया है। इन्होंने अपना मोबाइल नम्बर (09438618027 और 07780737831) लिखते हुए हमें इनके लेख के खण्डन करने की चुनौती दी है। मुल्ला जी का आक्षेप हम संक्षेप में लिख देते हैं [https://m.facebook.com/groups/1006433592713013?view=permalink&id=214352287567074]- 【गायत्री मंत्र की अश्लीलता- आप सभी 'गायत्री-मंत्र' के बारे में अवश्य ही परिचित हैं, लेकिन क्या आपने इस मंत्र के अर्थ पर गौर किया? शायद नहीं! जिस गायत्री मंत्र और उसके भावार्थ को हम बचपन से सुनते और पढ़ते आये हैं, वह भावार्थ इसके मूल शब्दों से बिल्कुल अलग है। वास्तव में यह मंत्र 'नव-योनि' तांत्रिक क्रियाओं में बोले जाने वाले मन्त्रों में से एक है। इस मंत्र के मूल शब्दों पर गौर किया जाये तो यह मंत्र अत्यंत ही अश्लील व