Skip to main content

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर



मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर

प्रियांशु सेठ

हमारे पौराणिक भाइयों का कहना है कि मूर्तिपूजा प्राचीन काल से चली आ रही है और तो और वेदों में भी मूर्ति पूजा का विधान है। ईश्वरीय ज्ञान वेद में मूर्तिपूजा को अमान्य कहा है। कारण ईश्वर निराकार और सर्वव्यापक है। इसलिए सृष्टि के कण-कण में व्याप्त ईश्वर को केवल एक मूर्ति में सीमित करना ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव के विपरीत है। वैदिक काल में केवल निराकार ईश्वर की उपासना का प्रावधान था।

वेद तो घोषणापूर्वक कहते हैं-

न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः।
हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः।। -यजु० ३२/३

शब्दार्थ:-(यस्य) जिसका (नाम) प्रसिद्ध (महत् यशः) बड़ा यश है (तस्य) उस परमात्मा की (प्रतिमा) मूर्ति (न अस्ति) नहीं है (एषः) वह (हिरण्यगर्भः इति) सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों को अपने भीतर धारण करने से हिरण्यगर्भ है। (यस्मात् न जातः इति एषः) जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा जो प्रसिद्ध है।

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।। -यजु० ४०/८

भावार्थ:-वह सर्वशक्तिमान्, शरीर-रहित, छिद्र-रहित, नस-नाड़ी के बन्धन से रहित, पवित्र, पुण्य-युक्त, अन्तर्यामी, दुष्टों का तिरस्कार करने वाला, स्वतःसिद्ध और सर्वव्यापक है। वही परमेश्वर ठीक-ठीक रीति से जीवों को कर्मफल प्रदान करता है।

यद् द्याव इन्द्र ते शतं शतं भूमिरुत स्युः।
न त्वा वज्रिन्सहस्रं सूर्या अनु न जातमष्ट रोदसी।। -अथर्व० २०/८१/१

भावार्थ:-सैंकड़ों आकाश ईश्वर की अनन्तता को नहीं माप सकते। सैकड़ों भूमियाँ उसकी तुलना नहीं कर सकतीं। सहस्रों सूर्य, पृथिवी और आकाश भी उसकी तुलना नहीं कर सकते।

उपनिषदों में भी ईश्वर को निराकार बताया गया है। यहां उपनिषदों से भी प्रमाण प्रस्तुत करना उचित समझता हूं-

एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।। -श्वेता० ६/११

भावार्थ:- एक परमात्मा ही सब पदार्थों में छिपा हुआ है। वह सर्वव्यापक है और सब प्राणियों का अन्तरात्मा है। वही कर्मफल प्रदाता है। सब पदार्थों का आश्रय है। वही सम्पूर्ण संसार का साक्षी है, वह ज्ञानस्वरुप, अकेला और निर्गुण-सत्व, रज और तमोगुण से रहित है।

दिव्योह्यमूर्त: पुरुष सः बाह्यान्यन्तरो ह्यजः।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्परतः पर:।। -मुण्डक० २/१/२

अर्थात् वह परमेश्वर अमूर्त, अन्दर-बाहर व्यापक, अजन्मा, प्राण-रहित, मन-रहित, शुद्ध (पूर्ण ज्ञानी - सर्वज्ञ) तथा अत्यन्त सूक्ष्म है।

सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य सृष्टारमनेकरुपम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति।। -श्वेता० ४/१४

परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, हृदय के मध्य में विराजमान है, अखिल विश्व की रचना अनेक रूपों में करता है। वह अकेला अनन्त विश्व में सब ओर व्याप्त है। उसी कल्याणकारी परमेश्वर को जानने पर स्थाई रूप से मानव परम शान्ति को प्राप्त होता है।

अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो ने शोचति।। -कठो० १/२/२२

वह परमात्मा लोगों के शरीर में रहते हुए भी स्वयं शरीररहित है, बदलनेवाली वस्तुओं में एकरस है। उस महान् विभु आत्मा को जानकर धीर पुरुष शोकमुक्त हो जाते हैं।

अब प्रश्न ये उठता है कि इस देश में मूर्तिपूजा कब प्रचलित हुई और किसने चलाई?

महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश के एकादश समुल्लास में प्रश्नोत्तर रूप में इस सम्बन्ध में लिखते हैं-
"प्रश्न- मूर्तिपूजा कहाँ से चली?
उत्तर- जैनियों से।
प्रश्न- जैनियों ने कहां से चलाई?
उत्तर- अपनी मूर्खता से।"

पण्डित जवाहरलाल नेहरू के अनुसार, मूर्तिपूजा बौद्धकाल से प्रचलित हुई। वे लिखते हैं-
"यह एक मनोरंजन विचार है कि मूर्तिपूजा भारत में यूनान से आई। वैदिक धर्म हर प्रकार की मूर्ति तथा प्रतिमा-पूजन का विरोधी था। उस काल (वैदिकयुग) में देवमूर्तियों के किसी प्रकार के मन्दिर नहीं थे।...प्रारम्भिक बौद्धधर्म इसका घोर विरोधी था...पीछे से स्वयं बुद्ध की मूर्तियां बनने लगीं।

