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संस्कृत भाषा का महत्त्व और उसका शिक्षण



संस्कृत भाषा का महत्त्व और उसका शिक्षण

लेखक- डॉ० भवानीलाल भारतीय
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ, डॉ० विवेक आर्य
सहयोगी- डॉ० ब्रजेश गौतमजी

स्वामी दयानन्द संस्कृत भाषा के प्रचार प्रसार को स्वदेश की उन्नति के लिए अत्यावश्यक समझते थे। उनका यह सत्य विश्वास था कि भारत की प्राचीन परम्परा और संस्कृति संस्कृत साहित्य में सुरक्षित है। आर्यों के प्राचीन धर्म, दर्शन, अध्यात्म तथा जीवन दर्शन को यदि समझना हो तो संस्कृत का ज्ञान होना अपरिहार्य है। उन्होंने स्वयं तो संस्कृत का प्रचार किया ही, अन्यों को भी इस कार्य में प्रवृत्त होने के लिए कहा। स्वामीजी ने जब इस देश में जन्म लिया उस समय यहां विदेशी अंग्रेजों का राज्य था। राज कार्य की भाषा अंग्रेजी थी और उर्दू-फ़ारसी का प्रचलन पढ़े लिखे लोगों में अधिक था। संस्कृत का अध्ययन ब्राह्मणों तक सीमित रह गया था और उनमें भी मात्र काम चलाऊ संस्कृत ज्ञान को ही पर्याप्त समझा जाता था जो पौरोहित्य कर्म में उनका सहायक होता। ऐसी स्थिति में संस्कृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन तथा प्रचार-प्रसार के लिए बद्ध परिकर होना, स्वामी दयानन्द की एक महती देन थी।

आदिम सत्यार्थप्रकाश (१८७५) के १४वें समुल्लास के अन्त में उन्होंने एक विस्तृत विज्ञापन परिशिष्ट रूप में दिया था जिसमें संस्कृत भाषा का महत्त्व, स्वल्प आत्म वृतान्त तथा कुछ अन्य उपयोगी विषयों का समावेश था। इस परिशिष्ट (विज्ञापन) का आरंभ वे इन पंक्तियों से करते हैं- "इससे मेरा यह विज्ञापन है आर्यावर्त का राजा इंगरेज बहादुर से कि संस्कृत विद्या की ऋषि-मुनियों की रीति से प्रवृत्त करावे। इससे राजा और प्रजा को अनन्त सुख लाभ होगा और जितने आर्यावर्तवासी सज्जन लोग हैं उनसे भी मेरा कहना है कि इस सनातन संस्कृत विद्या का उद्धार अवश्य करें, ऋषि मुनियों की रीति से, अत्यन्त आनन्द होगा और जो संस्कृत विद्या लुप्त हो जायेगी तो सब मनुष्यों की बहुत हानि होगी इसमें कुछ सन्देह नहीं।" (भाग १, पृ० ३५-३६)
यहां यह बात ध्यातव्य है कि स्वामीजी को ऋषि मुनियों की शैली से ही संस्कृत का पठन-पाठन इष्ट था। अर्थात् वे आर्ष ग्रन्थों के प्रचार-प्रसार को मानव के लिए हितकारी मानते थे और व्याकरण के अध्ययन में महर्षि पाणिनि तथा पतंजलि कृत अष्टाध्यायी तथा महाभाष्य के अध्ययन की उपयोगिता को आवश्यक समझते थे। अनार्ष ग्रन्थों की सहायता से संस्कृत का सम्यक् बोध नहीं होता यह उनका ध्रुव निश्चय था। इसी विज्ञापन में आगे वे लिखते हैं- "परन्तु आर्यावर्त देश की स्वाभाविक सनातन विद्या संस्कृत ही है जो कि उक्त प्रकार से प्रथम कही, उसी (रीति) से इस देश का कल्याण होगा अन्य देश भाषा से नहीं। अन्य देश भाषा तो जितना प्रयोजन हो उतना ही पढ़नी चाहिए और विद्या स्थान में संस्कृत ही रखना चाहिए।" (भाग १, पृ० ४२)

