【पंचम आर्य महासम्मेलन, दिल्ली (२०-२२ फरवरी १९४४) के अवसर पर डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी का ऐतिहासिक अध्यक्षीय भाषण】
{दिल्ली में हुए पंचम अखिल भारतीय आर्य महासम्मेलन के अध्यक्ष सर्वसम्मति से डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी चुने गए थे। जब सिन्ध की मुस्लिम लीगी सरकार ने ऋषि दयानन्द के अमर ग्रन्थ 'सत्यार्थ प्रकाश' के चौदहवें समुल्लास (जिसमें मुस्लिम मजहब की तर्कसंगत आलोचना है) पर प्रतिबन्ध लगाया तो हैदराबाद के सत्याग्रह से लौटकर थकान भी न उतार पाये कि आर्यजन फिर फुरहरी ले उठे। हैदराबाद सत्याग्रह से पूर्व जिस प्रकार शोलापुर में श्री एम० एस० अणे की अध्यक्षता में एक अखिल भारतीय आर्य महासम्मेलन कर हैदराबाद की ओर प्रयाण का शंख फूंका गया था, ठीक उसी प्रकार का अवसर दोबारा आया, जब सिन्ध की ओर प्रयाण करना था और किसी भारतीय संस्कृति के उपासक का अध्यक्ष पद से आशीर्वाद लेकर कूच का नगाड़ा बजाना था। डॉ० मुखर्जी की अध्यक्षता से महासम्मेलन का वातावरण जहां एक ओर गम्भीर बना हुआ था, वहीं उनसे उत्प्रेरित आर्यों का जोश धधकता हुआ अंगार प्रतीत हो रहा था।
श्री मुखर्जी का अध्यक्षीय भाषण न केवल आर्यसमाज की, अपितु हिन्दूसमाज एवं भारतीयता के अभिमानियों की अनुपम निधि है। उन्होंने हिन्दुओं के प्रत्येक वर्ग को संगठित होकर जहां भारत की पुनीत संस्कृति और उसके 'सत्यार्थप्रकाश' जैसे अमर ग्रन्थों की रक्षा के लिए आह्वान किया, वहां सिर पर होकर उतरने का दुस्साहस करनेवाले मुस्लिमों को चेतावनी देते हुए कहा- "अब वह समय भी आ गया है जब उस अँगरेज़ी सत्ता को भी उखाड़ कर फेंका जायेगा जो इनकी पीठ पर बोल रही है।" श्री मुखर्जी का वह ऐतिहासिक भाषण ज्यों-का-त्यों नीचे दिया जा रहा है। -आचार्य विद्या प्रसाद मिश्र}
आप लोगों ने मुझे अखिल भारतवर्षीय आर्य सम्मेलन के पांचवें अधिवेशन का सभापति निर्वाचित करके जो सम्मान दिया है, उसे मैं हृदय से अनुभव करता हूं। आपका सम्मेलन, कार्यक्रम तथा कार्यों पर विचार करने के लिए नियमित रूप से होनेवाली सभाओं की भांति प्रतिवर्ष नहीं होता, प्रत्युत विशेष परिस्थितियों का सामना करने के लिए तथा भारतवर्ष के हित और विशेषरूप से हिन्दू जाति के अधिकारों से सम्बन्ध रखनेवाले महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के विषय में आर्यजनों का मत निर्धारण करने के लिए जगत् के आर्यमात्र की 'प्रतिनिधि सार्वदेशिक आर्यप्रतिनिधि सभा' द्वारा आमन्त्रित किया जाता है। यह अधिवेशन विशेष महत्त्व रखता है, क्योंकि यह हमारे देश के जीवन की बहुत ही पेचीदा घड़ी में हो रहा है। एक ओर विनाशकारी युद्ध मानवी सभ्यता की जड़ों को खोखला कर रहा है, और दूसरी ओर भारतवर्ष की आन्तरिक दशा को ऐसी अर्थव्यवस्था में डाल दिया गया है कि देश के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक अधिकार खतरे में पड़ गये हैं।
