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Showing posts from September, 2020

दान दिये धन ना घटे

दान दिये धन ना घटे (दान प्रशंसा सूक्त) -प्रो० रामप्रसाद वेदालंकार ऋग्वेद : मण्डल-१०, सूक्त-११७, मन्त्र-१ ऋषि:- भिक्षु:। देवता- धनान्नदानप्रशंसा। दान देने से धन घटता नहीं। न वा उ देवा: क्षुधमिद् वधं ददुरुताशितमुपगच्छन्ति मृत्यव। उतो रयि: पृणतो नोपदस्यत्युतापृणन्मर्डितारं न विन्दते।।१।। अन्वय:- क्षुदम् इत् वधं, देवा: वै न उ ददु:, उत आशितं मृतय+उपगच्छन्ति। उत उ पृणतः रयि: न उनदस्यति। उत अपृणन् मर्डितारं न विन्दते। १ केवलाघो भवति केवलादी।। ऋ० १०/११७/६ सं० अन्वयार्थ- केवल भूखों को ही मौत नहीं मारती। भूखे ही मरते हैं देवों ने कभी ऐसा नहीं कहा। वे तो कहते हैं कि मरते वे भी हैं जिनके पेट भरे रहते हैं और दाता का ऐश्वर्य क्षीण नहीं होता तथा जो अदाता-कृपण-कंजूस है, उसको कभी समय आने पर सुख देने वाला नहीं मिलता। अन्वयार्थ- (क्षुधम् इत् वधं, देवा: वै न ददु:) भूखों को ही मृत्यु प्राप्त होती है, देवों-विद्वानों ने निश्चय ही यह विचार नहीं दिया, अर्थात् केवल भूखे व्यक्ति ही मरते हैं, देवों ने यह ही नहीं माना (उत् आशितं मृत्यव: उपगच्छन्ति) मृत्युएं भर पेट खाए पिये मनुष्यों को भी प्राप्त होती

स्वामी मुनीश्वरानन्दजी : एक परिचय

स्वामी मुनीश्वरानन्दजी : एक परिचय प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ स्वामी मुनीश्वरानन्दजी का कार्यकाल पं० अयोध्या प्रसादजी से भी पूर्ववर्ती है। यों तो उनका कार्यक्षेत्र बिहार रहा है फिर भी कलकत्ता और आर्यसमाज कलकत्ता में यहां के अंचलों में वेदधर्म के प्रचारार्थ उनका आगमन होता ही रहता था और पर्याप्त समय तक वे यहां निवास करते हुए आर्यसमाज का प्रचार करते रहते थे। स्वामी मुनीश्वरानन्दजी दानापुर (पटना) के दियारा, उत्तरी भाग के रहने वाले थे। ये बालब्रह्मचारी पुरुष थे। आरम्भिक दिनों में स्वामी मुनीश्वरानन्दजी कबीरपंथी थे। इनका सम्बन्ध मास्टर जनकधारी सिंह से हुआ। मास्टरजी स्वामी दयानन्द के भक्त, शिष्य और आर्यसमाजी विचारों के थे। इन्हीं के सम्पर्क में आकर स्वामी मुनीश्वरानन्दजी न केवल स्वामी दयानन्द के भक्त ही बने बल्कि संन्यासी बनकर उन्होंने आर्यसमाज का यावज्जीवन प्रचार किया। वे प्रायः आर्यसमाज दानापुर में रहा करते थे। स्वामीजी कठोर खण्डन को भी मृदु एवं हृदयग्राही बना देते थे। उनके सम्बन्ध में कलकत्ता में हमने शास्त्रार्थ की चर्चा सुनी थी। हम सन् १९४४-४५ ई० में कलकत्ता आये थे। उस समय के कु