संस्कृत की शिक्षा सुगम रीति से आर्ष पद्धति को अपनाने से ही हो सकती है और इसके लिए पाणिनीय शास्त्र के ज्ञान को स्वामीजी आवश्यक समझते थे। उन्होंने स्वयं अष्टाध्यायी का सुगम संस्कृत और हिन्दी में भाष्य लिखने का विचार किया और इसके बारे में एक विज्ञापन प्रकाशित कराया। इस विज्ञापन में उन्होंने स्पष्ट लिखा कि संस्कृत विद्या की उन्नति सर्वथा अभीष्ट है और यह व्याकरण बिना नहीं हो सकती। संस्कृत के प्रचलित कौमुदी, चन्द्रिका, सारस्वत, मुग्धबोध और आशु बोध आदि ग्रन्थों को वे संस्कृत शिक्षण में अपर्याप्त समझते थे क्योंकि इनसे वैदिक विषय का यथावत् ज्ञान नहीं होता। अतः उस विज्ञापन में उन्होंने स्पष्ट किया कि- "वेद और प्राचीन आर्ष ग्रन्थों के ज्ञान के बिना किसी को संस्कृत विद्या का यथार्थ फल नहीं हो सकता।" (भाग १, पृ० १४२)

संस्कृत का आर्ष रीति से शिक्षण कराने के लिए स्वामीजी ने भिन्न-भिन्न स्थानों पर संस्कृत पाठशालाओं की स्थापना की। उनके द्वारा फर्रूखाबाद में सर्वप्रथम ऐसी पाठशाला स्थापित की गई और वहां के धनी-मानी, सम्पन्न सेठ-साहूकारों को इसके संचालन का भार सौंपा गया। स्वामीजी का प्रयोजन तो इन शालाओं के द्वारा प्राचीन संस्कृत भाषा तथा आर्ष वाङ्मय का पुनरुद्धार करना था किन्तु हुआ इसके विपरीत। प्रचलित रीति के अनुसार इन विद्यालयों में भी संस्कृत अध्यापन को गौण कर दिया गया और अंग्रेजी आदि के पठन-पाठन को महत्त्व मिलने लगा। जब स्वामीजी को यह समाचार मिला तो वे अत्यन्त खिन्न हुए और शिकायत के लहज़े में सेठ निर्भयराम को लिखा- "कालीचरण रामचरण के पत्र से विदित हुआ कि आप लोगों की पाठशाला में संस्कृत का प्रचार बहुत कम और अन्य भाषा अंग्रेजी व उर्दू-फ़ारसी अधिक पढ़ाई जाती है। उससे वह अभीष्ट जिसके लिए यह शाला खोली गई है सिद्ध होता नहीं दीखता। वरन् आपका यह हजारहा मुद्रा का व्यय संस्कृत की ओर से निष्फल होता भासता है।... आप लोग देखते हैं कि बहुत काल से आर्यावर्त में संस्कृत का अभाव हो रहा है। वरन् संस्कृत रूपी मातृ भाषा की जगह अंग्रेजी लोगों की मातृभाषा हो चली है।" आगे वे लिखते हैं कि अंग्रेजी का प्रचार तो (ब्रिटिश) सम्राट् की ओर से ही हो रहा है क्योंकि वह आज के हमारे शासकों की मातृभाषा है। पुनः हम उसके लिए उद्योग क्यों करें? उन्हें इस बात का खेद है कि हमारी अति प्राचीन मातृभाषा संस्कृत का सहायक वर्तमान में कोई नहीं है। पत्र में आगे उन्होंने सेठ निर्भयराम को निर्देश दिया है कि आगे से पढ़ाई के छः घण्टों में संस्कृत को तीन घण्टे मिले, अंग्रेजी को दो तथा उर्दू-फ़ारसी को एक घण्टा दिया जाए। वे इस बात पर भी जोर देते हैं कि छात्रों की संस्कृत में नियमित परीक्षा ली जाये और प्रश्नोत्तर (परीक्षा फल) उनके पास भेजा जाये। (भाग २, पृ० ५०१-५०२) उपर्युक्त पत्र से स्वामीजी की संस्कृति विषयक चिन्ता सुस्पष्ट हो जाती है। फर्रूखाबाद के बाबू दुर्गाप्रसाद को लिखे अपने पत्र में भी वे संस्कृत के बारे में ताकीद करना नहीं भूले। यहां लिखा, "पाठशाला में संस्कृत का काम ठीक ठीक होना चाहिए।... इस पाठशाला में मुख्य संस्कृत जो मातृ भाषा है उसकी ही वृद्धि होनी चाहिए। वरन् फ़ारसी का होना कुछ अवश्य (आवश्यक) नहीं। केवल संस्कृत और राजभाषा अंग्रेजी दो ही का पठन-पाठन होना अवश्य (आवश्यक) है।" (भाग २, पृ० ५०४-५०५) स्वस्थापित संस्कृत पाठशालाओं से यदि संस्कृत शिक्षा के लक्ष्य की पूर्ति नहीं होती तो वे उनको चलाये जाने के पक्ष में नहीं थे। बाबू दुर्गाप्रसाद को लिखे एक अन्य पत्र में उन्होंने पूछा है कि "पाठशाला में संस्कृत पढ़ के कितने विद्यार्थी समर्थ हुए। अथवा अंग्रेजी-फ़ारसी में ही व्यर्थ धन जाता है सो लिखो। जो व्यर्थ ही हो तो क्यों पाठशाला खोली जाए।" (भाग २, पृ० ६२५) स्वामीजी के पत्रों से उपर्युक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे आजीवन संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार में लगे रहे। सामान्यजनों को ही नहीं, यहां के राजा-महाराजाओं को भी अपने राजकुमारों को संस्कृत पढ़ाने का निर्देश, उपदेश उन्होंने दिया।

