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Showing posts from 2019

संस्कृत भाषा का महत्त्व और उसका शिक्षण

संस्कृत भाषा का महत्त्व और उसका शिक्षण लेखक- डॉ० भवानीलाल भारतीय प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ, डॉ० विवेक आर्य सहयोगी- डॉ० ब्रजेश गौतमजी स्वामी दयानन्द संस्कृत भाषा के प्रचार प्रसार को स्वदेश की उन्नति के लिए अत्यावश्यक समझते थे। उनका यह सत्य विश्वास था कि भारत की प्राचीन परम्परा और संस्कृति संस्कृत साहित्य में सुरक्षित है। आर्यों के प्राचीन धर्म, दर्शन, अध्यात्म तथा जीवन दर्शन को यदि समझना हो तो संस्कृत का ज्ञान होना अपरिहार्य है। उन्होंने स्वयं तो संस्कृत का प्रचार किया ही, अन्यों को भी इस कार्य में प्रवृत्त होने के लिए कहा। स्वामीजी ने जब इस देश में जन्म लिया उस समय यहां विदेशी अंग्रेजों का राज्य था। राज कार्य की भाषा अंग्रेजी थी और उर्दू-फ़ारसी का प्रचलन पढ़े लिखे लोगों में अधिक था। संस्कृत का अध्ययन ब्राह्मणों तक सीमित रह गया था और उनमें भी मात्र काम चलाऊ संस्कृत ज्ञान को ही पर्याप्त समझा जाता था जो पौरोहित्य कर्म में उनका सहायक होता। ऐसी स्थिति में संस्कृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन तथा प्रचार-प्रसार के लिए बद्ध परिकर होना, स्वामी दयानन्द की एक महती देन थी। आदिम सत्य

वेद ईश्वरीय ज्ञान है

वेद ईश्वरीय ज्ञान है पं० यशपाल सिद्धान्तालंकार आर्य जाति के पूर्व विद्वानों, ऋषियों, मुनियों तथा जन साधारण का अनादिकाल से यह विश्वास चला आया है कि वेद ईश्वरप्रणीत होने से अपौरुषेय अतएव निर्भ्रान्त हैं। वेद, अनादि, अनन्त और नित्य हैं। वेद में शब्दार्थ-सम्बन्ध भी नित्य है। वैदिक धर्म का मुख्य सनातन सिद्धान्त यह है कि वेद सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व निर्मित हुए। सब ज्ञान और विद्याओं का मूल वेद में है। वेद से ही सब ज्ञान साक्षात् अथवा परम्परा से उत्पन्न हुआ और वैदिक सत्य का ही समयान्तर में विकास हुआ। संसार के सब माननीय तथा प्रचलित धर्मों और धर्मग्रन्थों में सत्य का जो अंश उपलब्ध होता है उसका सम्बन्ध परम्परा रूप से वेदों के ही साथ है। ब्रह्मा से लेकर ऋषि दयानन्द पर्यन्त आर्यावर्त्त में जितने विद्वान्, महात्मा, ऋषि और मुनि हुए हैं उनका सदा से ही यह विश्वास चला आया है कि वेद परमात्मा की वाणी है। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को धर्माधर्म, पाप-पुण्य, कर्त्तव्याकर्त्तव्य का ज्ञान देने के लिये परमात्मा ने वेद का ज्ञान दिया। यदि सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा कोई ज्ञान न दे तो उस समय के

महर्षि दयानन्द का एक महत्त्वपूर्ण लघु ग्रन्थ 'गोकरुणानिधि'

