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असत्य-पराजय



असत्य-पराजय

अर्थात् वामपंथी मौलाना अहसन फिरोजाबादी के 'हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ रामायण की असल हकीकत' नामक अश्लील और उच्छृंखलतापूर्ण लेख का मुंहतोड़ जवाब

लेखक- प्रियांशु सेठ

प्राचीनकाल के ऋषि हमें वेद के उपदेश 'पापीरप वेशया धिय: (अथर्व० ९/२/२५)' पर चलने की प्रेरणा देते हैं। मन्त्र का भाव है कि 'हे प्रभो! पापमय बुद्धियों को- विचारों को अन्यत्र हमसे दूर अन्य स्थानों पर ही रखिये।' वेद का सन्देश है कि मानव को न अपने कर्म से अपितु अपने विचारों से भी पाप-वासना को दूर रखना चाहिए, यथा- 'हे मेरे मन के पाप! मुझसे बुरी बातें क्यों करते हो? दूर हटो, मैं तुझे नहीं चाहता (अथर्व० ६/४५/१)।' वेद के इस महान् सन्देश को ऋषियों ने अपने जीवन का अंग बनाया। ऋषियों की दृष्टि में धन-नाश कोई हानि नहीं, स्वास्थ्य-नाश एक बड़ी हानि है और चरित्र-नाश सर्वनाश है।

आदिकवि 'महर्षि वाल्मीकि' भी इन ऋषियों में से ही थे। वाल्मीकि जैसे प्रतिभा-सम्पन्न, धर्मज्ञ, सत्य-प्रतिज्ञ और उच्च विचारों वाला कवि आज तक नहीं हुआ। उनका आदिकाव्य 'श्रीमद्वाल्मीकी-रामायण' भूतल का प्रथम ऐतिहासिक काव्य है। इस ग्रन्थ में वनों में तप, ईश्वरोपासना, योगाभ्यास, स्वाध्याय, अपरिग्रह जैसे पुनीत कर्म के करने वाले ऋषि ऋष्यशृङ्ग, विश्वामित्र, गौतम, कश्यप, अत्रि, भरद्वाज आदि महान् तपस्वियों का उल्लेख मिलता है। वह सभी प्रकार की इच्छाओं को छोड़कर इसलिए तपोरत रहते थे ताकि उन्हें अमरत्व प्राप्त हो। इसमें वर्णित ऋषिमुनियों का समस्त जीवन हमें उपदेश दे रहा है कि उनका उदात्त और मनोहर-चरित्र सांसारिक मनुष्यों के लिए एक महान् नीतिदर्शक निष्कलंक आदर्श है। काव्य के मुख्यतः दो अङ्ग होते हैं- पहला कवि और दूसरा काव्य में वर्णित नायक। इन दोनों अङ्गों की परिपूर्णता को देखते हुए यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि भूतल पर रामायण के सदृश अन्य कोई ऐतिहासिक काव्य नहीं है!

सद्धर्म के विरोधी, व्यभिचारी लोग प्रायः हमारे ऋषियों एवं महापुरुषों को कलंकित करने के लिये विविध प्रकार के षड्यन्त्र रचा करते हैं। इन्हीं षड्यन्त्रकारियों का एजेंट मौलाना 'अहसन फिरोजाबादी' नामक वामपंथी ने 'हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ रामायण की असल हकीकत' लिखकर रामायण के ऋषियों पर कलंक लगाने का दुस्साहस किया है। लेख में रामायण के ऋषियों को ब्रह्मचर्य से हीन, गणिकाओं के प्रेमी, संश्लेषी और कामुक स्वभाव वाला इत्यादि दर्शाने का कुप्रयास किया गया है। अश्लील शब्दों की बौछार दिखाकर मौलाना साहब अपने नाम को भी चरितार्थ करने में असमर्थ रहे हैं, अतः इस लेख में अहसनजी की शिक्षायें उन्हें वापस कर उनके प्रत्येक आक्षेपों का सप्रमाण, तर्क और युक्ति-युक्त खण्डन करके वामपन्थीमण्डल पर बमबारी किया हूं। ईश्वर उन्हें सहनशक्ति प्रदान करे!

नोट, रामायण में प्रक्षिप्त श्लोकों की भरमार पड़ी है। विस्तार-भय से हमने जिन कथाओं को संक्षेप में लिखा है, वह शब्दशः श्लोक की भाषा नहीं है लेकिन श्लोक में वर्णित कथाओं में जो लिखा है, उसका अभिप्राय वही है।

मैं सरकार से भी निवेदन करूँगा कि यदि मेरे इस लेख के विरुद्ध कोई कार्यवाही की तो सर्वप्रथम २९५ (अ) धारा के अनुसार ऋषियों की मानहानि करने वाले का भी ध्यान रक्खेगी।

जिन लेखकों के लेखों व पुस्तकों से प्रमाण-संग्रह में मुझे सहायता मिली है, उनका यहां श्रद्धापूर्वक स्मरण अपना पुनीत कर्तव्य समझता हूं; अन्यथा यह मेरी बड़ी भारी भूल एवं कृतघ्नता होगी। उन विद्वानों में प्रमुख रूप से शास्त्रार्थ महारथी पं० शिवपूजनसिंह कुशवाहा 'पथिक', शास्त्रार्थ महारथी श्री पं० शिवशर्मा (महोपदेशक), शास्त्रार्थ महारथी पं० मनसाराम जी एवं श्री गणपतिराय अग्रवाल इत्यादि उल्लेखनीय हैं।

आक्षेप १. रामायण में ऋष्यशृङ्ग ऋषि का वर्णन मिलता है जो बेचारे अपने पिता की आज्ञा पालन के अतिरिक्त कुछ नहीं जानते थे। उनके समय में जब अकाल पड़ा तो अङ्गदेश के राजा को ब्राह्मण पुरोहितों ने यह सलाह दी कि गणिकाओं (वेश्याओं) द्वारा उन्हें लुभाकर जंगल से यहाँ लाकर अपनी पुत्री शांता से शादी करा दी जाए तो वर्षा हो जाएगी अत: ऐसा ही हुआ। यही वही ऋषि है जिनके पुत्रेष्टि यज्ञ द्वारा राम का जन्म हुआ। -वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड १०/११,१२,१३,१४,१५

उत्तर- इस विषय पर कई विद्वान् एकमत हैं कि रामायण में अनेक ऋषियों का चरित्र भले ही प्रेरणादायी हो, लेकिन केवल ऋष्यशृङ्ग ऐसे ऋषि थे, जिनका चरित्र हमें व्यभिचार से पूर्ण प्रतीत होता है।

डॉ० सतीश कुमार शर्मा 'आंगिरस' (आचार्य वेद एवं साहित्य, एम० ए०, पी० एच० डी०, स्वर्णपदक प्राप्त) जी ने "रामायण वैदिक सामग्री एक समालोचनात्मक अध्ययन" नामक २३६ पृष्ठ का एक पुस्तक लिखा था। जिसका प्रथम संस्करण सन् १९९२ में अभिव्यक्ति प्रकाशन, विश्वासनगर, दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक के पृष्ठ १३४, पर वह लिखते हैं- "...रामायण में ऋष्यशृङ्ग काश्यप के पौत्र तथा विभाण्डक के पुत्र हैं। इनका पालन वन में ही हुआ। अतः ये किसी से परिचित नहीं थे। ये सदैव तप तथा स्वाध्याय में रत रहते थे। ये नारियों तथा विषयों के सुख से अपिरिचित थे। ये गणिकाओं के माध्यम से अंगदेश आये और वहां अनावष्टि शांत हो गई। अंगराज की पुत्री शान्ता से विवाह कर ये सुख से रहने लगे।..."

मुझे मौलाना साहब के आक्षेप पर कम अपितु डॉ सतीश जी के शोध पर अधिक आश्चर्य हो रहा है। इस तरह के अपूर्ण शोध से हिन्दू समाज की क्षति नहीं होगी तो और क्या होगी? अस्तु!

मौलाना साहब! आपको तो झूठ बोलने का अच्छा अभ्यास है लेकिन हम भी आपकी फ़िरासत से अच्छी तरह वाक़िफ् हैं।

१- वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, सर्ग ८ श्लोक २,८, सर्ग ९ श्लोक १,२, सर्ग १० श्लोक ८,९, सर्ग १३ श्लोक १, सर्ग १४ श्लोक २३,३८,३९,४१,४४, गीताप्रेस गोरखपुर, में पुत्र-प्राप्ति के लिए दशरथ ने अश्वमेध यज्ञ किया, ऐसा वर्णन मिलता है।

ज्ञातव्य हो, पुत्र-प्राप्ति के लिए अश्वमेध यज्ञ नहीं होता है क्योंकि शतपथब्राह्मण १३/१/६/३ एवं १३/२/२/३ के अनुसार राष्ट्र के गौरव, कल्याण और विकास के लिए किये जाने वाले सभी कार्य 'अश्वमेध' हैं और अयोध्यापुरी में अश्वमेध यज्ञ कराने की जरूरत भी नहीं थी क्योंकि वाल्मीकि रामायण में लिखा है- "कोशल नाम से प्रसिद्ध एक बहुत बड़ा जनपद है, जो सरयू नदी के किनारे बसा हुआ है। वह प्रचुर धन धान्य से सम्पन्न, सुखी और समृद्धिशाली है। उसी जनपद में अयोध्या नाम की एक नगरी है, जो समस्त लोकों में विख्यात है। अग्निहोत्री, शम-दम आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न तथा छहों अङ्गोंसहित सम्पूर्ण वेदों के पारंगत विद्वान् श्रेष्ठ ब्राह्मण उस पुरी को सदा घेरे रहते थे। वे सहस्त्रों का दान करने वाले और सत्य में तत्पर रहनेवाले थे। ऐसे महर्षिकल्प महात्माओं तथा ऋषियों से अयोध्यापुरी सुशोभित थी तथा राजा दशरथ उसकी रक्षा करते थे।" -बालकाण्ड, सर्ग ५ श्लोक ५,६,२३

मौलाना साहब ने अपने प्रश्न में पुत्रेष्टि यज्ञ का नाम लेकर अश्वमेध यज्ञ का प्रमाण देकर पाठकों को भ्रम में डालने का यत्न किया है। पुत्र-प्राप्ति हेतु पुत्रेष्टि यज्ञ ही किया जाता है, जिसका वर्णन आश्वलायन श्रौ० २/१०/८ तथा अथर्ववेद के कई प्रकरणों और शतपथब्राह्मण १४/९/१४/२ में मिलता है। रामायण में भी पुत्र-प्राप्ति के लिए ऋषियों ने पुत्रेष्टि यज्ञ ही किया था। प्रमाण के लिए देखिये- बालकाण्ड, सर्ग १५ श्लोक २,३, सर्ग १६ श्लोक ९,११, गीताप्रेस गोरखपुर

अतः अश्वेमध यज्ञ वाला प्रकरण प्रक्षेप सिद्ध हुआ। अब मौलाना साहब कृपया यह बतलावें कि ऋष्यशृङ्ग ऋषि और वेश्याओं से लुभाने वाली कल्पित कथा का वर्णन अश्वेमध यज्ञ के प्रसङ्ग के बाहर मिलता है या भीतर? वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड के अनुसार- भीतर। अतः यह कथा भी तो प्रक्षेप ही सिद्ध हुई।

२- मुसलमानों के प्रत्येक आक्षेपों का जवाब देने वाले, ऋषिभक्त व धर्मरक्षा के लिए अपना जीवन आहूत करने वाले, धर्मवीर पण्डित लेखरामजी आर्यपथिक भी अश्वमेध यज्ञ वाले प्रकरण को प्रक्षेप मानते हैं। देखो, उनकी पुस्तक "श्रीरामचन्द्र जी का सच्चा दर्शन, पृष्ठ २२० का फुटनोट"-

"इसी प्रकार बालकाण्ड सर्ग ४५ में समुद्र मन्थन की भी केवल पौराणिक गप्प है। और जो कोई सारा वाममार्ग और महीधर भाष्य का प्रभाव देखना चाहे तो कृपा करके बालकाण्ड सर्ग १४ श्लोक ३३,३४ को देखें। और प्रत्यक्षत: यदि कोई ध्यान दे तो उसे स्पष्ट प्रतीत होगा कि सारा अश्वमेध प्रकरण सर्वथा कल्पित है। क्योंकि ऋषि श्रृंग को वह राजा रोम पाद के देश में केवल पुत्रेष्टि के लिए लाए थे। (देखो सर्ग ११ श्लोक ५ से ३१ तक) और उसके साथ देखिए सर्ग १५ श्लोक १,२,३ आदि। मध्य में सम्बन्ध और प्रकरण के बिना अश्वमेध का सदाचार विरुद्ध वर्णन कर दिया।"

३- पुत्र के लिए अश्वमेध यज्ञ की बात सुनकर सुमन्त्र ने दशरथ से एकान्त में कहा- "महाराज! एक पुराना इतिहास सुनिए। मैंने पुराणों में भी इसका वर्णन सुना है।" वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, सर्ग ९ श्लोक १, गीताप्रेस गोरखपुर

अब इसी सर्ग के अगले अर्थात् दूसरे श्लोक में लिखा है कि "राजन्! पूर्वकाल में भगवान् सनत्कुमार ने ऋषियों के निकट एक कथा सुनाई थी। वह आपकी पुत्रप्राप्ति से सम्बन्ध रखने वाली है।" एवं उन्नीसवें श्लोक में लिखा है कि "यह सनत्कुमार जी की कही हुई बात मैंने आपसे निवेदन की है।"
अब ग्यारहवें सर्ग के पहले श्लोक पर भी दृष्टिपात कर लेते हैं। यथा- "राजेन्द्र! आप पुनः मुझसे अपने हित की वह बात सुनिए, किसे देवताओं में श्रेष्ठ बुद्धिमान् सनत्कुमार जी ने ऋषियों को सुनाया था।" तथा इसी सर्ग के ग्यारहवें श्लोक में लिखा है- "भगवान् सनत्कुमार जी ने ऋषियों के समक्ष ऐसी कथा कही थी।"

