Skip to main content

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती

प्रियांशु सेठ

आजकल सदैव देखने में आता है कि संस्कृत-व्याकरण से अनभिज्ञ विधर्मी लोग संस्कृत के शब्दों का अनर्थ कर जन-सामान्य में उपद्रव मचा रहे हैं। ऐसा ही एक इस्लामी फक्कड़ सैयद अबुलत हसन अहमद है। जिसने जानबूझकर द्वेष और खुन्नस निकालने के लिए गायत्री मन्त्र पर अश्लील इफ्तिरा लगाया है। इन्होंने अपना मोबाइल नम्बर (09438618027 और 07780737831) लिखते हुए हमें इनके लेख के खण्डन करने की चुनौती दी है। मुल्ला जी का आक्षेप हम संक्षेप में लिख देते हैं [https://m.facebook.com/groups/1006433592713013?view=permalink&id=214352287567074]-

【गायत्री मंत्र की अश्लीलता-

आप सभी 'गायत्री-मंत्र' के बारे में अवश्य ही परिचित हैं, लेकिन क्या आपने इस मंत्र के अर्थ पर गौर किया? शायद नहीं! जिस गायत्री मंत्र और उसके भावार्थ को हम बचपन से सुनते और पढ़ते आये हैं, वह भावार्थ इसके मूल शब्दों से बिल्कुल अलग है। वास्तव में यह मंत्र 'नव-योनि' तांत्रिक क्रियाओं में बोले जाने वाले मन्त्रों में से एक है। इस मंत्र के मूल शब्दों पर गौर किया जाये तो यह मंत्र अत्यंत ही अश्लील व भद्दा है! इसके प्रत्येक शब्द पर गहराई से गौर किया जाये तो यह किसी भी दृष्टि से अध्यात्मिक अर्थ नहीं देता।
मंत्र- ॐ भू: भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।
प्रत्येक शब्द की अलग-अलग व्याख्या-:
ॐ भूर्भुवः (भुः भुवः), स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं (तत् सवित उर वरणयं), भर्गो= भार्गव/भृगु,देवस्य(देव स्य), धीमहि धियो योनः प्र चोदयात्।
ॐ= प्रणव।
भूर= भूमि पर।
भुवः= आसीन/निरापद हो जाना/लेट जाना (भूर्भुवः=भुमि पर)।
स्व= अपने आपको।
तत्= उस।
सवित= अग्नि के समान तेज, कान्तियुक्त की।
उर= भुजाओं में।
वरण्यं= वरण करना, एक दूसरे के/एकाकार हो जाना।
भर्गोः देवस्य= भार्गवर्षि/विप्र (ब्राह्मण) के लिये।
धीमहि= ध्यानस्थ होना/उसके साथ एक रूप होना (धी= ध्यान करना, महि= धरा,धरती,धरणी,धारिणी के/से सम्बद्ध होना)
धियो =उनके प्रति/मन ही मन मे ध्यान कर/मुग्ध हो जाना/ भावावेश क्षमता को तीव्रता से प्रेरित करना ।
योनः= योनि/स्त्री जननांग।
प्र= (उपसर्ग) दूसरों के/सन्मुख होना/आगे करना या होना/समर्पित/समर्पण करना।
चोदयात्= मँथन/मेथुन/सहवास/समागम/सन्सर्ग के हेतु।

सरलार्थ-: हे देवी (गायत्री), भू पर आसीन होते (लेटते) हुए, उस अग्निमय और कान्तियुक्त सवितदेव के समान तेज भृगु (ब्राहमण) की भुजाओं में एकाकार होकर मन ही मन में उन्ही के प्रति भावमय होकर उनको धारण कर लो और पूर्ण क्षमता से अपनी योनि को संभोग (मैथुन) हेतु उन्हें समर्पित कर दो।

वैदिक धर्म का मूल आधार सुरा-सुंदरी, सम्भोग, मांसाहार और युद्ध है। गायत्री मन्त्र सम्भोग मन्त्र है। गायत्री मंत्र को नव योनि मंत्र भी कहते हैं।...】

मुल्लाजी! आप वेदादि ग्रन्थों से सुरा-सुंदरी, सम्भोग, मांसाहार और युद्ध, कुरान में वर्णित हुक्मों व रसूल के क्रियाकलापों की भांति कदापि सिद्ध नहीं कर सकते। लेकिन यदि हमने आपके ग्रन्थ से सुरा-सुन्दरी, सम्भोग, मांसाहार और युद्ध के दलील देने शुरू कर दिए तो आपको फोबिया हो जाएगा; अतः कॉपी-पेस्ट करके बकरे की तीन टांग न सिद्ध करें। हम गायत्री मन्त्र का सही स्वरूप पाठकों के लाभार्थ लिखते हैं-