संस्कृत पाठशालाओं की स्थापना
आर्ष पाठ विधि से संस्कृत की शिक्षा देनी उचित है, इस मान्यता के कारण स्वामी दयानन्द ने कुछ नगरों में संस्कृत पाठशालाएं स्थापित कीं। उनका विचार था कि इन पाठशालाओं में शिक्षा प्राप्त छात्र पौराणिक कट्टरता से मुक्त होंगे तथा भावी जीवन में वैदिक विचारधारा तथा आर्य सिद्धान्तों को अपना कर समाज के उत्थान हेतु कार्य करेंगे। जिस पाठ विधि का प्रचलन वे अपनी पाठशालाओं में करना चाहते थे उसकी विस्तृत रूपरेखा उन्होंने सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में लिख दी थी। सर्वप्रथम फर्रूखाबाद में सेठ पन्नीलाल की आर्थिक सहायता से स्थापित संस्कृत पाठशाला से उन्होंने अपनी उपर्युक्त योजना का क्रियान्वयन करना चाहा। उन्हें यह उचित लगा कि विरजानन्द की पाठशाला में जिन छात्रों ने अध्ययन किया है वे आर्ष व्याकरण में निष्णात हैं और यदि उन्हें इन शालाओं में अध्यापक नियुक्त किया जाता है तो वे अवश्य ही छात्रों को आर्ष व्याकरण तथा ऋषि-मुनियों द्वारा लिखे गए अन्य शास्त्रों एक अध्ययन करायेंगे।

फर्रूखाबाद की पाठशाला के लिए उनका ध्यान अपने सहपाठी तथा व्याकरण के अद्वितीय विद्वान् पं० गंगादत्त शर्मा (चौबे) की ओर गया। उन्होंने १ सितम्बर १८७० को एक पत्र संस्कृत में लिख कर मथुरा भेजा। पत्र फर्रूखाबाद से भेजा गया था। पत्र के आरम्भ में 'स्वस्ति' के उल्लेख के साथ गंगादत्त शर्मा को दयानन्द सरस्वती स्वामी का आशीर्वाद निवेदन किया गया था। पत्र में उन्हें शीघ्र फर्रूखाबाद आकर पाठशाला का कार्य सम्भालने के लिए कहा गया था। प्रतिदिन एक रौष्य मुद्रा (मासिक तीन रुपये) वेतन निश्चित किया गया तथा भविष्य में तरक्की कर देने की भी बात कही गई थी। यहां आने को स्वामीजी ने सर्व प्रकार से शोभन बताया तथा इसमें विलम्भ न करने के लिए कहा। साथ ही यह भी लिखा कि अध्यापन कार्य में सहायक अष्टाध्यायी, महाभाष्य, धातु पाठ, उणादि पाठ, वार्तिक पाठ, परिभाषापाठ, गणपाठ आदि ग्रन्थ वे साथ लेते आयें। इनके साथ ही वेद की पुस्तकें भी लायें। स्वामीजी ने तो मार्ग व्यय के लिए पं० गंगादत्त को दस रुपये भी भेजे थे किन्तु किसी वैयक्तिक समस्या के कारण ये पण्डितजी फर्रूखाबाद नहीं आये और स्वामीजी के भेजे रुपये लौटा दिये। (मूल पत्र के लिए भाग- १, पृ० ७-८ देखें)