आज मुझे आर्य समाज द्वारा राष्ट्र की जागृति के लिए किये गए महान कार्यों के प्रति श्रद्धांजलि समर्पित करने का जो अवसर मिला है, उसका मैं स्वागत करता हूं। हमारी प्यारी मातृभूमि के घटनापूर्ण इतिहास में भारतीय संस्कृति और सभ्यता पर बारम्बार आक्रमण होते रहे हैं। कई सदियों से हम राजनीतिक दृष्टिकोण से पराधीन हैं तो भी समय-समय पर देश में ऐसे महात्मा, ऋषि और आचार्य जन्म लेते रहे हैं जो अपने विचारों और कार्यों के प्रभाव से जाति को गिरावट से बचाते और उसके मन में नये जीवन और ओज का संचार करते रहे हैं। हमारी जाति के अनेक श्रेष्ठ पुरुष जन्म लेते रहे हैं, जो विचार और कार्य की दृष्टि से वीर कहलाने के अधिकारी थे। हिन्दू, बौद्ध और जैन राजा संरक्षक और धर्मगुरु, महान सिद्ध और भक्त, ईश्वरभक्ति के मद में मस्त सन्त और भक्त, ऐसे उद्भट विद्वान् आचार्य जिन्होंने अपने बुद्धिबल से धर्म राज्य की स्थापना का प्रयत्न किया, ऐसे सन्त, साधु और वैरागी जिन्होंने मुसलमानों द्वारा भारत की विजय के पश्चात् उत्पन्न होकर मुसलमान सूफियों और फकीरों का स्वागत किया और जिन्होंने भारतीय सभ्यता की जबर्दस्त भावना के अनुरूप त्याग, सेवा और भक्ति का सन्देश भारत को सुनाया। ऐसे सब महापुरुष समय-समय पर आकर जाति को नाश से बचाते और जीवन का मार्ग दिखाते रहे हैं।
भारतीय जागृति का नया युग
पूर्व और पश्चिम के सम्पर्क ने भारतीय जागृति का एक नया युग पैदा कर दिया। उन्नीसवीं सदी ने देश को कई ऐसे महान नेता दिये जिन्होंने अपने विचारों की शक्ति से देशवासियों के मन में धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक क्रान्ति उत्पन्न कर दी। परन्तु भारत पर अँगरेज़ों के प्रभुत्व और पाश्चात्य शिक्षा के प्रवेश के कारण यह खतरा उत्पन्न हो गया कि एक दिन देश का जीवन और दृष्टिकोण राष्ट्रीयता से शून्य हो जायगा। यह भी भय हुआ कि प्रतिक्रिया के तौर पर पुरानी रूढ़ियों और पद्धतियों के प्रति उत्पन्न अन्धी श्रद्धा न बन जाय। जाति के जीवन की ऐसी नाजुक घड़ी में अनेक महापुरुष कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण हुए जिन्होंने देश को आत्मरक्षा का मार्ग दिखाया। महर्षि दयानन्द सरस्वती का स्थान उन महापुरुषों में बहुत ऊंचा है। महर्षि का मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण प्राचीन था।
परन्तु उस प्राचीनता में धर्म के रूप में प्रच्छन्न रूप से रहनेवाले खोखले रूढ़िवाद अथवा कुसंस्कारों का कोई स्थान नहीं था। महर्षि देशवासियों के सामने वेदों को हाथ में लेकर प्रगट हुए, और उन्होंने मत-मतान्तरों में बिखरे हुए मनुष्यों को मनुष्यमात्र की समानता के आधार पर बना हुआ वेदोक्त सामाजिक व्यवस्था का मार्ग दिखलाया।
परम सन्तोष की बात
निःसन्देह यह परम सन्तोष की बात है कि महर्षि दयानन्द के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी आर्यसमाजवालों ने इस ज्योति को किसी साम्प्रदायिक मन्दिर की अन्धकारमय कोठरियों में बन्द नहीं रखा। जिस शिक्षा को उन्होंने अपने लिए इतना अधिक जीवन-जागृतिपूर्ण समझा, उसे उन्होंने भारत की सभी भाषाओं में और आश्चर्यजनक बड़ी संख्या में पत्र तथा पुस्तक-पुस्तिकाओं को प्रकाशित करके अपने अन्य देशवासियों तक भी पहुंचा दिया। जिन देशभक्त कार्यकर्त्ताओं ने अपने महान आचार्य की परम्परा को अक्षुण्ण रखते हुए भारत के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अभ्युत्थान के लिए आत्मबलिदान कर दिया, उन्होंने निःसन्देह एक समर्पित जीवन का यापन किया।