महर्षि दयानन्द का एक महत्त्वपूर्ण लघु ग्रन्थ 'गोकरुणानिधि' लेखक- डॉ० रामनाथ वेदालंकार प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ महर्षि दयानन्द रचित पुस्तकों में एक छोटी से पुस्तक 'गोकरुणानिधि' है। देखने में तो छोटी सी है, किन्तु महत्त्व में यह कम नहीं है। इसकी रचना स्वामी जी ने आगरा में की थी। पुस्तक के अन्त में स्वामी जी ने स्वयं लिखा है कि यह ग्रन्थ संवत् १९३७ फाल्गुन कृष्णा दशमी गुरुवार के दिन बन कर पूर्ण हुआ। यह १५ दिन में ही छप कर तैयार हो गया और शीघ्र ही बिक कर समाप्त हो गया। एक वर्ष के अन्दर ही इसका द्वितीय संस्करण प्रकाशित करना पड़ा। स्वामी जी ने इसका अंग्रेजी अनुवाद भी करवाया था। गोकरुणानिधि तीन भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में गाय आदि पशुओं की रक्षा के विषय में समीक्षा लिखी गयी है। यह समीक्षा भी दो प्रकरणों में है। प्रथम प्ररण में गाय आदि पशुओं की रक्षा का महत्त्व बताया गया है। दूसरे प्रकरण में हिंसक और रक्षक का संवाद है, जिसमें मांसभक्षण के पक्ष में जो भी बातें कहीं जा सकती हैं, वे सब एक-एक करके हिंसक के मुख से कहला कर रक्षक द्वारा उन सबका उत्तर दिलाया गय

मानव-संस्कृति के मूलाधार वेद हैं!

मानव-संस्कृति के मूलाधार वेद हैं! लेखक- व्याख्यान वाचस्पति पं० बिहारीलाल शास्त्री, काव्य-तीर्थ प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ संसार के पुस्तकालय में वेद ही सबसे प्राचीन पुस्तक है। इस सिद्धान्त को तो प्रायः सबने ही मान लिया है। जो लोग मिश्र की सभ्यता-संस्कृति को आर्यों की सभ्यता तथा संस्कृति से पुराना मानते हैं, वा जो भारत में द्रविड़ सभ्यता वा जैन धर्म को वैदिक संस्कृति और धर्म से पुराना कहते हैं, उनके पास भी मिश्र, द्रविड़ व जैनों का कोई लेख वा ग्रन्थ वेदों से पुराना नहीं है। सबसे पुराने साहित्य के अधिकारी आर्य ही हैं, और उनमें भी भारतीय आर्य। बस, यदि वेदों में ज्ञान-विज्ञान और कला-संस्कृति के मूल सिद्धान्त हैं तो मानना पड़ेगा कि संसार ने वेद से ही सब-कुछ सीखा है। संसार के मनुष्यों ने संस्कृति का पाठ वेद से ही पढ़ा। आज सारा संसार पड्ज, ऋषभ, गन्धार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद- इन सातों स्वरों में ही गाता है। इन सबों का प्रादुर्भाव सामवेद से हुआ है। भूमण्डल में अश्विन्यादि सत्ताईस नक्षत्र प्रकट हैं। इनके नाम अथर्ववेद में हैं। युग, वर्ष, मास, ऋतु, पक्ष, ग्रह इनका वर्णन यजुर्वेद और अथर्ववेद

'आंख-मूसली, ओखल-काम, देते ये संकेत ललाम'