भूर्भुवः स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।।

वेद ईश्वरीय ज्ञान है, इसलिए गायत्री मन्त्र परमात्मानि:श्वसित है। उपनिषत्काल में तो गायत्री का महात्म्य इतना अधिक बढ़ गया था कि लोग गायत्री को 'वेद की माता' या 'छन्दों की माता' कहने लगे गए थे। अथर्ववेद १९/७१/१ में भी इसे 'वेदमाता' कहा गया है। मुल्लाजी का कल्पित अर्थ उनके नापाक मस्तिष्क की उपज है। आपके दृष्टिकोण में तो अल्लाह द्वारा निर्दिष्ट मुबाशरत के पक्ष वाली आयतों का नाम 'अफ़्जाइशे हुस्न की आयत' रखा जा सकता है? रसूलों के हदीसों की तो बात ही निराली है। हम गायत्री मन्त्र का सम्प्रमाण अर्थ वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् महर्षि दयानन्द सरस्वतीजी के यजुर्वेदभाष्य से उद्धृत करते हैं-

पदार्थ:- (तत्) वक्ष्यमाणम् (सवितु:) सर्वस्य जगतः प्रसवितु:। सविता वै देवानां प्रसविता तथो हास्माऽ एते सवितृप्रसूता एव सर्वे कामा: समृध्यन्ते (शत० २/३/४/३९) (वरेण्यम्) अतिश्रेष्ठम्। अत्र वृञ एण्य: (उणा० ३/९८) अनेन वृञ्धातोरेण्यप्रत्यय:। (भर्ग:) भृज्जन्ति पापानि दुःखमूलानि येन तत्। अञ्च्यञ्जियुजि० (उणा० ४/२१६) इति भ्रस्जधातोरसुन् प्रत्यय: कवर्गादेशश्च। (देवस्य) प्रकाशमयस्य शुद्धस्य सर्वसुखप्रदातु: परमेश्वरस्य (धीमहि) दधीमहि। अत्र डुधाञ् धातो: प्रार्थनायां लिङ् छन्दस्युभयथा [अष्टा० ३/४/११७] इत्यार्धधातुकत्वाच्छब् न, आतो लोप इटि च [अष्टा० ६/४/६४] इत्याकारलोपश्च। (धिय:) प्रज्ञा बुद्धी:। धीरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं० ३/९) (य:) सविता देव: परमेश्वर: (न:) अस्माकम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (चोदयात्) प्रेरयेत्। अयं मन्त्र: (शत० २/३/४/३९) व्याख्यात:।। -यजु० ३/३५

पदार्थ:- हम लोग (सवितु:) सब जगत् के उत्पन्न करने वा (देवस्य) प्रकाशमय शुद्ध वा सुख देने वाले परमेश्वर का जो (वरेण्यम्) अति श्रेष्ठ (भर्ग:) पापरूप दुःखों के मूल को नष्ट करने वाला तेज:स्वरूप है (तत्) उसको (धीमहि) धारण करें और (य:) जो अन्तर्यामी सब सुखों का देने वाला है, वह अपनी करुणा करके (न:) हम लोगों की (धिय:) बुद्धियों को उत्तम-उत्तम गुण, कर्म, स्वभावों में (प्रचोदयात्) प्रेरणा करे।

