लेखक- प्रियांशु सेठ
हिन्दी साहित्य में तुलसीदास का नाम एक आदर्शपूर्ण पद पर अंकित है। कहा जाता है कि पुरातन परम्परा को उजागर करने में तुलसीदास ने विशेष योगदान दिया था। अपने जीवन के सम्पूर्ण अनुभवों के सहारे इकहत्तर वर्ष की अवस्था में उन्होंने ‘रामचरितमानस’ का प्रणयन किया था। रामचरितमानस को हिन्दू समाज में स्थान विशेष प्राप्त होने के कारण कालान्तर में यह 'तुलसी-रामायण' के नाम से प्रख्यात है तथा पौराणिक समाज इसे अपनी सनातन संस्कृति की छवि मानता है। इसी रामचरितमानस को रामानन्द सागर ने 'रामायण' नाम देकर अपने टीवी सीरियल में दर्शकों को रामराज्य का वर्णन दिखाया था।
तुलसीदासकृत यह ग्रन्थ पुरुषोत्तम श्रीराम के समकालीन न होने के कारण प्रमाणिक तथा विश्वसनीय नहीं है, यह बात पौराणिक पण्डित जानते हुए भी इसकी प्रशंसा के पुल बांधने शुरू कर दिए। परिणामस्वरूप जन सामान्य अपनी वैदिक संस्कृति, सभ्यता व परम्पराओं से भटकती चली गई और आज अकर्मण्यता के सागर में गोते लगा रही है। नीर-क्षीर विवेकी परमहंस स्वामी दयानंद सरस्वतीजी ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में तुलसीदासकृत रामचरितमानस को अपाठ्य घोषित किया है। इसका मुख्य हेतु यह था कि तुलसी की मान्यता भ्रामिक व वैदिक सिद्धान्तों, परम्पराओं के प्रतिकूल थी। आज भी विधर्मी रामचरितमानस के आधार पर निष्ठुर और आलोचनापूर्ण लेखनी से रामायण के आदर्श पात्रों को प्रचण्ड आघात पहुंचाने की कोशिश किया करते हैं। इस दशा में हम अपना कर्तव्य समझते हैं कि अपनी रामायण जैसी अद्वितीय ऐतिहासिक ग्रन्थ से दिग्भ्रमित हुए पाठकों का भ्रमभंजन कर उन्हें वैदिक पथ पर कदम बढ़ाने की ओर प्रेरित करें।
•ईश्वर विषयक तुलसीदास की भ्रमपूर्ण विचारधारा
गोसाईंजी की बुद्धि ईश्वर के स्वरूप को परिभाषित करने में अशक्त रही है। वेद में वर्णित ईश्वर के यथार्थ स्वरूप का त्याग करके तुलसीदास ने मूर्तिपूजा, अवतारवाद आदि का प्रतिपादन किया है। उनकी यह मान्यता वैदिक सिद्धान्तों की दृष्टि से अस्वीकार्य थी तथापि उन्होंने इसका पुरजोर समर्थन किया है। आप एक बार 'मानस' की पोथी अपने हाथ में लीजिये और उसे ध्यान से पढ़िए। आप देखेंगे कि तुलसीदास ने मूर्तिपूजा और रामचन्द्रजी का ईश्वरावतार होना यों ही संयोग-वश नहीं, बल्कि जान-बूझकर लिखा है, सो भी एक-आध बार नहीं बल्कि अनेकों बार, अथवा यों कहिए कि जब कभी उन्हें वैसा लिखने का मौका मिला तभी वैसा लिखने से बाज नहीं आये हैं। फल यह हुआ कि आपने मूर्तिपूजा और अवतारवाद की इस कील को अपने पाठकों के मस्तिष्क में अपनी प्रौढ़ लेखनी के हथौड़े से बार-बार ठोकते और धंसाते चले गए। लंकाकाण्ड में श्रीरामचन्द्रजी द्वारा मूर्तिपूजा करना (लिंग थापि बिधिवत करि पूजा अर्थात् शिवलिङ्ग की स्थापना करके विधिपूर्वक उसका पूजन किया। -लंका०, दो० १/चौ० ३) लिखकर तुलसीजी ने श्रीराम की उपासना पद्धति पर प्रश्नचिन्ह लगाया है क्योंकि दूसरी ओर बालकाण्ड और अयोध्याकाण्ड में आप उन्हें सन्ध्या पद्धति द्वारा ईश्वरोपासना करनेवाला बताते हैं।
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई।। -बाल०, सो० २३६/चौ० ३
अर्थात्- दिन बीत गया और गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई सन्ध्या करने चले।
पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर संध्या करन सिधाए।। -अयोध्या०, दो० ८८/चौ० ३