'आंख-मूसली, ओखल-काम, देते ये संकेत ललाम' वेदमाता गुरु गम्भीर मन्त्र श्रृंखाओं के साथ-साथ यदाकदा हल्की-फुल्की फुहारें  भी छोड़ देती हैं, जिसे सुनकर मन हास्य विनोद में लोटपोट हो ही जाता है, किन्तु उसका अर्थ हितोपदेश से भरपूर होता है। अथर्ववेद काण्ड-११, सूक्त-३, मन्त्र संख्या-३ पर दृष्टिपात कीजिये। "चक्षुर्मुसल काम उलूखलम्" अर्थात् आंखें मूसल हैं तो कामनाएं ओखली है। काव्यतीर्थ पं० बिहारीलाल शास्त्री के दृष्टान्त सागर के प्रसङ्ग से हंसते-हंसते इस मन्त्र का अर्थ समझ में सहज ही आ जाता है। चार मूर्खों ने परामर्श किया कि राजा भोज एक कविता पर एक लाख रुपए का पारितोषिक देते हैं। चलो हम सब मिलकर एक कविता बनाएं और एक लाख रुपए प्राप्त कर जीवन भर चैन से रहें। पहले ने देखा कि सामने रहट से सिंचाईं हो रही है, उसकी आवाज को सुनकर उसने कविता की पहली पंक्ति बना दी- 'रहटा घनर घनर धन्नाय।' दूसरे ने देखा कि सामने कोल्हू का बैल खड़ा-खड़ा भूसा खा रहा है। उसने भी अपनी पंक्ति बना दी- 'कोल्हू का बैल खड़ा भूसा खाय।' तीसरे ने सामने तीर-तूणीर बांधे हुए एक सैनिक को देखा और बो

स्वामी श्रद्धानन्दजी की कलम से- रक्षाबन्धन का संदेश

स्वामी श्रद्धानन्दजी की कलम से- रक्षाबन्धन का संदेश ['रक्षाबन्धन' पर्व पर विशेष रूप से प्रकाशित] माता का पुत्र पर जो उपकार है उसकी संसार में सीमा नहीं। यही कारण है कि हर समय और हर देश में मातृशक्ति का स्थान अन्य शक्तियों से ऊंचा समझा जाता है। जहां ऐसा नहीं है वहां सभ्यता और मनुष्यता का अभाव समझा जाता है। जब वह मातृशक्ति ऊंचे स्थान पर रहती है तो वह श्रद्धा और भक्ति की अधिकारिणी होती है। और जब वह बराबरी पर आती है तो बहन के रूप में भाई पर प्रेम और रक्षा के अन्य साधारण अधिकार रखती है। एक सुशिक्षित सभ्य देश में देश की माताएं पूजी जाती हैं, बहनें प्रेम और रक्षा की अधिकारिणी समझी जाती हैं और पुत्रियां भावी माताएं और भावी बहनें होने के कारण उस चिन्ता और सावधानता से शिक्षण पाती हैं, जो बालकों को भी नसीब नहीं होती। यह एक उन्नत और सभ्य जाति के चिन्ह हैं। भारत के स्वतन्त्र सुन्दर प्राचीन काल में माताओं, बहनों और पुत्रियों का यथायोग्य पूजन रक्षण और शिक्षण होता था। यही कारण था कि भारत की महिलाएं प्रत्युत्तर में पुरुषों को आशीर्वाद देती थीं, उन्हें नाम की अधिकारिणी बनाती

वैदिक युग का साकार चित्रण

वैदिक युग का साकार चित्रण लेखक- महामहोपदेशक पं० शांति प्रकाश, व्याख्यान वाचस्पति प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ दिन तथा रात्रि की भांति सृष्टि और प्रलय का प्रवाह अनादि काल से अनन्त काल तक चलता रहता है। जैसे दिन के पश्चात् रात्रि और रात्रि पश्चात् दिन का क्रम है तथा दिन से पूर्व रात्रि और रात्रि से पूर्व दिन था, इसी प्रकार ब्रह्म-दिन और ब्रह्म-रात्रि का क्रम है। इसी सृष्टि से पूर्व प्रलयकालीन रात्रि का तम था जिसमें कोई भी कार्य या दृश्य पदार्थ वर्तमान न था। केवल कारणरूप प्रकृति थी, जिसे शास्त्रों में अनिर्वचनीय और वेद में सदसत् कहा है। सत् कहने का कारण यह है कि प्रकृति परमाणुरूपेण विद्यमान थी। किन्तु उस समय सब कारोबार-व्यवहारादि का अभाव होने के कारण उसे 'असत्' भी कहा जा सकता है। इसीलिए वेद भगवान् ने कहा कि- न सदासीन्नासदासीत्तदाणीम्।। -ऋग्वेद ईश्वर ने अपनी ईक्षण शक्ति से प्रकृति को कार्यरूप में परिणत करके अनेक रूप बना दिया, जिससे इस सारे संसार- सूर्य, चन्द्रमा, पृथिवी आदि प्रकाशमय तथा अप्रकाशमय लोक-लोकान्तरों की रचना हुई। यो अन्तरिक्षे रजसो विमान:।। -ऋग्वेद ईश्वर अन्

