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Showing posts from August, 2020

छः दर्शनों में परस्पर विरोध व अविरोध पर विचार

छ: दर्शनों में परस्पर विरोध व अविरोध पर विचार [आर्यसमाज के महान् शास्त्रार्थ महारथी पण्डित शिवशंकर शर्मा 'काव्यतीर्थ' द्वारा गुरुकुल कांगड़ी के द्वितीय दिवस के अधिवेशन मार्च सं० १९६४ वि० में पढ़ा निबन्ध] सम्पादक- प्रियांशु सेठ (वाराणसी) हिन्दी अनुवादक [संस्कृत से]- डॉ० प्रीति विमर्शिनी, पाणिनि कन्या महाविद्यालय (तुलसीपुर, वाराणसी) छः दर्शनों को लेकर आज यहां पर विचार होगा, यह देखकर हमारे अन्तःकरण में अत्यन्त उल्लास उत्पन्न हो रहा है। प्रत्येक वर्ष यदि इसी प्रकार दोषज्ञ परीक्षक जन प्रेम से इकट्ठे होकर संसार के उपकार के लिए प्रमेय के निश्चय के लिए प्रयत्नशील हों तभी सन्तानों का पथ राजपथ के समान निरुपद्रव हो जायेगा, ऐसी मैं आशा करता हूं। मनुष्य स्वल्पज्ञ होते हैं इसलिए पग-पग पर स्खलित व भ्रमित हो जाते हैं इसमें सन्देह नहीं, किन्तु आज भी इस देश में स्वयं को सर्वज्ञ मानने वाले हजारों की संख्या में हैं यह इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। भला ईश्वर की अनन्त विभूति का परिच्छेद करने में कौन समर्थ हो सकता है, परन्तु विशेष रूप से ज्ञान ग्रहण करने के लिए ही परमेश्वर ने इस मानवी

जीवनभक्षी दो गीध

जीवनभक्षी दो गीध लेखक- श्री प्रोफेसर विश्वनाथजी विद्यालंकार प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ अथर्ववेद ७/९५/१-३, तथा ७/९६/१ में दो गीधों का वर्णन मिलता है। गीध-पक्षियों का काम है मांस भक्षण, मुर्दे के मांस को खाना। अथर्ववेद के इन दो सूक्तों में दो आध्यात्मिक गीधों का वर्णन है। गीधों को इन मन्त्रों में "गृध्रौ" कहा है। ये गृध्र गर्धा के साथ सम्बन्ध रखते हैं। यजुर्वेद अध्याय ४० के प्रथम मन्त्र में कहा है कि "मा गृध: कस्यस्विद् धनम्" इस मन्त्र में "गृध:" पद पठित है। अभिप्राय यह है कि "हे मनुष्य! तू गर्धा मत कर, उग्र अभिकांक्षा मत कर, लालच-लोभ मत कर"। इस प्रकार गृध् का अर्थ है लोभ, लालच। हमारे जीवनों में लोभ-लालच हमें बहुत तंग करता है। यह लोभ-लालच गृध्र है। आध्यात्मिक दृष्टि से हम देखें तो हमें ज्ञात होगा कि एक तो लोभ का संस्कार होता है, और दूसरा वृत्ति रूप में लोभ होता है। लोभ के संस्कारों को 'नरगृध्र' कहा गया है, और लोभ की वृत्ति को 'मादागृध्र' कहा है। संस्कार और वृत्ति में अन्तर यह है कि संस्कार तो मानो दबी हुई आग है, और वृत्ति मानो प्रकट ह

स्वतन्त्रता संग्राम के अमर बलिदानी मदनलाल धींगड़ा

स्वतन्त्रता संग्राम के अमर बलिदानी मदनलाल धींगड़ा (१७ अगस्त, क्रान्तिकारी मदलनलाल धींगड़ा की पुण्यतिथि पर विशेष रूप से प्रचारित) -प्रियांशु सेठ पंजाब तो वैसे भी वीरता का गढ़ है। यहां के नौजवानों ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में अद्वितीय भूमिका निभाई है। यहीं के एक ऐसे नवयुवक थे मदनलाल धींगड़ा। मदनलाल धींगड़ा का जन्म पंजाब के एक समृद्ध परिवार में हुआ था। माता-पिता की रुचि आपको इंजीनियर बनाने में थी, लेकिन आपके शरीर में भारत की आज़ादी के लिए बलिदान देने वाला लहू दौड़ रहा था। माता-पिता ने आपको पढ़ाने के लिए इंग्लैण्ड भेजा। जबकि उस समय भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन भी कब से आरम्भ हो चुका था। देशभक्तों ने तो देश को आज़ाद कराने की क़समें खाकर अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। कितने ही जेलों में यातनायें सहते रहे। लेकिन सबकी आंखों में देश को आजाद देखने की उम्मीद की किरण थी। कुछ क्रान्तिकारी विदेशों में भी चले गए थे और वहीं से स्वतन्त्रता आन्दोलन में अपना अंशदान कर रहे थे। इंग्लैण्ड में भी ऐसे वीर तरुण रह रहे थे जिन्होंने अंग्रेज सरकार की रातों की नींद हराम कर रखी थी। इंग्लैण्ड में अध्ययन कर रहे मदनलाल