फारसी तथा उर्दू भाषा में प्रतिमा अथवा मूर्ति के लिए अब भी बुत शब्द प्रयुक्त होता है जो बुद्ध का रूपान्तर है।"
(सन्दर्भ- हिन्दुस्तान की कहानी, पृ०१७२)

एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं-
"ग्रीस और यूनान आदि देशों में देवताओं की मूर्तियां पुजती थीं। वहां से भारत में मूर्तिपूजा आई। बौद्धों ने मूर्तिपूजा आरम्भ की। फिर अन्य जगह फैल गई।"
(सन्दर्भ- विश्व इतिहास की झलक, पृ०६९४)

इन उद्धरणों से इतना निश्चित है कि मूर्तिपूजा जैन-बौद्धकाल से आरम्भ हुई। जिस समय भारत में मूर्तिपूजा आरम्भ हुई और लोग मन्दिरों में जाने लगे तो भारतीय विद्वानों ने इसका घोर खण्डन किया। मूर्तिपूजा के खण्डन में उन्होंने यहां तक कहा-

गजैरापीड्यमानोअपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम्। -भविष्य० प्रतिसर्गपर्व ३/२८/५३
यदि हाथी मारने के लिए दौड़ा आता हो और जैनियों के मन्दिर में जाने से प्राणरक्षा होती हो तो भी जैनियों के मन्दिर में नहीं जाना चाहिए।

ब्राह्मणों, उपदेशकों और विद्वानों के कथन का साधारण जनता पर कोई प्रभाव न पड़ा तो उन लोगों ने भी मन्दिरों का निर्माण किया। जैनियों के मन्दिरों में नग्न मूर्तियां होती थीं, इन मन्दिरों में भव्यवेश में भूषित हार-श्रृंगारयुक्त मूर्तियों की स्थापना और पूजा होने लगी। पूजा करनेवाले पूजारि कहलाये।

पूजारि का अर्थ है- पूजा+अरि अर्थात् पूजा एक शत्रु। पूजारि सचमुच पूजा का शत्रु है।
आइये आपके समक्ष एक छोटी-सी कहानी प्रस्तुत करता हूं जिसे पढ़कर आपमें समझदारी तो आएगी ही साथ-ही-साथ मूर्तिपूजा के प्रति आपके मन में विभिन्न प्रश्न भी आने लगेंगे और आप ये साकार मूर्ति को न मानकर निराकार ईश्वर के उपासक बनेंगे।

एक बार किसी युवक ने पूजारिजी से कहा- "आप तो मूर्तिपूजा का खण्डन करते थे अब स्वयं ही पूजना आरम्भ कर दिया। यह क्या बात है?" पूजारिजी ने कहा- "मैं तो पूजा का शत्रु ही हूँ। कल प्रातः काल आना समझाऊँगा।"
दूसरे दिन युवक मन्दिर में पहुंचा। प्रातः काल का समय था। सूर्योदय हो चुका था। सूर्य के प्रकाश में पूजारिजी ने एक दीपक प्रज्ज्वलित किया जिसमें सात बत्तियाँ थीं। अपने हाथ में एक घण्टी ली। एक व्यक्ति को नगाड़ा कौर दूसरे को घड़ियाल बजाने का आदेश दिया। पूजारिजी मूर्ति के समक्ष खड़े हुए और उस दीपक को मूर्ति के पैरों पर ले-जाकर उस युवक को दिखाने लगे और मौन भाषा में कहने लगे, ध्यानपूर्वक देखो यह पत्थर है। फिर वे उसे दीपक को हाथ के पास लाकर और हाथ को दिखाते हुए मौन भाषा में ही संकेत करने लगे कि ध्यानपूर्वक देख लो यह पत्थर ही है। पुनः वे उस दीपक को मूर्ति के मुख पर लाये। यदि कोई व्यक्ति सो रहा हो और उसकी आँखों पर तीव्र प्रकाश ले-जाया जाए तो उसकी आंखें कुछ-न-कुछ झपकेंगी। पूजारिजी मूर्ति की आंखों को दिखाते हुए कहता है-
"ध्यानपूर्वक देखो, यह पत्थर है।" फिर पूजारिजी मूर्ति के दूसरे हाथ पर दीपक ले-जाकर उसे भी दिखाते हैं और अन्त में पुनः पैरों पर आ जाते हैं। इस क्रिया को पूजारि एक-दो बार नहीं बल्कि सात बार दोहराता है और मौन उपदेश करते हुए कहता है- 'ध्यानपूर्वक देख लो यह ऊपर से नीचे तक पत्थर ही पत्थर है।' युवक सो न जाए, अतः एक ओर घड़ियाल और नगाड़ा बजा रहा है तो दूसरी ओर पूजारिजी स्वयं घण्टी बजा रहे हैं। युवक यह सब-कुछ देखकर भी हाथ जोड़े खड़ा है। अब पूजारि एक चुल्लू पानी लेकर उसके ऊपर फेंकता है और अपनी मौन भाषा में कहता है कि अब भी नहीं समझा तो एक चुल्लू पानी में डूब मर!"

