स्वामी मुनीश्वरानन्दजी : एक परिचय
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ
स्वामी मुनीश्वरानन्दजी का कार्यकाल पं० अयोध्या प्रसादजी से भी पूर्ववर्ती है। यों तो उनका कार्यक्षेत्र बिहार रहा है फिर भी कलकत्ता और आर्यसमाज कलकत्ता में यहां के अंचलों में वेदधर्म के प्रचारार्थ उनका आगमन होता ही रहता था और पर्याप्त समय तक वे यहां निवास करते हुए आर्यसमाज का प्रचार करते रहते थे। स्वामी मुनीश्वरानन्दजी दानापुर (पटना) के दियारा, उत्तरी भाग के रहने वाले थे। ये बालब्रह्मचारी पुरुष थे। आरम्भिक दिनों में स्वामी मुनीश्वरानन्दजी कबीरपंथी थे। इनका सम्बन्ध मास्टर जनकधारी सिंह से हुआ। मास्टरजी स्वामी दयानन्द के भक्त, शिष्य और आर्यसमाजी विचारों के थे। इन्हीं के सम्पर्क में आकर स्वामी मुनीश्वरानन्दजी न केवल स्वामी दयानन्द के भक्त ही बने बल्कि संन्यासी बनकर उन्होंने आर्यसमाज का यावज्जीवन प्रचार किया। वे प्रायः आर्यसमाज दानापुर में रहा करते थे। स्वामीजी कठोर खण्डन को भी मृदु एवं हृदयग्राही बना देते थे। उनके सम्बन्ध में कलकत्ता में हमने शास्त्रार्थ की चर्चा सुनी थी। हम सन् १९४४-४५ ई० में कलकत्ता आये थे। उस समय के कुछ आर्यों के मुख से शास्त्रार्थ की यह घटना सुनी थी। अविश्वसनीयता का कोई कारण नहीं है, अतः इसे इतिहास के इस अंक में यथाश्रुत लिख रहे हैं-
डलहौसी स्क्वायर में (बी० बी० डी० बाग) पौराणिकों और आर्यसमाजियों के बीच शुद्धि पर शास्त्रार्थ था। पौराणिकों की ओर से प्रसिद्ध विद्वान् पं० अखिलानन्दजी आए हुए थे। आर्यसमाजियों की ओर से प्रमुख शास्त्रार्थ कर्त्ता स्वामी मुनीश्वरानन्दजी थे। जैसे ही शास्त्रार्थ आरम्भ होने की बात आयी, पं० अखिलानन्दजी ने एक चुटकीभरा व्यंग्यात्मक प्रश्न छेड़ दिया। उस समय डलहौसी स्क्वायर के बाहर-बाहर ट्राम लाइन थी और पार्क के बाहर चारों ओर खुली नालियां थी। पं० अखिलानन्दजी ने स्वामी मुनीश्वरानन्दजी से पूछा कि स्वामीजी! एक व्यक्ति आपके लिए रसगुल्ले ला रहा है। उसके हाथ से रसगुल्ले इन गन्दी नालियों में गिर पड़े और वे नष्ट हो गये। अब आप क्या उन रसगुल्लों को हवन-यज्ञ करके शुद्ध कर लेंगे और मलमूत्र में सने ये रसगुल्ले पवित्र होकर ग्रहण करने योग्य हो जायेंगे? और यदि नहीं, तो इन भृष्ट पतित विधर्मियों को हवन-यज्ञ द्वारा आप कैसे पवित्र बनाकर ग्रहण कर सकते हैं। अखिलानन्दजी की इस वाक्चातुरी पर पौराणिकों ने ताली पीट दी और बड़ा हर्ष मनाया। अखिलानन्दजी की सूझबूझ पर वाह-वाह होने लगा।
