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Showing posts from 2018

इस्लाम का खुदा मन्दबुद्धि है!

इस्लाम का खुदा मन्दबुद्धि है! [इस्लाम मत के मौलवी उत्तर देने अवश्य आयें] इस्लाम मत में मान्यता है कि अल्लाह/खुदा निराकार, सर्वज्ञ, पक्षपातरहित, दयालु, न्यायकारी आदि गुण-कर्म-स्वभाव वाला है। जैसा कि हम जानते हैं 'हिंसा करना मुसलमानों का स्वभाव है'। अब यह गुण इनके कुरान में लिखा अथवा खुदा ने आदेश दिया है, पता नहीं। यदि कुरान में लिखा तो इससे अल्लाह पर दो दोष लगते हैं क्योंकि कुरान तो अल्लाह ही की वाणी है- १. कुरान हमें उपदेश नहीं अपितु हिंसा करना सीखा रहा है।, २. यदि कुरान ईश्वरीय वाणी है तो खुदा में दयालु होने का गुण नहीं रह जाता अर्थात् इनका खुदा निर्दयी एवं दोषपूर्ण है। यदि मैं यह कहूं कि ये सारी मान्यताएं (निराकार, सर्वज्ञ, पक्षपातरहित, दयालु आदि) काल्पनिक हैं तो मुसलमानों को तुरन्त मिर्ची लगेगी लेकिन यदि मैं इसे कुरान से सिद्ध करूं कि उपरोक्त गुणों में खुदा के पास एक भी गुण नहीं है तो वह मेरी बात पर चिन्तन-मनन करके समझेंगे। आइये, आपको कुरान मजीद से सिद्ध करके दिखाता हूँ- 1. साकार अल्लाह- खुदा मनुष्य की सूरत शक्ल वाला है। उसके पास हाथ, चेहरा, कमर, मुंह सब है,

जन्नत की सैर

जन्नत की सैर लेखक- सन्नाटा सिंह झूठ के पांव नहीं होते, यदि इस कहावत से अल्लाह को सम्बोधित किया जाय तो अत्युक्ति न होगी। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि धर्म वासना को वश में रखने की शिक्षा देता है। मुसलमानों के पास अपने मत की ओर लालच देने वाला बौद्धिक आधार केवल बहिश्त (जन्नत/स्वर्ग) की कल्पना है। वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् महर्षि दयानन्द सरस्वतीजी अपने ग्रन्थ "स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश:" में स्वर्ग को परिभाषित करते हुए लिखते हैं- "स्वर्ग नाम सुख विशेष भोग और उस की सामग्री की प्राप्ति का है।" मुसलमानों का स्वर्ग ऐसा स्थान है, जहां दुःख का सर्वथा अभाव है, सुख ही सुख है और सुख भी ऐसा जो कभी समाप्त नहीं होगा। देखो, कुरान में लिखा है- अल्लज़ी अहल्लना दारलमुकामते मिनफ़ज़लिही ला यमस्सुना फ़ीहा नसवुन वला यमस्सुनाफ़ीहा लग़ूबुन। -मं० ५, सि० २२, सू० ३५, आ० ३५ अर्थ- जिसने उतारा हमको सदा रहने वाले घर में, हमें उसमें कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता और न उसमें हम कभी थकान अनुभव करते हैं। कुरान में हुक्म है कि अल्लाह पर ईमान लाने वाले मौत के बाद जन्नत में दाख़िल होंगे- व बश्शिरल्ल