श्राद्ध

श्राद्ध लेखक- स्वर्गीय श्री वे०शा० स्वा० वेदानन्द जी तीर्थ अनुवादिता- श्री स्वामी वेदानन्द जी वेदवागीश प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ, डॉ विवेक आर्य [प्रायः देखने में आता है कि एक सामान्य व्यक्ति श्राद्ध-कृत्य से मृतक जीवों के भोजनादि द्वारा तृप्ति करना मानता है अथवा कुछ लोग पितृयज्ञ को ही मृतक-श्राद्ध बतलाते हैं। उनके अनुसार ब्राह्मणों को तिथि विशेष पर भोजन कराने से उनके पितरों को सन्तुष्टि मिलती है। वेद के विचार इसमें अपनी सम्मति प्रदान नहीं करते हैं। वेदों के अनुसार शरीर नष्ट हो जाने के बाद वह कोई भी पदार्थ ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता है तथा मनुष्य के दाहोपरान्त शरीर में उपस्थित आत्मा अपने कर्मानुसार ईश्वर के कर्मफल नियम के अधीन होकर उचित गति को प्राप्त होती है। इससे सिद्ध होता है कि मृतक जीवों को भोजनादि द्वारा तृप्त करना अवैदिक कृत्य है। पितृयज्ञ पञ्चमहायज्ञ के अनुष्ठान का एक अङ्ग है। जो यज्ञ माता-पिता तथा इनके पूर्वजों के सम्बन्ध में किये जायें, वह पितृयज्ञ कहलाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा एवं जीवित पितरों की श्रद्धा से सेवा और शुश्रुषा करना पितृयज्ञ का वैदिक स्वरूप

लाहौर की दो प्रमुख आर्यसमाजें : आर्यसमाज अनारकली एवं आर्यसमाज वच्छोवाली

लाहौर की दो प्रमुख आर्य समाजें : आर्यसमाज अनारकली एवं आर्यसमाज वच्छोवाली -स्व० विश्वनाथ पाकिस्तान बनने से पहले पंजाब की दो प्रमुख आर्यसमाजें थीं जहां से पंजाब ही नहीं, किसी सीमा तक देश भर के आर्यजगत् की गतिविधियों की कल्पना की जाती थी और उन्हें साकार किया जाता था। आर्यसमाज अनारकली आर्य प्रादेशिक सभा की प्रमुख समाज थी उसके प्रेरणा स्त्रोत महात्मा हंसराज जी थे। दूसरी थी- आर्यसमाज वच्छोवाली जिसकी धुरी थे महाशय कृष्ण जी जो दैनिक प्रताप और साप्ताहिक प्रकाश के सम्पादक और संचालक थे। आर्यसमाज अनारकली- पहले आर्यसमाज अनारकली की बात करूंगा। क्योंकि मेरा घर और कार्यालय, 'आर्य-पुस्तकालय' दोनों अनारकली बाजार के साथ लगती हुई हस्पताल रोड पर स्थित थे इसलिए विशेष आयोजन हो तो अनारकली समाज में जाता ही था। नाम तो अनारकली था परन्तु समाज अनारकली बाजार में नहीं थी। वह निकट की ही एक सड़क गणपत रोड पर बहुत बड़े भवन में स्थित थी। आर्यसमाज का अपना विशाल भवन था। इसकी ऊपरी मंजिल पर दैनिक उर्दू मिलाप का कार्य चलता था जिसके सर्वेसर्वा महाशय खुशहाल चंद खुर्सन्द जी थे जो उन दिनों भी अपना पूरा समय आर्यस

वेद में राष्ट्र का मानचित्र

वेद में राष्ट्र का मानचित्र भद्रसेन आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे राजन्य: शूरऽइषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशु: सप्ति: पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठा: सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे न: पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधय: पच्यन्तां योगक्षेमो न: कल्पताम्।। -यजु० २२/२२ विशेष- वेद इस मन्त्र में राष्ट्र का मानचित्र चित्रित कर रहा है, कि इस प्रशासनिक व्यवस्था के किस-किस विभाग का कैसा-कैसा रूप रंग हो? जैसे कि नक्शे में मिट्टी के भेद से प्रदेशों का रूप दर्शाया जाता है अथवा मैदानी, पहाड़ी, रेतीले, पठारी, समुद्रीय स्थलों को भिन्न-भिन्न रूपों में प्रदर्शित किया जाता है अथवा रेलों, सड़कों, नदियों को विशेष संकेतों से संकेतित किया जाता है। ऐसे ही इस मंत्र में राष्ट्र के जीवन को शब्दगत रूप दिया गया है। राष्ट्र शब्द देश के अर्थ में प्रचलित हो गया है, पर मूल रूप में वह एक प्रशासनिक व्यवस्था है। जीवन शब्द किसी के जीवन्त=जीते-जागते, चाहे जाने वाले रूप को दर्शाता है। शब्दार्थ- ब्रह्मन्!= हे सब से महान्! बड़ों से भी बड़े! [हमारे] राष्ट्रे=

