समस्त दुःखों की निवृत्ति का एकमात्र साधन योग
प्रियांशु सेठ
प्रियांशु सेठ
(विश्व
योग दिवस पर
विशेष रूप से
प्रकाशित)
आज की विकट
सामाजिक परिस्थिति
में वैदिक धर्म
संस्कृति, सभ्यता,
रीति-नीति, परम्पराएं आदि लुप्तप्राय:
हो गयी हैं।
इसके विपरीत
केवल भोगवादी
और अर्थवादी
परम्पराओं का अत्यधिक प्रचार-प्रसार
हो रहा है।
ब्रह्म विद्या
दुर्लभ होने का
यह एक प्रमुख कारण है। स्थायी सुख-शान्ति
की प्राप्ति
के लिये आज
का मनुष्य
घोर पुरुषार्थ
कर रहा है।
फलस्वरूप सारी पृथिवी का स्वरूप
ही बदल डाला
है। तदुपरान्त
भी वह समस्त
दुःखों की निवृत्ति और नित्य आनन्द
की प्राप्ति
नहीं कर पा
रहा है। आज
समस्त विश्व विविध
दुःखों से अत्यन्त सन्तप्त है। जीवात्मा काम, क्रोध,
लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेषादि
मानसिक रोगों
(मिथ्याज्ञान) से ग्रस्त होने के कारण
अविद्या से मुक्त
नहीं हो पा
रहा है। यही
कारण विशेष है
कि मनुष्य
नित्यानन्द की प्राप्ति के द्वार से
कोषों दूर है।
अविद्या से मुक्ति केवल आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी अध्यात्म
विद्या (वेद) के
अध्ययन और इसको
क्रियात्मक रूप देने
से ही सम्भव
है। किन्तु
आज का मनुष्य इसका समाधान
केवल धन-सम्पत्ति व भौतिक विज्ञान से कर रहा
है। जबकि यह
कदापि सम्भव नहीं
हो सकता। इसी
प्रकार चलते रहने
पर भविष्य
में भी मुख्य
लक्ष्य (मोक्ष)
की प्राप्ति
की कोई सम्भावना नहीं है।
महर्षि गौतम ने
दुःख को इस
तरह बताया है-
बाधनालक्षणं दुःखम्
अर्थात् जो हमें
बाधा, पीड़ा, ताप
या कष्ट होता
है, वही दुःख
है। -न्यायदर्शन
१/१/२१।।
महर्षि कपिल के
अनुसार- बन्धो विपर्ययात् अर्थात् इसके विपरीत (विपर्यय) अर्थात्
मिथ्याज्ञान से बन्धन=
दुःख होता है।
-सांख्यदर्शन ३/२४।।
जब तक आत्मा
व परमात्मा
के विज्ञान
और ईश्वर-प्राप्ति लक्ष्य को स्वीकार नहीं किया जाएगा,
तब तक यह
संसार दुःखसागर
में गोते लगाता
रहेगा। इस दुःखरूपी सागर से निकलने के लिए हम
क्या करें?
इस अविद्या
एवं दुःख से
छूटने का एकमात्र साधन वेदोपदेश
एवं ऋषियों
द्वारा दिया अद्वितीय ज्ञान 'योग' है।
जिससे प्रत्येक
व्यक्ति समस्त दुःखों से छूटकर नित्यानन्द को प्राप्त
करना चाहता है,
वह योग है।
योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: (यह योगदर्शन का सूत्र है)
अर्थात् चित्त की
वृत्तियों का निरोध
अर्थात् योग है।
जिस प्रकार
माता अपने पुत्र
की रक्षा करती
हैं उसी प्रकार योग सुख की
रक्षा करता है
अर्थात् दुःख से
निवृत्ति दिलाता
है।
युञ्जते मन उत
युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः।
वि होत्रा
दधे वयुनाविदेक
इन्मही देवस्य
सवितु: परिष्टुति:।।
-ऋ० ५/८१/१
पदार्थ:- (युञ्जते
मन:) इसका अभिप्राय यह है कि
जीव को परमेश्वर की उपासना
नित्य करनी उचित
है अर्थात्
उपासना समय में
सब मनुष्य
अपने मन को
उसी में स्थिर
करें और जो
लोग ईश्वर के
उपासक (विप्रा:)
अर्थात् बड़े-बड़े
बुद्धिमान् (होत्रा:)
उपासना योग के
ग्रहण करने वाले
हैं वे (विप्रस्य) सबको जानने वाला
(बृहत:) सब से
बड़ा (विपश्चितः)
और सब विद्याओं से युक्त जो
परमेश्वर है, उसके
बीच में (मन:
युञ्जते) अपने मन
को ठीक-ठीक
युक्त करते हैं
तथा (उत धियः)
अपनी बुद्धिवृत्ति
अर्थात् ज्ञान को
भी (युञ्जते)
सदा परमेश्वर
ही में स्थिर
करते हैं। जो
परमेश्वर इस सब
जगत् को (विद्धे) धारण और विधान
करता है (वयुनाविदेक इत्) जो सब
जीवों के ज्ञानों तथा प्राज्ञ
का भी साक्षी है, वही एक
परमात्मा सर्वत्र
व्यापक है कि
जिससे परे कोई
उत्तम पदार्थ
नहीं है (देवस्य) उस देव अर्थात् सब जगत् के
प्रकाशक और (सवितु:)
सबकी रचना करने
वाले परमेश्वर
की (परिष्टुति:)
हम लोग सब
