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Showing posts from June, 2021

अष्टाङ्ग योग का उद्देश्य

अष्टाङ्ग योग का उद्देश्य -प्रियांशु सेठ (वाराणसी) मनुष्य जीवन दो उद्देश्यों से बंधा है- श्रेय: (धर्म-मार्ग) और प्रेय: (भोग-मार्ग)। भोगवादी मनुष्य प्रेय: को अपने जीवन का उद्देश्य चुनकर सदैव क्षणिक सुख के पीछे भटकता रहता है, जबकि ब्रह्मवादी मनुष्य श्रेय: को अपने जीवन का उद्देश्य चुनकर दीर्घकालिक सुख की प्राप्ति में तपोरत रहता है। यह दीर्घकालिक सुख आत्मा का सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा से मेल होना है। भोग से दीर्घकालिक सुख की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती क्योंकि यह अविद्या और दुःखादि दोषों से लिप्त है। दर्शनकारों ने तीन प्रकार के दुःखों (आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक) से सर्वथा छूट जाना जीवात्मा का अन्तिम लक्ष्य बताया है। इस अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचने की कुञ्जी ही "योग" है। दार्शनिक जगत् में योग को सर्वमहत्त्वपूर्ण और प्रधान स्थान प्राप्त है। योग शब्द की निष्पत्ति युज् धातु से घञ् प्रत्यय से करण और भावार्थ में हुई है। व्याकरणाचार्य्य महर्षि पाणिनी ने गण पाठ में युज् धातु तीन प्रकार से प्रयोग में लायी हैं- "युज् समाधौ" (दिवादिगणीय) - समाधि, "युजिर योगे&q

मैं आर्यसमाजी कैसे बना?

मैं आर्य समाजी कैसे बना? -श्रीयुत नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ मेरा संक्षेप से यही उत्तर है कि मैं जन्म का आर्यसमाजी हूँ। क्योंकि जब हमारे पूज्य पिता स्वर्गीय पं० श्री निवास राव जी राव महोदय आर्य सामाजिक विचार के हुए थे, तब हमारा जन्म भी नहीं हुआ था। हमारे पिता जी बम्बई पुलिस फोर्स में एक बड़े अफसर थे। उनके दौरे की सीमा बम्बई से दक्षिण में रायपुर तक और उत्तर में अजमेर तक थी। वे प्राय: डाकुओं की देख भाल में रहते थे, इस दशा में कभी किसी अवसर पर जब वे उत्तर भारत में आये हुए थे, तब ठीक नहीं कह सकता, किस स्थान पर, किन्तु जयपुर अथवा अजमेर का अनुमान किया जा सकता है, स्वर्गीय पं० लेखराम जी आर्य मुसाफिर से भेंट हो गई थी। तभी से उनके विचार परिवर्तित हो गये। तभी से हमारे घर में आर्य समाज का प्रवेश समझिये। वैसे तो हमारे पिता जी कट्टर पौराणिक थे। सबसे बड़े भाई नारायण राव और उनके छोटे भाई भीम राव के यज्ञोपवीत संस्कार में ५०००) रुपया लगाया था और उस उत्सव में वैश्या नृत्य भी कराया था। पं० लेखराम जी से भेंट होने के पश्चात् हमारे पिता के विचारों में बहुत परिवर्तन हुआ। परन्तु हमारी माता श्रीमती कृ