पाठकवर्ग ध्यान देंगे, यहां स्पष्ट लिखा है कि यह कथा पुराणों की है और उक्त श्लोकों में बार-बार सनत्कुमार जी का उल्लेख मिलता है। पुराण अर्थात् प्राचीन (निरुक्त, अध्याय ३, पाद ४, खण्ड १९)। प्राचीन हमारे वेद, उपनिषद्, दर्शनशास्त्र, ब्राह्मण ग्रन्थ हैं नाकि अष्टादशपुराण। इन ग्रन्थों में सनत्कुमार जी द्वारा ऋषियों के समक्ष सुनाई ऐसी अश्लील कथा का वर्णन कहीं नहीं मिलता (छान्दोग्योपनिषद् का सातवां प्रपाठक दर्शनीय है); अतः यह वेश्या से लुभाने वाली अश्लील कथा प्रक्षेप है।

वास्तविकता तो यह है कि इस कथा का सृजन अष्टादशपुराण पुराणों ने किया। यथा-
इति श्रुत्वा तु सा प्राह विश्वामित्रेण धीमता।
शृङ्गिणा च महाप्राज्ञ वेश्यासंग: कृत: पुरा।
न कोऽपि नरकं प्राप्तस्तस्मान्मां भज कामिनीम्।।४६।। -भविष्यपुराण, प्रतिसर्ग, पर्व ३, अ० २८।

मौलाना साहब यहां पुनः तोहमत लगा सकते हैं कि सुमन्त्र ने दशरथ को पुराण की गप्प कथा क्यों सुनाई? सुमन्त्र का दशरथ को पुराणों की कथा सुनाने वाला प्रसङ्ग भी तो अश्वमेध यज्ञ के अन्तर्गत आता है, अतः आपने भी तो प्रक्षिप्त श्लोक दे दिया। वैसे भी पुराण शब्द तो वेदों, उपनिषदों आदि आर्ष ग्रन्थों में मिलता है।

उत्तर- आप प्रक्षिप्त श्लोक देकर आक्षेप करो तो सही और हम उन्हीं श्लोकों के द्वारा खण्डन करें तो गलत? श्रीमान्! हम तो इस सिद्धान्त के मानने वाले हैं-

यस्मिन् यथा वर्तते यो मनुष्य:
तस्मिंस्तथा वर्तितव्यं स धर्म:।
मायाचारो मायया वर्तितव्य:
साध्वाचार: साधुना प्रत्युपेय:।। -विदुर प्रजागर ५/७

जो मनुष्य जिसके साथ जैसा व्यवहार करे उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए यह धर्म है। मायाचारी के साथ माया का व्यवहार करना चाहिए और भले के साथ भलाई का व्यवहार करना चाहिए अतः जिस फ़िरासत से आपने आक्षेप किया है वैसा ही उत्तर भी दिया गया है।

पुराण शब्द वेदादि शास्त्रों में अवश्य मिलता है लेकिन वहां अष्टादशपुराणों का ग्रहण नहीं है। पुराण शब्द जहां कहीं भी वेदों में आता है, वहां विशेषण के रूप में आता है, विशेष्य के रूप में नहीं। अथर्ववेद १८/३/१ में 'धर्म पुराणमनु पालयन्ति'- 'पुराने धर्म का पालन करती हुई' यहां पर पुराण शब्द धर्म का विशेषण है। अमरकोश तृतीय काण्ड, वर्ग १ श्लोक ७७ में पुराण का अर्थ पुराना लिखा है और १/६/५ में भी पुराण भागवत आदि का नाम नहीं है। गीता अध्याय २ श्लोक २० में 'अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराण:'- 'यह जीव अजन्मा, सदा रहनेवाला और पुराना है'- यहां भी पुराण शब्द जीव का विशेषण है।
तात्पर्य यह है कि पुराण विशेषण है। जब तक इसे किसी विशेष्य के साथ न लगाया जाय तब तक यह अकेला कोई अर्थ नहीं रखता।

नोट, यह नियम अटल है कि जिस पुस्तक में व्याघातदोष अर्थात् परस्पर-विरोध, तर्क व बुद्धि के विपरीत, विज्ञान के प्रतिकूल एवं सृष्टि नियम के विरुद्ध बातें हों वह पुस्तकें अमान्य होती हैं। यही हेतु है कि आर्यसमाज अष्टादशपुराणों को नहीं मानता।

४- ऋष्यशृङ्ग ऋषि को वाल्मीकि रामायण में वेदों के पारगामी विद्वान्, तपस्वी, स्वाध्यायशील, पूजनीय आदि आदरसूचक नामों से सम्बोधित किया गया है। यथा-

•विभाण्डकसुतं राजन् ब्राह्मणं वेदपारगम्। -वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, सर्ग ९/१३, गीताप्रेस गोरखपुर

अर्थात् हे राजन्! विभाण्डक के ब्राह्मण पुत्र को, जो वेदों के पारगामी विद्वान् हैं...।

सर्ग १५ के प्रथम श्लोक में भी ऋष्यशृङ्ग ऋषि को वेदों का ज्ञाता बताया गया है।

विशेष, वेद कहता है-
ब्रह्मज्ञानी पुरुष सब वासनाओं का संहार कर डालता है। -अथर्व० ११/५/१०

•ऋष्यशृङ्गो वनचरस्तप:स्वाध्यायसंयुत:। -वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, सर्ग १०/३, गीताप्रेस गोरखपुर

अर्थात् ऋष्यशृङ्गमुनि सदा वन में ही रहकर तपस्या और स्वाध्याय में लगे रहते हैं।

महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-
कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपस:। -योगदर्शन साधन० ४३

अर्थात् तप से अशुद्धि का नाश होकर शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि मिलती है। तप के द्वारा शारीरिक क्रान्ति और इन्द्रियों में सूक्ष्म विषयों को ग्रहण करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है।

भविष्यपुराण में भी ऋष्यशृङ्ग ऋषि को तपस्वी बताया गया है। देखिये-

ऋष्यशृङ्गो महामुनि तपसा ब्राह्मणो जात:।
अर्थात् महामुनि ऋष्यशृङ्ग तप से ब्राह्मण बन गए। -भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व, अध्याय ४२, श्लोक २६

एक अन्यत्र स्थल से प्रमाण देता हूं-

तप: प्रभावेण विश्वामित्रत्, बीजप्रभावेण ऋष्यशृङ्गादिवत्।। -मनु० १०/४२, कुल्लूकभट्ट कृत टीका

अर्थ- तप के प्रभाव से विश्वामित्र की भांति और बीज के प्रभाव से ऋष्यशृङ्ग आदि की भांति कोई तप से और कोई बीज से उन्नति कर गए।

प्रायः कुछ विद्वानों को यहां लिखे, बीज से उन्नति कर गए, वाक्य पर सन्देह हो जाता है और वह इसका गलत अर्थ कर बैठते हैं अर्थात् वेश्याओं से आलिङ्गन करके उन्नति कर गए, यह अर्थ करते हैं। किन्तु ऋष्यशृंग ऋषि वेदों के ज्ञाता थे, इस कारण यह अर्थ सर्वथा त्याज्य है।

वेद कहता है-

ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत। -अथर्व० ११/५/१९
अर्थात् ब्रह्मचर्य और तप के द्वारा विद्वान् लोग मौत को भी मार भगाते हैं।

बीज से उन्नति करना अर्थात् वीर्य रक्षण करके (ब्रह्मचर्य के बल पर) उन्नति कर गए, यह अर्थ ग्राह्य है।

•अन्त:पुरं प्रवेश्यैनं पूजां कृत्वा च शास्त्रत:।
कृतकृत्यं तदात्मानं मेने तस्योपवाहनात्।। -वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, सर्ग ११/२९, गीताप्रेस गोरखपुर

अर्थात् ऋषि (ऋष्यशृङ्ग) को अन्तःपुर में ले जाकर राजा ने शास्त्रविधि के अनुसार उनका पूजन किया और उनके निकट आ जाने से अपने को कृतकृत्य माना।

इस आधार पर हम यह कहते हैं कि ऋषि ऋष्यशृङ्ग निष्कलंक, ब्रह्मचारी, तपस्वी और वेदों के ज्ञाता थे और उनका चरित्र हमारे लिए आदर्श, वर्णीय और प्रेरणादायी है। अतः मौलाना साहब द्वारा किया आक्षेप भ्रमपूर्ण है।

आक्षेप २. कौशल्या अर्थात् श्री राम की माँ का घोड़े की पूजा करना, उसके साथ रात बिताना, एवं शूद्रों की स्त्रियों के अंगों का घोड़े के अंग से स्पर्श कराने का वर्णन भी रामायण में मिलता है। -बालकाण्ड १४/३३,३४,३५,३६
नोट:- स्पर्श एवं रात बिताने वाली घटना मान्यता है कि यजुर्वेद वर्णित पुत्रेष्टि यज्ञ जिसमें अश्व द्वारा रानी के साथ संभोग करने की अश्लील घटना का वर्णन है वह कौशल्या अर्थात् श्री राम की माता है।

उत्तर- यह प्रसङ्ग भी अश्वमेध यज्ञ के अन्तर्गत आता है, जिसे हम पूर्व ही प्रक्षेप सिद्ध कर चुके हैं। अतः हम इसपर कुछ लिखकर अपनी ऊर्जा नष्ट करना बुद्धिमत्ता नहीं समझते।

नोट वाली टिप्पणी का उत्तर-
कोई भी विद्वान् चारों वेदों में अश्व द्वारा रानी के साथ संभोग करने की अश्लील घटना का वर्णन दिखा दे, विश्व के समस्त विद्वानों को शास्त्रार्थ हेतु आमन्त्रित करता हूं।

आक्षेप ३. मुनि तपस्वी चूली जब तपस्या कर रहे थे तब उर्मिला की पुत्री सोमदा जो कुंवारी थी उनकी सेवा में रहती अत: महाऋषी चूली ने खुश होकर कहा "मैं तुमसे प्रसन्न हूँ तुम्हारा क्या करूँ?" अर्थात् तुम्हें क्या वरदान दूँ? यह सुनकर वह बोली ..."मैं किसी की पत्नी नहीं हूँ आपकी शरण में आई हूँ आप पुत्र देने योग्य हैं" अत: ऋषी चूली ने उस कुंवारी गन्धर्वी स्त्री के साथ मुंह काला किया जिससे पुत्र पैदा हुआ। -बालकाण्ड ३३/१५,१६
कमाल की बात है कि ऋषि जैसे पवित्र समझे जाने वाले लोग जब बिना विवाह बच्चा पैदा कर देता है तो उसके ऋषि एवं महान् होने में कोई फर्क नहीं रह जाता और आज जब कोई लड़का-लड़की विवाह से पूर्व ऐसा करें तो उस कार्य को हराम और बच्चे को हरामी की औलाद कहते हैं किन्तु रामायण में इस प्रकार के बच्चे को इन्द्र के समान कहा गया है-
ब्रह्मदत्त से राजा कुशनाभ अपनी सौ कन्याओं का विवाह करते हैं और ब्रह्मदत्त को इंद्र के समान बताते हैं। -बालकाण्ड ३३/२१,२४

उत्तर- मौलाना साहब! यदि आपने यह प्रकरण नश्शए सहबा उतारकर पढ़ा होता तो यह आक्षेप कदापि न करते। पाठकवर्ग! हम ब्रह्मर्षि चूली की कथा को संक्षेप में लिख देते हैं, अवलोकन कीजिये।