पाकिस्तान से भारत की सीमा में

(ऐतिहासिक पृष्ठों से उद्धृत…) पाकिस्तान से भारत की सीमा में लेखक- श्री इन्द्रकुमार विद्यार्थी प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ शाम की रुपहली किरणें हमारे साथ की सीमा के बाहिर झांक रहीं थीं, किन्तु हमारे भाग्य में उन्हें देखना बदा न था। १५ अगस्त से पूर्व तो हम अपने शहर से एक मील स्टेशन तक सैर को जा सकते थे, किन्तु इधर उधर के अप्रत्याशित कत्लों के भय ने हमें वहां से खींच कर शहर से केवल एक फर्लांग की दूरी पर, नहर की पटरी पर ला पटका। सायंकाल के पांच बजते ही लोग पचास-साठ की टोलियां बना कर नहर की पटरी तक आते। पुल के किनारे पर बैठते। सामाजिक चर्चा करके फिर जेल के कैदी के समान दिया जलने से पूर्व ही लौट आते व अन्धेरा होते ही शहर के चारों दरवाजे बन्द हो जाते थे। भगवान् ने हमारे शहर की बनावट ही विचित्र बनाई है। इस जैसा एक रूप में बना शहर और शायद कहीं हो तो हो चौक में खड़ा मनुष्य सारे शहर को एक ही नजर में देख सकता है। गली के बिल्कुल सामने गली। शहर के चारों ओर परकोटा। वह एक ऐसी स्थिति थी जो इस भयानक तम वातावरण में भी हमें शत्रुओं के आक्रमणों से बचाये हुए थी। सारा दिन भय और चिन्ता में बीतता था, तो रात्रि 

15 अगस्त की वह ऐतिहासिक रात

१५ अगस्त की वह ऐतिहासिक रात लेखक- स्वर्गीय प्रकाशवीर शास्त्री प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ देश को पराधीन हुए यूं तो कई सदियां बीत गयी थीं, पर अंग्रेज को भारत में आये अभी पौने दो सौ साल हुए थे। मुगलों और अंग्रेजों के राज में एक अन्तर यह था कि मुगल खून खराबी में अधिक विश्वास रखते थे और अंग्रेज कूटनीति में। यूं अंग्रेजों ने भी बल प्रयोग अथवा अपनी क्रूरता में कोई कसर नहीं उठा रखी थी। १८५७ के अत्याचार और जलियांवाला बाग उसी के उदाहरण थे, फिर भी मुगलों की तुलना में अंग्रेजों के अत्याचार कुछ हल्के थे। लेकिन एक बात दोनों में समान थी, भारत की सम्पदा जैसे और जितने हाथों से लूटी जा सके, लूटो। निरीह भारतवासी मन मसोस कर यह सब देख रहे थे। आख़िर पन्द्रह अगस्त १९४७ का यह भाग्यशाली दिन आ ही गया, जब देशवासियों की साधना पूरी हुई। पन्द्रह अगस्त का सूरज निकलने से पहले चौदह अगस्त की आधी रात को सबकी आंख घड़ी की सूई पर टिकी हुई थी। कितनी उत्सुकता और तेजी से रात्रि में बारह बजने की प्रतीक्षा हो रही थी। संसद के केन्द्रीय कक्ष में जहां स्वतन्त्रता की यह घोषणा होनी थी वहां अध्यक्ष के आसन पर विराजमान राजेन्द्र बाबू ने जब

क्या श्रीमद्भागवत महापुराण में 'राधा' की चर्चा है?