प्रकार से स्तुति करें। कैसी वह
स्तुति है कि
(मही) सबसे बड़ी
अर्थात् जिसके समान
किसी दूसरे की
हो ही नहीं
सकती।
युक्तेन मनसा वयं
देवस्य सवितु:
सवे।
स्वग्र्याय शक्तया।।
-यजु० ११/२
भावार्थः- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालंकार
है। जो मनुष्य परमेश्वर की इस
सृष्टि में समाहित हुए योगाभ्यास
और तत्त्वविद्या
को यथाशक्ति
सेवन करें, उनमें
सुन्दर आत्मज्ञान
के प्रकाश
से युक्त योग
और पदार्थविद्या
का अभ्यास
करें, तो अवश्य
सिद्धियों को प्राप्त हो जावें।
युक्त्वाय सविता देवान्त्स्वर्यतो धिया दिवम्।
बहज्ज्योति: करिष्यत:
सविता प्रसुवाति
तान्।। -यजु० ११/३
भावार्थः- जो पुरुष
योग और पदार्थविद्या का अभ्यास
करते हैं, वे
अविद्या आदि क्लेशों को हटाने वाले
शुद्ध गुणों को
प्रकट कर सकते
हैं। जो उपदेशक पुरुष से योग
और तत्त्वज्ञान
को प्राप्त
हो के ऐसा
अभ्यास करे, वह
भी इन गुणों
को प्राप्त
होवे।
योगे योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे।
सखाय इन्द्रमूतये।।
-यजु० ११/१४
भावार्थः- बार-बार
योगाभ्यास करते और
बार-बार मानसिक और शारीरिक
बल बढ़ाते समय
हम सब परस्पर मित्रभाव से युक्त
होकर अपनी रक्षा
के लिये अनन्त
बलवान्, ऐश्वर्यशाली
ईश्वर का ध्यान
करते हैं। उसी
से सब प्रकार की सहायता
मांगते हैं।
वेदाहमेतं पुरुषं
महान्तमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्।
तमेव विदित्वाति
मृत्युमेति नान्य:
पन्था विद्यतेऽयनाय।।
-यजु० ३१/१८
भावार्थः- यदि मनुष्य इस लोक-परलोक
के सुखों की
इच्छा करें तो
सबसे अति बड़े
स्वयंप्रकाश और आनन्दस्वरूप अज्ञान के लेश
से पृथक् वर्त्तमान परमात्मा को जान
के ही मरणादि अथाह दुःखसागर
से पृथक् हो
सकते हैं, यही
सुखदायी मार्ग है,
इससे भिन्न कोई
भी मनुष्यों
की मुक्ति
का मार्ग नहीं।
अथ त्रिविधदु:
खात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थ:।। -सांख्यदर्शन
१/१
अर्थात् तीन प्रकार के= (आध्यात्मिक,
आधिभौतिक एवं आधिदैविक) दुःखों से सर्वथा छूट जाना पुरुष=
आत्मा का अन्तिम लक्ष्य है, (इसी
को मुक्ति
कहते हैं)।
प्राणान् प्रपीडयेह
संयुक्त चेष्ट:
क्षीणे प्राणे
नासिकयोच्छवसीत।
ततो दुष्टाश्च
युक्तमिव वाहमेनम्
विद्वान्मनो धारयेताप्रत:।।
-श्वेताश्वतर उपनिषद्
२/९
श्वास प्रश्वास
द्वारा प्राणों
को पीड़ित करते
हुए, प्राणों
के क्षीण होने
पर नासाछिद्रों
से प्राणों
को बाहर निकाल
दें। इस प्रकार विद्वान् प्रमाद
रहित होकर, दुष्ट
अश्वों के तुल्य
इन्द्रियों तथा मन
को अधिकार
में करे।
अष्टाचक्रा नवद्वारा
देवानां पूरयोध्या।
तस्यां हिरण्यय:
कोश: स्वर्गो
ज्योतिषावृत:।। -अथर्व०
१०/२/३१
भावार्थः- आठ चक्रोंवाली, नौ इन्द्रियाँ-
द्वारोंवाली इस शरीररूप अयोध्या नामक देवनगरी में एक ज्योतिर्मय मनोमयकोश है, जो
आह्लाद व प्रकाश से परिपूर्ण
है। इसे हम
राग-द्वेष से
मालिन न करें।
महर्षि पतञ्जलि
ने कहा है-
तदा द्रष्टु:
स्वरूपेऽवस्थानम् अर्थात्
जब योगी परिपक्व अवस्था में पहुंच
जाता है, तब
उसको अपने वास्तविक स्वरूप का विशेष
ज्ञान और ईश्वर
के वास्तविक
स्वरूप का परिज्ञान होता है।
उक्त सभी कथन
में दुःख से
निवृत्ति पाने हेतु
योग करने का
ही संकेत किया
है। इससे स्पष्ट है कि जब
तक हम योगाभ्यास नहीं करेंगे
तब तक हम
समस्त दुःखों
से छुटकारा
नहीं पा सकेंगे। महर्षि पतञ्जलि
लिखते हैं,
"दुखमेव सर्वम्
विवेकिन: अर्थात्
बुद्धिमान व्यक्ति
की दृष्टि
में चारों ओर
दुःख ही दुःख
है।" यदि
आप इस दुःखरुपी सागर से निकलना चाहते हैं तो
आज से ही
नित्य योगाभ्यास
करना आरम्भ कर
दें एवं नित्यानन्द अर्थात् मोक्ष को
अपना लक्ष्य
बना लें।
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