इस प्रकार क्रियात्मक रूप में विद्वानों ने मूर्तिपूजा का घोर खण्डन किया।

स्वयं पुराणों में मूर्तिपूजा का घोर खण्डन किया गया है।
अरे भई! हां, ये सच है जब पुराणों में भी मूर्तिपूजा का खण्डन है तो तुम ऐसी मूर्खता क्यों कर रहे हो?
मैं प्रमाण दे रहा हूँ,
पुराणों में भागवत पुराण का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है, अतः सबसे पूर्व मैं उसी का प्रमाण दे रहा हूं-

यस्यात्मबुद्धि: कुणपे त्रिधातुके
स्वधी: कलत्रादिषु भौम इज्यधी:।
यत्तीर्थबुद्धि: सलिले न कर्हिचिज्।
जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखर:।। -श्रीमद्भागवत १०/८४/१३

जो वात,पित और कफ-तीन मलों से बने हुए शरीर में आत्मबुद्धि रखता है, जो स्त्री आदि में स्वबुद्धि रखता है, जो पृथिवी से बनी हुई पाषाण-मूर्तियों में पूज्य बुद्धि रखता है और जो पानी में ही तीर्थबुद्धि रखता है, ऐसा व्यक्ति गोखर-गौओं का चारा उठाने वाला गधा है।

न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामया:।
ते पुनन्त्यपि कालेन विष्णुभक्ता: क्षणादहो।। -देवी० भा० ९/७/४२

पानी के तीर्थ नहीं होते तथा मिट्टी और पत्थर के देवता नहीं होते। विष्णुभक्त तो क्षणमात्र में पवित्र कर देते हैं। परन्तु वे किसी काल में भी मनुष्य को पवित्र नहीं कर सकते।

अचक्षुरपि य: पश्यत्यकर्णेअपि शृणोति य:।
सर्वं वेत्ति न वेत्तास्य तमाहुः पुरुष: परम्।।८७।। -शिवपुराण वासुसंहिता अ० ४

बिना आंखों के भी वह देखता है, बिना कानों के भी सुनता है, वह सबको जानता है, उसको पूर्णतः जाननेवाला कोई नहीं है, उसको परम पुरुष कहा जाता है।

दर्शनों में भी मूर्तिपूजा का निषेध किया हुआ है। प्रमाण प्रस्तुत है-

न प्रतीके न हि स:। -वेदान्त ४/१/४

प्रतीक में, मूर्ति आदि में परमात्मा की उपासना नहीं हो सकती, क्योंकि प्रतीक परमात्मा नहीं है।

बात है भी ठीक! ईश्वर के स्थान पर अन्य की पूजा करना मूर्खता है। श्री कपिल देवजी की, जिन्हें सनातनी अवतार मानते हैं, स्पष्ट घोषणा है-

अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थित: सदा।
तमवज्ञाय मां मर्त्य: कुरुतेऽर्चाविडम्बनम्।।
यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम्
हित्वार्चां भजते मौढ्याद् भस्मन्येव जुहोति स:।। -श्रीमद्भा० ३/२९/२१,२२

मैं सर्व प्राणियों में जीवात्मा रूप में व्याप्त रहता हूं। जो मेरा अपमान करके मूर्तिपूजा करते हैं यह विडम्बना है। मैं सबकी देह में रहनेवाला हूँ। जो मनुष्य मुझे छोड़कर मूर्तियों की पूजा करते हैं वे अपनी अज्ञानता से राख में ही हवन करते हैं।

संसार के सभी महापुरुषों और सुधारकों ने भी मूर्तिपूजा का खण्डन किया है। श्री शंकराचार्यजी परापूजा में लिखते हैं-

पूर्णस्यावाहनं कुत्र सर्वाधारस्य चासनम्।
स्वच्छस्य पाद्यमर्घ्यं च शुद्धस्याचमनं कुत:।।

ईश्वर सर्वत्र परिपूर्ण है फिर उसका आह्वान कैसा? जो सर्वाधार है उसके लिए आसन कैसा? जो सर्वथा स्वच्छ एवं पवित्र है उसके लिए पाद्य और अर्घ्य कैसा? जो शुद्ध है उसके लिए आचमन की क्या आवश्यकता?

निर्लेपस्य कुतो गन्धं पुष्पं निर्वसनस्य च।
निर्गन्धस्य कुतो धूपं स्वप्रकाशस्य दीपकम्।।

निर्लेप ईश्वर को चन्दन लगाने से क्या? जो सुगन्ध की इच्छा से रहित है उसे पुष्प क्यों चढ़ाते हो? निर्गन्ध को धूप क्यों जलाते हो? जो स्वयं प्रकाशमान है उसके समक्ष दीपक क्यों जलाते हो?