हिन्दुमात्र में एकता की स्थापना
आर्यसमाज की सबसे बड़ी सेवा यह है कि उसने जनता में वैयक्तिक तथा राष्ट्रीय आत्मसम्मान की गम्भीर भावना, मन की चेतनता और देश की सांस्कृतिक तथा सभ्यता के लिए प्रेम उत्पन्न करके हीनता की उस विषमय भावना का विनाश कर दिया जो कि मनुष्य को कायर बना देती है। इसी कारण से हम देखते हैं कि आर्यसमाज जनता को कर्म में प्रवृत्त करने के लिए निरे अपने प्राचीन गौरव के उपाख्यानों और वर्तमान कर्त्तव्य के सम्बन्ध में कोरे व्याख्यानों से ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता, वह मानव जीवन के अंगभूत उन क्षेत्रों को भी बलिदान प्रदान करता है जिन पर के हमारे भविष्य की स्थिरता अवलम्बित है।
आर्यसमाज ने बालकों और युवकों की शिक्षा को ऐसा बनाने का अत्यन्त प्रशंसनीय प्रयत्न किया, जिससे वह भारतीय आदर्शों तथा परम्पराओं के अनुकूल बन सके। आर्यसमाज का एक प्रशंसनीय कार्यक्षेत्र अस्पृश्यता-निवारण रहा है, जिसकी हिन्दू जाति के संगठन के लिए उपेक्षा नहीं की जा सकती। हिन्दुमात्र में एकता की स्थापना, उनके शारीरिक तथा आध्यात्मिक बल की अभिवृद्धि, उनकी सामाजिक स्थिति की उन्नति, उनमें सत्य और धर्म के प्रति अपार श्रद्धा की जागृति और उनको अपने अधिकारों के रक्षार्थ मर मिटने के लिए प्रेरित करना आर्यसमाज का मुख्य भाग रहा है। धर्म के क्षेत्र में आर्यसमाज ने अपना दरवाजा सदा खुला रखा है और अपने धार्मिक दृष्टिकोण की उदारता की घोषणा करके उसने न केवल दूसरों के आक्रमणों से हिन्दू धर्म की रक्षा की है, अपितु जो लोग मतान्तरों अथवा धर्मान्तरों के फेर में पड़कर भटक गए थे उन्हें पुनः हिन्दू धर्म में लाने का साहस भी प्रकट किया।
स्वतन्त्रता संग्राम में अग्रणी सैनिक
आर्य समाज ने संगठित रूप से राजनीति में व्यावहारिक भाग कभी नहीं लिया, परन्तु उनके अनेक सदस्य देश की स्वतन्त्रता के संघर्ष में अग्रणी सैनिक रहे हैं। उसके माननीय संस्थापक ने अपने स्मरणीय ग्रन्थ 'सत्यार्थ प्रकाश' में वैयक्तिक तथा राष्ट्रीय जीवन के सभी पहलुओं पर विशेषतः भारतीय दृष्टि से विचार करते हुए, अपने देश की राजनीतिक दशा पर भी स्पष्टतम भाषा में अपना अभिमत प्रकट किया है। उन्होंने लिखा है-
"अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध से, अन्य देशों पर राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी किन्तु आर्यावर्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहा है, दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख झेलना पड़ता है। कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तरों के आग्रहरहित अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर पिता-माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं है।" क्या हमारी राजनीतिक दासता का इससे अधिक विवाद तथा साहसपूर्ण विश्लेषण सम्भव है? फ्रांस के महान तत्त्वदर्शी रोमांरोला का यह कथन सर्वथा सत्य है कि महर्षि दयानन्द ने भारत के शक्तिशून्य शरीर में अपनी दुर्द्धर्ष शक्ति, अविचलता तथा सिंह पराक्रम से प्राण फूंक दिए हैं। भाग्य के आगे सिर झुका देनेवाली तथा निष्क्रिय जनता को उसने सावधान कर दिया कि "आत्मा स्वाधीन है और कर्म ही भाग्य का निर्माता हैं।"