अर्थात्- पुर के लोग प्रणाम करके अपने-अपने घर आये और रघुनाथजी सन्ध्या करने पधारे।
हम पाठकों का ध्यान यहां भी आकृष्ट करेंगे कि तुलसी ने ईश्वर के प्रति किन दुर्वचनों का प्रयोग किया है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है उसी की उपासना करनी योग्य है, यह परिभाषा महर्षि दयानन्दजी द्वारा प्रतिपादित है जो कि आर्यसमाज के द्वितीय नियम में श्लिष्ट है। दूसरे शब्दों में ईश्वर की यथार्थ परिभाषा यही है किन्तु तुलसी के निम्न कथन ने वैदिक सिद्धान्तों का गला ही घोंट दिया-
सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा।।
जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बालकेलि सम बिधि मति भोरी।। -अयोध्या०, दो० २८१/चौ० १
अर्थात्- यह सुनकर सुमित्रा जी शोक के साथ कहने लगीं- विधाता की चाल बड़ी ही विपरीत और विचित्र है, जो सृष्टि को उत्पन्न करके पालता है और फिर नष्ट कर डालता है। विधाता की बुद्धि बालकों के खेल के समान भोली अर्थात् विवेक शून्य है।
ईश्वर को पूर्णतया न जानने के कारण उसके अवतार लेने की कल्पना भी तुलसीजी के भ्रान्त मस्तिष्क की उपज मात्र है। जो ईश्वर अपने अनन्त सामर्थ्य से सम्पूर्ण जगत् का सृजन करता है, क्या वह अपने अनन्त बल व शक्ति से क्षुद्र प्राणियों का संहार नहीं कर सकता? इस हेतु ईश्वर का अवतरण होना उसके नियम के विरुद्ध सिद्ध होता है।
तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास।
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास।। -उत्तर०, दो० ५७
अर्थात्- तब मैंने हंस का शरीर धारणकर कुछ समय वहां निवास किया और श्रीरघुनाथजी के गुणों को आदरसहित सुनकर फिर कैलास को लौट आया।
मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसुराम बपु धरी।। -लंका०, दो० १०९/चौ० ४
अर्थ- आपने मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन और परशुराम के शरीर धारण किये। हे नाथ! जब-जब देवताओं ने दुःख पाया, तब-तब अनेक शरीर धारण करके आपने ही उनका दुःख नाश किया।
यहां एक और बात विचारने योग्य है कि जानवरों ने किस प्रकार राक्षसों का विनाश और देवताओं का कष्ट दूर किया? अपने अवतारवाद की हंसी तुलसी ने स्वयं उड़ाई है। श्रीरामचन्द्र जी को ईश्वर का अवतार बताकर तुलसीदास ने अपने इष्टदेव ही की अवहेलना की है क्योंकि परमात्मा के पद के ऊपर कोई दूसरा पद नहीं होता। जब गोसाईंजी श्रीरामचन्द्रजी को सन्ध्या और मूर्तिपूजा करनेवाला बताते हैं तो आप ही बताइये, क्या ईश्वर ही ईश्वर को स्थापित कर उसकी पूजा करेगा? सच बात तो यह है कि रामचन्द्रजी कोई ईश्वर नहीं बल्कि एक मनुष्य थे और अन्य मनुष्यों की तरह मानवजाति सुलभ कमजोरियों से खाली न थे। स्वयं रामचरितमानस ही इसकी साक्षी है। अरण्यकाण्ड दो० २९/चौ० ५ एवं लंकाकाण्ड दो० ६०/चौ० ३ मेरे कथन का प्रबल प्रमाण है।
•नामस्मरण विधि से मोक्ष
गोस्वामीजी श्रीराम के अनन्य भक्त थे और राम-नाम के महत्त्व का वर्णन कर डालने में उन्होंने बालकाण्ड की कितनी ही चौपाइयां एवं दोहे खर्च कर डाली हैं। उनके विश्वासानुसार यह राम-नाम का ही प्रताप था जिसने गणेशजी को देवताओं में प्रथम पूज्य बना दिया।
महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ।। -बाल०, दो० १८/चौ० २
अर्थात्- जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस 'राम' नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं।
