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मृत्यु पर विजय



मृत्यु पर विजय

प्रियांशु सेठ

हम सभी को ज्ञात है कि जो इस सृष्टि में जन्म लिया है उसे एक दिन मरना ही होगायही सृष्टि का नियम है किन्तु क्या मृत्यु पर भी विजय प्राप्त किया जा सकता है? यह प्रश्न स्वामी दयानन्द जी की भी आत्मकथा का एक हिस्सा है तो आइए पढ़ें कि किस प्रकार स्वामी जी का उद्देश्य मृत्यु पर विजय प्राप्त करना हो गया था?

भारत की संस्कृति वर्ण-व्यवस्था पर आधारित हैयहां गुणों के आधार पर वितरण होता हैजो जैसा कर्म करता है, वैसा ही वर्ण उसे मिल जाता हैइसी प्रकार यहां आश्रम व्यवस्था भी सृष्टि के आदिकाल से चली रही है। 25 साल तक ब्रह्मचारी, फिर 25 से 50 तक गृहस्थी और 50 से 75 तक वानप्रस्थ और उसके बाद संन्यास आश्रमये चारों आश्रम जीवन के आधार हुआ करते थेलेकिन संन्यास आश्रम के बारे में कहा जाता है कि यह तभी सार्थक है, जब वैराग्य उत्पन्न हो जाए और यदि वैराग्य बचपन या जवानी में भी उत्पन्न हो जाए तो व्यक्ति तभी संन्यासी बन सकता हैवैराग्य होने पर संन्यासी बनने के लिए 75 साल की उम्र होना आवश्यक नहीं हैवैराग्य क्यों, कब और कैसे या किन कारणों से पैदा हो जाए कहा नहीं जा सकतावैराग्य का मतलब यही है कि व्यक्ति मोह-माया के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता वह तो अपने उत्थान की सोचता है और मोक्ष का परम पद पाना चाहता हैइसी प्रकार के वैराग्य में जाने कितने लोगों ने भगवा चोला धारण किया, लेकिन स्वामी दयानन्द एक अकेले ऐसे महापुरुष थे, जो वैराग्य होने पर अपना ही कल्याण नहीं चाहते थे, वरन सारी दुनिया का कल्याण चाहते थेउन्हें नहीं चाहिए था ऐसा मोक्ष जिसके वे अकेले अधिकारी बनें, वे तो सबका कल्याण चाहते थेलेकिन प्रश्न यह है कि उन्हें वैराग्य हुआ कैसे? क्या कारण थे वे?
तो हम पहले इसी पर चर्चा करेंगे

एक बार की बात है जब मूलशंकर(स्वामी दयानन्द जी का बचपन का नाम)के घर में दो मौतें हुईंइन दो मौतों ने उनमें मृत्यु से बचने के लिए अमृत की तलाश के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न कर दीउसकी छोटी बहन का विशूचिका से प्राणान्त हो गयाबहन की मृत्यु के समय वह उसके सम्मुख उपस्थित थाकदाचित् उसने मृत्यु के समय बहन के कष्ट को देखा होगावह उसके तड़फड़ाने को देखकर स्वयं दुःखी हुआ होगा

बाद में अपने स्वरचित जीवन-चरित्र में स्वामी दयानन्द जी ने लिखा है,"उस भगिनी के वियोग का शोक मेरे जीवन का प्रथम शोक थाउस शोक से हृदय में बड़ा आघात लगाजब परिवार के लोग मेरे चारों ओर खड़े क्रंदन-विलाप कर रहे थे, मैं पत्थर की मूर्ति के समान अविचलित चिंता में डूबा हुआ थामनुष्य की क्षण-भंगुरता की बात सोचकर अपने मन में कह रहा था कि जब पृथ्वी पर सबको ही इस प्रकार मरना है, तो मैं भी एक दिन मरूंगाकोई ऐसा स्थान भी है या नहीं, जहां जाकर मृत्यु-समय की यंत्रणा से रक्षा हो सके तथा मुक्ति का उपाय मिल सके।"

बहन की मृत्यु के समय मूलशंकर के मन में यह संकल्प बना कि वह मृत्यु से बचने का उपाय ढूंढेगाइसके कुछ दिन बाद ही उसके चाचा की भी मृत्यु हो गईचाचा-भतीजा अपने मन की बातें परस्पर किया करते थेचाचा की मृत्यु पर मूलशंकर इतना रोया कि उसकी आंखें सूजकर लाल हो गयींजबकि बहन की मृत्यु पर एक आंसू भी निकल था, इस कारण उस दिन उसे पत्थर हृदय भी कहा गया था

चाचा की तेरहवीं के दिन मूलशंकर ने पंडित जी से पूछा, "पंडित जी, क्या हर किसी को मरना पड़ता है?"
पंडित जी- "हां बेटा! जो इस संसार में पैदा होता है, उसे एक--एक दिन मरना ही पड़ता है।"

मूलशंकर- "तो क्या मृत्यु से बचा नहीं जा सकता?"