आध्यात्मिकता

आध्यात्मिकता लेखक- महात्मा नारायण स्वामी प्रस्तुति- दीपक हाडा, प्रियांशु सेठ संसार के अधिकतर मनुष्य आध्यात्मिकता को अच्छा समझते हैं, परन्तु बहुत थोड़े मनुष्य ऐसे मिलेंगे जो शब्द को अच्छा मानने के साथ इनका प्रायोजन भी समझते हैं। मानव का बाह्य भाग शरीर है तथा भीतरी भाग आत्मा, अत: आध्यात्मिकता शब्द ही (जो आत्मा से सम्बन्धित है) यह स्पष्ट करता है कि आध्यात्मिकता का प्रयोजन मनुष्य के बाह्य रुप से सम्बन्धित नहीं हो सकता, प्रत्युत इसका सम्बन्ध भीतरी भाग से है। रूह (आत्मा) को हम गुणी तथा रुहानियत (आध्यात्मिकता) को गुण कह सकते हैं। आध्यात्मिकता का प्रायोजन self study (आत्म-स्वाध्याय) है। मनुष्य जब बाहर न देखकर अपने भीतर देखता है और अपनी ही स्थिति पर विचार करता है, तभी उसको यह योग्यता प्राप्त होती है कि वह अपनी की हुई बुराई-भलाई पर निःस्वार्थ भाव से  निष्पक्षता से दृष्टि डाल सके। मानो वह किसी अन्य के खरे-खोटे कर्मों का अवलोकन कर रहा है। इस योग्यता का नाम आध्यात्मिकता है। बहुत-से मनुष्य ऐसे होते हैं जो पाप करके उसको छुपाया करते हैं और डरते रहते हैं कि उनकी पोल न खुल जाय। कुछ ऐसे व्यक्

अन्धविश्वास के पोषक तुलसीदास

अन्धविश्वास के पोषक तुलसीदास लेखक- प्रियांशु सेठ हिन्दी साहित्य में तुलसीदास का नाम एक आदर्शपूर्ण पद पर अंकित है। कहा जाता है कि पुरातन परम्परा को उजागर करने में तुलसीदास ने विशेष योगदान दिया था। अपने जीवन के सम्पूर्ण अनुभवों के सहारे इकहत्तर वर्ष की अवस्था में उन्होंने ‘रामचरितमानस’ का प्रणयन किया था। रामचरितमानस को हिन्दू समाज में स्थान विशेष प्राप्त होने के कारण कालान्तर में यह 'तुलसी-रामायण' के नाम से प्रख्यात है तथा पौराणिक समाज इसे अपनी सनातन संस्कृति की छवि मानता है। इसी रामचरितमानस को रामानन्द सागर ने 'रामायण' नाम देकर अपने टीवी सीरियल में दर्शकों को रामराज्य का वर्णन दिखाया था। तुलसीदासकृत यह ग्रन्थ पुरुषोत्तम श्रीराम के समकालीन न होने के कारण प्रमाणिक तथा विश्वसनीय नहीं है, यह बात पौराणिक पण्डित जानते हुए भी इसकी प्रशंसा के पुल बांधने शुरू कर दिए। परिणामस्वरूप जन सामान्य अपनी वैदिक संस्कृति, सभ्यता व परम्पराओं से भटकती चली गई और आज अकर्मण्यता के सागर में गोते लगा रही है। नीर-क्षीर विवेकी परमहंस स्वामी दयानंद सरस्वतीजी ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