गोसाईंजी का यह कथन पूर्णतः असत्य ज्ञात होता है, कारण कि ऐसे जीवधारी प्राणों के अस्तित्व में विश्वास नहीं होता जिसका धड़ तो मनुष्य का और मस्तक हाथी का हो और जो राम-नाम जपा करता हो। इसी प्रकार राम-नाम का महत्व दिखलाने के लिए किसी रामोपासक पुराणकार की एक और भ्रान्त कल्पित कथा का अनुगमन तुलसीजी ने आंख मूंद कर लिया है।
जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू।। -बाल०, दो० १८/चौ० ३
अर्थात्- आदिकवि श्रीवाल्मीकिजी रामनाम के प्रताप को जानते हैं, जो उलटा नाम (मरा-मरा) जपकर पवित्र हो गए।
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना।। -अयोध्या०, दो० १९३/चौ० ४
अर्थात्- जगत् जानता है कि उलटा नाम (मरा-मरा) जपते-जपते वाल्मीकिजी ब्रह्म के समान हो गए।
तुलसी का यह कथन भी सर्वथा मिथ्या है। शुद्ध और ब्रह्मज्ञानी बनने का एकमात्र उपाय वेदादि आर्ष ग्रन्थों का स्वाध्याय व तदानुकूल आचरण है, न कि राम-नाम का जपना। इसे ऐसे समझिए-
'किसी एक मूर्ख को एकान्त में इस प्रकार रखो कि वह किसी सदाचारी विद्वान् से मिलने न पावे और उसके नियमित रूप से भरण-पोषण का प्रबन्ध करके उससे अहर्निश, खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-जागते, राम-नाम का जप करने के लिए कह दो। पच्चास वर्षों के बाद भी आप उसकी मूर्खता में किसी प्रकार की कमी या उसकी बुद्धि में किसी प्रकार का प्रस्फुरण न पा सकेंगे। एक सिद्ध महात्मा तो बनना दूर रहा।'
एक अन्य उदाहरण लीजिए- 'किसी तोते को आप कितना भी राम-राम, राधे-राधे आदि रटा दीजिये। इससे वह क्या योगी तथा तत्वदर्शी बन सकता है? नहीं। योगी बनना तो दूर की बात, वह योग की कल्पना भी नहीं कर सकता है।'
उक्त उदारहण से स्पष्ट है कि मनुष्य की आत्मोन्नति व मुक्ति किसी नाम के जप से नहीं हो सकती। ऋषि वाल्मीकिजी वेदादि ग्रन्थों के स्वध्याय व सत्संग से योगी और ब्रह्मज्ञानी बनने में समर्थ हुए थे, न कि राम-नाम के उल्टे जाप से। जब गोसाईंजी सब प्रकार के चुटकुले बताते-बताते थक गए तो अन्त में आपने मुक्ति विचारी को कौड़ी के मोल लुटा दिया और नीच प्रवृत्ति में रत वेश्यादि को भी पुरस्कार-स्वरूप मुक्ति दे डाली-
अपतु अजामिल गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ।। -बाल०, दो० २५/चौ० ४
अर्थ- नीच (पापी) अजामिल, हाथी और वेश्या भी श्रीहरि के नाम के प्रभाव से मुक्त हो गए।
गोसाईंजी! यह भी बता देते कि रामराज्य में वेश्या कौन थी? मुक्ति का मार्ग भी आपने अपने मनचाहे तरीके से बनाया है, जो मनुष्य को अकर्मण्य, क्लांति और अनवधानता की ओर प्रेरित करती है-
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं।।
जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि।। -लंका०, दो० २/चौ० १
अर्थात्-- जो मनुष्य मेरे स्थापित किए हुए इन रामेश्वरजी का दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जायेंगे और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ावेगा, वह मनुष्य सायुज्य मुक्ति पावेगा अर्थात् मेरे साथ एक हो जाएगा।
नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु।। -बाल०, दो० २६
अर्थात्- कलियुग में राम का नाम कलपतरु (मनचाहा पदार्थ देनेवाला) और कल्याण का निवास (मुक्ति का घर) है, जिसको स्मरण करने से भांग-सा (निकृष्ट) तुलसीदास तुलसी के समान (पवित्र) हो गया।