वृद्ध चाणक्यजी ने मूर्तिपूजा को मूर्खों के लिए बताया है-

अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम्।
प्रतिमा स्वल्पबुद्धिनां सर्वत्र समदर्शिन:।। -चाणक्यनीति ४/१९

अग्निहोत्र करना द्विजमात्र (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) का कर्तव्य है। मुनि लोग हृदय में परमात्मा की उपासना करते हैं। अल्प बुद्धिवाले लोग मूर्तिपूजा करते हैं। बुद्धिमानों के लिए तो सर्वत्र देवता है।

कबीरदासजी ने इस पाखण्ड का खण्डन करते हुए कहा था-

पाहन पूजे हरि मिले तो हम पूजे पहार।
ताते तो चाकी भली पीस खाये संसार।।

दादूजी का कथन है-

मूर्त गढ़ी पाषाण की किया सृजन हार।
दादू साँच सूझे नहीं यूँ डूबा संसार।

एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है-

दादू दुनिया बावरी मरहठियाँ पूजें ऊत।
आप मुये जग छाँड़ उनसे माँगे पूत।।

मूर्तिपूजा की पद्धति ही गलत है। पाठक पूछ सकते हैं कैसे?
लीजिए, पढ़िये और मनन कीजिए-

एक नौजवान हनुमान्जी के मन्दिर में जाने लगा। प्रतिदिन हनुमान्जी के समक्ष दण्डवत् होकर दण्ड और बैठक लगाता, प्रार्थना करता और घर चला आता। हनुमान्जी की पूजा करते हुए छह मास व्यतीत हो गये परन्तु युवक की मन:कामना पूर्ण नहीं हुई। युवक के उदास मुखमण्डल को देखकर एक दिन पूजारिजी ने पूछा- "क्या बात है तुम्हारा मुखमण्डल प्रतिदिन मुरझाया जाता है?" युवक ने कहा- "क्या बात है, मेरी सगाई आती है और छूट जाती है। मैं मन्दिर में आकर प्रतिदिन हनुमान्जी से प्रार्थना करता हूँ कि कृपा करो जिससे मेरा विवाह शीघ्र सम्पन्न हो जाए।" यह सुनकर पूजारिजी ने कहा- "तुम्हारी पूजा की विधि ही गलत है। अरे! इसका तो स्वयं का विवाह नहीं हुआ, यह तुम्हारा विवाह कैसे करा सकता है?" अस्तु।

गुरु नानकदेवजी का उपदेश है-

पात्थर ले पूजहि मुगध गंवार।
ओहिजा आपि डुबो तुम कहा तारनहार।।

सन्त रैदासजी कहते हैं-

राम में पूजा कहाँ चढ़ाऊँ,
फल और फूल अनूप न पाऊँ
थन हर दूध जो बहरु झुटारी,
पहुप भँवर जल मीन बिगाड़ी।
मन ही पूजा मन ही धूप,
मन ही सेऊँ सहज स्वरूप।।

गुरु नानक देव जी की मूर्तिपूजा विषयक मत-

एके पाथर कीजे भाड
दूजे पाथर धरिये पाड
जे ओह देउता ओह भी देवा।
- राग गुजरी नाम देव
घर महि ठाकुर नदर न आवे,
गल महि पाहन लै लटकावे।
जिस पाहन कउ ठाकुर कहता।
ओह पाहन लै उसको डूबता।
गुनहगार, लूण हरामी।
पावन नाव न पार गिरामी
-राम सूही म ५ (गू अर्जुन)

जो पाथर को कहते देव
ताकि विरथा होव सेव
न पाथर बोले न किछ देइ।
फोकट धर्म निष्फल है सेव।
- राग भैरव म ५ (कबीर )

पाहन परमेश्वर किया पूजे सब संसार।
इस भावा से जो रहे बूडे काली धार। (कबीर)
माटी के कर देवी देवा
काट काट जीव देइया जी।
जो तुहरा हैं साचा देवा
खेत चरन क्यों न लेइया जी।
-कबीर बीजक पृष्ठ २२६ शब्द ७६

जल पीवे पाषाण धोय,
सोतो आदि अंत पाषाण होय।
आकाश शीस पाताल पाप,
सो संपुट में कैसे आप।
- रामस्नेही धर्म प्रकाश
पत्थर पूजियां हर न मिलेरे,
सब कोई पूजो जाय।
पूजो नी घररी घरटिया,
तब जग पीसर खाय।
- रामस्नेही धर्म प्रकाश

पत्थर पीजै घोय कर, पत्थर पूजे प्राण।
अंत काल पथर भए, बहु बूड़े इह ज्ञान।
-दादूजी १४०

पीतल ही का थाल हैं, पीतल का लोटा।
जड़ मूरत को पूजते, आवेगा टोटा।
पीतल चमचा पूजिए, जो खान परोसे।
जड़ मूरत किस काम की, मत रहो भरोसे।
- गरीबदास

इस प्रकार से अनेक उदहारण समाज सुधारकों जैसे आसाम के शंकरदेव, कर्णाटक में लिंगायत सम्प्रदाय के बसवा, नाथ सम्प्रदाय के गोरखनाथ आदि की लेखावली से पढ़ने में आते हैं जो कि मूर्तिपूजा का खंडन करते हैं।

किसी महात्मा ने कहा है-

पत्थर को तू भोग लगावे वह क्या भोजन खावे रे।
अन्धे आग दीपक बाले वृथा तेल जलावे रे।।