अविनश्वर वसीयत
उत्कृष्ट आध्यत्मिक अनुमति के प्रभाव से श्री अरविन्द ने ऋषि दयानन्द के विषय में यह उद्गार प्रकट किये हैं- "ऋषि ने अपने देश के निवासियों तथा समस्त विश्व को 'सत्यार्थ प्रकाश' के रूप में जो अविनश्वर वसीयत दी है, वह उनकी प्रखर प्रतिभा का प्रतीक है। इस ग्रन्थ में वह हमारे सम्मुख एक उत्पादक, कलाकर, समीक्षक, संहारक तथा निर्माता के रूप में प्रकट हुआ है। वेदों में प्रतिपादित स्वाधीनता, समानता था सत्य के शाश्वत सिद्धान्तों में उसकी अविचल निष्ठा थी। वे अज्ञान, हठधर्मिता और मिथ्या विश्वासों के दुर्ग पर अविश्रान्त प्रहार करते रहे।"
अपने प्रगतिशील विचारों का साथ देने में असमर्थ, अपने देशवासियों के प्रभावशाली वर्ग के विरोध का उन्हें सामना करना पड़ा था। परन्तु वे अपने विश्वासानुमोदित सत्य मार्ग पर सदा अविचलित रहे और उन्होंने लक्ष्य के प्रति अपनी विमल निष्ठा और अविश्वास के प्रति अप्रतिहत साहस के साथ घोषणा की- "सत्य को सत्य के रूप में और असत्य को असत्य के रूप में प्रतिपादित करना की सत्य का यथार्थ रूप है। असत्य को सत्य के तथा सत्य को असत्य के रूप में प्रकट करना सत्य का प्रकाशन नहीं है।"
ऋषि ने अपने महान दर्शन 'सत्यार्थ प्रकाश' में एक ऐसे पुनर्गठित समाज का रूप उपस्थित किया है जिससे स्वतन्त्र भारत वर्तमान परिस्थितियों तथा अवस्थाओं में स्वकीय संस्कृति तथा सभ्यता की अमूल्य परम्पराओं के साथ समस्वर करके ही निर्माण कर सकता है।
आज मुस्लिम लीग यह मांग कर रही है कि 'सत्यार्थ प्रकाश' को जब्त कर लिया जाय, क्योंकि इसके कुछ अंश कुछ मुसलमानों की दृष्टि में आपत्तिजनक हैं। अब यह सोचना आपका काम है कि ऐसी अनुचित और दुष्टतापूर्ण असहिष्णुता के प्रतिकार के लिए क्या उपाय किये जाँय, वस्तुतः यह आन्दोलन ही स्वयं सत्य, साहस और विवेक के विचारों से परिपूर्ण उस ग्रन्थ को आधिकारिक लोकप्रिय बनाने में सहायक होगा, जिसने लाखों आत्माओं को शक्ति व मुक्ति प्रदान की है और इस प्रकार इस ग्रन्थ में जीवन्मुक्ति के उस भारतीय महालक्ष्य की सिद्धि में सहायता दी है जिसके लिए उसके प्रणेता ने अपना जीवन लगाया और प्राणों की भी आहुति दी।
आर्यसमाज के अनुयायियों के दृढ़ निश्चय को जानते हुए ही मैं यह कहने का साहस करता हूं कि यदि हमारे धार्मिक अधिकारों में हस्तक्षेप करने का कोई भी दुष्प्रयत्न किया गया तो उसे परिणाम की चिन्ता किये बिना साहस और संगठित प्रतिरोध के बल पर छिन्न-भिन्न कर दिया जायेगा। मैं तो यहां तक कहने को तैयार हूं कि सम्पूर्ण हिन्दू जाति और उनके सम्प्रदाय वस्तुतः धार्मिक मत-वादों के रहते हुए भी सभी विचार स्वातन्त्र्यप्रेमी ऐसे हमले को चुनौती के रूप में स्वीकार करेंगे। हमें मुस्लिम लीग द्वारा की गई ऐसी बेहूदी मांग के कारणों को नहीं भुला देना चाहिए, इसका कारण जहां एक ओर हमारे आपसी मतभेद और अपने पवित्र धर्मग्रन्थों आदि के प्रति उपेक्षा का भाव है, वहां दूसरी ओर भारतवर्ष को गुलाम बनाए रखने के लिए हमारे शासकों द्वारा प्रजा के एक भाग से पक्षपात करने की दुर्नीति भी है।
