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Showing posts from May, 2019

वैदिक त्रैतवाद

वैदिक त्रैतवाद डॉ० सोमदेव शास्त्री प्रत्येक वस्तु का कोई बनाने वाला (निर्माता) होता है तथा जिस पदार्थ से वह वस्तु बनती है वह पदार्थ भी होता है और जिसके लिए वह वस्तु बनाई गई है उस वस्तु का उपयोग करने वाला भी अवश्य होता है। इन तीनों के बिना वस्तु का निर्माण नहीं हो सकता और न ही उसकी उपयोगिता सिद्ध हो सकती है। जैसे घड़े को बनाने वाला (निर्माता) कुम्हार होता है तथा मिट्टी से घड़ा बनता है और मिट्टी के घड़े का उपयोग करने वाला घड़े में पानी भरने वाला, घड़े के पानी को पीने वाला व्यक्ति भी होता है। यदि तीनों में से कोई एक भी न हो तो घड़ा नहीं बन सकता और उसकी उपयोगिता भी सिद्ध नहीं हो सकती है। जैसे घड़े को बनाने वाला कुम्हार हो और यदि मिट्टी न हो तो घड़ा नहीं बन सकता है और यदि मिट्टी हो और घड़ा बनाने वाला कुम्हार न हो तब भी घड़ा नहीं बन सकता है। यदि घड़ा बनाने वाला कुम्हार और मिट्टी दोनों ही हों तब घड़ा तो बन जाता है किन्तु यदि घड़े का उपयोग करने वाला, घड़े को काम में लेने वाला न हो तो घड़े का निर्माण निरर्थक है। इसलिए घड़े को बनाने वाले के साथ घड़े का उयोग करने वाले का होना भी आवश्यक है तथा जिस मिट्ट

आर्यसमाज का वेद-विषयक दृष्टिकोण

आर्यसमाज का वेद-विषयक दृष्टिकोण डॉ० गंगा प्रसाद उपाध्याय श्रीयुत पं० जवाहरलाल नेहरू जी ने अभी हाल में एक उत्तम पुस्तक लिखी है जिसका नाम है 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' (Discovery of India)। उसमें अनेक उत्तम-उत्तम बातों के अतिरिक्त आर्यसमाज और वेदों के विषय में दो उल्लेखनीय वाक्य हैं- 1. Many Hindus look upon the Vedas as revealed scriptures. This seems to me to be peculiarly unfortunate, for thus we miss their real significance the unfolding of the human mind in the earliest stages of thought. 2. Its slogan was back to the Vedas. This slogan really meant an elimination of development of the Aryan faith since the Vedas. 1. बहुत से हिन्दू वेदों को ईश्वर-कृत मानते हैं। मैं इसको बड़ा दुर्भाग्य समझता हूं, क्योंकि इसमें वेदों की वास्तविक उपयोगिता जाती रहती है अर्थात् विचार के आरंभ-काल में मानवी मस्तिष्क ने कितना विकास किया। 2. आर्य समाज ने घोषणा की कि 'वेदों की ओर लौटो'। इस घोषणा का अर्थ यह है कि वेदों के काल से लेकर आर्य धर्म में जो विकास हुआ उसका परित्याग कर दिया जाए

धर्म किसे कहते हैं?

धर्म किसे कहते हैं? भद्रसेन प्रगति चाहने वाले आज के अभिमन्यु रूपी युवकों के लिए वैचारिक स्तर पर जो पहला चक्रव्यूह बनाया जा रहा है- वह धर्म है। यह कैसे? 'धर्म विश्वस्य प्रतिष्ठा' तै०आ० १०,६२,१ धर्म शब्द धृ धातु से बनता है, जिस का धार्यते, सैव्यते सुख-प्राप्यते य: स धर्म: य: धारयतिस धर्म: जिसका सीधा सा भाव है, कि वे बातें, मान्यताएं, कार्य व्यवहार धर्म है जिस के धारण, पालन अपनाने से जीवन का वह- वह रूप, कार्य टिका रहे, सुदृढ़ हो। जैसे कि आपस में अच्छे ढंग से बोलने पर वक्ता-श्रोता का व्यवहार टिका रहता है। वे एक दूसरे से जुड़ कर सुख-स्नेह अनुभव करते हैं, पर आंखें होकर बोलने से परस्पर अशान्ति, ईर्ष्या, द्वेष, झगड़ा ही होता है। तभी तो मनुस्मृतिकार ने सही ढंग से बोलने अर्थात् सत्य-प्रिय वाणी को एक परखा हुआ धर्म कहा है? (सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात्, सत्यमप्रियम्। प्रियञ्च नानृतं ब्रूयादेष धर्म: सनातन:।। मनु० ४,१३८) यही बात हम आपस के सम्बन्धों में देखते हैं। जब एक सम्बन्धी अपने सम्बन्ध के अनुरूप रिश्ते को निभाता है, तो दोनों का सम्बन्ध सुदृढ़ होता है और दोनों सुखी,

विचार स्वातन्त्र्य पर आघात सहन नहीं होगा

विचार स्वातन्त्र्य पर आघात सहन नहीं होगा 【पंचम आर्य महासम्मेलन, दिल्ली (२०-२२ फरवरी १९४४) के अवसर पर डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी का ऐतिहासिक अध्यक्षीय भाषण】 {दिल्ली में हुए पंचम अखिल भारतीय आर्य महासम्मेलन के अध्यक्ष सर्वसम्मति से डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी चुने गए थे। जब सिन्ध की मुस्लिम लीगी सरकार ने ऋषि दयानन्द के अमर ग्रन्थ 'सत्यार्थ प्रकाश' के चौदहवें समुल्लास (जिसमें मुस्लिम मजहब की तर्कसंगत आलोचना है) पर प्रतिबन्ध लगाया तो हैदराबाद के सत्याग्रह से लौटकर थकान भी न उतार पाये कि आर्यजन फिर फुरहरी ले उठे। हैदराबाद सत्याग्रह से पूर्व जिस प्रकार शोलापुर में श्री एम० एस० अणे की अध्यक्षता में एक अखिल भारतीय आर्य महासम्मेलन कर हैदराबाद की ओर प्रयाण का शंख फूंका गया था, ठीक उसी प्रकार का अवसर दोबारा आया, जब सिन्ध की ओर प्रयाण करना था और किसी भारतीय संस्कृति के उपासक का अध्यक्ष पद से आशीर्वाद लेकर कूच का नगाड़ा बजाना था। डॉ० मुखर्जी की अध्यक्षता से महासम्मेलन का वातावरण जहां एक ओर गम्भीर बना हुआ था, वहीं उनसे उत्प्रेरित आर्यों का जोश धधकता हुआ अंगार प्रतीत हो रहा था। श्र