"मूर्ति जड़ है, उसे ईश्वर मानोगे तो ईश्वर भी जड़ सिद्ध होगा। अथवा ईश्वर के समान एक और ईश्वर मानो तो परमात्मा का परमात्मापन नहीं रहता। यदि यह कहो कि प्रतिमा में ईश्वर आ जाता है तो ठीक नहीं। इससे ईश्वर अखण्ड सिद्ध नहीं हो सकता। भावना में भगवान् है यह कहो तो मैं कहता हूँ कि काष्ठ-खण्ड में इक्षु-दण्ड की और लोष्ठ में मिश्री की भावना करने से क्या मुख मीठा हो सकता है? मृगतृष्णा में मृग जल की बहुतेरी भावना करता है परन्तु उसकी प्यास नहीं बुझती है। विश्वास,भावना और कल्पना के साथ सत्य का होना भी आवश्यक है। -दयानन्दप्रकाश,पृ० २६४

आर्यजगत् के सुप्रसिद्ध कवि स्वर्गीय नाथूराम शंकर एक बार एक शिव-मंदिर में पहुंचे। वहां कुछ साथियों ने कहा कि आप भी अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कीजिए। तब उन्होंने निम्न शब्दों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की-

शैल विशाल महीतल फाड़,
बढ़े तिनको तुम तोड़ कढ़े हो।
लै लुढ़की जलधार धड़ाधड़,
ने धर गोल मटोल गढ़े हो।।
गुणविहीन कलेवर धार विराज रहे,
न लिखे न पढ़े हो।
हे जड़ देव!शिलासुत शंकर!
भारत पै करि कोप चढ़े हो।।

यहां इतना और लिख देना आवश्यक है कि शिवलिंग शिवजी की मूत्रेन्द्रिय है। यही कारण है कि शिवलिंग पर चढ़े हुए पदार्थ अग्राह्य हैं।
शिवपुराण में कहा है-

लिंगोपरि च यद् द्रव्यं तदग्राह्यं मुनीश्वरा:।
सुपवित्रं च तज्ज्ञेयं यल्लिंगस्पर्शबाह्यत:।। -शि. विद्येश्वर संहिता २२/२०

हे मुनीश्वरो! लिंग पर जो पदार्थ चढ़ा दिया गया हो वह ग्रहण करने योग्य नहीं है। जिसका शिवलिंग से स्पर्श न हुआ हो वही वस्तु पवित्र है।

किसी उर्दू भाषा के कवि ने कहा है-

बुतपरस्तों का है दस्तूर निराला देखो।
खुद तराशा है मगर नाम खुदा रखा है।।

किसी अन्य कवि ने कहा है-

सच तो यह है खुदा आखिर खुदा और बुत हैं बुत।
सोच खुद मालूम होगा यह कहाँ और वह कहां।।

प्रायः सभी गीताओं में मूर्तिपूजा का खण्डन किया गया है। विस्तारभय से अधिक न लिखते हुए यहां केवल अवधूत गीता का एक श्लोक प्रस्तुत कर रहा हूं-

नावाहनं नैव विसर्जनं वा पुष्पाणि पत्राणि कथं भवन्ति।
ध्यानानि मन्त्राणि कथं भवन्ति समासमं चैव शिवार्चनं च।। -अवधूत गीता ४/१

दत्तात्रेयजी कहते हैं- "जब ईश्वर सर्वत्र व्यापक है तब उसका आवाहन और विसर्जन कैसे बना सकता है? जो शरीर रहित होने के कारण घ्राणेन्द्रिय आदि से रहित है उसे पत्र-पुष्प आदि समर्पण करना कैसे बन सकता है? जब उसका आवाहन और विसर्जन नहीं हो सकता तो उसका ध्यान और मन्त्र कैसे बन सकते हैं? प्राणिमात्र में एक आत्मा का दर्शन ही वस्तुतः शिवपूजन है।"

गांधी जी ने भी मूर्तिपूजा का निषेध किया है। वे लिखते हैं- "कुछ लोग सार्वजनिक स्थानों पर मेरी मूर्ति खड़ी करना चाहते हैं, कुछ तस्वीरें चाहते हैं और कई हैं जो जन्मदिन को आम छुटी का दिन बना देना चाहते हैं। मूर्ति, चित्र और ऐसी चीजें का आज दिन नहीं है। जिस एक प्रशंसा को मैं पसन्द करूंगा और कीमती समझूंगा वह तो उन प्रवृत्तियों में योगदान देना है, जिनमें मेरी जिन्दगी लग गई है। हर एक स्त्री-पुरुष जो साम्प्रदायिक मेल पैदा करने या अस्पृश्यता के कलंक को मिटाने या गांव का हित साधन करने का कोई एक भी काम करता है, वह मुझे सच्चा सुख और शान्ति पहुंचाता है।" -गांधी अभिनन्दन ग्रन्थ,पृष्ठ ७