नियोग और पुनर्विवाह

नियोग और पुनर्विवाह शंका (कमलकांत कंसरा बुद्ध जी द्वारा)- नियोग से श्रेष्ठ पुनर्विवाह का विकल्प है। पुनर्विवाह में कोई दोष नहीं है, अतः नियोग व्यवस्था गलत है। समाधान- नियोग व्यवस्था से अनभिज्ञ व्यक्ति पुनर्विवाह ही को श्रेष्ठ मानता है जबकि नियोग में कोई दोष नहीं है लेकिन पुनर्विवाह में अनेक दोष हैं। देखिए- १. पुनर्विवाह में विधवा स्त्री को पुनर्विवाहित पुरुष के घर जाकर रहना पड़ेगा। नियोग में विधवा स्त्री अपने पूर्व विवाहित पति के घर रहती है। २. नियोग से उत्पन्न सन्तान पुनर्विवाहित पति के माने जाते हैं और पूर्व पति के ही दयाभागी होते हैं। पुनर्विवाह से उत्पन्न सन्तानों की यह स्थिति नहीं हो सकती। ३. नियुक्त पुरुष से उत्पन्न सन्तान का गोत्र तथा स्वत्व नियुक्त पुरुष का नहीं माना जाता। पूर्व पति का गोत्र ही उस सन्तान का भी गोत्र माना जाता है। पुनर्विवाह से उत्पन्न सन्तानों में यह नियम नहीं हो सकता। ४. पुनर्विवाहित स्त्री पुरुष को परस्पर सेवा तथा पालन करना होता है। नियुक्त स्त्री पुरुष का आपस में कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता। ५. नियुक्त स्त्री पुरुष का सम्बन्ध ऋतुकाल में वीर्य

असत्य-पराजय

असत्य-पराजय अर्थात् वामपंथी मौलाना अहसन फिरोजाबादी के 'हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ रामायण की असल हकीकत' नामक अश्लील और उच्छृंखलतापूर्ण लेख का मुंहतोड़ जवाब लेखक- प्रियांशु सेठ प्राचीनकाल के ऋषि हमें वेद के उपदेश 'पापीरप वेशया धिय: (अथर्व० ९/२/२५)' पर चलने की प्रेरणा देते हैं। मन्त्र का भाव है कि 'हे प्रभो! पापमय बुद्धियों को- विचारों को अन्यत्र हमसे दूर अन्य स्थानों पर ही रखिये।' वेद का सन्देश है कि मानव को न अपने कर्म से अपितु अपने विचारों से भी पाप-वासना को दूर रखना चाहिए, यथा- 'हे मेरे मन के पाप! मुझसे बुरी बातें क्यों करते हो? दूर हटो, मैं तुझे नहीं चाहता (अथर्व० ६/४५/१)।' वेद के इस महान् सन्देश को ऋषियों ने अपने जीवन का अंग बनाया। ऋषियों की दृष्टि में धन-नाश कोई हानि नहीं, स्वास्थ्य-नाश एक बड़ी हानि है और चरित्र-नाश सर्वनाश है। आदिकवि 'महर्षि वाल्मीकि' भी इन ऋषियों में से ही थे। वाल्मीकि जैसे प्रतिभा-सम्पन्न, धर्मज्ञ, सत्य-प्रतिज्ञ और उच्च विचारों वाला कवि आज तक नहीं हुआ। उनका आदिकाव्य 'श्रीमद्वाल्मीकी-रामायण' भूतल का प्रथम ऐति

मानवता को महर्षि मनु की देन

मानवता को महर्षि मनु की देन लेखक- डॉ० सुरेन्द्र कुमार (मनुस्मृति भाष्यकार) प्राचार्य, राजकीय महिला महाविद्यालय, महेन्द्रगढ़ (हरि०) प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ, डॉ विवेक आर्य 'मनुस्मृति नामक धर्मशास्त्र और संविधान के प्रणेता राजर्षि मनु 'स्वायम्भुव' न केवल भारत की, अपितु सम्पूर्ण मानवता की धरोहर हैं। आदिकालीन समाज में मानवता की स्थापना, संस्कृति-सभ्यता का निर्माण और इनके विकास में राजर्षि मनु का उल्लेखनीय योगदान रहा है। यही कारण है कि भारत के विशाल वाङ्मय के साथ-साथ विश्व के अनेक देशों के साहित्य में मनु और मनुवंश का कृतज्ञतापूर्ण स्मरण तथा उनसे सम्बद्ध घटनाओं का उल्लेख प्राप्त होता है। यह उल्लेख इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि प्राचीन समाज में मनु और मनुवंश का स्थान महत्वपूर्ण और आदरणीय था। जिस प्रकार विभिन्न कालखण्डों में उत्पन्न विशिष्ट व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने तथा उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिये उनका नाम स्थानों, नगरों आदि के साथ जोड़ दिया जाता है उसी प्रकार प्राचीन समाज ने मनु और मनुवंश का नाम सृष्टि के कालखण्डों के साथ जोड़कर चौदह मन्वन्तरों क