विद्या की नगरी काशी में भी स्वामीजी ने संस्कृत पाठशाला स्थापित की थी। जीवन-चरितों से पता लगता है कि इस पाठशाला के लिए जनता से धन एकत्र करने के लिए स्वामीजी ने कानपुर निवासी बाबू शिवसहाय को नियुक्त किया था। २९ मई १८७४ को काशी से भेजे एक पत्र में स्वामीजी ने उक्त सज्जन को काशी की पाठशाला की स्थिति से अवगत कराया- "यहां की पाठशाला का प्रबन्ध बहुत अच्छा है। एक छ: शास्त्रों का पढ़ाने वाला बहुत उत्तम अध्यापक रखा गया है। वैसा ही एक वैयाकरण स्थापन किया गया है। दशाश्वमेध घाट पर स्थान लिया गया है बहुत उत्तम। केदारघाट का स्थान अच्छा नहीं था।" (भाग १, पृ० ३३)

आर्य विद्यालय काशी की स्थापना दिसम्बर १८७३ में केदारघाट पर हुई थी। १९ जून १८७४ को इसे मित्रपुर भैरवी मौहल्ला में मिश्र दुर्गाप्रसाद के स्थान पर ले आया गया। कविवचनसुधा (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के सम्पादन में काशी से प्रकाशित मासिक) तथा बिहारबंधु के अंकों में विद्यालय की व्यवस्था सम्बन्धी एक विज्ञापन क्रमशः २० जून १८७४ तथा २८ जून १८७४ के अंकों में छपा। इस विज्ञापन में निम्न बातें विशेष उल्लेखनीय थीं-

१. पठन-पाठन का समय प्रातः दस-ग्यारह तक तथा मध्यान्ह में १ बजे से ५ बजे तक होगा।
२. अध्यापक होंगे पं० गणेश श्रोत्रिय।
३. छहों दर्शन, ईश से लेकर बृहदारण्यक पर्यन्त दस उपनिषद्, मनुस्मृति, कात्यायन और पारस्कर के गृह्य सूत्र, पश्चात् चारों वेद, उपवेद तथा ज्योतिष आदि वेदांग पढ़ाये जायेंगे।
४. परीक्षा में उत्तम अंक प्राप्त करने वाले छात्र पारितोषिक प्राप्त करेंगे।
५. छात्रों की मासिक परीक्षा होगी। त्रैवर्णिक छात्र वेद पढ़ सकेंगे। मन्त्र भाग छोड़ कर शूद्र सब शास्त्र पढ़ेंगे।
विज्ञापन के अन्त में आशा व्यक्त की गई थी कि इससे ही आर्यावर्त देश की उन्नति होगी। (भाग १, पृ० ३०-३५)

स्वामीजी ने बड़ी आशाएं लेकर संस्कृत पाठशालाओं की स्थापना की थी, किन्तु उनके स्वप्न साकार नहीं हुए। इन पाठशालाओं की असफलता के अनेक कारण थे। प्रथम तो आर्ष पाठ विधि से पढ़ाने वाले योग्य अध्यापकों का अभाव था। स्वामीजी ने इस कमी को अपने सहपाठियों को अध्यापक नियुक्त कर दूर करना चाहा किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। पं० उदयप्रकाश तथा पं० युगलकिशोर (दोनों सहपाठी) क्रमशः फर्रूखाबाद की पाठशालाओं में अध्यापक बनाये गए, किन्तु ये लोग छोड़ कर चले गये। योग्य छात्रों का न मिलना भी शालाओं की असफलता का एक कारण बना। अधिकांश छात्र संस्कृत पढ़कर पौराहित्य तथा फलित ज्योतिष के द्वारा जीवनयापन करने के उद्देश्य से इन शालाओं में आते थे। किन्तु स्वामी दयानन्द द्वारा निर्धारित पाठ विधि से प्रशिक्षित छात्र न तो पौराणिक कर्मकाण्ड (गणेश पूजन, नवगृह पूजन, मंदिरों में पुजारी का कार्य, श्राद्ध में भोजन, पौराणिक और्ध्व-दैहिक कृत्य आदि) ही करा सकते थे और न फलित ज्योतिष को अपना सकते थे। अतः इन पाठशालाओं के लिए उनका आकर्षण कम ही रहा। पुनः इसके संचालन में भी त्रुटियां होती रहीं। स्वामीजी पाठशाला स्थापित कर उसका संचालन स्थानीय सेठ-साहूकारों तथा वहां के गणमान्य व्यक्तियों के सुपुर्द कर देते। ये लोग आगे चलकर शाला प्रबन्धन से दूर हट जाते अथवा उसमें कम दिलचस्पी लेते। स्वामीजी तो सतत भ्रमण में रहते थे इसलिए किसी एक स्थान पर टिक कर वहां की पाठशाला का प्रबन्ध देखना उनके लिए सम्भव नहीं था। इन्हीं कारणों से स्वामीजी द्वारा स्थापित ये पाठशालाएं धीरे-धीरे बन्द हो गईं। ७ मार्च १८७४ को लिखे एक पत्र से ज्ञात होता है कि अध्यापकों के प्रमाद से पाठशाला में छात्र कम हो रहे थे। इस पत्र में लिखा है- "हमको अनुमान से ज्ञात है कि युगलकिशोर से पढ़ाया नहीं गया होगा... जो ऐसे ऐसे विद्यार्थी चले जायेंगे तो पढ़ाने वाले की त्रुटि गिनी जायेगी।" (भाग १, पृ० ३२)
निश्चय ही आर्ष पाठ विधि की इन पाठशालाओं का बन्द हो जाना एक दुःखान्तिका थी।