पंडित जी- "बचा तो जा सकता है।"

मूलशंकर- "कैसे?"

पंडित जी- "अमर होकर।"

मूलशंकर- "अमर कैसे हुआ जाता है?"

पंडित जी- "अमर फल या अमृत खाकर।"

मूलशंकर- "वह कहां मिलेगा?"

पंडित जी- "वह तो अब अब धरती पर नहीं है।"

मूलशंकर- "तो क्या दूसरा उपाय या विकल्प नहीं?"

पंडित जी- "है तो सही।"

मूलशंकर- "क्या?"

पंडित जी- "योग-साधना।"

मूलशंकर- "क्या आप मुझे योग साधना करना सिखाएंगे?"

पंडित जी- "योग साधना हम या तुम जैसे साधारण व्यक्तियों के वश की बात
नहीं।"

मूलशंकर- "तो फिर?"

पंडित जी- "यह तो बड़े-बड़े योगियों-संत-महात्माओं के वश की बात है।"

मूलशंकर- "वे कहां मिलेंगे?"

पंडित जी- "भयंकर जंगलों में या फिर हिमालय पर्वत की बर्फ से ढकी अज्ञात
गुफाओं में।"

आगे उसने कुछ प्रश्न नहीं किया, लेकिन पिता अपने पुत्र पुरोहित का वार्तालाप सुन रहा थापिता ने कुछ समय बाद सोचा कि विवाह कर दो, अपने आप ही फंस जाएगाजब मूलशंकर के विवाह की चर्चा शुरू हुई तो, चारों ओर से उसके लिए रिश्ते आने लगेअंततः एक गुणी लड़की से विवाह तय हो गया, पर जब विवाह के दिन निकट आए तो मूल ने और किसी तरह छुटकारा देख, भाग जाने की ठानी, और वह एक दिन समय पाकर भाग खड़ा हुआ
मूलशंकर के घर से भाग जाने से सभी लोग बड़े परेशान हुएकरसन जी ने बहुत खोज कराईसब ओर सिपाही भेजे गएअंत में एक महन्त के बताने पर मूलशंकर का पता लग गया और वे सिद्धपुर के मेले में पकड़े गए

पिता ने क्रोध में उसे कहना शुरू किया, "कुलघातक! मातृ-हन्ता! तुम बहुत बिगड़ गए होबताओ क्यों भाग आये थे घर से?"

मूलशंकर- "मैं..."

पिताजी- "मैं...मैं क्या करता है, क्या किसी चीज की कमी थी घर में?"

मूलशंकर- "जी नहीं घर में किसी भी चीज की कमी नहीं थी।"

पिताजी- "फिर भागे क्यों थे?"

वे तो सोच में पड़ गए कि अब क्या जवाब दें, इसलिए मूलशंकर ने नम्रता और क्षमा-याचना के भाव में कह दिया, "पिताजी! भूल हो गयी हैकिसी ने बरगला दिया थाअब ऐसी गलती नहीं होगी।"

पिताजी- "सच कह रहे हो।"

मूलशंकर- "सच्ची।"

पिताजी- "खाओ गौमाता की कसम।"

मूलशंकर जी गाय का बहुत आदर करते थे, अब कसम कैसे खाएं, सो कह दिया, "यह बीच में गौमाता की कसम कहां से गई?"

पिताजी- "ठीक है, तो अब घरलौट चलोगे ?"