पुनः 'सत्यार्थप्रकाश, तृतीय समुल्लास' से-

ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर् वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥
इस मन्त्र में जो प्रथम (ओ३म्) है उस का अर्थ प्रथमसमुल्लास में कर दिया है, वहीं से जान लेना। अब तीन महाव्याहृतियों के अर्थ संक्षेप से लिखते हैं—‘भूरिति वै प्राणः’ ‘यः प्राणयति चराऽचरं जगत् स भूः स्वयम्भूरीश्वरः’ जो सब जगत् के जीवन का आधार, प्राण से भी प्रिय और स्वयम्भू है उस प्राण का वाचक होके ‘भूः’ परमेश्वर का नाम है। ‘भुवरित्यपानः’ ‘यः सर्वं दुःखमपानयति सोऽपानः’ जो सब दुःखों से रहित, जिस के संग से जीव सब दुःखों से छूट जाते हैं इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘भुवः’ है। ‘स्वरिति व्यानः’ ‘यो विविधं जगद् व्यानयति व्याप्नोति स व्यानः’। जो नानाविध जगत् में व्यापक होके सब का धारण करता है इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘स्वः’ है। ये तीनों वचन तैत्तिरीय आरण्यक के हैं।
(सवितुः) ‘यः सुनोत्युत्पादयति सर्वं जगत् स सविता तस्य’। जो सब जगत् का उत्पादक और सब ऐश्वर्य का दाता है। (देवस्य) ‘यो दीव्यति दीव्यते वा स देवः’। जो सर्वसुखों का देनेहारा और जिस की प्राप्ति की कामना सब करते हैं। उस परमात्मा का जो (वरेण्यम्) ‘वर्त्तुमर्हम्’ स्वीकार करने योग्य अतिश्रेष्ठ (भर्गः) ‘शुद्धस्वरूपम्’ शुद्धस्वरूप और पवित्र करने वाला चेतन ब्रह्म स्वरूप है (तत्) उसी परमात्मा के स्वरूप को हम लोग (धीमहि) ‘धरेमहि’ धारण करें। किस प्रयोजन के लिये कि (यः) ‘जगदीश्वरः’ जो सविता देव परमात्मा (नः) ‘अस्माकम्’ हमारी (धियः) ‘बुद्धीः’ बुद्धियों को (प्रचोदयात्) ‘प्रेरयेत्’ प्रेरणा करे अर्थात् बुरे कामों से छुड़ा कर अच्छे कामों में प्रवृत्त करे।
हे परमेश्वर! हे सच्चिदानन्दस्वरूप! हे नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव! हे अज निरञ्जन निर्विकार! हे सर्वान्तर्यामिन्!  हे सर्वाधार जगत्पते सकलजगदुत्पादक! हे अनादे! विश्वम्भर सर्वव्यापिन्! हे करुणामृतवारिधे! सवितुर्देवस्य तव यदों भूर्भुवः स्वर् वरेण्यं भर्गोऽस्ति तद्वयं धीमहि दधीमहि ध्यायेम वा कस्मै प्रयोजनायेत्यत्राह। हे भगवन्! यः सविता देवः परमेश्वरो भवान्नस्माकं धियः प्रचोदयात् स एवास्माकं पूज्य उपासनीय इष्टदेवो भवतु नातोऽन्यं भवत्तुल्यं भवतोऽधिकं च कञ्चित् कदाचिन्मन्यामहे।
हे मनुष्यो! जो सब समर्थों में समर्थ सच्चिदानन्दानन्तस्वरूप, नित्य शुद्ध, नित्य बुद्ध, नित्य मुक्तस्वभाव वाला, कृपासागर, ठीक-ठीक न्याय का करनेहारा, जन्ममरणादि क्लेशरहित, आकाररहित, सब के घट-घट का जानने वाला, सब का धर्ता, पिता, उत्पादक, अन्नादि से विश्व का पोषण करनेहारा, सकल ऐश्वर्ययुक्त जगत् का निर्माता, शुद्धस्वरूप और जो प्राप्ति की कामना करने योग्य है उस परमात्मा का जो शुद्ध चेतनस्वरूप है उसी को हम धारण करें। इस प्रयोजन के लिये कि वह परमेश्वर हमारे आत्मा और बुद्धियों का अन्तर्यामीस्वरूप हम को दुष्टाचार अधर्मयुक्त मार्ग से हटा के श्रेष्ठाचार सत्य मार्ग में चलावें, उस को छोड़कर दूसरे किसी वस्तु का ध्यान हम लोग नहीं करें। क्योंकि न कोई उसके तुल्य और न अधिक है वही हमारा पिता राजा न्यायाधीश और सब सुखों का देनेहारा है।

इसको पढ़कर पाठकों को विदित हो गया होगा कि गायत्री मन्त्र में अश्लीलता का लेशमात्र भी नहीं है। यह मन्त्र हमें अध्यात्म ही से जोड़ता है। अब मुल्लाजी ने तो ओखली में सिर डाल ही लिया है; अतः आपके इल्जामात आपके सिजदे में पैगाम लेकर सिर झुकाए सुनाने के लिए बेताब है-

१. बुरैदा ने कहा कि रसूल ने अली को ख़ुम्स (कर/टैक्स) के बदले औरत पकड़ने के भेजा था। लेकिन जब अली उस औरत के साथ बलात्कार करके वापस आ रहा था तो लोगों ने देख लिया और रसूल को  बता दिया। रसूल बोले- तुम अली से क्यों नाराज हो? इससे अच्छा ख़ुम्स कौन-सा हो सकता है? -सही बुखारी, जिल्द ५, किताब ५९, हदीस ६३७

२. आयशा ने कहा कि रसूल हरेक औरत के लिए सम्भोग की बारी तय करते थे और मैं अक्सर अपनी बारी सौदा बिन्त जमआ को दे देती थी। -सही मुस्लिम, किताब ८, हदीस ३४५१