श्रीराम, लक्ष्मण तथा ऋषियोंसहित विश्वामित्र ने मिथिला को प्रस्थान किया। सिद्धाश्रम में निवास करनेवाले मृग और पक्षी भी तपोधन विश्वामित्र के पीछे-पीछे जाने लगे। कुछ दूर जाने पर ऋषिमण्डलीसहित विश्वामित्र ने उन पशु-पक्षियों को लौटा दिया। फिर दूर तक का मार्ग तय कर लेने के बाद जब सूर्य अस्ताचल को जाने लगे, तब उन ऋषियों ने पूर्ण सावधान रहकर शोणभद्र के तटपर पड़ाव डाला। वहीं श्रीराम जी हरे-भरे समृद्धिशाली वन से सुशोभित देश का परिचय जानने की इच्छा प्रकट करते हैं। उनके इस प्रश्न से प्रेरित होकर उत्तम व्रत का पालन करनेवाले महातपस्वी विश्वामित्र ने उस देश का पूर्ण रूप से परिचय देना प्रारम्भ किया। श्रीराम! पूर्वकाल में कुश नाम से प्रसिद्ध एक महातपस्वी राजा हो गए हैं। उनका प्रत्येक व्रत बिना किसी क्लेश या कठिनाई के ही पूर्ण होता था। वे धर्म के ज्ञाता, सत्पुरुषों का आदर करने वाले और महान् थे। उत्तम कुल में उत्पन्न विदर्भ देश की राजकुमारी उनकी पत्नी थी। उसके गर्भ से उन्होंने चार पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम- कुशाम्ब, कुशनाभ, असूर्तरजस तथा वसु। वे सब-के-सब तेजस्वी थे। उन चारों राजकुमारों ने उस समय अपने-अपने लिए पृथक् नगर निर्माण कराया। महातेजस्वी कुशाम्ब ने 'कौशाम्बी' पुरी बसायी (जिसे आजकल 'कोसम' कहते हैं)। धर्मात्मा कुशनाभ ने 'महोदय' नामक नगर का निर्माण कराया। परम बुद्धिमान् असूर्तरजस ने 'धर्मारण्य' नामक एक श्रेष्ठ नगर बसाया तथा राजा वसु ने 'गिरिव्रज' नगर की स्थापना की। धर्मात्मा राजर्षि कुशनाभ ने घृताची अप्सरा के गर्भ से परम उत्तम सौ कन्याओं को जन्म दिया। इस भूतल पर उनके रूप-सौन्दर्य की कहीं भी तुलना नहीं थी। उस समय उत्तम गुणों से सम्पन्न तथा रूप और यौवन से सुशोभित उन सब कन्याओं को देखकर वायु देव उन्हें अपनी प्रेयसी के रूप में प्राप्त करना चाहते थे। उन्होंने उन सब कन्याओं को अपनी भार्या बनाने की इच्छा प्रकट की थी। किन्तु राजर्षि कुशनाभ की कन्याएं, वह समय कभी न आवे जब कि हम अपने सत्यवादी पिता की अवहेलना करके कामवश या अत्यन्त अधर्मपूर्वक स्वयं ही वर ढूंढने लगें, ऐसा कहती हैं। वह कहती हैं, पिताजी हमें जिसके हाथ में दे देंगे, वही हमारा पति होगा। उनकी यह बात सुनकर वायुदेव अत्यन्त कुपित हो उठे। उन्होंने उनके भीतर प्रविष्ट हो सब अङ्गों को मोड़कर टेढ़ा कर दिया। शरीर मुड़ जाने के कारण वह कुबड़ी हो गयीं। वायुदेव के द्वारा कुबड़ी की हुई उन कन्याओं ने राजभवन में प्रवेश किया। पिता के पूछने पर उन्होंने अपना और वायुदेव का वृतान्त सुनाया। वृतान्त सुनकर राजा ने कहा- पुत्रियों! क्षमाशील पुरुष ही जिसे कर सकते हैं, वही क्षमा तुमने भी की है। तुम सबने एकमत होकर जो मेरे कुल की मर्यादा पर ही दृष्टि रक्खी है, कामभाव को अपने मन में स्थान नहीं दिया है, यह भी तुमने बहुत बड़ा काम किया है। पुत्रियों! क्षमा दान है, क्षमा सत्य है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा यश है और क्षमा धर्म है, क्षमा पर ही यह सम्पूर्ण जगत् टिका हुआ है। अतः राजा कुशनाभ ने कन्याओं से ऐसा कहकर उन्हें अन्तःपुर में जाने की आज्ञा दे दी और मन्त्रणा के तत्व को जाननेवाले उन नरेश ने स्वयं मन्त्रियों के साथ बैठकर कन्याओं के विषय में विचार प्रारम्भ किया। विचारणीय विषय यह था कि 'किस देश में किस समय और किस सुयोग्य वर के साथ उनका विवाह किया जाय?' उन्हीं दिनों चूली नाम से प्रसिद्ध एक महातेजस्वी, सदाचारी एवं ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) मुनि वेदोक्त तप का अनुष्ठान कर रहे थे (अथवा ब्रह्मचिन्तन तपस्या में संलग्न थे)। उस समय एक गन्धर्व कुमारी वहां रहकर उन तपस्वी मुनि की उपासना (अनुग्रह की इच्छा से सेवा) करती थी। उसका नाम था सोमदा। वह उर्मिला की पुत्री थी। शुभ समय आने पर चूली ने उस गन्धर्व कन्या से कहा- मैं तुमपर बहुत सन्तुष्ट हूं। बोलो, तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य सिद्ध करूँ? उसने कहा- आप ब्रह्मतेज से सम्पन्न होकर ब्रह्मस्वरूप हो गए हैं, अतएव मैं आपसे ब्रह्म-ज्ञान एवं वेदोक्त तप से युक्त धर्मात्मा पुत्र प्राप्त करना चाहती हूं। कन्या की सेवा से सन्तुष्ट हुए ब्रह्मर्षि चूली ने उसे परम उत्तम ब्राह्मतप से सम्पन्न पुत्र प्रदान किया। वह उनके मानसिक संकल्प से प्रकट हुआ मानस पुत्र था। उसका नाम 'ब्रह्मदत्त' हुआ। (कुशनाभ के यहां जब कन्याओं के विवाह का विचार चल रहा था) उस समय राजा ब्रह्मदत्त उत्तम लक्ष्मी से सम्पन्न हो 'काम्पिल्या' नामक नगरी में उसी तरह निवास करते थे, जैसे स्वर्ग की अमरावतीपुरी में देवराज इन्द्र। तब परम धर्मात्मा राजा कुशनाभ ने ब्रह्मदत्त के साथ अपनी सौ कन्याओं को ब्याह देने का निश्चय किया। महातेजस्वी राजा कुशनाभ ने ब्रह्मदत्त को बुलाकर अत्यन्त प्रसन्न चित्त से उन्हें अपनी सौ कन्याएं सौंप दीं। विवाहकल में उन कन्याओं के हाथों का ब्रह्मदत्त के हाथों से स्पर्श होते ही वे सब-की-सब कन्याएं कुब्जत्व दोष से रहित, नीरोग तथा उत्तम शोभा से सम्पन्न प्रतीत होने लगीं। वातरोग के रूप में आये हुए वायुदेव ने उन कन्याओं को छोड़ दिया। ब्रह्मदत्त का विवाह सम्पन्न हो जाने पर महाराज कुशनाभ ने उन्हें पत्नियों तथा पुरोहितोंसहित आदरपूर्वक विदा किया। गन्धर्वी सोमदा ने अपने पुत्र को तथा उसके योग्य विवाह सम्बन्ध को देखकर अपनी उन पुत्रवधुओं का यथोचित रूप से अभिनन्दन किया। विवाह करके जब राजा ब्रह्मदत्त चले गए, तब पुत्रहीन महाराज कुशनाभ ने श्रेष्ठ पुत्र की प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ का अनुष्ठान किया। कुछ काल के पश्चात् बुद्धिमान् राजा कुशनाभ के यहाँ परम धर्मात्मा 'गाधि' नामक पुत्र का जन्म हुआ। रघुनन्दन! वे परम धर्मात्मा राजा गाधि मेरे (विश्वामित्र के) पिता थे। मैं यज्ञसम्बन्धी नियम की सिद्धि के लिए ही अपनी बहिन (सत्यवती) का सानिध्य छोड़कर सिद्धाश्रम में आया था। श्रीराम! तुमने जो मुझसे पूछा था, उसके उत्तर में मैंने तुम्हें शोणभद्रतटवर्ती देश का परिचय देते हुए यह अपनी तथा अपने कुल की उत्पत्ति बतायी है। -वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड सर्ग ३१/६,७,१४,१८,१९,२०,२२,२३,२४, सर्ग ३२/१,२,३,५,६,७,११,१४,१५,१६,२१,२२,२३,२४,२६, सर्ग ३३/५,६,८,९,१०,११,१२,१४,१६,१८,१९,२०,२१,२३,२४,२५,२६, सर्ग ३४/१,५,६,७,१२,१३, गीताप्रेस गो०

मौलाना साहब! आपको तो उन सौ कन्याओं से सीख लेनी चाहिए, जो अपने पिता के कुल की मर्यादा रखने के लिए कुबड़ी हो गईं लेकिन कामभाव को अपने मन में प्रवेश भी नहीं करने दिया। अस्तु!

(१) प्रथम तो हम कथा में वर्णित ब्रह्मदत्त और कुशनाभ की सौ कन्याओं के बारे में जान लेते हैं। क्या वास्तव में रामायण में राजर्षि कुशनाभ की सौ कन्याएं और ऋषि चूली और सोमदा का कोई पुत्र था वा यह प्रकरण किसी वाममार्गी की शरारत है?

उक्त कथा में हमने बालकाण्ड के सर्ग ३२ के ११वें श्लोक का प्रमाण दिया है, जिसमें लिखा है- 'धर्मात्मा राजर्षि कुशनाभ ने घृताची अप्सरा के गर्भ से परम उत्तम सौ कन्याओं को जन्म दिया।' एवं सर्ग ३३ के २१वें श्लोक का प्रमाण भी दिया है, जहां लिखा है- 'महातेजस्वी राजा कुशनाभ ने ब्रह्मदत्त को बुलाकर अत्यन्त प्रसन्न चित्त से उन्हें अपनी सौ कन्याएं सौंप दीं।'

अब इस प्रकरण पर विचार करें तो कई प्रश्न उभरते हैं-
क्या एक स्त्री से सौ कन्या पैदा होना बुद्धि व विज्ञान के अनुकूल है? यह कैसे मान लें कि सौ बार गर्भाधान के पश्चात् कन्याएं ही हुई होंगी, पुत्र नहीं? चलो यदि कन्या वाला प्रकरण सत्य मान भी लें तो सर्ग ३४ के पहले श्लोक में, विवाह करके जब राजा ब्रह्मदत्त चले गए, तब पुत्रहीन महाराज कुशनाभ ने श्रेष्ठ पुत्र की प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ का अनुष्ठान किया, ऐसा क्यों लिखा है? जब कुशनाभ को पुत्र की ही इच्छा थी तो पुत्रेष्टि यज्ञ पूर्व क्यों नहीं किया? बालकाण्ड में जहां भी कुशनाभ का नाम आया है, उन्हें 'धर्मात्मा' पद से सम्बोधित किया गया है। उन्होंने अपनी पुत्रियों को महर्षि मनु द्वारा प्रतिपादित धर्म के लक्षणों का एक अङ्ग 'क्षमा' के बारे में शास्त्रोक्त महान् उपदेश दिया था। प्रश्न यह उठता है कि धर्मात्मा व्यक्ति धर्म के लक्षणों से परिचित होने के बाद भी सौ सन्तान कैसे उत्पन्न कर सकता है जबकि धर्म के लक्षणों में स्पष्ट रूप से इन्द्रियों को वश में रखने की बात कही है? इत्यादि।

(२) दूसरे, मौलाना साहब ने प्रश्न में, ब्रह्मर्षि चूली ने कुंवारी सोमदा से मुंह काला अर्थात् व्यभिचार किया, ऐसा किस आधार पर लिखा? जबकि पूरे प्रसङ्ग में व्यभिचार करने की बात कहीं नहीं लिखी है। वहां तो स्पष्ट लिखा है कि वह उनके मानसिक संकल्प से प्रकट हुआ मानस पुत्र था (पाठक इसे व्यंग्यात्मक रूप में लें)। जनाब! औरों को नसीहत और खुद मियां फजीहत इसी का नाम है। आपका अल्लाह कुंवारी मरियम की योनि में फूंक मारकर उसे गर्भवती कर सकता है (मंजिल ४, सिपारा १७, सूरा २१, आयत ९१) तो क्या हमारे ऋषि मानसिक संकल्प से पुत्र उत्पन्न नहीं कर सकते? आपका पवित्र परमेश्वर भी बिना विवाह बच्चा पैदा कर देता है और उस बच्चे को अल्लाह की निशानी बताया जाता है। अब तो हम भी इस कार्य को हराम और मरियम के बच्चे को हरामी की औलाद कहेंगे।

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कुशनाभ की सौ कन्याएं और ऋषि चूली का पुत्र ब्रह्मदत्त वाला प्रकरण हमें किसी वाममार्गी की शरारत प्रतीत होती है तथा इस पूरे प्रकरण में व्यभिचार करने का जिक्र भी नहीं है अत: मौलाना साहब का तोहमत, ब्रह्मर्षि चूली का सोमदा से व्यभिचार करना, सर्वथा मिथ्या और भ्रमोत्पादक है।

आक्षेप ४. रामायण में महर्षि गौतम द्वारा इंद्र को एवं अपनी पत्नी अहिल्या को श्राप देने का वर्णन आया क्योंकि अहिल्या एवं इंद्र ने गौतम की अनुपस्तिथि में आपस में समागम किया था। जो इस प्रकार है-
इंद्र! आश्रम में महा ऋषी गौतम की अनुपस्तिथिति जान कर मुनि वेश धारण कर के आये और अहिल्या से बोले
"हे सुन्दरी संभोग की इच्छुक  ऋतुकाल की इच्छा नहीं करते हे सुन्दर कमर वाली! मैं तुम्हारे साथ सम्भोग करना चाहता हूँ" अत: अहल्या जो यह जान गयी थी कि मुनि के भेष में देवता इंद्र हैं फिर भी उसने संभोग करने की अभिलाषा की। -बालकाण्ड ४९/१७,१९
संभोग के पश्चात् अहल्या संतुष्ट मन से बोली-
'हे सुरश्रेष्ठ आपने जो मेरे साथ संभोग किया मैं अपने आपको धन्य समझती हूँ अब आप यहाँ से शीघ्र ही चले जाइये।' यह सुनकर इंद्र ने  हँसते हुए कहा- "हे सुंदर नितंबों वाली मैं संतुष्ट हुआ अब मैं वहां जाता हूँ जहाँ से आया हूँ।" -बालकाण्ड ४९/२०,२१
पर देवता इंद्र और अहल्या को क्या मालूम था कि उसी समय महा ऋषी गौतम टपक जायेंगे अत: महा ऋषी गौतम ने दोनों को श्राप दिया जिससे इंद्र के अंडकोष धरती पर ही गिर गये। -बालकाण्ड ४९/२४,२७,२८,३०

उत्तर- आप इस प्रसङ्ग को समझने की बुद्धि रखते हुए भी प्रलाप करने में नहीं चूकते। इस आक्षेप का सप्रमाण और युक्तियुक्त उत्तर आर्यसमाज के प्रवर्त्तक महर्षि स्वामी दयानन्द जी ने अपने ग्रन्थ "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" के 'ग्रन्थप्रामाण्याप्रामाण्यविषय:' के 'गोतमाहल्ययो: कथावि०' में दिया है। हम इस प्रमाण का पूरा पाठ और वेदानुकूल अर्थ नीचे दर्ज करते हैं, ध्यानपूर्वक पढ़िये-