पाद टिप्पणियां:
१. सिद्धान्त कौमुदी आदि व्याकरण के अनार्ष ग्रन्थों के प्रचलन के कारण पाणिनीय तथा पातञ्जल आर्ष प्रणाली का ह्रास हो गया था। यह कहा जाने लगा कि संस्कृत व्याकरण के ज्ञान के लिए कौमुदी ही पर्याप्त है, महाभाष्य का अध्ययन व्यर्थ है-
कौमुदी यदि कण्ठस्था वृथा भाष्ये परिश्रम:।
कौमुदी यद्यकण्ठस्था वृथा भाष्ये परिश्रम:।।

२. पं० गंगादत्त का व्याकरण ज्ञान अद्वितीय था। इनके बारे में निम्न श्लोक प्रसिद्ध था-
पलायध्वं पलायध्वं भो भो दिग्गज तार्किका:।
गंगादत्त समायातो वैयाकरण केसरि:।।
हे दिग्गज तार्किको, तुम भाग जाओ। नहीं जानते, तुम्हारे समक्ष वैयाकरण-केसरी आ गया है।

३. पं० शिवकुमार शास्त्री को इस पाठशाला में २५ रुपये मासिक पर अध्यापक रखा गया। वे यहां व्याकरण पढ़ाते थे। इनका वेद का ज्ञान पर्याप्त नहीं था। इसलिए इन्हें हटा कर पं० गणेश श्रोत्रिय को १५ रुपये मासिक पर वेद का अध्यापक नियत किया गया। (भाग ४ पृ० ६६३)

४. पं० उदयप्रकाश स्वामीजी के वरिष्ठ सहपाठी थे। किन्तु उनके विचार सदा पौराणिक ही रहे। फर्रूखाबाद की पाठशाला में रहते हुए उन्होंने छात्रों को स्वामीजी के विरोध में यह कह कर भड़काना चाहा कि यह तो 'मुण्डा बाबा' है। इसके बताये मार्ग पर चलने से तुम्हें पौरोहित्य वृत्ति (पुजारी का व्यवसाय, श्राद्धों में जाकर घर-घर जीमना आदि) से हाथ धोना पड़ेगा। जब स्वामीजी को पं० उदयप्रकाश की इन बातों की जानकारी मिली तो उन्होंने सहज भाव से इतना ही कहा- "सोटा, लंगोटा वाला मुण्डा बाबा बोलता है सो तो पहले भी (मथुरा की पाठशाला में) बोलता था। मेरा सहपाठी है। लेकिन वेदोक्त धर्म के विरुद्ध बोलता है और पोप (पाखण्ड मत-पौराणिक धर्म) धर्म का प्रचार करता है, सो ठीक नहीं।"

५. स्वामीजी द्वारा स्थापित पाठशालाओं के लिए द्रष्टव्य- पत्र व्यवहार का चतुर्थ भाग (छठा परिशिष्ट पृ० ६५५-६६४) ये पाठशालाएं फर्रूखाबाद, मिर्जापुर, कासगंज (जिला एटा), छलेसर (जिला अलीगढ़), बनारस तथा लखनऊ में थीं।

[स्त्रोत- स्वामी दयानन्द सरस्वती के पत्र-व्यवहार का विश्लेषणात्मक अध्ययन]

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