ज्योतिष पर पौराणिक गुटर-गूँ

ज्योतिष पर पौराणिक गुटर-गूँ -प्रियांशु सेठ (वाराणसी) प्रसिद्ध योगगुरु बाबा रामदेव ने बयान दिया कि "ज्योतिष विद्या ने क्यों नहीं कोरोना काल के बारे में पहले जानकारी दी। सारे मुहूर्त भगवान ने बना रखे हैं। ज्योतिषी काल, घड़ी, मुहूर्त के नाम पर बहकाते रहते हैं। बैठे-बैठे ही किस्मत बनाते हैं। किसी ज्योतिष ने यह नहीं बताया कि कोरोना आने वाला है।..." बाबा रामदेव के इस बयान से पौराणिक मण्डल में खलबली मच गई। एक ओर वैदिक एजुकेशनल रिसर्च सोसायटी के संस्थापक पं० शिवपूजन शास्त्री ने बाबा रामदेव को शास्त्रार्थ की चुनौती दे दी। दूसरी ओर काशी विद्वत परिषद के महामन्त्री डॉ० रामनारायण द्विवेदी ने कहा कि बाबा रामदेव अनर्गल बयानबाजी कर रहे हैं। दरअसल पौराणिक मण्डल ने कभी ज्योतिष के यथार्थ स्वरूप को समझा ही नहीं। अनार्ष ग्रन्थों को पढ़कर उसने फलित ज्योतिष की भ्रामक अवधारणाओं को स्थापित किया और पूरे मनुष्य समाज को कर्महीन तथा फल मात्र का उपासक बना दिया। आधुनिक युग के सुविख्यात समाज सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ "सत्यार्थप्रकाश" में फलित ज्योतिष पर कुछ ऐस

मैं आर्यसमाजी कैसे बना?

मैं आर्य समाजी कैसे बना? -श्रीयुत ला० रामप्रसाद जी बी०ए० मेरा आर्य समाजी होने पारिवारिक प्रभाव का पुण्य संस्कार है। मेरे स्वर्गीय भ्राता बाबू मदन सिंह जी आर्यसमाज लाहौर तथा आर्य प्रतिनिधि सभा के मन्त्री थे। जब डी०ए०वी० कालिज की स्थापना हुई तो इसके मन्त्री भी ये हो बने इस कारण हमारे गृह पर सामाजिक नेताओं का आना जाना रहता था। मैं भी पास बैठा हुआ वार्तालाप सुना करता था। इस प्रकार शनै-शनै सामाजिक बातों में मेरी रुचि हो गई। मैं डी०ए०वी० हाई स्कूल का सबसे पुराना विद्यार्थी हूँ। जिस दिन स्कूल खुला था मैं भी उसी दिन प्रविष्ट हो गया था। श्री लाला छबीलदास जी रईस हिसार का शुभ नाम पहला था, मेरा सातवां था। क्योंकि प्रारम्भ से मैंने डी०ए०वी० स्कूल में शिक्षा ग्रहण की इसलिए इस शिक्षा का भी मेरे जीवन पर प्रभाव पड़ा। भाई मदनसिंह जी के प्रभाव से हमारा पारिवारिक धर्म ही वैदिक धर्म हो गया था। इसलिए हमारा सामाजिक बनना स्वाभाविक था। मेरे पिता जी बड़े धर्मनिष्ठ थे परन्तु चूंकि उन दिनों में समाज का प्रारम्भ ही था इसलिए वे वैष्णव धर्म के अनुयायी थे। मैं चूंकि लाहौर में अपने भाई के पास रहा करता था इसल

मैं आर्यसमाजी कैसे बना?

मैं आर्य समाजी कैसे बना? -राज्यरत्न श्री मास्टर आत्माराम जी अमृतसरी जब मैं अमृतसर के राजकीय हाई स्कूल में मैट्रिक में शिक्षा प्राप्त करता था, उन दिनों आंग्ल-भाषा में लीथर व्रज साहब का इतिहास कण्ठ करना पड़ता था। उसमें जब मैं महमूद गजनवी के आक्रमणों का वर्णन याद किया करता था, उस समय हृदय में यह बात आती कि यदि सोमनाथ के शिवजी महाराज में बदला लेने की शक्ति होती तो वह अवश्य दुष्ट महमूद को अन्धा करके अपना चमत्कार दिखा सकते थे, पर उन्होंने कुछ न किया। अतः वह केवल पत्थर ही प्रमाणित हुआ, दिव्य शक्ति सम्पन्न नहीं। जैसा कि हम सब हिन्दू भक्त उनको मानते थे। सन् १८८६ में हमारी मैट्रिक कक्षा का एक घण्टा प्रतिदिन श्रीमान् पूज्य स्वर्गवासी पिता समान देवता स्वरूप श्री बाबू मुरलीधर साहब ड्राइंग मास्टर के पास होता था। मैं ईश्वर की कृपा से उनके विषय अर्थात् ड्राइंग, चित्रकारी आदि में अन्य सब मुसलमान और हिन्दू विद्यार्थियों से प्रथम रहा करता था। इसलिए जब वे मेरी कापी या चित्रकारी का कोई कागज देखकर नम्बर देते, या प्रशंसा करते, तब साथ ही आहिस्ता से कह देते कि- "आत्माराम तुम बड़े प्रसिद्ध रईस पर