कुछ प्रश्न व उत्तर सत्यार्थप्रकाश से प्रस्तुत कर रहा हूँ-

प्रश्न १. मूर्तिपूजा सीढ़ी है। मूर्तिपूजा करते-करते मनुष्य ईश्वर तक पहुंच जाता है।
उत्तर- मूर्तिपूजा परमात्मा-प्राप्ति की सीढ़ी नहीं है। हाँ, हिमालय पर्वत की प्राप्ति की सीढ़ी यह हो सकती है। सीढ़ी तो गन्तव्य स्थान पर पहुंचने के पश्चात छूट जाती है परन्तु हम देखते हैं कि एक व्यक्ति आठ वर्ष की अवस्था से मूर्तिपूजा आरम्भ करता है। और अस्सी वर्ष की अवस्था में मरते समय तक भी इस दलदल से निकल नहीं पाता।
एक बच्चा दूसरी कक्षा में पढ़ता है, उसे पांच और छह का जोड़ करना हो तो वह पहले स्लेट अथवा कापी पर पाँच लकीरें खेंचता है, फिर उनके पास छह लकीरें खेंचता है, उन्हें गिनकर वह ग्यारह जोड़ प्राप्त करता है। परन्तु तीसरी अथवा चौथी कक्षा में पहुंचने पर वह अंगुलियों पर गिनने लग सकता है और पांचवी-छठी में पहुंचकर वह मानसिक गणित से ही जोड़ लेता है। यदि मूर्तिपूजा सीढ़ी होती तो मूर्तिपूजक उन्नति करते-करते मन में ही ध्यान करने लग जाते परन्तु ऐसा होता नहीं, अतः महर्षि दयानन्दजी ने लिखा है-

"नहीं-नहीं, मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं किन्तु एक बड़ी खाई है जिसमें गिरकर (मनुष्य) चकनाचूर हो जाता है, पुनः इस खाई से निकल नहीं सकता किन्तु उसी में मर जाता है।" -सत्यार्थप्रकाश, एकादश समुल्लास

प्रश्न २. महाभारत में लिखा है कि एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर शस्त्र-विद्या सीखी थी, अतः मूर्तिपूजा में कोई दोष नहीं है।
उत्तर- प्रथम तो एक मूर्ख भील का कर्म ज्ञानियों के लिए अनुकरणीय नहीं हो सकता। दूसरे एकलव्य को शस्त्र-विद्या निरन्तर अभ्यास करने के कारण हस्तगत हुई थी। यदि सनातनियों का विचार है कि मूर्ति की पूजा से ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो उन्हें मूर्तियों से वेद पढ़कर दिखाना चाहिए।

प्रश्न ३. ईश्वर सर्वत्र व्यापक है, अतः वह मूर्ति में भी है, फिर उसकी पूजा करने में क्या दोष है?
उत्तर- निःसन्देह ईश्वर सर्वत्र व्यापक है, अतः वह मूर्ति में भी विद्यमान है, परन्तु उपासना वहां हो सकती है जहां उपासक और उपास्य दोनों विद्यमान हों। मूर्ति में ईश्वर तो है परन्तु आत्मा नहीं है, अतः मूर्ति में ईश्वर की उपासना नहीं हो सकती। ईश्वर की पूजा और उपासना तो हृदय-मन्दिर में ही हो सकती है। मूर्ति में आत्मा का अभाव है किन्तु आपके शरीर में आत्मा और परमात्मा दोनों ही विराजमान हैं, अतः अपने शरीरस्थ आत्मा द्वारा परमात्मा की पूजा करो।

प्रश्न ४. यह तो हम भी मानते हैं कि मूर्ति भगवान् नहीं है। हम तो उसमें भगवान् की भावना करके पूजा करते हैं इसमें क्या दोष है?
उत्तर- दोष है। यदि भावना फल देनेवाली हो तो पीतल में सोने की भावना करो और उसे सोने के भाव बेचो, फिर देखो क्या अवस्था होती है? यमुना की रेती में चीनी की भावना करो और उसे दूध में डालकर पी लो, फिर देखो कैसा आनन्द आता है? जिसे तुम भावना कहते हो वह वस्तुतः भावना नहीं अभावना है। जो वस्तु जैसी है उसे वैसा हो जाने और मानने का नाम भावना है। जैसे अग्नि में अग्नि की और जल में जल की भावना तो ठीक है परन्तु जल में अग्नि की और अग्नि में जल की भावना भावना नहीं अभावना है। यदि भावना से ईश्वर चक्कर और धोखे में आ सकता है तो यमुना की रेती में खाँड की और कंकर-पत्थरों में मिश्री की भावना करके उन्हें खाँड और मिश्री क्यों नहीं बना लेते?

कोई भक्त पंसारी के यहां मिश्री लेने गया। पंसारी ने भूल में फिटकरी दे दी। पूजारिजी ने शुद्ध भाव से भोग लगाकर प्रसाद बाँटा परन्तु सब खानेवालों के मुंह कड़वे हो गए। भावना तो मिश्री की थी, अतः लोगों के मुंह कड़वे नहीं होने चाहिए थे, अतः सिद्ध हुआ कि भावना से वस्तु के गुणों में परिवर्तन नहीं हो सकता। जैसे अंधेरे में पड़ी रस्सी को सांप समझने से उसमें विष व्याप्त नहीं होता उसी प्रकार जड़ मूर्ति को ईश्वर समझने से वह ईश्वर नहीं हो सकती।

प्रातःकाल का समय था। मार्ग में धुन्ध एवं कुहरा छाया हुआ था। ऐसे समय में विनोबाजी प्रातः भ्रमण के लिए जा रहे थे। मार्ग में एक मूर्ति आई। विनोबाजी ने प्रणाम किया और तीन प्रदक्षिणा करके आगे चल दिये। जब वापस लौटे तो एक भक्त ने कहा- "अनर्थ हो गया! अपने गांधीजी के स्थान पर एडवर्ड की मूर्ति को प्रणाम किया और उसकी प्रदक्षिणा भी की।" परन्तु मैं पुछता हूँ कि क्या भावना करने से वह मूर्ति गांधी की बन गई थी? अतः जो पदार्थ जैसा हो उसमें वैसी ही भावना करनी चाहिए।

