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आर्यसमाज में साहित्य की स्थिति

आर्यसमाज में साहित्य की स्थिति लेखक- डॉ० भवानीलाल भारतीय [वैदिक साहित्य आर्यसमाज का स्तम्भ रहा है। आर्यसमाज के उद्भट विद्वानों ने उच्च कोटि के ग्रन्थ लिखकर लेखनी को सदैव प्राथमिकता दी है। पंडित लेखराम जी की वसीयत में लिखा यह वाक्य "तहरीर (लेखन) और तकरीर (शास्त्रार्थ) का कार्य बन्द नहीं होना चाहिए" से आप लेखन कार्य की उपयोगिता भांप सकते हैं। आज आर्यसमाज में साहित्य की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। हमारे महान् नेताओं और प्रधानों की देन से लगभग सभी प्रदेशों की प्रमुख आर्यसमाजों में ताले लटके हुए हैं। इनका वाचनालय तो दीमक के हवाले चल रहा है। यह स्थिति प्रत्येक स्वाध्यायशील आर्यों के लिए सीने में सुई चुभोने जैसी है। अब भी समय रहते हमें अपने साहित्य के सम्बंध में गम्भीरता से विचार करना होगा, अन्यथा इस निरन्तर ह्रास के चलते भविष्य में आर्यसमाज को बौद्धिक स्तर पर अहितकारी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। उक्त विषय पर आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध लेखक डॉ० भवानीलाल भारतीय जी की वेदना उन्हीं की कलम से पढ़िए। प्रस्तुत लेख 'आर्य मर्यादा साप्ताहिक' (२९ नवम्बर - २ दिसम्बर) १९९०

मैं आर्यसमाजी कैसे बना?

मैं आर्य समाजी कैसे बना? [भाग ७] -स्व० श्री महात्मा हंसराज जी अपने ग्राम में मैंने केवल एक बार किसी वृद्ध व्यक्ति से सुना था कि लाहौर में एक साधु आया हुआ है, जो ईसाइयों से वेतन पाता है तथा हिन्दू धर्म के विरुद्ध उपदेश करता है। उस समय मुझे यह ज्ञात नहीं था कि यह ऋषि दयानन्द है तथा उनका उपदेश क्या है। मेरी आयु उस समय छोटी थी और न ही विद्या की योग्यता थी। जब मैं सन् १८७९ में लाहौर आया तो मेरे बड़े भाई ने जो उस समय डाकघर में कार्य करते थे, मुझे राजकीय विद्यालय में प्रविष्ट करा दिया। उस समय विद्यालय का भवन नहीं था। राजा ध्यानसिंह की हवेली में विद्यालय की श्रेणियां लगा करती थी। सरदार हरिसिंह जो बाद में निरीक्षक (Inspector) होकर विख्यात हुए, मिडल स्कूल के हैडमास्टर थे। मैं कुछ मास उनकी छत्र छाया में विद्या अध्ययन करता रहा। फिर बीमार होने के कारण मैंने राजकीय विद्यालय छोड़ दिया। स्वस्थ होने पर भाई साहब ने मुझे यूकल्ड की शिक्षा स्वयं दी। और फिर रंग महल में मिशन स्कूल में प्रविष्ट करा दिया। मैं वहां पढ़ता रहा। बाबू काली प्रसन चटरजी जो बाद में आर्य समाज के उत्तम सेवक बने, हमारे साथ स्

मैं आर्यसमाजी कैसे बना?

मैं आर्य समाजी कैसे बना? [भाग ६] -महात्मा आनन्द स्वामी जी मैं आर्य समाजी बना नहीं हूं अपितु जन्म से आर्यसमाजी हूं। इस संसार में वर्तमान शरीर के साथ आंखें खोलते ही मैंने अपने आप को आर्यसमाजी पाया। जातकर्म संस्कार से लेकर शेष समस्त संस्कार वैदिक रीति से हुए। अतः मैं मैनुफैक्चर्ड (Manufactured) आर्यसमाजी नहीं हूं। मुझे किसी दूसरे कारखाने में आर्य समाजी नहीं बनाया गया, अपितु माता-पिता की कृपा से मेरा जन्म आर्य-समाजियों के पवित्र घर में हुआ। हां मेरे पूज्य पिता जी आर्य-समाजी बने और आर्य-समाजी भी स्वामी दयानन्द जी महाराज के हाथों बने। यह घटना इस प्रकार है- उन दिनों पंजाब में आर्य-समाज का नाम नहीं था, ईसाइयत जोर पकड़ रही थी। हिन्दू नवयुवक ईसाई बनते चले जा रहे थे और नवीन शिक्षा हिन्दु नवयुवकों को हिन्दु धर्म से विमुख कर रही थी। मेरे पिता लाला गणेशदास जी को प्रारम्भ से मतों की छान-बीन का शौक था। हमारे नगर जलाल पुर जट्टां में ईसाइयों का स्कूल था। गुजरात के पादरी प्रायः जलाल पुर जट्टाँ आते रहते थे और पिताजी उनसे बातें करते थे। इन वार्तालापों का परिणाम यह निकला कि पिता जी ईसाइयत स्वीका