अब स्वामी मुनीश्वरानन्दजी की बारी थी। स्वामीजी ने डबल चुटकी ली। एक वाक्य में तो यह कहकर अखिलानन्दजी की बात हल्की कर दी कि मलमूत्र में गिरे रसगुल्ले तो हवन-यज्ञ से शुद्ध भी नहीं हो सकते, इसलिए उनके शुद्ध करने और ग्रहण करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु इसके बाद जो चुटकी ली उससे अखिलानन्दजी को भी और पौराणिकों को भी लेने के देने पड़ गये। स्वामी मुनीश्वरानन्दजी ने कुछ इस प्रकार कहा- पं० अखिलानन्दजी विद्वान् आदमी हैं, इन्होंने गंगा-स्नान किया, चन्दन-टीका लगाया, रामनामी-शिवनामी ओढ़ी और खड़ाऊं पर चढ़कर यही स्क्वायर की सभा के लिए चल पड़े। संयोग की बात यदि इन्हीं नालियों के पास पण्डितजी का खड़ाऊं फिसल जाए और इन्हीं नालियों में पण्डितजी गिर जायें तो यह नाली का कूड़ा-कचरा न तो रामनामी-शिवनामी कपड़ों को छोड़ेगा और निश्चय ही कुछ न कुछ अंश पण्डितजी के मुँह-नाक में जा सकता है। पण्डितजी गिर पड़े, पतित हो गये, इतनी तो घटना है। अब हम यदि यह कहते हैं कि पण्डितजी को स्नान इत्यादि कराओ, मुँह आदि धुलवाओ, शुद्धस्वच्छ कपड़े पहला लो, तो क्या पं० अखिलानन्दजी भी छेने के रसगुल्ले हैं जो नालियों में गिर गये तो सदा के लिए पतित हो गये?
यह जहां शुद्धि का मार्मिक उत्तर था वहां अखिलानन्दजी की बोलती बन्द हो गयी और आर्यसमाजी सिद्धान्तों का जयजयकार होने लगा।
स्वामी मुनीश्वरानन्दजी वैदिक धर्म प्रचारार्थ यों तो सारे देश में घूमते थे, पर विशेषरूप से बिहार और उसी के साथ कलकत्ता भी प्रचारार्थ आते थे। स्वामीजी को वृद्धावस्था में कारवंकल (पच्छघाव फोड़ा) हो गया था। कहते हैं एक ओर मधुमेह और दूसरी ओर कारवंकल, स्वामीजी इससे स्वस्थ न हो पाये। स्वामी मुनीश्वरानन्दजी के सम्बन्ध में एक और महत्वपूर्ण सूचना है जिसके बिना उनके व्यक्तित्व को समझना अधूरा ही रह जायगा। स्वामी मुनीश्वरानन्दजी ने जब कारवंकल (पच्छघाव फोड़े) का ऑपरेशन कराया था तो क्लोरोफार्म सूंघ कर बेहोश होने से इन्कार कर दिया था। स्वामी मुनीश्वरानन्दजी का कहना था कि जब वे ध्यानावस्थित हो जायें तो डाक्टर आराम से उनका ऑपरेशन कर लें। ऐसा ही हुआ। स्वामी मुनीश्वरानन्दजी ने ध्यानावस्थित होकर इतने भयानक फोड़े का ऑपरेशन करा लिया और ऐसे निश्चेष्ट पड़े रहे कि जैसे उनका शरीर चेतनाहीन हो गया था।
स्वामी मुनीश्वरानन्दजी की मृत्यु के समय उनके पास कुछ रुपये निकले थे। बिहार प्रतिनिधि सभा ने उनकी स्मृति में और पर्याप्त धन लगाकर पटना में मुनीश्वरानन्द भवन (प्रतिनिधि सभा का भवन) बनवा दिया। मुनीश्वरानन्दजी साधु भी थे और योगी भी थे। ऋषिभक्त थे और प्रचारक भी थे। कलकत्ता में उनके प्रचार की मधुर स्मृतियां लोगों के हृदयों में संचित रही हैं।
[सन्दर्भ ग्रन्थ- आर्यसमाज कलकत्ता का १०० वर्षीय इतिहास; सम्पादक- स्वर्गीय उमाकांत उपाध्याय]
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