सिख-धर्मग्रन्थों में मातृशक्ति का गौरव

सिख-धर्मग्रन्थों में मातृशक्ति का गौरव -ज्ञानी श्रीसतसिंह प्रीतम, एम०ए० सिख सम्प्रदाय के दो मूल ग्रन्थ हैं- एक 'आदि-ग्रन्थसाहिब', जिसका सम्पादन गुरु अर्जुनदेवजी ने किया। इसमें गुरु नानक, गुरु अंगद, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अर्जुनदेव, गुरु तेगबहादुर तथा भारत के अन्य संत और भक्तों की वाणियाँ हैं। दूसरा 'दशम ग्रन्थ' है, जिसके रचयिता संत-सिपाही गुरु गोविन्दसिंहजी हैं। गुरु गोविन्दसिंहजी एक सच्चे कर्मयोगी थे। माता-सम्बन्धी विचार उनके दशम ग्रन्थ में अधिक है। आदिग्रन्थ की जय-वाणी में गुरु नानकदेवजी मां से ही सृष्टि का होना लिखते हैं। एका माई जुगति वियाई तिनि चेले परवाण। इकु संसारी इकु भण्डारी इकु लाए दीवाण।। अर्थात् 'एक ही माता जब युक्ति से ब्रह्मद्वारा प्रसूत हुई, तब उससे ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवजी की उत्पत्ति हुई।' गुरु अर्जुनदेवजी ब्रह्म को पिता और माता शब्द द्वारा सम्बोधित करते हैं- तुम मात पिता हम बारिक तेरे तुमरी कृपा महि सूख घनेरे। गुरु गोविन्दसिंहजी ने दशम-ग्रन्थ में अपना जीवन-चरित्र स्वयं लिखा है। आप अपने पिछले जन्म की कथा लिखते हुए कहते हैं क

महर्षि दयानन्द जी की दृष्टि में "यज्ञ"

महर्षि दयानन्द जी की दृष्टि में "यज्ञ" लेखक- वैदिक गवेषक आचार्य शिवपूजनसिंहजी कुशवाहा 'पथिक', विद्यावाचस्पति, साहित्यालंकार, सिद्धान्तवाचस्पति [पश्चिमी विद्वानों के द्वारा वेदों का अनर्थ करने के बाद यदि किसी ने वेद के मन्त्रार्थ को बिगाड़कर अध्यात्म-ज्ञान की हिंसा का श्रेय प्राप्त करना चाहा तो उसमें पौराणिक जगत् सदैव अग्रणी रहा है। वेदों के सत्यार्थ को जन-सामान्य में पुन: प्रतिष्ठित करके शास्त्रार्थ-परम्परा का उदय आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने किया। आर्यजगत् की शास्त्रार्थ परम्परा ने धर्म से भटके हुए न जाने कितने मनुष्यों को वेदों से परिचित कराकर सभी पर उपकार किया है। जिस समय हिन्दू समाज में स्वपक्ष का पोषण करने वाले पोपमण्डल ने अष्टादशपुराणों की निराधार मान्यताओं को चारों ओर फैलाया था, उस समय आर्यजगत् के दिग्गज विद्वानों ने इनके आधारहीन स्तम्भों को उजाड़कर रख दिया था। उन विद्वानों में आचार्य शिवपूजनसिंहजी कुशवाहा की भूमिका अतुलनीय रही है। पौराणिक जगत् के विद्वान् यज्ञ शब्द से केवल 'अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त श्रौत कर्मों' का ही ग्रह