मैं आर्य समाजी कैसे बना?
-श्रीयुत ला० रामप्रसाद जी बी०ए०
मेरा आर्य समाजी होने पारिवारिक प्रभाव का पुण्य संस्कार है। मेरे स्वर्गीय भ्राता बाबू मदन सिंह जी आर्यसमाज लाहौर तथा आर्य प्रतिनिधि सभा के मन्त्री थे। जब डी०ए०वी० कालिज की स्थापना हुई तो इसके मन्त्री भी ये हो बने इस कारण हमारे गृह पर सामाजिक नेताओं का आना जाना रहता था। मैं भी पास बैठा हुआ वार्तालाप सुना करता था। इस प्रकार शनै-शनै सामाजिक बातों में मेरी रुचि हो गई।
मैं डी०ए०वी० हाई स्कूल का सबसे पुराना विद्यार्थी हूँ। जिस दिन स्कूल खुला था मैं भी उसी दिन प्रविष्ट हो गया था। श्री लाला छबीलदास जी रईस हिसार का शुभ नाम पहला था, मेरा सातवां था। क्योंकि प्रारम्भ से मैंने डी०ए०वी० स्कूल में शिक्षा ग्रहण की इसलिए इस शिक्षा का भी मेरे जीवन पर प्रभाव पड़ा। भाई मदनसिंह जी के प्रभाव से हमारा पारिवारिक धर्म ही वैदिक धर्म हो गया था। इसलिए हमारा सामाजिक बनना स्वाभाविक था।
मेरे पिता जी बड़े धर्मनिष्ठ थे परन्तु चूंकि उन दिनों में समाज का प्रारम्भ ही था इसलिए वे वैष्णव धर्म के अनुयायी थे। मैं चूंकि लाहौर में अपने भाई के पास रहा करता था इसलिए मेरे जीवन पर भाई साहब का तथा डी०ए०वी० स्कूल की शिक्षा का ही प्रभाव पड़ा, पिता जी का नहीं।
[नोट- आर्यसमाज की विचारधारा सामाजिक कुरीतियों की नाशयित्री और बौद्धिक क्रान्ति की प्रकाशिका है। इसके वैदिक विचारों ने अनेकों के हृदय में सत्य का प्रकाश किया है। इस लेख के माध्यम से आप उन विद्वानों के बारे में पढ़ेंगे जिन्होंने आर्यसमाज को जानने के बाद आत्मोन्नति करते हुए समाज को उन्नतिशील कैसे बनायें, इसमें अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। ये लेख स्वामी जगदीश्वरानन्द द्वारा सम्पादित "वेद-प्रकाश" मासिक पत्रिका के १९५८ के अंकों में "मैं आर्यसमाजी कैसे बना?" नामक शीर्षक से प्रकाशित हुए थे। प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
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