प्रश्न ५. मूर्ति को देखकर उसमें व्यापक ईश्वर में ध्यान लग जाता है।
उत्तर- मूर्ति ध्यान लगाने में सहायक नहीं हो सकती। यदि मूर्ति ध्यान लगाने में सहायक होती तो यह सारा जगत् ही मूर्तिमान् है उसमें ध्यान लगाने से सबका ध्यान लग जाना चाहिए था, परन्तु इस संसार के पदार्थों से तो हम विचलित हो रहे हैं। ध्यान तो तभी लग सकता है जब मन विषयों से रहित हो जाय- ध्यानं निर्विषयं मन: (सांख्यदर्शन ६/२५)। यदि मूर्ति से ही ध्यान लगता है तो अपने पुत्र अथवा पत्नी को समक्ष रखकर उनका ध्यान कर लो।

प्रश्न ६. जैसे लड़कियां पहले गुड्डे-गुड़ियों से खेलती हैं, जब उनका विवाह हो जाता है तो छोड़ देती है, ऐसे ही मूर्तिपूजा करते-करते जब हमें ईश्वर के दर्शन हो जाएंगे तो हम भी मूर्तिपूजा छोड़ देंगे।
उत्तर- गुड्डे-गुड़ियों का खेल खेलने से किसी का विवाह नहीं होता। क्या आज तक किसी लड़की का विवाह गुड़ियों से खेल-खेल कर हुआ है? यदि गुड़िया खेलने से ही विवाह हो जाता तो कोई माता-पिता अपनी पुत्री के विवाह की चिन्ता नहीं करता। इसी प्रकार चाहे मूर्तिपूजा करते-करते जीवन व्यतीत हो जाये मूर्तिपूजकों को ईश्वर के दर्शन नहीं हो सकते, क्योंकि वे ईश्वरप्राप्ति के उपाय यम-नियम आदि का पालन नहीं करते।

भारत के पराधीन होने का कारण क्या था?
मूर्तिपूजा।

आइए,तनिक इतिहास के पन्ने पलटें।

सन् ७१२ में मुहम्मद बिन कासिम ने सिन्ध के प्रसिद्ध नगर देवल पर चढ़ाई की। इस समय कासिम की अवस्था बीस वर्ष और उसके पास छह सहस्र सेना तथा तीन हजार ऊंट थे। जब राजा दाहर को पता लगा तो उसने तीस सहस्र सैनिकों को लेकर उसका सामना किया। १८ दिन तक खूब लोहे से लोहा बजा, घमासान का युद्ध हुआ, खून की नदियाँ बह गईं, मुहम्मद बिन कासिम और उसकी सेना के पैर उखड़ गए। वह हारकर भागने ही वाला था कि एक देशद्रोही पूजारि उससे जा जिला और कहा कि यदि तुम विजय प्राप्त करना चाहते हो तो सामने मन्दिर पर जो ध्वज दिखाई दे रहा है उसे गिरा दो, झण्डा गिराते ही वे परास्त हो जाएंगे। ऐसा ही किया गया। मन्दिर का ध्वज गिरा दिया गया। दाहर की सेना के घुटने टूट गए। वे अपनी पराजय मानकर भाग खड़े हुए। देवल पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। उसी पूजारि ने कुछ दक्षिणा के लोभ में एक गुप्त खजाने का पता भी बताया जिसमें सोने की चालीस देगें रखी थीं। इनमें १७२० मन सोना था। इनके अतिरिक्त ६,००० ठोस स्वर्णमूर्तियां भी थीं जिनमें सबसे बड़ी तीन मन की थी। हीरा, पन्ना, माणिक, मोती इतने थे कि उन्हें कई ऊँटों पर लादकर ले जाया गया।

सोमनाथ के मन्दिर की कहानी भी कम रोमांचक नहीं है। सन् १०२४ में महमूद गजनवी ने सोमनाथ के मन्दिर पर आक्रमण किया। सोमनाथ के मन्दिर की रक्षा के लिए एक बहुत बड़ी सेना तैयार खड़ी थी, परन्तु ज्योतिषियों ने कहा- "इस समय तो भद्रा है, लग्न और मुहूर्त ठीक नहीं है।" पूजारियों ने कहा- "आपको कुछ करने की आवश्यकता नहीं, मूर्तियां स्वयं शत्रु को परास्त कर देंगी।" परिणाम तो जो कुछ होना था वही हुआ। महमूद गजनवी बिना किसी प्रतिरोध के मन्दिर में प्रविष्ट हो गया। मन्दिर में चालीस मन भारी सोने की जंजीर में एक भारी घण्टा लटक रहा था। एक लोहे की विशाल मूर्ति ऊपर-नीचे चुम्बक पत्थर के आकर्षण से अधर लटक रही थी। जब महमूद गजनवी ने उस मूर्ति को तोड़ना चाहा तो पूजारियों में उसे न तोड़ने के लिए बहुत अनुनय-विनय की तथा उसके बदले में बहुत सारा धन देने का प्रलोभन भी दिया परन्तु उसने यह कहकर कि मैं बुतफरोश (मूर्ति-विक्रेता) नहीं, अपितु बुतशिकन (मूर्ति-भञ्जक) हूँ- उस मूर्ति को गदा के एक ही वार से तोड़ दिया। उस मूर्ति को वह अपने साथ गजनी ले गया और उसके टुकड़े-टुकड़े करके एक टुकड़ा मस्जिद की सीढ़ियों में और दूसरा महल की सीढ़ियों में लगवा दिया।