३. कुछ और बानगी पेशे-ख़िदमत है। जाफ़र अल सादिक़ मुहम्मद के घराने के ही हैं। अली के परपोते, सड़पोते जैसे कुछ। उनकी व्यवस्था देखिये-
शिया लोगों के एक उपसमूह 'ज़ैदी' में हरीरा की रस्म है। इसके अनुसार महरम यानी माँ, बहन, बेटी, फूफी, ख़ाला वग़ैरा के साथ लिंग पर रेशम लपेट कर कुछ विशिष्ट शर्तों के साथ निकाह/सम्भोग करने की इजाज़त है। -अल मुग़नी बानी इमाम इब्ने-क़दामा जिल्द ७ पृष्ठ संख्या ४८५, जवादे-मुग़निया बानी इमाम जाफ़र अल सादिक़ जिल्द ५ पृ० २२२, फिक़हे-इस्लामी बानी मुहम्मद तक़ी अल मुदर्रिसी जिल्द २ पृ० ३८३

४. एक मुजाहिद  ने कहा कि मैं इब्ने उमर के साथ गुलामों की मंडी में गया तो देखा वहां व्यापारी एक गुलाम लड़की को घेर कर उसका सौदा कर रहे थे। तभी इब्ने उमर उनके पास गया और उस लड़की के गुप्तांग में हाथ डालकर जाँच करने के बाद पूछने लगा कि इस लड़की का मालिक कौन है? यह तो बढ़िया माल है।
(Mujahid said: ‘I was walking with ibn Umar in a slave market, then we saw some slave dealers gathered around one slave-girl and they were checking her, when they saw Ibn Umar, they stopped and said: ‘Ibn Umar has arrived’. Then ibn Umar came closer to the slave-girl, he touched some private  parts of her body and then said: ‘Who is the master of this slave-girl, she is just a good commodity!’ -Musnaf Ibn Abi Shaybah, Vol. 4, pg. 289, Tradition 20242)

माशाल्लाह! हुजूर ने बड़े मजे किए हैं। अश्लीलता का मूल आधार भलीभांति ज्ञात हो गया होगा। आपके मिथ्या लेख के लिए आपको चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए।

।।ओ३म्।।

Comments

Popular posts from this blog

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो!

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो! वर्तमान समय में मनुष्यों ने भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय अपनी मूर्खता से बना लिए हैं एवं इसी आधार पर कल्पित धर्म-ग्रन्थ भी बन रहे हैं जो केवल इनके अपने-अपने धर्म-ग्रन्थ के अनुसार आचरण करने का आदेश दे रहा है। जैसे- ईसाई समाज का सदा से ही उद्देश्य रहा है कि सभी को "ईसाई बनाओ" क्योंकि ये इनका ग्रन्थ बाइबिल कहता है। कुरान के अनुसार केवल "मुस्लिम बनाओ"। कोई मिशनरियां चलाकर धर्म परिवर्तन कर रहा है तो कोई बलपूर्वक दबाव डालकर धर्म परिवर्तन हेतु विवश कर रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक सम्प्रदाय साधारण व्यक्तियों को अपने धर्म में मिला रहे हैं। सभी धर्म हमें स्वयं में शामिल तो कर ले रहे हैं और विभिन्न धर्मों का अनुयायी आदि तो बना दे रहे हैं लेकिन मनुष्य बनना इनमें से कोई नहीं सिखाता। एक उदाहरण लीजिए! एक भेड़िया एक भेड़ को उठाकर ले जा रहा था कि तभी एक व्यक्ति ने उसे देख लिया। भेड़ तेजी से चिल्ला रहा था कि उस व्यक्ति को उस भेड़ को देखकर दया आ गयी और दया करके उसको भेड़िये के चंगुल से छुड़ा लिया और अपने घर ले आया। रात के समय उस व्यक्ति ने छुरी तेज की और उस

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर प्रियांशु सेठ हमारे पौराणिक भाइयों का कहना है कि मूर्तिपूजा प्राचीन काल से चली आ रही है और तो और वेदों में भी मूर्ति पूजा का विधान है। ईश्वरीय ज्ञान वेद में मूर्तिपूजा को अमान्य कहा है। कारण ईश्वर निराकार और सर्वव्यापक है। इसलिए सृष्टि के कण-कण में व्याप्त ईश्वर को केवल एक मूर्ति में सीमित करना ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव के विपरीत है। वैदिक काल में केवल निराकार ईश्वर की उपासना का प्रावधान था। वेद तो घोषणापूर्वक कहते हैं- न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः। हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः।। -यजु० ३२/३ शब्दार्थ:-(यस्य) जिसका (नाम) प्रसिद्ध (महत् यशः) बड़ा यश है (तस्य) उस परमात्मा की (प्रतिमा) मूर्ति (न अस्ति) नहीं है (एषः) वह (हिरण्यगर्भः इति) सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों को अपने भीतर धारण करने से हिरण्यगर्भ है। (यस्मात् न जातः इति एषः) जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा जो प्रसिद्ध है। स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्य