मैं आर्यसमाजी कैसे बना?

मैं आर्य समाजी कैसे बना? -पं० अमर सिंह जी आर्यमुसाफिर मैं आर्य समाजी कैसे बना? पुराणों को पढ़ने से। पेशावर से कलकत्ता तक लम्बी जाने वाली सड़क पर जिला बुलन्दशहर में खुरजा से नौ मील अलीगढ़ की ओर अरनियां नामक एक छोटा सा ग्राम है, उसमें हमारा जन्म हुआ। हमारे पिता ठाकुर टीकम सिंह जी ने अनूपशहर जिला बुलन्दशहर में गंगा स्नान के पर्व के अवसर पर महर्षि दयानन्द जी महाराज को व्याख्यान देते हुए देखा। कुछ गुण्डों ने महर्षि के ऊपर झोली में भरकर धूल फेंकी। महर्षि के भक्त राजपूतों ने उनको पकड़ कर मारना पीटना चाहा। महर्षि ने कहा, "ये बच्चे हैं, मारो मत।" राजपूतों ने कहा, "महाराज ये सब दाढ़ी मूँछों वाले जवान और बूढ़े बूढ़े भी हैं, बच्चे नहीं हैं, हम इनको दण्ड देंगे।" ऋषिवर ने कहा, "चाहे बूढ़े हों, कम समझ होने से बालक ही हैं, इसलिए कदापि मत मारो।" पिताजी ने ये शब्द अपने कानों से सुने, पर स्वामी जी का उपदेश नहीं सुना था। उन्होंने लोगों से पूछा, "यह स्वामी कौन हैं और क्या प्रचार करते हैं?" तो कई लोगों ने कहा कि यह स्वामी दयानन्द हैं और ईसाइयों का प्रचार करते हैं,

मैं आर्यसमाजी कैसे बना?

मैं आर्य समाजी कैसे बना? -श्री पं० ठाकुरदत्त जी शर्मा मैं एक छोटे से ग्राम फतहवाल में उत्पन्न हुआ। बलहडवाल में प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की। वहां मौलवी इब्राहीम साहब बड़े सज्जन अध्यापक थे। अपने सम्प्रदाय के बड़े भक्त थे। वे हिन्दुधर्म के व्रत और कृष्णलीला आदि की निन्दा करते और "रोजा" आदि की प्रशंसा किया करते थे। मेरे हृदय पर इन बातों का प्रभाव पड़ा। जब एक बार घर में मुझ से दुर्गाष्टमी का व्रत रखने के लिए कहा गया तो मैंने कहा दिया था कि दिन भर आहार न करूँगा। यह क्या व्रत है कि व्रत का नाम रखकर उत्तम उत्तम पदार्थों से पेट भर लिया जाय। उस समय यह विचार न था कि इस विचार से रोजा भी लाभदायक नहीं, क्योंकि दो बार दिन को न खाकर रात्रि को खा लिया। इसमें कमी तो कुछ भी नहीं हुई। कुछ समय पश्चात् मैं हिन्दुसभा हाई स्कूल अमृतसर में पढ़ने के लिए आया। श्रीमान् मास्टर आत्माराम जी अमृतसरी हमें इतिहास पढ़ाया करते थे। जब इतिहास में यह वर्णन आया कि पुराने आर्य लोग गडरियों की भांति रहते थे। मांस सेवन करते थे। तब उन्होंने कहा कि ये बातें अशुद्ध हैं। वास्तव में वह युग इस समय से अच्छा था। फिर जब