तथा च - 'कश्चिद्देहधारीन्द्रो देवराज आसीत्। स गोतमस्त्रियां जारकर्म कृतवान्। तस्मै गोतमेन शापो दत्तस्त्वं सहस्रभगो भवेति। तस्यै अहल्यायै शापो दत्तस्त्वं पाषाणशिला भवेति। तस्या रामपादरजःस्पर्शेन शापस्य मोक्षणं जातमिति।'

तत्रेदृश्यो मिथ्यैव कथाः सन्ति। कुतः ? आसामप्यलङ्कारार्थत्वात्। तद्यथा -

इन्द्रागच्छेति।......गौरावस्कन्दिन्नहल्यायै जारेति। तद्यान्येवास्य चरणानि तैरेवैनमेतत्प्रमोदयिषति॥ -शत० कां० ३। अ० ३। ब्रा० ४। कं० १८॥

रेतः सोमः॥ -श० कां० ३। अ० ३। ब्रा० २। कं० १॥

रात्रिरादित्यस्यादित्योदयेऽन्तर्धीयते॥ -निरु० अ० १२। खं० ११॥

सूर्य्यरश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्व इत्यपि निगमो भवति। सोऽपि गौरुच्यते॥ -निरु० अ० २। खं० ६॥

जार आ भगम्। जार इव भगम्॥ आदित्योऽत्र जार उच्यते, रात्रेर्जरयिता॥ -निरु० अ० ३ खं० १६॥

एष एवेन्द्रो य एष तपति॥ -श० कां० १। अ० ६। ब्रा० ४। कं० १८॥

भाष्यम् - इन्द्रः सूर्यो, य एष तपति, भूमिस्थान् पदार्थांश्च प्रकाशयति। अस्येन्द्रेति नाम परमैश्वर्यप्राप्तेर्हेतुत्वात्। स अहल्याया जारोऽस्ति। सा सोमस्य स्त्री। तस्य गोतम इति नाम। गच्छतीति गौरतिशयेन गौरिति गोतमश्चन्द्रः। तयोः स्त्रीपुरुषवत् सम्बन्धोऽस्ति। रात्रिरहल्या। कस्मादहर्दिनं लीयतेऽस्यां तस्माद्रात्रिरहल्योच्यते। स चन्द्रमाः सर्वाणि भूतानि प्रमोदयति, स्वस्त्रियाऽहल्यया सुखयति।

अत्र स सूर्य इन्द्रो रात्रेरहल्याया गोतमस्य चन्द्रस्य स्त्रिया जार उच्यते। कुतः ? अयं रात्रेर्जरयिता। 'जॄष् वयोहाना' विति धात्वर्थोऽभिप्रेतोऽस्ति। रात्रेरायुषो विनाशक इन्द्रः सूर्य एवेति मन्तव्यम्॥

एवं सद्विद्योपदेशार्थालङ्कारायां भूषणरूपायां सच्छास्त्रेषु प्रणीतायां कथायां सत्यां या नवीनग्रन्थेषु पूर्वोक्ता मिथ्या कथा लिखितास्ति, सा केनचित्कदापि नैव मन्तव्या, ह्येतादृश्योऽन्याश्चापि।

भाषार्थ - अब जो दूसरी कथा इन्द्र और अहल्या की है, कि जिस को मूढ़ लोगों ने अनेक प्रकार बिगाड़ के लिखा है। सो उस को ऐसा मान रक्खा है कि-

'देवों का राजा इन्द्र देवलोक में देहधारी देव था। वह गोतम ऋषि की स्त्री अहल्या के साथ जारकर्म किया करता था। एक दिन जब उन दोनों को गोतम ने देख लिया, तब इस प्रकार शाप दिया कि-हे इन्द्र! तू हजार भगवाला हो जा। तथा अहल्या को शाप दिया कि तू पाषाणरूप हो जा। परन्तु जब उन्होंने गोतम की प्रार्थना की कि हमारे शाप का मोक्षण कैसे वा कब होगा, तब इन्द्र से तो कहा कि तुम्हारे हजार भग के स्थान में हजार नेत्र हो जायें, और अहल्या को वचन दिया कि जिस समय रामचन्द्र अवतार लेकर तेरे पर अपना चरण लगावेंगे, उस समय तू फिर अपने स्वरूप में आ जावेगी।'

इस प्रकार पुराणों में यह कथा बिगाड़ कर लिखी है। सत्य ग्रन्थों में ऐसे नहीं है। तद्यथा-

(इन्द्रागच्छेति०) अर्थात् उन में इस रीति से है कि- सूर्य का नाम इन्द्र, रात्रि का अहल्या तथा चन्द्रमा का गोतम है। यहां रात्रि और चन्द्रमा का स्त्री-पुरुष के समान रूपकालंकार है। चन्द्रमा अपनी स्त्री रात्रि से सब प्राणियों को आनन्द कराता है और उस रात्रि का जार आदित्य है। अर्थात् जिस के उदय होने से रात्रि अन्तर्धान हो जाती है। और जार अर्थात् यह सूर्य ही रात्रि के वर्तमान रूप श्रृंगार को बिगाड़नेवाला है। इसलिये यह स्त्रीपुरुष का रूपकालंकार बांधा है, कि जैसे स्त्री पुरुष मिल कर रहते हैं, वैसे ही चन्द्रमा और रात्रि भी साथ साथ रहते हैं। चन्द्रमा का नाम 'गोतम' इसलिये है कि वह अत्यन्त वेग से चलता है। और रात्रि को 'अहल्या' इसलिये कहते हैं कि उसमें दिन लय हो जाता है। तथा सूर्य रात्रि को निवृत्त कर देता है इसलिये वह उस का 'जार' कहाता है।

इस उत्तम रूपकालंकार विद्या को अल्पबुद्धि पुरुषों ने बिगाड़ के सब मनुष्यों में हानिकारक फल धर दिया है। इसलिये सब सज्जन लोग पुराणोक्त मिथ्या कथाओं का मन से ही त्याग कर दें।

कहिये, मौलाना साहब! इस सन्दर्भ में आपको क्या अश्लीलता दिखी?

आक्षेप ५. विश्वामित्र को धार्मिक ग्रंथों में बहुत बड़ा तपस्वी और उच्च स्तरीय मर्तबे वाला महा ऋषी माना गया है यह ब्राह्मण नहीं थे परन्तु अपनी कठोर तपस्या के बल पर ऋषी पद प्राप्त करना चाहते थे,  परन्तु यह भी बेचारे सेक्स के मारे निकले। जब हजारों वर्षों की तपस्या के बाद देवताओं ने द्वारा इन्हें उच्च ऋषि पद प्राप्त हुआ तो कुछ समय बाद मेनका नाम की अप्सरा ने अपना नंगा जिस्म दिखा कर इनकी सारी तपस्या की ऐसी तैसी कर दी, वर्णन इस प्रकार है-
"इसके बाद (वर मिलने के बाद) बहुत समय बीत जाने पर मेनका नाम की परम सुन्दरी तालाब में स्नान करने आई अत: विश्वामित्र ने काम भावना के वशीभूत होकर कहा "मुझ काम के मारे पर कृपा करो और मेरे साथ आश्रम में रहो। -बालकाण्ड, ६३ मेनका निर्वास, ४,५
अत: यही मेनका दस वर्ष तक विश्वामित्र के साथ उनकी कुटिया में रहती है और दस वर्ष तक विश्वामित्र मेनका के साथ अवैध संबंध  बनाते हैं और दस वर्षों तक मेनका के साथ संभोग का आनंद उठाने के बाद इस ख्याल से मेनका को विदा कर देते हैं कि यह देवताओं की कोई चाल है। -बालकाण्ड, मेनका निर्वास, ६,१०,११,१३

उत्तर- यह ओछापन आपके ही मजहब का प्रतीक है। इस प्रश्न के उत्तर में हम विश्वामित्र जी पर लगाये आरोप के साथ-साथ अन्य कई श्लोकों को सप्रमाण और युक्तियुक्त प्रक्षिप्त सिद्धकर वामपन्थीमण्डल के षड्यन्त्र का भण्डाफोड़ करेंगे।

(१) विश्वामित्र जी सेनासहित वसिष्ठ के पास पहुंचते हैं। वसिष्ठ जी अपनी चितकबरी होम-धेनु (कामधेनु) अर्थात् शबला गौ के द्वारा विश्वामित्र का आतिथ्य-सत्कार करते हैं। शबला गौ ने ईख, मधु, लावा, मैरेय, श्रेष्ठ आसव, पानक रस आदि नाना प्रकार के बहुमूल्य पदार्थ प्रस्तुत कर दिए। गरम-गरम भात के पर्वत के सदृश ढेर लग गए। मिष्ठान्न (खीर) और दाल भी तैयार हो गई। दूध, दही और घी की नहरें भी बह चलीं तथा नाना प्रकार के भोजनों से भरी हुई चांदी की सहस्त्रों थालियां सज गयीं। भलीभांति तृप्त होने के बाद विश्वामित्र वसिष्ठ से कहते हैं- आप मुझसे एक लाख गौएँ लेकर यह चितकबरी गाय मुझे दे दीजिए। लेकिन वसिष्ठ जी वह गौ देने से मना कर देते हैं। जब वसिष्ठ मुनि किसी तरह भी वह गाय देने के लिए तैयार न हुए, तब विश्वामित्र चितकबरे रङ्ग की धेनु को बलपूर्वक घसीट ले चले। -वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, सर्ग ५२/१,२०,२१, सर्ग ५३/२,३,४,५,७,९,१२,१५,२२,२५, सर्ग ५४/१, गीताप्रेस गो०

समीक्षक-
पाठकवर्ग ध्यानपूर्वक पढ़ें, शबला कोई मनुष्य नहीं अपितु एक गाय थी। सर्ग ५३ के श्लोक ९,२१,२२, पाण्डेय पं० रामनारायणदत्त शास्त्री जी की टीका, गीताप्रेस गो० में 'गाय' स्पष्ट लिखा है। उसके गाय होने का एक और प्रमाण सर्ग ५५ के श्लोक २ में मिलता है। विचार कीजिये- वह मनुष्यों की भांति भोजनादि पदार्थ थाल में कैसे प्रस्तुत कर सकती है? गाय, मनुष्य को क्या स्वयं ही भोजन थाल में नहीं परोस सकती है।

(२) उस गौ ने वसिष्ठ मुनि से प्रश्न किया कि क्या आपने मुझे त्याग दिया है? ब्रह्मर्षि ने उत्तर दिया- मैं तुम्हारा त्याग नहीं करता। ये महाबली राजा अपने बल से मतवाले होकर तुमको मुझसे छीनकर ले जा रहे हैं। वह गौ कहती है- आप केवल मुझे आज्ञा दीजिये। मैं इस दुरात्मा राजा के अभिमान को अभी चूर्ण किये देती हूं। कामधेनु के ऐसा कहने पर वसिष्ठ ने आज्ञा दे दी। यह आदेश सुनकर उस गौ के हुंकार करते ही सैकड़ों पह्लव जाति के वीर पैदा हुए तथा विश्वामित्र की सेना का नाश करने लगे। विश्वामित्र को क्रोध हुआ। उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पह्लवों का संहार कर डाला। पुनः गौ ने यवनमिश्रित शक जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया। वे वीर महापराक्रमी और तेजस्वी थे। प्रज्वलित अग्नि के समान उद्भासित होने वाले उन वीरों ने विश्वामित्र की सारी सेना को भस्म करना आरम्भ किया। -बालकाण्ड, सर्ग ५४/८,९,१०,१६,१७,१८,१९,२०,२१,२२,२३, गीताप्रेस गो०

समीक्षक-
गाय के पेट से मनुष्य कैसे पैदा हो सकता है, और वो भी पह्लव अर्थात् क्षत्रिय जाति का? क्या क्षत्रिय कोई जाति है? पैदा होने के बाद उनका पालन-पोषण किसने किया? उस गौ ने गर्भ किससे धारण किया? गाय के द्वारा शकों की उत्पत्ति कैसे सम्भव है?