मूलशंकर- "जी...मैं तो खुद ही आने वाला था।"

पिताजी- "खुद ही आने वाला था, लेकिन देखने से तो नहीं लगता, अभी भी दृष्टि नहीं मिला पाते।"

मूलशंकर- "मैं अपनी करतूत पर शर्मिंदा हूँ।"

पिताजी- "ठीक है।"

करसन जी ने मूलशंकर को साथ लिया और अपने खेमे में सिपाहियों के पहरे में रख दियारात होने पर मूलशंकर लेट गया और वह सोने का बहाना करता रहासिपाही रात बहुत देर तक पहरा देते रहेपर अंततः उन्हें झपकी गई तो मूलशंकर चुपके से उठा और समीप रखे लोटे को उठाकर शौच करने के बहाने वहां से चल पड़ावह अहमदाबाद की ओर चल पड़ाअहमदाबाद से वह बड़ौदा पहुंचाबड़ौदा में वह चेतन मठ के ब्रह्मचारियों और संन्यासियों की संगति में पहुंचा, "देव! मैं भी ब्रह्मचारी रहकर ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ।"

स्वामी जी- "यह बहुत कठिन मार्ग हैआज के युग में ब्रह्मचारी भला कौन बनना चाहता है।"

मूलशंकर- "आप हैं और मैं बनना चाहता हूँ।"

स्वामी जी- "लेकिन इस मार्ग पर चलना बहुत कठिन है बालक।"

मूलशंकर- "हर मार्ग ही कठिन होता है।"

स्वामी जी- "नारी के साये से भी दूर रहना होगा।"

मूलशंकर- "एक ब्रह्मचारी का नारी से क्या काम!"

स्वामी जी- "क्या संयम से रह पाओगे?"

मूलशंकर- "आप भी तो रह रहे हैं।"

स्वामी जी- "मेरी बात और है।"

मूलशंकर- "मेरी भी बात और है।"

स्वामी जी- "क्या बात है आपकी?"

मूलशंकर- "मैं ज्ञान पाना चाहता हूं, अमर होना चाहता हूँ और लोगों का कल्याण करना चाहता हूँ और इसलिए ब्रह्मचारी रहकर अपने साधना पथ पर आगे बढ़ना चाहता हूँ।"

स्वामी जी- "बहुत अच्छी बात है, आज के युग में धर्म का पतन हो गया हैधर्म के उत्थान के लिए लोगों, किशोरों और युवाओं को आगे आना होगा, लेकिन किशोर और युवा तो पाश्चात्य संस्कृति के रंगों में रंग रहे हैं, वे भला देश और धर्म की चिंता कहां करते हैंलेकिन एक बात पूंछू बालक?"

मूलशंकर- "पूछो देव!"

स्वामी जी- "तुम यह सब क्यों करना चाहते हो? तुम हो कौन? तुम घर से भाग आये तो क्या तुम्हारे माता-पिता परेशान नहीं हो रहे होंगे।"

मूलशंकर- "बड़ा कठिन प्रश्न किया आपने, क्या कोई सरल प्रश्न नहीं पूछ सकते थे?"

स्वामी जी- "यह कठिन प्रश्न कैसे लगा?"

मूलशंकर- "इसलिए कि मैं कौन हूँ, इसी की खोज में तो निकला हूँ और जब मुझे यही पता नहीं कि मैं कौन हूँ तो फिर मेरे माता-पिता चिंता कर रहे हैं या नहीं इसकी चिंता मैं क्यों करूं।"

स्वामी जी- "बहुत अच्छे, तुम सच्चे जिज्ञासु हो, तुम जैसे साधकों की ही देश को आज सख्त जरूरत है।" और फिर मूलशंकर ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करते हुए वहां रहकर वेदान्त की शिक्षा ग्रहण करने लगा

कुछ काल बाद उन्होंने एक संन्यासी से पूछा, "मृत्यु पर विजय कैसे पाई जा सकती है महात्मन्।"

संन्यासी- "यह तो बहुत कठिन प्रश्न है, बालक।"

मूलशंकर- "क्या आपको इस विषय में कुछ नहीं पता।"

संन्यासी- "नहीं बात ऐसी भी नहीं है।"

मूलशंकर- "तो फिर कैसी है?"

संन्यासी- "दरअसल योग ही वह रास्ता है, जिस पर चलकर मनुष्य मृत्यु पर भी
विजय पा सकता है।"

मूलशंकर- "वह कहां सीखा जा सकता हैकहां मिलेंगे योग सिखाने वाले योगी और महात्मा।"

संन्यासी- "चणोद, कर्णाली में ऐसे योगी आते रहते हैं।"

इस प्रकार की बातें जानकर मूलशंकर कुछ काल बाद मृत्यु-विजय की खोज में
वह वहां से चणोद, कर्णाली की ओर चल पड़ावह योग से अमर बनना चाहता था

वहां उन्होंने कई ब्रह्मचारियों, चिदानंद प्रभृति संन्यासियों और कई योग-दीक्षित साधु-महात्माओं के दर्शन कियेकई दिन तक शास्त्रालाप चला, एक झलक देखिए-

साधु- "तुम योगी क्यों बनना चाहते हो?"