आर्यसमाज के विस्मृत भजनोपदेशक ठाकुर उदय सिंह

आर्यसमाज के विस्मृत भजनोपदेशक ठाकुर उदय सिंह 'ठाकुर कवि' लेखक - डॉ. भवानीलाल भारतीय जी प्रस्तुति - अमित सिवाहा  सहयोगी - प्रियांशु सेठ           आर्यसमाज के मूर्धाभिषिक्त भजनोपदेशक भ्रातातुल्य पं० ओमप्रकाश वर्मा के मुख से अनेक बार ठाकुर कवि के पद्य तथा सुन्दर सूक्ति - सुमनों को सुनने का अवसर मिला तो इस कवि के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई। अवसर आया आर्यसमाज बडाबाजार सोनीपत के वार्षिकोत्सव के अवसर पर जब मैं और वर्माजी साथ ही आमंत्रित थे । उसके बाद जो जानकारी उनसे मिली और कवि ठाकुर की सरस काव्य रचना के कुछ नमूने उनके स्मृतिकोश से प्राप्त किये उन्हें यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । कवि ठाकुर का वास्तविक नाम ठाकुर उदय सिंह था और वे अलीगढ़ के प्रेमपुर ग्राम के निवासी थे । उनका जन्म १८९२ में हुआ और ९० वर्ष की आयु प्राप्त कर १९८२ मे दिवंगत हुए । उनका अध्ययन तो शायद दसवीं श्रेणी तक हुआ था किंतु हिन्दी , उर्दू , तथा अंग्रेजी का उनका ज्ञान पर्याप्त था ।          आर्यसमाज के प्रारंभिक काल में अधिकांश भजनोपदेशक उत्तरप्रदेश के मेरठ , अलीगढ , सहारनपुर , मुजफ्फरनगर तथा बुलन्दशहर आ

आर्यसमाज के भूषण पण्डित गुरुदत्तजी का अद्भुत जीवन

आर्यसमाज के भूषण पण्डित गुरुदत्तजी के अद्भुत जीवन का कारण क्या था? -राज्यरत्न आत्माराम अमृतसरी प्रेषक- प्रियांशु सेठ , डॉ० विवेक आर्य  महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के सच्चे भक्त विद्यानिधि, तर्कवाचस्पति, मुनिवर, पण्डित गुरुदत्त जी विद्यार्थी, एम०ए० का जन्म २६ अप्रैल सन् १८६४ ई० को मुलतान नगर में और देहान्त २६ वर्ष की आयु में लाहौर नगर में १९ मार्च सन् १८९० ई० को हुआ था। आर्य्य जगत् में कौन मनुष्य है, जो उनकी अद्भुत विद्या योग्यता, सच्ची धर्मवृत्ति और परोपकार को नहीं जानता? उनके शुद्ध जीवन, उग्र बुद्धि और दंभरहित त्याग को वह पुरुष जिसने उनको एक बेर भी देखा हो बतला सकता है। महर्षि दयानन्द के ऋषिजीवन रूपी आदर्श को धारण करने की वेगवान् इच्छा, योग समाधि से बुद्धि को निर्मल शुद्ध बनाने के उपाय, और वेदों के पढ़ने पढ़ाने में तद्रूप होने का पुरुषार्थ एक मात्र उनका आर्य्यजीवन बोधन कराता है। अंग्रेजी पदार्थविद्या तथा फिलासोफी के वारपार होने पर उनकी पश्चिमी ज्ञानकाण्ड की सीमा का पता लग चुका था। जब वह पश्चिमी पदार्थविद्या और फिलासोफी क उत्तम से उत्तम पुस्तक पाठ करते थे, तो उनको भलीभांति विदित होत