(३) उन सब वीरों ने विश्वामित्र की सारी सेना का तत्काल संहार कर डाला। सेना का संहार हुआ देख विश्वामित्र के सौ पुत्र अत्यन्त क्रोध में भर गए। वसिष्ठ मुनि ने हुंकार मात्र से उन सबको जलाकर भस्म कर डाला। पुत्रों का विनाश हुआ देख विश्वामित्र लज्जित हो बड़ी चिन्ता में पड़ गए। उनके एक ही पुत्र बचा था, उसको उन्होंने राजा के पद पर अभिषिक्त करके राज्य की रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया और क्षत्रिय-धर्म के अनुसार वन में चले गए। हिमालय के पार्श्व भागों में जाकर विश्वामित्र तपस्या का आश्रय ले तप में ही संलग्न हो गए। इसके पश्चात् महादेव द्वारा उन्हें अस्त्र-शस्त्रादि प्राप्त हो गया और वे अभिमान में भर गए। पुनः वे वसिष्ठ के आश्रम जाकर भांति-भांति के अस्त्रों का प्रयोग करने लगे और ब्रह्मा के पुत्र वसिष्ठ ने उन सभी अस्त्रों को केवल अपने डंडे से ही नष्ट कर दिया। यह दृश्य देख विश्वामित्र पुनः तप करने का निश्चय करते हैं। -बालकाण्ड, सर्ग ५५/४,५,६,८,११,१२,१६,१७,१८,१८,२१, सर्ग ५६/१३,२४, गीताप्रेस गो०

समीक्षक-
यहां विश्वामित्र के किन सौ पुत्रों का वर्णन है जबकि विश्वामित्र सेना सहित थे? जब यहां सारे पुत्र हुंकारमात्र से ही भस्म हो गए तो विश्वामित्र की सेना को वसिष्ठ हुंकारमात्र से भस्म क्यों नहीं कर पाए? यहां वसिष्ठ ने डंडे से ही अस्त्रों को नष्ट कर डाला और पूर्व श्लोक में वह स्वयं को विश्वामित्र की अपेक्षा बलहीन बताते हैं।

(४) एक हजार वर्ष पूरे हो जाने पर लोकपितामह ब्रह्मा जी ने तपस्या के धनी विश्वामित्र को दर्शन देकर कहा- तुमने तपस्या के द्वारा राजर्षियों के लोकों पर विजय पायी है। इस तपस्या के प्रभाव से हम तुम्हें सच्चा राजर्षि समझते हैं। उनकी बात सुनकर विश्वामित्र का मुख लज्जा से झुक जाता है कि मैंने इतना तप किया लेकिन सम्पूर्ण देवता मुझे राजर्षि समझते हैं। वह पुनः भारी तपस्या में लग गए। इसी समय इक्ष्वाकुकुल की कीर्ति बढ़ानेवाले एक सत्यवादी और जितेन्द्रिय राजा राज्य करते थे। उनका नाम था त्रिशंकु। त्रिशंकु के मन में यह विचार हुआ कि 'मैं ऐसा यज्ञ करूँ, जिससे अपने इस शरीर के साथ ही देवताओं की परम गति- स्वर्गलोक जा पहुँचूँ। वह वसिष्ठ को बुलाकर अपना यह विचार उन्हें बताते हैं। महात्मा वसिष्ठ ने बताया कि ऐसा होना असम्भव है। वसिष्ठ के मना करने के बाद वे राजा कर्म की सिद्धि के लिए दक्षिण दिशा में उन्हीं के पुत्रों के पास चले गए। वे राजा कहते हैं, महात्मा वसिष्ठ ने मेरा यज्ञ कराना अस्वीकार कर दिया है। मैं एक महान् यज्ञ करना चाहता हूं। आपलोग उसके लिए आज्ञा दें। वह उन्हें शरीरसहित स्वर्गलोक में जाने का मार्ग पूछते हैं। पुत्रगण भी उनकी प्रार्थना अस्वीकार कर देते हैं। पुनः त्रिशंकु किसी दूसरे के शरण में जाने का निश्चय करते हैं और विश्वामित्र के पास पहुंचते हैं। इसके पश्चात् विश्वामित्र उन्हें अपना शरण और यज्ञ करने की अनुमति प्रदान कर देते हैं। महोदय नामक ऋषि तथा वसिष्ठ-पुत्रों को छोड़कर सम्पूर्ण देशों में रहनेवाले सभी ब्राह्मण यज्ञ में सम्मिलित हो जाते हैं। सब मुनि के देखते-देखते उस समय विश्वामित्र ने राजा त्रिशंकु को शरीर के साथ स्वर्गलोक भेज देते हैं। त्रिशंकु को स्वर्ग में पहुंचा देख इन्द्र ने कहा- तेरे लिए स्वर्ग में स्थान नहीं है अतः नीचे मुंह किये पुनः पृथ्वी पर गिर जा। इन्द्र के इतना कहते ही वह स्वर्ग से नीचे आ गिरे। चीखते-चिल्लाते हुए त्रिशंकु की करुण पुकार सुनकर कौशिक मुनि को बड़ा क्रोध हुआ। वे त्रिशंकु से बोले- वहीं ठहर जा! (त्रिशंकु बीच में ही लटके रह गए)। इसके बाद विश्वामित्र ने दूसरे प्रजापति के समान दक्षिणमार्ग के लिए नए सप्तर्षियों की सृष्टि की तथा क्रोध से भरकर उन्होंने नवीन नक्षत्रों का निर्माण कर डाला। वे महायशस्वी मुनि क्रोध से कलुषित हो दक्षिण दिशा में ऋषिमण्डली के बीच नूतन नक्षत्रमालाओं की सृष्टि करके यह विचार करने लगे कि 'मैं दूसरे इन्द्र की सृष्टि करूँगा अथवा मेरे द्वारा रचित स्वर्गलोक बिना इन्द्र के ही रहेगा।' मैंने त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने की प्रतिज्ञा कर ली है। इसके बाद सम्पूर्ण देवताओं ने धर्मात्मा विश्वामित्र मुनि की स्तुति की। तदनन्तर यज्ञ समाप्त होने पर सब देवता और तपोधन महर्षि जैसे आये थे, उसी प्रकार अपने-अपने स्थान को लौट गए। -बालकाण्ड, सर्ग ५७/४,५,७,८,९,१०,११,१२,१३,१७,१८,१९,२०, सर्ग ५८/६,७,१२, सर्ग ५९/२,३,११, सर्ग ६०/१५,१७,१८,१९,२०,२१,२२,२३,२७,३३,३४, गीताप्रेस गो०

समीक्षक-
यह बतावें कि क्या एक हजार वर्ष तक कोई व्यक्ति जीवित रह सकता है? वामपन्थियों ने यहां बायोलॉजी की टांगे तोड़ दीं। त्रिशंकु हवा में लटक गए, कैसी अविश्वसनीय व मूर्खतापूर्ण बातें मिलाई गईं हैं? जिस प्रकार कौशिक के बोलने से त्रिशंकु हवा में लटक सकता था ठीक उसी प्रकार बोलने से उड़कर स्वर्ग भी तो जा सकता था, फिर यहां यज्ञ की क्या आवश्यकता? यदि विश्वामित्र ने ईश्वर के तुल्य नई सृष्टि का निर्माण कर दिया तो वह कामधेनु की भांति गाय भी तो बना सकता था, ऐसा क्यों नहीं हुआ? स्तुति (Praise/Glorification) का अर्थ है- परमेश्वर के यथार्थ गुणों का वर्णन करना। यदि वह विश्वामित्र परमेश्वर था तो उसे तप की क्या आवश्यकता? वह तप किसके लिए करेगा? जबकि कथा में वर्णित क्रियाकलापों से प्रतीत होता है कि विश्वामित्र मुनि थें।

(५) अब विश्वामित्र कहते हैं- दक्षिण दिशा में रहने से हमारी तपस्या में विघ्न आ पड़ा है अतः हम दूसरी दिशा में जायेंगे और वहीं रहकर तपस्या करेंगे। विशाल पश्चिम दिशा में जो महात्मा ब्रह्माजी के तीन पुष्कर हैं, उन्हीं के पास रहकर हम सुखपूर्वक तपस्या करेंगे। इन्हीं दिनों अयोध्या के महाराज अम्बरीष एक यज्ञ की तैयारी करने लगे। जब वे यज्ञ में लगे हुए थे, उस समय इन्द्र ने यज्ञपशु को चुरा लिया। पशु खो जाने के बाद पुरोहित जी की कुछ बातें सुनकर अम्बरीष ने हजारों गौओं के मूल्य पर खरीदने के लिए एक पुरुष का अन्वेषण किया। खोज करते हुए अम्बरीष भृगुतङ्ग पर्वत पर पहुंचे और वहां उन्होंने पत्नी तथा पुत्रों के साथ बैठे हुए ऋचीक मुनि का दर्शन किया। अम्बरीष, ऋचीक मुनि से कहता है- यदि आप एक लाख गौएँ लेकर अपने एक पुत्र को पशु बनाने के लिए बेचें तो मैं कृतकृत्य हो जाऊंगा। अतः आप उचित मूल्य लेकर यहां मुझे अपने एक पुत्र को दे दीजिए। उनके ऐसा कहने पर ऋचीक कहते हैं- मैं अपने ज्येष्ठ पुत्र को तो किसी तरह नहीं बेचूंगा। ऋचीक मुनि की पत्नी कहती हैं- मैं अपने छोटे पुत्र को कदापि नहीं दूंगी। मुनि और उनकी पत्नी के ऐसा कहने पर मझला पुत्र शनु:शेप कहता है- तुम मुझे ले चलो। अम्बरीष प्रसन्न होते हैं और एक लाख गौओं के बदले शनु:शेप को लेकर घर की ओर चलने की ओर कहकर तीव्र गति से ले जाते हैं। -बालकाण्ड, ६१/२,३,५,६,७,८,९,१०,११,१३,१४,१५,१६,१८,२०,२१,२२,२३,२४, गीताप्रेस गो०

समीक्षक-
पुत्र बेचना वामपन्थियों का पेशा है, जिसे इन्होंने आज भी बरक़रार रखा है। लेकिन हम भी अधर्म से हुई बरकतों को भलीभांति नष्ट करना जानते हैं। कथा में इन्द्र को देवता कहा गया है और चोरी करना, देवताओं के लक्षण नहीं। इन्द्र ने यज्ञपशु चुराकर क्या किया, इसका उल्लेख वहां क्यों नहीं मिलता?

नोट, 'यज्ञपशु' का अर्थ, यज्ञ में पशुओं की बलि देना नहीं है अपितु प्राचीनकाल में राजा यज्ञ समाप्ति के पश्चात् ऋषियों को गौ, अश्व (दूसरे किसी दूर स्थल पर जाने के लिए अश्व, दुग्ध आदि पदार्थों के लिए गौ आदि पशु), सुवर्णादि देकर सत्कारपूर्वक विदा करते थे। जैसे आज यजमान पुरोहितों को मिष्ठान, रुपये, वस्त्र व आवश्यकतानुसार वस्तुओं आदि के साथ विदा करता है।

(६) जब एक हजार वर्ष पूर्ण हो गए; तब विश्वामित्र ने व्रत की समाप्ति के स्नान किया। स्नान कर लेने पर विश्वामित्र के पास सम्पूर्ण देवता उन्हें तपस्या का फल देने की इच्छा से आये। उस समय ब्रह्माजी ने कहा- अब तुम अपने द्वारा उपार्जित शुभकर्मों के प्रभाव से ऋषि हो गए। विश्वामित्र पुनः भारी तपस्या में लग गए। बहुत समय व्यतीत होने पर परम सुन्दरी अप्सरा मेनका पुष्कर में आयी और वहां स्नान की तैयारी करने लगी। विश्वामित्र ने उस मेनका को देखा और काम के अधीन हो गए। वह कहते हैं- 'तेरा भला हो। मैं काम से मोहित हो रहा हूं। मुझपर कृपा कर।' उनके ऐसा कहने पर सुन्दर कटिप्रदेश वाली मेनका वहां निवास करने लगी तथा उस सौम्य आश्रम पर रहते हुए दस वर्ष सुख से बीते। इतना समय बीत जाने पर विश्वामित्र लज्जित हुए और उनके मन में विचार आया कि यह देवताओं की करतूत है। उन्होंने हमारी तपस्याओं का अपहरण करने के लिए यह प्रयास किया है। उस समय विश्वामित्र ने मधुर वचनों से मेनका को विदा कर दिया और स्वयं उत्तर पर्वत (हिमवान्) पर चले गए। वहां उत्तर पर्वत पर एक हजार वर्षों तक घोर तपस्या में लगे हुए विश्वामित्र से देवताओं को बड़ा भय हुआ। ब्रह्मा जी पुनः विश्वामित्र के पास गए और बोले- "मैं तुम्हारी उग्र तपस्या से बहुत सन्तुष्ट हूं और तुम्हें महत्ता एवं ऋषियों में श्रेष्ठता प्रदान करता हूं।" ब्रह्माजी का वचन सुनकर विश्वामित्र ने उनसे कहा- यदि आप मुझे ब्रह्मर्षि पद प्रदान कर सकें तो अपने को जितेन्द्रिय समझूंगा। तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा- अभी तुम जितेन्द्रिय नहीं हुए हो। इसके लिए प्रयत्न करो। देवताओं के चले जाने पर विश्वामित्र ने पुनः घोर तपस्या आरम्भ की। इस प्रकार उन तपोधन ने एक हजार वर्षों तक घोर तपस्या की। विश्वामित्र के इस प्रकार तपस्या करते समय देवताओं और इन्द्र के मन में भारी संताप हुआ। इन्द्र ने रम्भा को विश्वामित्र के पास उनकी तपस्या में विघ्न डालने के लिए भेजा। सुन्दरी अप्सरा ने रूप बनाकर विश्वामित्र को लुभाना आरम्भ किया। लेकिन मुनि के मन में सन्देह उत्पन्न हुआ और उन्होंने रम्भा को शाप दे दिया। ऐसा करके पुनः विश्वामित्र ने एक हजार वर्षों तक तपस्या करने की दीक्षा ग्रहण की। और उत्तर दिशा से पूर्व दिशा की ओर जाकर तपस्या करने लगे। तदनन्तर ब्रह्मा आदि सब देवता विश्वामित्र के पास जाकर बोले- "हम तुम्हारी तपस्या से बहुत सन्तुष्ट हुए हैं। तुमने अपनी उग्र तपस्या से ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया है। मुने! तुम ब्रह्मर्षि हो गए, इसमें संदेह नहीं है।" ये विश्वामित्र समस्त मुनियों में श्रेष्ठ हैं, ये तपस्या के मूर्तिमान् स्वरूप हैं, उत्तम धर्म के साक्षात् विग्रह हैं और पराक्रम की परम निधि हैं। ऐसा कहकर शतानन्द जी चुप हो गए। -बालकाण्ड, सर्ग ६३/१,२,३,४,५,६,७,८,९,१०,१३,१५,१७,१८,१९,२०,२१,२२,२४,२५, सर्ग ६४/१,८,१०,११,१२,२०, सर्ग ६५/१,१९,२६,२९,३०, गीताप्रेस गो०

समीक्षक-
वाह! विश्वामित्र हजार वर्ष जीे गए? शतानन्द, गोतम और अहल्या के ज्येष्ठ पुत्र थें (बालकाण्ड, ५१/२)। यह विश्वामित्र की कपोलकल्पित कथा उन्होंने ही सुनाई थी (बालकाण्ड, ५१/१६)। प्रश्न उठता है कि जब वहां किसी व्यक्ति विशेष की बात न करके अलंकार के माध्यम से आश्रम के यथार्थरूप का वर्णन किया गया था तब गोतम और अहल्या (रात्रि और चन्द्रमा) का कोई पुत्र कैसे हो सकता है?