मूलशंकर- "मैं अमर होना चाहता हूँ।"

साधु- "जो पैदा हुआ है, उसे एक एक दिन मरना ही होता है।"

मूलशंकर- "लेकिन मैंने सुना है कि योग से अमर हो सकता है आदमी।"

साधु- "तुमने गलत सुना है।"

मूलशंकर- "आपकी बात पर विश्वास कैसे करूं?"

साधु- "देखो विश्वास करो या नहीं, लेकिन पैदा हुआ है तो मरना भी पड़ेगा यही सृष्टि का नियम है।"

मूलशंकर- "फिर योग के लाभ क्या हैं?"

साधु- "योग से व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है और उसी को कहते हैं कि व्यक्ति अमर हो गया।"

मूलशंकर- "अर्थात्।"

साधु- "देखो यह सही है कि व्यक्ति अपनी इच्छानुसार लंबी आयु तक जीवित रह सकता है लेकिन कोई यह कहे कि योग सीखने से मृत्यु कभी नहीं आती तो यह मिथ्या है।"

मूलशंकर- "आप कैसे कह सकते हैं यह मिथ्या है?"

साधु- "अच्छा कोई ऐसा आदमी मुझे दिखा दो जो सदियों से जीवित हो? क्या किसी ऐसे आदमी को जानते हो?"
मूलशंकर- "नहीं मैं तो नहीं जानता और जब जानता ही नहीं तो फिर दिखा कैसे सकता हूँ।"

साधु- "देखो यह दुनियां अरबों वर्षों पूर्व से है, यदि योग से व्यक्ति अमर हो सकता तो आपको आज अरबों योगी मिल जाते, यूं भटकना पड़ता
योग से मुक्ति सम्भव है, जन्म-मरण का ज्ञान जिसे हो जाता है, उसी को अमरता कहते हैं, ऐसा मैं मानता हूँ, शास्त्र क्या मानते हैं, मुझे नहीं पता, क्योंकि शास्त्रों में आजकल बहुत मिलावट हो गई, दूध में पानी की तरह।"
इस प्रकार शास्त्रार्थ के बाद एक दिन वह परमात्मा परमहंस के पास गया और उनसे शिक्षा देने की प्रार्थना कीकुछ मास में ही उन्होंने वेदान्त-सार और वेदान्त परिभाषा के ग्रन्थों को पढ़ डाला

कर्णाली में ब्रह्मचारी शुद्ध चैतन्य ने संन्यासधर्म की दीक्षा लीतब मूलशंकर का नाम दयानन्द सरस्वती हो गयाइनसे दयानन्द जी ने बहुत-सी योग-क्रियाएं सीखीं, पर इन योग क्रियाओं से उन्हें संतुष्टि नहीं मिली, इसलिए वे सच्चे योगी की खोज में निकल पड़ेऔर ऐसे योगी की खोज में भ्रमण करते रहे, जो उनकी मृत्यु को जीतने का उपाय बता सकेइस खोज में वे आबूगिरि, हरिद्वार, ऋषिकेश, टिहरी, श्रीनगर, केदारनाथ, रुद्र प्रयाग, अगस्त्य आश्रम, शिवपुरी, गुप्त काशी, गौरी कुण्ड भीम गुफा, त्रिपुणी नारायण इत्यादि स्थानों पर गएदो वर्ष तक वह उत्तराखण्ड में किसी सिद्ध योगी की खोज में घूमते रहे

जीवन से निराश-सा हो रहे थे कि दयानन्द में मरने से बचने की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न हुईअब उनका लक्ष्य ज्ञान से ईश्वर प्राप्ति का हो गया थादयानन्द को विश्वास हो गया था कि योग से मृत्यु पर विजय नहीं प्राप्त हो सकतीमृत्यु तो होगी ही, परन्तु मृत्यु के दुःख से निवृत्ति ज्ञान द्वारा होगीअतः अब उनका भ्रमण किसी ज्ञानी पुरुष की खोज में प्रारम्भ हुआ।...

Comments

  1. आगे क्या हुआ गुरु जी
    प्रेम से प्रेम तक
    राधे राधे जी
    शिष्य :- राधेश्याम
    राधे देलवार सीमलिया तहसील दीगोद जिला कोटा राजस्थान
    9079760979
    🙏🙏

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    Replies
    1. स्वामी दयानन्द जी की जीवनी पढ़िए।

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