क्या श्रीमद्भागवत महापुराण में 'राधा' की चर्चा है? लेखक- वैदिक गवेषक पं० शिवपूजनसिंह कुशवाहा 'पथिक' प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ आज पौराणिक श्रीकृष्ण के साथ राधा का नाम अवश्य जोड़ते हैं। 'राधा' के बिना 'कृष्ण' का नाम आधा ही समझा जाता है। यदि श्रीकृष्ण जी योगीराज थे और 'राधा' उनकी धर्मपत्नी नहीं थी तो ऐसा पौराणिक क्यों करते हैं? मेरे विचार से पौराणिकों की यह भयंकर भूल है। 'श्रीमद् भागवत महापुराण' वैष्णवों का एक प्रामाणिक पुराण माना जाता है जिसमें श्रीकृष्ण जी के चरित्र पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इस महापुराण के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि इसमें 'राधा' की कहीं भी चर्चा नहीं है। राधा तो श्री रामाण गोप की पत्नी थी। कतिपय पौराणिक 'श्रीमद् भागवत महापुराण' में भी 'राधा' का नाम प्रदर्शित करने की कल्पना करते हैं। यथा- १. पं० दीनानाथ शास्त्री सारस्वत की कल्पना- (आपने 'भागवत' में राधा का नाम खोजा है।) आप लिखते हैं- जिस गोपी को श्रीकृष्ण अन्य गोपियों को छोड़ कर ले गए थे, वही तो 'राधा' थी जिसका संकेत &

योगीराज श्री कृष्ण की उपासना विधि

योगीराज श्री कृष्ण की उपासना विधि लेखक- श्री पं० बिहारीलाल जी शास्त्री प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ प्रायः महापुरुषों के तीन रूप हुआ करते हैं। लोक रञ्जक रुप, यथा श्री कृष्ण जी की वृन्दावन की लीलाएं इस रूप का, शस्त्र होता है- वंशी। दूसरा रूप होता है लोक शिक्षक रूप, यथा महाभारत युद्ध में गीतोपदेश तथा उधव को धर्मोपदेश। इस रूप में शंख धारण किया जाता है, यथा युद्ध में 'पाञ्चजन्यम हृषीकेशं' भगवान् कृष्ण का पांचजन्य शंख। तीसरा रूप होता है महापुरुषों का लोक रक्षक, यथा दुष्ट संहारक युद्धों में। इसका शस्त्र होता है- चक्र। सुदर्शन चक्र से ही शिशुपालादि असुरों का संहार किया। भगवान् कृष्ण ने तीनों रूपों में जनता को दर्शन दिये और कल्याण किया। उनके जीवन की घटनाएं, कविताओं में है अतः उनके भाव को समझना कठिन हो जाता है। जैसे वृन्दावन के चरित्र में राजनैतिक भूमिकाएं थीं उन्हें श्रृंगार रस में डुबोकर भक्तों ने आक्षेप योग्य बना डाला है। आनन्द मठ के राष्ट्रीय गान के निर्माता श्री बंकिम चन्द्र जी चट्टोपाध्याय ने लिखा है कि मैं महाभारत के श्री कृष्ण को तो मान सकता हूं, पर गीत गोबिन्द के श्री क

श्रावणी का वैदिक स्वरूप

श्रावणी का वैदिक स्वरूप प्रियांशु सेठ श्रावण माह अज्ञानियों के लिए ज्ञान का संदेशवाहक बनकर आता है और जनसामान्य को कल्याणपथ पर चलने की ओर प्रेरित करता है। गर्मी के बाद जब वर्षा होती है, तो मानव चित्त वातावरण के अनुकूल होने से शान्त रहता है तथा मन प्रसन्न रहता है। श्रावणी का उत्सव इसी वर्षा के साथ आता है और चराचर जगत् को आनन्दित और उल्लासित करता है। बहिनें, भाइयों को राखी बांध उनसे आत्मरक्षण और अभय की आशा रखती हैं। स्त्री, पुरुष, पुत्र, पुत्री, पुत्र-वधु आदि जन यज्ञोपवीत (जनेऊ) पहनकर ऋषि, पितृ तथा देव ऋणों से उऋण होने का संकल्प लेते हैं। वेदपथिक अपने पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नया यज्ञोपवीत धारण करते हुए आत्मकल्याण के पथ पर आगे बढ़ते हैं। सम्पूर्ण वातावरण वैदिक ऋचाओं से गुंजित होता है। तात्पर्य यह है कि श्रावण आत्मोन्नतिपथ का माह है। श्रावणी का सन्देश वेदादि ग्रन्थों में दिये उपदेशों से सम्बन्ध रखनेवाला है। बृहदारण्यक उपनिषद् (२/४) में जगमाया की छाया से अभिभूत होकर "येनाहं नामृता स्यां, किमहं तेन कुर्याम्?" "अमृतत्वस्य तु नाशाऽस्ति वित्तेन" के तंत्री-नाद को