परिणाम

उपरोक्त कथा व्याघातदोष, पौराणिक गपाष्टक, विज्ञान के प्रतिकूल एवं सृष्टि नियम के विरुद्ध होने से ग्राह्य नहीं है। इन श्लोकों का रामायण में क्या स्थान है, यह गीताप्रेस गोरखपुर ही बता सकते हैं। हम पाठकों को एक अन्तिम प्रमाण देते हैं, जिससे यह पूर्ण रूप से सिद्ध हो जावेगा कि विश्वामित्र और मेनका वाला प्रसङ्ग प्रक्षेप ही है। यथा-

महाराज जनक कहते हैं- "प्रभो! आपकी आश्चर्यमयी कथाओं के श्रवण से मुझे तृप्ति नहीं होती है।" बालकाण्ड, सर्ग ६५/३६, गीताप्रेस गो०

क्यों जी! अब तो जनक ने स्वयं कह दिया कि मुझे इन आश्चर्यमयी कथाओं से सन्तोष नहीं हुआ है। क्या अब भी इस कथा को सही मानोगे? यदि हां, तो मेरे सभी प्रश्नों के उत्तर दो। वैसे भी, रामायण में विश्वामित्र की पत्नी व उनके पुत्र होने का उल्लेख मिलता है। यथा-

"तदनन्तर विश्वामित्र अपनी पराजय को याद करके मन-ही-मन संतत होने लगे। महात्मा वसिष्ठ के साथ वैर बांधकर महातपस्वी विश्वामित्र बारंबार लम्बी खींचते हुए अपनी रानी के साथ दक्षिण दिशा में जाकर अत्यन्त उत्कृष्ट एवं भयंकर तपस्या करने लगे। वहां मन और इन्द्रियों को वश में करके वे फल-मूल का आहार करते तथा उत्तम तपस्या में लगे रहते थे। वहीं उनके हविष्पन्द, मधुष्पन्द, द्दढनेत्र और महारथ नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए, जो सत्य और धर्म में तत्पर रहनेवाले थे।" -बालकाण्ड, सर्ग ५७/१,२,३

अतः पत्नी के होते हुए उनका मेनका से सम्बन्ध जोड़ना पौराणिक गपाष्टक है।

आक्षेप ६. विश्वामित्र का यह शक बिलकुल सही था क्योंकि चौसाठवें सर्ग में इंद्र अप्सरा रंभा से अश्लील हरकतें करके विश्वामित्र को लुभाने की बात कहते है। रंभा इंद्र से क्या कहती है सुनिए-
"बुद्धिमान इंद्र द्वारा इस प्रकार कहने पर रंभा लज्जित हुयी और हाथ जोड़ कर इंद्र से बोली- हे सुरपति! महामनु विश्वामित्र बहुत भयानक हैं वह मुझपर संदेह एवं क्रोध करेंगे (१,३)
लेकिन इंद्र ने रंभा को यह मशवरा दिया कि वह अपने आपको अति सुन्दर बना कर विश्वामित्र के सामने पेश करे। -रामायण, रंभा शाप, ४,७

प्रिय मित्रों! दुनिया का यह पहला धर्म है जो नीची जाति की इबादत भी पसन्द नहीं करता चाहे वह उसी के धर्म के मानने वाले ही क्यों न हों? कितनी गन्दी बात है यह कि ब्राह्मण जाति का न होने के कारण विश्वामित्र को ऋषि नहीं माना जा रहा है और तपस्या भंग करने के लिए देवता लड़कियां परोस रहे हैं। आज के जमाने में इसे भड़वागिरी कहा जाता है।

उत्तर- अहसनजी, तुम धन्य हो! बिजुली के दो भाग किये क्या लाभ, झटका तो आपको ही लगेगा। हम वह बिजुली आपको सप्रेम वापस कर रहे हैं। कबूल करें,

•खलीफ़ा हरूँ रशीद ने अपने बाप की लौंडी से सोहबत (बलात्कार) किया। इमाम अबूयूसूफ ने इसके जायज होने का फतवा (व्यवस्था) दिया। -तारीख खुलफ़ा, सफा ३०५ सतर ५

इतना ही नहीं अपितु मुहर्रमात (जिनसे निकाह जायज नहीं) से निकाह किया जाने का आदेश भी है। देखो-

•शरह बकाया बाबुल हुइद - (जिल्द २, सफा ३०८, सतर १२, छापा कयूमी प्रेस- कानपुर)

•गायतुल औतार - (जिल्द २, सफा १२, सतर २२, छापा सिद्दीकी प्रेस बरेली)

कहिये महाराज! क्या इन पुस्तकों के कर्ता को भी आपके दरबार से भड़वागिरी की पदवी मिलेगी? सम्भोगमण्डल, तुम धन्य हो!

आक्षेप ७. राम के भाई भरत जब श्री राम की खोज में ऋषी भरद्वाज के पास पहुंचे तो भरत की सेना के सत्कार के लिए भरद्वाज ने देवताओं से आग्रह करके स्त्रियों को बुलाया जिन्होंने खूब नंगा नाच किया। रामायण कहती है-
"वन में बीस हजार स्त्रियां आयीं जिनको देखते ही पुरुष पागल के समान हो गयें, अलंबुषा, मिस्र्केशी, पुन्डरीका एवं वामना नामकी सुन्दर अप्सराएं भरत के सामने नृत्य करने लगीं।  -अयोध्याकांड, ९१/४५,४७
रामायण आगे कहती है:-
इसके बाद भूखे लोगों ने अपनी इच्छानुसार मांस खाए एक-एक सैनिक के हिस्से में आठ-आठ स्त्रियां आयीं जिन्होंने शराब पिलायीं सैनिकों को नहलाया और आनन्द लिए।  -अयोध्याकांड, एक्क्यन्वा सर्ग ५२,५४

देखिये यह ऋषियों के सत्कार का तरीका है!

उत्तर- मिथ्या लिखना आपका पैतृक पेशा मालूम होता है तथा नंगा नाच, यह पुनः-पुनः लिखना आपके कलुषित हृदय का उद्गार है और ईर्ष्या द्वेषवश व्यर्थ का प्रलाप है। उक्त सन्दर्भ निम्न कारणों से प्रक्षेप है-

१. मुनिराज के चारों ओर पालतु मृग, पक्षी और मुनि लोग बैठे थे। सबके साथ रामचन्द्र जी की पूजा कर भरद्वाज जी धर्मयुक्त वचन रामचन्द्र से बोले। -अयोध्याकाण्ड, सर्ग ५४/१९,२०, गीताप्रेस गो०

२. धर्मज्ञ भरद्वाज ऋषि ने क्रमशः वसिष्ठ और भरत को अर्घ्य, पाद्य तथा फलादि निवेदन करके उन दोनों के कुल का कुशल समाचार पूछा। -अयोध्याकाण्ड, सर्ग ९०/६, गीताप्रेस गो०

३. भरतजी भरद्वाज मुनि से कहते हैं- 'भगवन्! मेरे साथ बहुत अच्छे-अच्छे घोड़े, मनुष्य और मतवाले गजराज हैं, जो बहुत बड़े भूभाग को ढककर मेरे पीछे-पीछे चलते हैं। वे आश्रम के वृक्ष, जल, भूमि और पर्णशालाओं को हानि न पहुचाएं, इसलिए मैं यहां अकेला ही आया हूँ।' -अयोध्याकाण्ड, सर्ग ९१/८,९, गीताप्रेस गो०

क्यों जी! यदि भरद्वाज जी ने सेना के सत्कार में मांस खाने को दिया होता तो वह मांस किसका था? यदि भरत की सेना के पशुओं का होता तो श्लोक ३२ में, हाथी और घोड़ों के रहने के लिए शालाएं बन गयीं, यह लिखा है। वह शालाएं किसके लिए बनी थीं? कोई भी विद्वान् इस प्रकरण को ध्यानपूर्वक पढ़े तो उसे स्पष्ट प्रतीत होगा कि यह प्रकरण सर्वथा कल्पित है। कहिये जनाब! क्या आपको मांस और शराब का स्वप्न आया था जो इस प्रकरण को बिना पढ़े ही व्यर्थ में प्रलाप करने लगे? वैसे आपको इस तरह के अश्लील स्वप्न आना स्वाभाविक है क्योंकि आपका अल्लाह तो बहिश्त में शराब की महफ़िल जमाता है-

•और चाँदी के कंगन पहनाए जाएँगे और उनका रब उन्हें पाकीज़ा शराब पिलाएगा। -मं० ७, सि० २९, सू० ७६, आ० २१

•और जिस क़िस्म के मेवे और गोश्त को उनका जी चाहेगा हम उन्हें बढ़ाकर अता करेंगे। -मं० ७, सि० २७, सू० ५२, आ० २२

•वहाँ एक दूसरे से शराब का जाम ले लिया करेंगे जिसमें न कोई बेहूदगी है और न गुनाह। -मं० ७, सि० २७, सू० ५२, आ० २३

जनाब! सामर्थ्य हो तो इसपर अपनी लेखनी उठाइये, सम्भोगमण्डल को मेरी खुली चुनौती है।

•लालकाई ने सनन में हजरत इब्न उमर से रिबायत की है कि एक शख्स ने हजरत अबूबकर से आकर सवाल किया कि- "क्या आप बतला सकते हैं कि जिना (व्यभिचार) भी खुदा के हुक्म से है?" आपने फरमाया- "हां"। उसने कहा, अव्वल तो (खुदा ने) मेरे लिए (जिना) होना मुकर्रर किया, फिर मुझे आजाब (कपट) भी देगा? अबूबकर ने कहा- "सच है"। -तारीख खुलफ़ा, सफा ९४, सतर १२, उर्दू तर्जुमा लाहौरी

•इमाम हसन की बीवी जाद बिन्त अश को मदीने में यजीद ने यह खुफिया पैगाम भेजा कि अगर तू इमाम हसन को जहर दे दे, तो मैं तुझसे निकाह कर लूंगी। उसने ऐसा ही किया। इमाम हसन ने उस जहर से वफात पाई। -तारीख खुलफ़ा, सफा २०४, सतर १,२

•इब्ने अब्बास ने कहा कि रसूल के लिए 'नबीज़ (शराब)' बनाई जाती थी, जिसे ऊंट के छाडे की कुप्पी में भरकर रात को रसूल के घर भेज दिया जाता था। रसूल सोमवार कि रात से मंगल कि दोपहर तक शराब पीते थे। अगर बच जाती थी तो गुलामों को दे देते थे या लुढ़का देते थे। -सही मुस्लिम, किताब २३, हदीस ४९७२ और ४९७४

नोट, नबीज़ खजूरों को सड़ाकर उसमें खमीर उठाकर बनाई गयी तेज शराब होती है। अंग्रेजी में इसे Wine कहते हैं। All of the following dictionaries confirm that نبيذ (nabidh) means Wine:

अरबी शब्दकोश لسان العرب लिसानुल अरब में نبيذ नबीज़ का अर्थ الخمر अल खमर यानी शराब है।

•जन्नती (जन्नत को जाने वाले मुसलमान) पख़ाना, पेशाब न फिरेंगे। डकार और पसीने से काम चल जायेगा। -मिश्कात, जिल्द ४, हदीस नम्बर १०६४,१०६५

अच्छा जन्नत होगा जिसमें पख़ाना मुंह की राह डकार द्वारा निकलेगा और पेशाब पसीना बनकर जिस्म के हर हिस्से से निकलेगा। यह जन्नत मुस्लिमों को ही मुबारक हो।

आक्षेप ८. रामायण के रचयिता वाल्मीकि ने पता नहीं कौन-सा यौन सीरप पीकर रामायण लिखा था, अगर वह चाहते तो इशारों में भी बात कह सकते थे परन्तु उन्होंने तनिक भी ऐसा नहीं किया और रावण द्वारा सीता माता की तारीफ इस अंदाज में करवाई, वर्णन इस प्रकार है-
रावण ने सीता से कहा "हे सुन्दर जाँघों वाली तुम्हारे दांत समान नुकिले श्वेत चिकने हैं। तुम्हारी जांघे भरी हुयी एवं टाँगे हाथी की सूंड के समान हैं। तुम्हारे स्तन ऊँचे गोल, एक दूसरे से मिले हुए, सुडोल, मौटे, नुकीले, सुन्दर, चिकने, ताड़ (कठोर फल) के समान आकर्षक हैं। तुम सुन्दर केशों वाली एवं आपस में सटे हुए स्तनों वाली हो। तुम्हारी कमर इतनी पतली है कि मुट्ठी में आ जाए। -रामायण, अरण्यकाण्ड, छियालस्वां सर्ग, १६-१८, १९-२२

उत्तर- मुहम्मद के वंशजों के मुख से, इशारों में बात करना, यह वाक्य शोभा नहीं देता। मौलाना साहब! आक्षेप करने से पूर्व अपने ग्रंथों को पढ़ लिया होता जहां पर यत्र तत्र अश्लीलता बिखरी पड़ी है। मुहम्मद के इस वचन पर भी अपनी लेखनी उठाइये-