सबसे बड़ा सवाल
आज भारत के सामने सबसे बड़ा सवाल देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता-प्राप्ति का है। इसके बिना हमारे सिद्धान्तभूत अधिकारों और परम्पराओं पर आश्रित किसी भी सामाजिक और आर्थिक नवनिर्माण की व्यापक योजना को मूर्त्त रूप देना असम्भव है। मैं यहां क्षणभर के लिए भी हिन्दू जाति के सभी वर्गों और श्रेणियों में सामाजिक एकसूत्रता की आवश्यकताओं के महत्त्व कम नहीं करता। यह कार्य जनता का रहन-सहन और दृष्टिकोण ऊंचा उठाने तथा सम्पूर्ण कृत्रिम बाधाओं का समूलोच्छेद कर डालने के लिए बड़े कठोर व व्यवस्थित परिश्रम द्वारा ही हो सकता है। मैं यह भी कहूंगा कि हिन्दुओं में ऐसी एकता यथासम्भव इस देश में रहनेवाली सब जातियों के साथ न्याय व सम्मानपूर्ण सौहार्द भावना के साथ ही प्रकट होनी चाहिए, ऐसी वास्तविक और स्थायी सौहार्द भावना होने से पहले कुछ सैद्धान्तिक शर्तें पूरी हो जानी आवश्यक है। आज यह निर्विवादरूपेण सिद्ध हो गया है कि ब्रिटिश शासकों द्वारा उद्घोषित सिद्धान्त चाहे कुछ भी हो, वे वास्तविक शासन-सत्ता को भारतीयों के हाथों सौंपने और इस प्रकार अपने साम्राज्य के सबसे कीमती भाग को खोने के लिए तैयार नहीं है। इसीलिए उन्हें भारतीय जनता के विभिन्न दलों में फूट की प्रवृत्तियों को बढ़ाने और कृत्रिम रूप से ऊंचा उठाये हुए निहित स्वार्थों का महत्त्व जताने में अपना फायदा दीखता है। इसके साथ ही उन्हें कठोर दमन नीति का अनुसरण करने और अपने निरंकुश स्वेच्छाचारितापूर्ण शासन का वैध विरोध भी कुचल डालने में अपना अभीष्ट सिद्ध होता दीखता है।
एक भारत-अखण्ड भारत
नये विधान में भारत की एकता-अखण्डता का कायम रहना बड़ी आवश्यक बात होगी। पाकिस्तान योजना के आविष्कर्त्ता ही यह बात सबसे अधिक अच्छी तरह समझते हैं कि उनकी योजना तर्क और व्यवहार से कोसों दूर है। हिन्दुओं को, जो कि भारत की आबादी का तीन चौथाई भाग है, मुस्लिम लीग देश का विधान तैयार करने का हक देने को तैयार नहीं। वह तो यह भी नहीं चाहती कि भारतभर के हिन्दू और मुसलमान देश के विधान का संयुक्त रूप से निश्चय करें। दोनों ही अवस्थाओं में, उसका कहना है कि इस प्रकार अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यकों का अत्याचारपूर्ण शासन हो जायगा। इसके साथ ही उसका दावा है कि जिन प्रान्तों में मुसलमानों का प्रबल बहुमत है, वहां वे स्वयं करोड़ों अल्पसंख्यक हिन्दुओं के भाग्यविधायक बन जायेंगे और वहां के हिन्दू आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग न करने पायेंगे। उस अवस्था में यह अल्पसंख्यकों का अन्यायपूर्ण शासन नहीं होगा, अपितु यह मुसलमानों द्वारा पृथक् मातृभूमि पाने के सिद्धान्त व अधिकार का प्रयोग होगा। भारतवर्ष राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टियों से एक है और वह अखण्ड रहेगा। यदि कोई इस