यहां केवल दो घटनाओं का उल्लेख किया हूं, अब तो जागो और इस पाखण्ड को छोड़ो।

दो शब्द-
यह क्या कर रहे हो किधर जा रहे हो।
अन्धेरे में क्यों ठोकरें खा रहे हो।।
बनाया है स्वयं जिसको हाथों से अपने।
गजब है प्रभु उसको बतला रहे हो।।

इस लेख से मैंने मूर्तिपूजा जैसे अन्धविश्वाश (जो समाज में बीमारी की तरह फैल गया है) को हटाने का प्रयत्न किया है।
लेख पढ़कर भी पौराणिक भाइयों अगर मूर्ति पूजा करते हो तो फिर यही कहूंगा कि अब उल्लू को दिन में न दिखे तो इसमें सूर्य का क्या दोष!

निर्णय आपको लेना है- साकार या निराकार?

निराकार ब्रह्म के उपासक बनें!
वेदों को जानिए, वैदिक धर्म को अपनाइए, प्राचीन संस्कृति की रक्षा कीजिए, विश्व को आर्य बनाइये।
इसी से मनुष्य का कल्याण सम्भव है अन्यथा नहीं।

जो मनुष्य वेदों के अनुसार जीवनशैली अपनायेंगे वै भवसागर से पार जायेंगे।

।।ओ३म्।।

Comments

Popular posts from this blog

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो!

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो! वर्तमान समय में मनुष्यों ने भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय अपनी मूर्खता से बना लिए हैं एवं इसी आधार पर कल्पित धर्म-ग्रन्थ भी बन रहे हैं जो केवल इनके अपने-अपने धर्म-ग्रन्थ के अनुसार आचरण करने का आदेश दे रहा है। जैसे- ईसाई समाज का सदा से ही उद्देश्य रहा है कि सभी को "ईसाई बनाओ" क्योंकि ये इनका ग्रन्थ बाइबिल कहता है। कुरान के अनुसार केवल "मुस्लिम बनाओ"। कोई मिशनरियां चलाकर धर्म परिवर्तन कर रहा है तो कोई बलपूर्वक दबाव डालकर धर्म परिवर्तन हेतु विवश कर रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक सम्प्रदाय साधारण व्यक्तियों को अपने धर्म में मिला रहे हैं। सभी धर्म हमें स्वयं में शामिल तो कर ले रहे हैं और विभिन्न धर्मों का अनुयायी आदि तो बना दे रहे हैं लेकिन मनुष्य बनना इनमें से कोई नहीं सिखाता। एक उदाहरण लीजिए! एक भेड़िया एक भेड़ को उठाकर ले जा रहा था कि तभी एक व्यक्ति ने उसे देख लिया। भेड़ तेजी से चिल्ला रहा था कि उस व्यक्ति को उस भेड़ को देखकर दया आ गयी और दया करके उसको भेड़िये के चंगुल से छुड़ा लिया और अपने घर ले आया। रात के समय उस व्यक्ति ने छुरी तेज की और उस

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती प्रियांशु सेठ आजकल सदैव देखने में आता है कि संस्कृत-व्याकरण से अनभिज्ञ विधर्मी लोग संस्कृत के शब्दों का अनर्थ कर जन-सामान्य में उपद्रव मचा रहे हैं। ऐसा ही एक इस्लामी फक्कड़ सैयद अबुलत हसन अहमद है। जिसने जानबूझकर द्वेष और खुन्नस निकालने के लिए गायत्री मन्त्र पर अश्लील इफ्तिरा लगाया है। इन्होंने अपना मोबाइल नम्बर (09438618027 और 07780737831) लिखते हुए हमें इनके लेख के खण्डन करने की चुनौती दी है। मुल्ला जी का आक्षेप हम संक्षेप में लिख देते हैं [https://m.facebook.com/groups/1006433592713013?view=permalink&id=214352287567074]- 【गायत्री मंत्र की अश्लीलता- आप सभी 'गायत्री-मंत्र' के बारे में अवश्य ही परिचित हैं, लेकिन क्या आपने इस मंत्र के अर्थ पर गौर किया? शायद नहीं! जिस गायत्री मंत्र और उसके भावार्थ को हम बचपन से सुनते और पढ़ते आये हैं, वह भावार्थ इसके मूल शब्दों से बिल्कुल अलग है। वास्तव में यह मंत्र 'नव-योनि' तांत्रिक क्रियाओं में बोले जाने वाले मन्त्रों में से एक है। इस मंत्र के मूल शब्दों पर गौर किया जाये तो यह मंत्र अत्यंत ही अश्लील व