•एक बार हजरत से एक शख्स ने पूछा- या रसूल अल्ला! मैं औरतों का बड़ा हरीस (भूखा) हूँ इसलिए उन्हें औंधा (उल्टा) डालकर भी जिमाअ (संभोग) करता हूं इसमें आप क्या फरमाते हैं? इसी सवाल के वास्ते हजरत के द्वारा तभी एक आयत नाज़िल हुई कि- "औरतें तुम्हारी खेतियाँ हैं उन पर, जिधर से चाहो उधर से जिमाअ (संभोग) करो।" हजरत ने यह भी फरमाया कि "अपनी ओर से चित्त-पट अर्थात् किसी भी स्थिति में जिमाअ (संभोग) करना दुरस्त है।" -दरमन्सूर जिल्दअव्वल मतबुआमिसर सफा २६२

पश्चिमी लेखक फिशर ठीक ही लिखते हैं-
Mohammad was one of those men, of whom religious history offers many examples, in whom passionate, animal nature is combined with the temper of visionary. He was cruel and crafty, lustful and ignorant, lacking in physical courage and the gift of self criticism. -History of Europe by H.A.L. Fisher, Vol. 1, PP. 139

अर्थात्- मुहम्मद उन व्यक्तियों में से एक हैं जिनके इतिहास में अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनमें उग्र पाशविक प्रकृति काल्पनिक विचार रखने वाले के स्वभाव के साथ मिश्रित होती है। वह क्रूर, कपटी, धूर्त्त, कामी और अज्ञानी था। उसमें प्राकृतिक साहस और आत्मनिरीक्षण की कमी थी।

अहसनजी! आप अपने आक्षेप का जवाब प्रश्न में ही दे चुके हैं लेकिन मकतबे इश्क ने आपको इतना नाबीना बना दिया है कि नग्नता का इबारत लिखे बिना आपको सुकून नहीं मिलता। आपने लिखा है, 'रावण द्वारा सीता माता की तारीफ इस अंदाज में करवाई'। जनाब! यह बताने की कृपा करें क्या वाल्मीकि जी का रावण पर कोई नियन्त्रण था जो वह उसको जैसे चाहते नियन्त्रित कर सकते थे? यदि नहीं, तो आप वाल्मीकिजी पर क्यों दोषारोपण करते हैं? वाल्मीकिजी ने थोड़ी न रावण से कहा कि 'जाओ और सीता से उक्त बातें कहो।' यहां वाल्मीकिजी रावण के दुश्चरित्र का वर्णन कर रहे हैं कि वह कितना व्यभिचारी, पापकर्मी, परस्त्रीगामी, बलात्कारी, लंपट, तथा अनैतिक चरित्र व विचारों वाला व्यक्ति था। बस, यही वाल्मीकिजी का प्रयोजन है, जिसको आपकी अल्पबुद्धि समझने में असमर्थ रही है। आपको इसी ४६वें सर्ग का ६वां श्लोक देखना चाहिए जहां रावण को 'पापकर्माणं' अर्थात् पापाचारी लिखा है। श्लोक १५ में भी प्रत्यक्ष लिखा है कि उक्त अशोभनीय वचन रावण के थे। कुर्बान जाए आपकी बुद्धि पर! जो प्रसङ्ग को न समझकर केवल अपनी बुद्धि का ओछापन दिखाने के लिए प्रयोग होता है।

आक्षेप ९. जब हनुमान लंका पहुंचे तो उन्होंने वहाँ जिन स्त्रियों को देखा जिसे रामायण में ऐसे बयान किया गया है-
"हनुमान ने रात में पतियों की बाहों में उनकी पत्नियों को देखा कुछ को अपने पतियों की गोद में काम की स्थिति में देखा। कुछ स्त्रियों को हनुमान ने नग्न भी देखा जो उत्तम रंग के शरीर वाली थीं।" -सुन्दरकाण्ड, ५वाँ सर्ग, १७-१८-१८-२०

रामायण में रावण की पत्नियों का वर्णन करते हुए लिखा है-
"कुछ पत्नियों के वस्त्र अपने शरीर से हटे हुए थे कुछ के हार उनके स्तनों के बीच में सोये हुए हंसों के समान जान पड़ते थे।" -रामायण, सुन्दरकाण्ड, ९वां सर्ग, ४६-४७-४८

उत्तर- वाह जी! पहले रामायण में ऋषियों पर ओछा प्रहार करके मुंह की खाई, अब हनुमान पर आक्षेप कर रहे हो। मौलाना साहब! इस प्रकरण में राक्षसराज रावण व उसकी बसाई लंका का वर्णन किया गया है।

(१) जब राजा ही लम्पट था तो राक्षसों की लंका से सदाचारी होने की अपेक्षा रखना मूर्खता नहीं तो और क्या है? हनुमान तो लंका में देखता है कि किसी घर में ऐश्वर्य-मद से निशाचर निवास करते थे, किसी घर में मदिरापान से मतवाले राक्षस भरे हुए थे। -सुन्दरकाण्ड, सर्ग ५/१०, गीताप्रेस, गो०

(२) रावण की पत्नियां राक्षसजाति (सर्ग ९/६) की थीं तो वस्त्र शरीर से हटना कौन-सा आश्चर्य है? आप रावण के पक्ष से होकर रावण का ही विरोध करते हैं अर्थात् जिसकी बिल्ली उसी को म्याऊं!!!

आक्षेप १०. हनुमान जी माते सीता के चमकते हुए सुन्दर अंगों को देखकर पहचानते हैं और सोचते हैं इसीलिए प्रभु राम के मन में सीता के लिए कामवासना है। -सुन्दरकाण्ड, १६वां सर्ग, ४७-५०

उत्तर- क्या इस प्रकार का धोखा ईमानदारी में शामिल है? सुन्दरकाण्ड के १६वें सर्ग में मात्र ३२ श्लोक ही हैं। फिर बाकी श्लोक क्या आप अपने घर से लेकर पधारे हैं? सदाचार नहीं तो कम-से-कम ईमानदार बनना सीखिए। हम उपरोक्त प्रमाण का मूल पाठ उद्धृत करते हैं-

स्त्री प्रणष्टेति कारुण्यादाश्रितेत्यानृशंस्यत:।
पत्नी नष्टेति शोकेन प्रियेति मदनेन च।। -वाल्मीकि रामायण, सुन्दरकाण्ड, सर्ग १५/५०, गीताप्रेस गो०

अर्थ- 'एक स्त्री खो गयी', यह सोचकर उनके हृदय में करुणा भर आती है। वह हमारे आश्रित थी, यह सोचकर वे दया से द्रवित हो उठते हैं। मेरी पत्नी ही मुझसे बिछुड़ गयी, इसका विचार करके वे शोक से व्याकुल हो उठते हैं तथा मेरी प्रियतमा मेरे पास नहीं रही, ऐसी भावना करके उनके हृदय में प्रेम की वेदना होने लगती है।

अहसनजी! इस श्लोक में किसी भी संस्कृत शब्द का अर्थ 'कामवासना' नहीं है। यह 'कामदेव' शब्द धूर्त वामपन्थी 'चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद' ने अपने निम्न स्तर की बुद्धि से जोड़ा है; अतः आपका आक्षेप निर्मूल है।

आक्षेप ११. रामायण कहती है कि एक बार सीता मय्या के मन में यह विचार आया कि मेरा तुम्हारी पत्नी रहना बेकार है वह कहती हैं कि मेरे पीछे "तुम (राम) बड़ी-बड़ी आँखों वाली स्त्रियों से सम्भोग करोगे।" -सुन्दरकाण्ड, २८वां सर्ग, १३-१४
इसी बात को सोचकर सीता मय्या अपनी चोटि से गला घोंट कर मरने का इरादा करती हैं  इस दुःखद घटना के वर्णन को भी वाल्मीकि कामुक बनाने से नहीं चूकते-
"फिर इस (आत्महत्या के इरादे) के बाद समस्त कोमल अंगों वाली सीता पेड़ की शाख पकड़ के खड़ी हो गयी। -सुन्दरकाण्ड, २८वां सर्ग, १७-१८
आगे रामायण कहती है सीता की परस्पर सटी हुयी टांगों में से हाथी की सूंड के समान मोटी और अति सुन्दर बायीं जांघ फड़क कर मानो यह कह रही थी कि राम सामने ही खड़ें हैं। -सुन्दरकाण्ड, २९/३-४

उत्तर- इस प्रकरण में वाल्मीकिजी सीता के शोक का वर्णन कर रहे हैं। इस शोक का कारण था, सीता का पति के विरह के दुःख से व्याकुल हो निशाचरियों के बीच रहना। सर्ग २८ के श्लोक २ में देखिये, सीता को 'भीरु' अर्थात् डरी हुई कहा गया है। वहां यह भी लिखा है कि सीता राक्षसियों के कठोर वचनों से धमकायी जाती थीं। कोई अपहारक किसी स्त्री का अपहरण कर ले तो उसके मन में भी आत्मघात से भरे विचार आना स्वाभाविक है। भला ऐसी स्थिति में सीताजी, रामचन्द्रजी, वाल्मीकिजी या हनुमानजी पर क्या आक्षेप हो सकता है? इस प्रकरण में करुण रस विद्यमान है एवं कुछ-कुछ जगह वियोग श्रृंगार रस भी है। अब अहसनजी काव्य में वर्णित रस से अनभिज्ञ हैं तो ऐसी क्षुद्र हरकतें करेंगे ही। सीता की जांघ से सम्बंधित बात राक्षसी त्रिजटा ने कही थी (सुन्दरकाण्ड, सर्ग २७/५१,५२)। चलो यदि बायीं जांघ फड़क भी गई तो इससे क्या अश्लीलता सिद्ध होती है? जिनके दिमाग में अश्लीलता भरी हो उन्हें चारों ओर मैथुन ही दृष्टिगोचर होगा। जैसे पीलिया के रोगी को दूध भी पीला ही नजर आता है। जनाब! सीताजी तो शोक के कारण अत्युक्ति कर गईं लेकिन आपकी अम्मी आयशा को पूर्ण विश्वास था कि हजरत उनके पीठ पीछे अन्य औरतों से सम्भोग किया करते हैं-

•आयशा ने कहा कि रसूल के कई औरतों से गलत सम्बन्ध थे फिर भी वह दूसरी औरतों को बुला लेते थे और अपनी औरतों के लिए समय और दिन तय कर देते थे। पूछने पर कहते थे, तुम चिंता नहीं करो, तुम्हारी बारी तुम्हीं को मिलेगी। अगर मैं अल्लाह की इच्छा पूरी करता हूँ तो तुम्हें जलन नहीं होना चाहिए। -सही बुखारी, जिल्द ६, किताब ६०, हदीस ३११

•आयशा फरमाती है कि हजरत को तीन चीजें प्यारी थीं। १- औरतें, २- खुश्बू और ३- खाना। -मिश्कात, जिल्द ४, ,हदीस नम्बर ७२५

•अनस बिन मालिक ने कहा कि रसूल बारी-बारी से लगातार अपनी पत्नियों और दसियों से सम्भोग करते थे फिर भी उनकी वासना बनी रहती थी। -सही बुखारी, जिल्द ७, किताब ६२, हदीस १४२

•इब्न जरीर कहते हैं "जब अमीन खलीफा हुआ, तो उसने बड़ी-बड़ी कीमतों पर खस्सी (नपुन्सक) खरीदे और उनसे खिलवतें की, तथा औरतें और लौंडियों को छोड़ दिया। -तारीख खुलफ़ा, सफा ३१४, सतर १६

•"सूरए रहमान" कुरान की 'दुलहिन (बीवी)' है। -मिश्कात, जिल्द २, हदीस नम्बर ३९७

धन्य हो सम्भोगमण्डल! जिन्होंने अपने ही ग्रन्थ कुरान को भी नहीं छोड़ा। कुरान को आये कई वर्ष हो गए हैं अर्थात् अब तो कुरान को औलादें भी पैदा हो गई होंगी। आपसे दरख़्वास्त है, कृपया कुरान की औलाद, जन्मतिथि आदि बताने की कृपा करें।

आक्षेप १२. हनुमान जो इसी समय वहां आ जाते हैं वो भी सीता मय्या के बारे पूछते हैं कि वह कौन हैं तो वह भी सीता के शरीर की ही तरफ करके पूछते हैं। -सुन्दरकाण्ड, ३३वां सर्ग, ३-४-५-७
हनुमान जी जो सीता को अपनी मां मानते थे कई जगह उन्होंने सीता मय्या के लिए सुन्दर अंगों वाली, सुन्दर यौवन वाली कहकर बात की है। भला कोई अपनी मां के लिए ऐसे शब्द प्रयोग करता है?