एकता में बाधा डालना चाहेगा तो वह देशद्रोह के महापराध का दोषी होगा और उसका कीतनी भी कीमत चुकाकर मुकाबला किया जाएगा। मुस्लिम लीग देशभक्त सन्तानों के बहुमत के संगठित प्रतिरोध के विरुद्ध अकेले ही भारतभूमि को खण्ड-खण्ड करने में सफल नहीं हो सकती। ब्रिटेन भी अपनी तलवार से भारतमाता का अंग-भंग करके उसके टुकड़े, देश का विभाजन करने के इच्छुकों के आगे, डालने की 'गारण्टी' नहीं दे सकता। किन्तु आज जिन प्रान्तों में हिन्दू अल्प संख्या में हैं और ब्रिटिश नीति प्रत्यक्षतः पाकिस्तानी राज को बढ़ावा देने की है, उन प्रान्तों में हिन्दुओं के अधिकारों और हितों को तुच्छ साम्प्रदायिकता और अवसरवादिता की बलिवेदी पर चढ़ाया जा रहा है।
वार्ता का मार्ग खुला है अब भी
भारतीय जनता की और मुसलमानों की ही भलाई के प्रति मुस्लिम लीग की चिन्ता-विषयक संजीदगी और निष्कपटता की परख के लिए हमने बारम्बार अपने मतभेद भुला डालने यानी विधान-सम्बन्धी सब विवादास्पद प्रश्नों को युद्ध के बाद तक स्थगित कर देने और भारतीय राष्ट्र की रक्षा तथा उसके पुनरुद्धार के लिए उसके अमित प्राकृतिक साधनों का उपयोग करने हेतु तत्काल शासन-सत्ता के सौंपे जाने के लिए संयुक्त मांग करने के प्रस्ताव पेश किये। बातचीत का मार्ग अब भी खुला है, पर हमारे शासकों द्वारा प्रतिक्रियावादियों को अपनी राष्ट्रविघाती और स्वार्थपूर्ण माँगों को प्रस्तुत करने में प्रोत्साहन देने के निर्लज्जतापूर्ण रवैये को देखते हुए ऐसे किसी मेलमिलाप की आशा बालू में से तेल निकालने के समान ही है।
आज इसका इलाज यह है कि भारत की आज़ादी की माँग से सहमत सब दलों और वर्गों का देशव्यापी प्रतिरोध गठित किया जाए। हमें उनलोगों या पार्टियों की खुशामद करने या उनके आगे-पीछे फिरने से कोई फायदा न होगा, जो कि भारत की प्रगति व स्वाधीनता की परवाह नहीं करते और देश को गुलाम बनाए रखने के लिए अपने शासकों के हाथों की कठपुतली बन रहे हैं। कुछ ऐसे भी दल और वर्ग हैं जो स्वतः छोटे व नगण्य होते हुए भी संयुक्त हो जाने पर मजबूत और ताकतवर हो सकेंगे, ये स्वतन्त्र भारत का विधान तैयार करने के आधारभूत सिद्धान्त के लिए देशव्यापी विरोधी मोर्चे में सम्मिलित होकर अच्छा काम कर सकेंगे। ऐसे संगठन का कर्त्तव्य होगा कि वह राष्ट्र के पुनर्निर्माण विषयक अधिकतम सहमति के प्रश्नों को महत्त्व दिलायें, सहिष्णुता व पारस्परिक सौहार्द भावना पर बल दें तथा हमारे नागरिक, आर्थिक व राजनीतिक अधिकारों के अपहरण करने के प्रयत्नों का निर्भीकतापूर्वक मुकाबला करें।
मतान्ध उत्साह के विरोध में
आज हमारे देश में अकर्मण्यता और निराशा का बोलबाला है। भारत में इस समय कानून का राज नहीं है। वर्तमान युद्ध-स्थिति का पूरा लाभ उठाकर विदेशी नौकरशाही की पाशविक प्रवृत्तियों ने राष्ट्रीय भावना का। गला घोंटने का काम विविध रूपों में किया हुआ है। दुर्भिक्ष और महामारियों ने ६ महीने से भी कम समय में २०-३० लाख से भी अधिक मनुष्यों को परलोक पहुंचा दिया है। ये लोग एक सभ्य सरकार के ही राज्य में भोजन, दवा और आश्रय के अभाव में प्राणों से हाथ धो बैठे। यदि मौजूदा दिवालिया, रिश्वतखोर और साम्प्रदायिक मन्त्रिमण्डल को अगले महीनों में शासन चलाने दिया गया तो मेरे प्रान्त (बंगाल) में ऐसा ही संकट १९४४ में फिर देखने का अवसर आ सकता है। यदि किसी दूसरे देश में ऐसी बदइन्तजामी होती तो वहां की जनता खुली बगावत करती। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि ब्रिटिश भारत के इतिहास में इतना अधिक असन्तोष कभी नहीं हुआ जितना कि आज विद्यमान है।