उत्तर- "प्रफुल्लकमलदल के समान विशाल नेत्रों वाली देवि! यह मलिन रेशमी पीताम्बर धारण किये आप कौन हैं? अनिन्दिते! इस वृक्ष की शाखा का सहारा लिए आप यहां क्यों खड़ी हैं? कमल के पत्तों से झरते हुए जल-बिन्दुओं के समान आपकी आंखों से ये शोक के आंसू क्यों गिर रहे हैं? शोभने! आप देवता, असुर, नाग, गन्धर्व, राक्षस, यक्ष, किन्नर, रुद्र, मरुद्गण अथवा वसुओं में से कौन हैं? इनमें से किसकी कन्या अथवा पत्नी हैं? सुमुखि! वरारोहे! मुझे तो आप कोई देवता-सी जान पड़ती हैं। क्या आप चन्द्रमा से बिछुड़कर देवलोक से गिरी हुई नक्षत्रों में श्रेष्ठ और गुणों में सबसे बढ़ी-चढ़ी रोहिणी देवी हैं?" -वाल्मीकि रामायण, सुन्दरकाण्ड, सर्ग ३३/३-७, गीताप्रेस गो०

(१) हनुमान के उक्त वचनों से ज्ञात होता है कि वह सीता को देवी कहा करते थे; अतः आप यूं अंधेरे में तीर न चलाइये। कृपया कोई प्रमाण प्रस्तुत कीजिये। यदि किसी स्थल पर सुन्दर यौवन शब्द मिलता भी है तो वह तभी मान्य होगा जब प्रकरण हनुमान और सीता-संवाद के अनुकूल हो।

(२) इसका क्या मतलब है कि सीता के शरीर की ही तरफ करके पूछते हैं? अब प्रियांशु, अहसन से आमने-सामने बात करेगा तो शरीर की ओर ही देखकर बोलेगा या आसमान में देखकर बोलेगा? आपकी तुच्छ मानसिकता आपको ही मुबारक-

•अपने बाप की लौंडी के साथ संभोग से सजा नहीं। -गायतुल औतार जिल्द २, सफा ४२४

•अनस बिन मलिक ने कहा कि जब भी रसूल शौच के लिए जाते थे तो मैं उनके साथ रहता था और मदद के लिए एक लड़का पानी से भरा बर्तन रखता था ताकि वह पानी से रसूल के गुप्त अंगों को धो सके। -सही बुखारी, जिल्द १, किताब १, हदीस १५२ (हदीस नम्बर १५३/१५४ भी देखें)

आक्षेप १३. यह हनुमान जी भी कोई आम क्रिया से पैदा नहीं हुए थे बल्कि इनकी माँ से मरुत देवता जिन्हें वायु देवता भी कहते हैं, ने बिना शादी के पैदा किया था। ऐसा कब हुआ देखिये-

"पर्वत पर खड़ी हुयी अंजना (हनुमान की माता) के वायु देव ने धीरे-धीरे उसके वस्त्रों को उतार कर नंगा कर दिया। उसके बाद मरुत ने अन्जना की गोल-गोल परस्पर सटी हुई जांघें, बड़े बड़े एक दुसरे से मिले हुए स्तन, विशाल नितंबों एवं सुन्दर मुख को देखा उस भारी-भारी नितंबों वाली, क्षिणकटी वाली को देखकर मरुत काम मोहित हो गए और पवन देव ने अपनी विशाल भुजाओं में भर लिया।" -रामायण, किष्किन्धाकाण्ड, ६६वां सर्ग, १३-१५

इसके बाद कामवासना का खेल चलता हनुमान की माँ सिर्फ इतना ही कह पाती है कि "यह कौन मेरा कोमार्य भंग कर रहा है?"
अब यह बताने की जरूरत नहीं कि इस तरह पैदा होनेवाले बच्चे को क्या कहते हैं परन्तु धन्य हो हमारे हिन्दू समाज के पण्डे जो जनता को बेवक़ूफ़ बना कर कैसे-कैसे लोगों की पूजा करवाते हैं।

उत्तर- हनुमानजी की उत्पत्ति की कथा को अष्टादशपुराणोक्त मिथ्या पुस्तकों ने बिगाड़ रखा है। हनुमान जी का जन्म नियोग द्वारा हुआ था। जैसाकि किष्किन्धाकाण्ड, सर्ग ६६/१५ और २८ में लिखा हुआ है।

नोट, नियोग के सम्बन्ध में प्रत्येक मतों के विद्वानों से मात्र एक प्रश्न-
यदि किसी पति को किसी रोग के कारण नपुंसक हो गया हो तो ऐसी दशा में पत्नी सन्तानोपत्ति के लिए क्या करे?

•व्यभिचार।
•दो-दो पतियों की सुहागन बनकर रहे।
•नियोग।
[नियोग से सम्बन्धित अधिक जानकारी के लिए पढ़ें मेरा लेख- 'सत्यार्थप्रकाश पर नियोग का मिथ्या दोषारोपण']

अब देखिए, कामवासना का खेल-

(ऐ रसूल) तुम से लोग हैज़ के बारे में पूछते हैं तुम उनसे कह दो कि ये गन्दगी और घिन की बीमारी है तो (अय्यामे हैज़) में तुम औरतों से अलग रहो और जब तक वह पाक न हो जाएँ उनके पास न जाओ पर जब वह पाक हो जाएँ तो जिधर से तुम्हें ख़ुदा ने हुक्म दिया है उन के पास जाओ बेशक ख़ुदा तौबा करने वालो और सुथरे लोगों को पसन्द करता है तुम्हारी बीवियाँ (गोया) तुम्हारी खेती हैं। -मं० १, सि० २, सू० २, आ० २२२

पाठकवर्ग! अल्लाह की आज्ञा है कि हैज़ की बीमारी में औरतों से अलग रहो, जब तक वह पाक न हो जायें। किन्तु जिमाअ के रोगी और अल्लाह के दूत हजरत मोहम्मद साहब ने आयशा से हैज़ की हालत में भी मुबाशरत (सम्भोग) करके अल्लाह की आज्ञा का उल्लंघन किया। देखिये प्रमाण-

•सही बुखारी -(छापा मिसर, जिल्द १ सफा २२०)

•सही बुखारी -(तर्जुमा उर्दू छापा कर्जन प्रेस देहली, सफा २७७ हदीस नं० १८६९)

•सही बुखारी... -(हदीस नं०- २८६,२८७ व २८८ सफा- ४८)

•अनबारुलहिदाया... -(शरह बकाया उर्दू तर्जुमा, सफा ६४ सतर १९ से)

•हफवातुल मुसलमीन -(सफा ७२ सतर १९)

•इस्लाम तोड़ -(सफा ११५)

मिश्कात में भी इसका प्रमाण है-
•जब आयशा हैज़ (मासिक धर्म) से होती थी तो हजरत तहबन्दी (हद) बंधवा देते थे और लिपट जाया करते थे। -मिश्कात, जिल्द १ हदीस नम्बर ४९९

अतः कुरान के अनुसार अल्लाह की आज्ञा न मानने वाले आदमी काफिर कहलाते हैं। कहिये अहसनजी, क्या हजरत को काफिर मानोगे? यदि नहीं तो मुसलमान और काफिर में भेदभाव का व्यर्थ प्रलाप करना बन्द करो।

•हिन्दा ने अपने खाविन्द रफका इब्न मुगैरह का हाथ झटककर कहा कि- "मैं तुमसे औलाद पैदा नहीं करती, यह कहकर उसने अबू सफिया से शादी कर ली जिससे मुआविदा पैदा हुआ।" -तारीख खुलफ़ा, सफा १२, सतर १५,१६ और १७

इससे पता चलता है कि अरब की औरतें कितनी पतिव्रता थीं?

आक्षेप १४. जिस स्त्री के अन्दर जरा भी शर्मो हया होगी वह इस तरह अपनी तारीफ नहीं करेगी जिस तरह सीता मय्या अपनी तारीफ करतीं हैं। वह कहती हैं-

"मेरी पलकें शंख के आकार की, मेरी भौंहें मिली हुई और बाल काले एवं पतले हैं। मेरी दोनों जांघें गोल हैं जिन पर तनिक भी बाल नहीं हैं, वो चिकनी हैं। मेरे हाथ, पैर, एवं जांघें सुडौल और उँगलियाँ बराबर हैं। मेरे दोनों स्तन आपस में सटे हुए एवं बड़े-बड़े हैं, मेरे इन दोनों स्तनों के चूचक भीतर की ओर धंसे हुए हैं। मेरी नाभी गहरी और सामने से दिखाई देती है। मेरी छाती एवं नितंब उठे हुए उभरे हुए हैं।" -रामायण, युद्धकाण्ड, ४९वां सर्ग, १०-११

अतः अन्य ग्रन्थों की तरह रामायण भी अश्लीलता से भरी हुई है। सवाल यह पैदा होता है कि इतनी अश्लील पुस्तक को हिन्दू समाज में मान्यता किस प्रकार मिली हुई है वह भी धार्मिक स्तर पर।

उत्तर- अलोचना में मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, परन्तु आप पक्षपात, ईर्ष्या, द्वेष, वश होकर अपनी उद्दण्डता प्रदर्शित करते हैं। क्या आपने यह लेख बाज़ारे हुस्न में किसी इस्मतफ़रोश के साथ मुबाशरत करने के पश्चात् लिखा है? आप रामायण के नहीं अपितु सौन्दर्यशास्त्र के अध्येता ज्ञात होते हैं। इस तरह के अश्लील शब्द दिखाकर अपनी लेखनी पवित्र करना इस्लाम मत को ही शोभा दे सकता है।

कक्षं वक्ष्यामि शत्रुघ्नं भरतं च यशस्विनम्।
मया सह वनं यातो विना तेनाहमागत:।।
उपालम्भं न शक्ष्यामि सोढुमम्बासुमित्रया।
इहैव देहं त्यक्ष्यामि नहि जीवितुमुत्सहे।। -वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड, सर्ग ४९/१०,११, गीताप्रेस गो०

अर्थ- मैं यशस्वी भरत और शत्रुघ्न से किस तरह यह कह सकूंगा कि लक्ष्मण मेरे साथ वन को गये थे; किन्तु मैं उन्हें वहीं खोकर उनके बिना ही लौट आया हूँ। दोनों माताओंसहित सुमित्रा का उपालम्भ मैं नहीं सह सकूंगा; अतः यहीं इस देह को त्याग दूंगा। अब मुझमें जीवित रहने का उत्साह नहीं है।

कहिये, इस सन्दर्भ में आपको कौन-सा स्तन, नितम्ब आदि प्रतीत होता है कि उसके पान करने के लिए दांत निपोड़ रहे हैं। यदि आपको वाल्मीकि रामायण के उपर्युक्त सन्दर्भ में अश्लीलता दिखलाई देती है, तो आप आगरे के मेन्टल हॉस्पिटल में अपने मस्तिष्क की दवा करा लें। स्त्रियों के प्रति कुदृष्टि रखने और नग्न ताण्डव करने का ठेका सम्भोगमण्डल ने लिया है। आप इस लेख में शिष्टता की सीमोल्लंघन कर गए हैं। इस मिथ्या लेख के लिए चुल्लू भर पानी में आपको डूब मरना चाहिए।

आपके पुस्तकों पर भी दृष्टिपात कर लेते हैं कि कितने उच्च विचारोंवाला मजहब है इस्लाम?

•आयशा हजरत अबूबकर की कब्र पर बे कपड़े पहने चली जाती थी और कहती थी- 'खाविन्द और बाप ही तो है शर्म किससे करूं?' -मिश्कात जिल्द १, हदीस नम्बर १६७३

शर्म करे भी क्यों? जब इस्लाम के साहित्य में रोजे की हालत में भी मुर्दा या हैवान से (सोहबत) करना... लिखा हो। देखिये प्रमाण-

• फताबा काजीखाँ... - (जिल्द १, सफा १००, छापा नवलकिशोर, सतर ३२)

• तफजीहुल काजबी... - (सफा ८६, सतर १४ से १९ तक)

• शरह बकाया (उर्दू) - (सफा ३३, सतर १७)

• शरह बकाया (उर्दू) - (सफा १७४ सतर ६,७ छापा नवल किशोर)

• गायतुल औतार - (जिल्द १, सफा ७७, सतर ९)

• गायतुल औतार - (जिल्द १, सफा ७७, सतर १२)

• गायतुल औतार - (जिल्द १, सफा ५०५, सिद्दीकी प्रेस, बरेली)

• गायतुल औतार - (जिल्द १ सफा ५०६ सतर ९)

• गायतुल औतार - (जिल्द १, सफा ४०९ सतर ६)

• गायतुल औतार - (जिल्द १, सफा ५०९ सतर ८)

• गायतुल औतार - (जिल्द २, सफा १२, सतर १३ से)

•'कुरानमजीद' की पवित्र पुस्तक के प्रति आदर रखते हुए उक्त आयतों के सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि ये आयतें बहुत खतरनाक एवं घृणा बढ़ाने की शिक्षा देती हैं, जिससे मुसलमानों और देश के अन्य वर्गों में भेदभाव को बढ़ावा मिलता है। -३१ जुलाई १९८६ को दिल्ली मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा दिया गया एक निर्णय

वाह इस्लाम तेरे क्या कहने? अहसनजी, आपका प्रश्न आप पर ही भारी पड़ गया। इस प्रकार मेरे पास सैकड़ों प्रमाण हैं जिन्हें मैं विस्तारभ्य से देना नहीं चाहता हूं। आपने जितने अश्लील शब्दों की बौछार रामायण के ऋषियों के ऊपर की है उन्हें मैंने आपको सधन्यवाद वापस कर दिया है अतः यदि भविष्य में आपने गाली-गलौज रूपी ओछे हथियारों का सहारा लिया तो मैं आप को उत्तर देने के लिए बाध्य न होऊंगा। आपको मेरी ओर से खुली चुनौती भी है कि यदि आप में कुछ दमखम है तो आप सत्याऽसत्य का निर्णय करने के लिए नियम आदि निश्चित करके पब्लिक शास्त्रार्थ करें। अब सम्भोगमण्डल के षडयन्त्रों का पर्दाफाश हो चुका है व इनके इस जलसए-ताज़ियत में हम परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि इनको सहनशक्ति और इनके सम्बन्धियों को धैर्य प्रदान करे! अन्त में अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि 'Henry Wadsworth Longfellow' की प्रसिद्ध कविता 'A Psalm Of Life' की निम्न पंक्तियां स्मरण आ रही हैं-

Lives of great man all remind us
We can make our lives sublime,
And, departing, leave behind us
Footprints on the sands of time.

अर्थात् महापुरुषों के पवित्र चरित्र हमें अपने जीवनों को पवित्र और चरित्र को समुन्नत बनाने की प्रेरणा देते हैं कि हम भी संसार से विदा होते समय पीछे आने वालों के लिए समय की बालू पर (मार्ग-दर्शक) पद-चिन्ह छोड़ सकें।

।।सत्यमेव जयते नानृतम् -मुण्डकोपनिषद् ३/१/६।।

Comments

  1. श्रीमान आपके परिश्रम से मैं सन्तुष्ट हु।

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