मैं निराशा की बात कहकर समाप्त करना नहीं चाहता। हमें हिन्दुओं में ही अनेक भेद-प्रवृत्तियों का अन्त करना है। हमें भारत के विभाजन की मांग के बाद निरन्तर बढ़ते हुए मतान्धतापूर्ण उत्साह के विरुद्ध लड़ना होगा। हमें हिन्दू शक्ति और देश के सार्वजनिक जीवन के राष्ट्रीय अंश का निरन्तर ह्रास करने में तत्पर शासक वर्ग के प्रत्याघाती से जाति की रक्षा करनी होगी।
स्व-शासन: भारत का पुरातन अधिकार
हमारे सामने जो काम है वह कठिनाइयों और निराशाओं से परिपूर्ण है। क्या इतिहास में तुच्छ भिखमंगों की दशा में सुख माननेवाली और थोड़ी-सी क्षणिक प्राप्ति के लोभ में अपनी मान-मर्यादा की बलि देनेवाली किसी गुलाम जाति ने कभी आज़ादी प्राप्त की है! भारतीय इतिहास में हमें ऐसे यथेष्ट प्रमाण उपलब्ध होते हैं कि यहां की प्रत्येक सन्तति (जाति) के मनुष्यों में ऐसे मानव हुए हैं, जिनकी तुलना किसी भी देश और स्थान के महान पुरुषों से सुगमतापूर्वक की जा सके। पर भारतीय जनता किसी मूल्य पर अपनी राजनीतिक स्वाधीनता की रक्षा के लिए तीव्र भावना से अनुप्राणित नहीं हुई। इसलिए भारत के राजनीतिक और अन्य दलों के नेताओं के आगे, राष्ट्रीय संगठन की उदात्त भावना के साथ, यह प्रमुख कार्य है कि वे स्वाधीनता के प्रेम को कोने-कोने तक फैला दें, जनता जान जाए कि स्व-शासन भारत का पुरातन अधिकार है और यह दृढ़ निश्चय उसमें घर कर जाए कि यदि आज़ादी नसीब नहीं होती तो जिन्दगी मौत के बराबर है।
हम जनता से मर्मस्पर्शी अपीलें करके अथवा अपने विरोधियों को गालियां देकर अपने लक्ष्य पर नहीं पहुंच सकते। इसके लिए तो हमें सामाजिक व आर्थिक उत्थान का कार्यक्रम अमल में लाते हुए धर्म को मानवीय सभ्यता के उत्कर्ष के लिए सच्चा संगठनात्मक तत्त्व बनाना होगा, इसी की मजबूत नींव पर भारत की स्वतन्त्रता का निर्माण हो सकेगा। हमें इस दृढ़ विश्वास से बल पाकर उत्साहपूर्वक कार्य करना चाहिए कि शक्ति, अधिकार, साम्राज्य और प्रभाव से शासित संसार में अपने प्राचीन गौरव के अनुरूप यह प्रतिष्ठा भारत को ही प्राप्त होगी कि वह न केवल एक पददलित और शोषित जाति के पुनरुद्धार के लिए उच्चतर और उत्कृष्टतर सभ्यता के विकास में हाथ बंटाये बल्कि तन, मन और आत्मा के सह-भाव की ओर प्रगति का भी बीड़ा उठाये। इसके बिना स्थायी शान्ति और स्वतन्त्रता सभ्य संसार के किसी भी कोने में स्थिर नहीं हो सकती। -साभार- 'कश्मीर की वेदी पर' पुस्तक से
[स्त्रोत- साप्ताहिक आर्य सन्देश : दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा का मुखपत्र का १३-१९ मई, २०१९ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
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