भायँ कुभावयँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ।। -बाल०, दो० २७/चौ० १
अर्थात्- अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (वैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है।
वेद व ऋषियों ने सांसारिक भोगैश्वर्र्य्य को निःसार, अचिरस्थायी, अतः उपेक्षणीय बताते हुए मोक्ष को ही परम पुरुषार्थ का लक्ष्य माना और सभी को उसी की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने की सलाह दी। उपनिषदों का वचन है- 'तपसा चीयते ब्रह्म' अर्थात् ब्रह्म की प्राप्ति तप द्वारा ही सम्भव है (मुण्डको० १/१/८)। तुलसीजी यदि जरा भी ऋषिकृत ग्रन्थों का स्वध्याय करते तो ईश्वर व मोक्ष के वास्तविक रूप से अनभिज्ञ न होते।
•अनेकेश्वरवाद का ढोल
तुलसीदासजी के विचार अनेकेश्वरवाद का समर्थन करते हैं जबकि स्वामी दयानन्दजी द्वारा वेद विषयक वैचारिक क्रान्ति सत्य के जिज्ञासुओं के समक्ष वेदों में एकेश्वरवाद का सिद्धान्त प्रकट करती है। गोसाईंजी अनेकेश्वरवाद का ढोल बजाकर ईश्वर को अपमानित करने में अपनी बुद्धिमत्ता समझते थे, जैसा कि तुलसीदास के कथन से अभिप्रेत है-
राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे।। -बाल०, दो० ५९/चौ० २
अर्थात्- शिवजी राम-नाम स्मरण करने लगे। तब सतीजी ने जाना कि अब जगत् के स्वामी (शिवजी) जगे।
श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान। ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन।। लंका०, दो० ३
अर्थात्- श्री रघुवीर के प्रताप से पत्थर भी समुद्र पर तैर गए। ऐसे श्री रामजी को छोड़कर जो किसी दूसरे स्वामी को जाकर भजते हैं वे निश्चय ही मंदबुद्धि हैं।
यहां तुलसी ने घोषणा कर दिया कि श्रीरामजी के अतिरिक्त अन्य को भजने वाले मन्दबुद्धि हैं लेकिन अन्यत्र वह इसका विरोध करते हुए लिखते हैं-
सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा।।
संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी।। -लंका०, दो० १/चौ० ४
अर्थात्- जो शिव से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पाता। शंकरजी से विमुख होकर विरोध करके जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है।
शिव से द्रोह रखने की प्रथम शुरुआत तो आपने ही की। हिन्दू समाज को अनेकेश्वरवाद के सागर में उड़ेलने का कार्य गोसाईंजी ने बखूबी से निभाया है। अनेकेश्वरवाद सर्वथा वेद के विरुद्ध है क्योंकि वेद एकेश्वरवाद का प्रतिपादन करते हुए उच्च स्वर में घोषणा करता है- विद्वान् लोग एक ही परमेश्वर को अनेक नामों से पुकारते हैं (ऋ० १/१६४/४६)। वेदों में एकेश्वरवाद के समर्थन में अतिशय प्रमाण मिलते हैं लेकिन तुलसीदास की ऊर्जा भ्रम मात्र को प्रतिपादित करने में व्यय हुई है।
•नारी जाति के प्रति गोसाईंजी का दृष्टिकोण
गोसाईंजी के रामचरितमानस का समीक्षात्मक अध्ययन करने पर बहुत-सी शास्त्र विरुद्ध बातें मिलेंगी, पर आपने जो स्त्री जाति के विषय में सम्मति दी है उससे कोई भी विद्वान् शायद ही सहमत हो। आप स्त्री जाति में केवल दोष ही दोष देखते हैं, गुण एक भी नहीं। जब-जब आपको उनकी निन्दा करने का मौका मिलता है, तब-तब उस मौके से आप नहीं चूकते। यह बात दूसरी है कि आप किसी महिला-विशेष के पक्ष में अपवाद-स्वरूप कुछ गुण लिख दें। निम्नलिखित उद्धरणों पर दृष्टिपात कीजिए-
अधम ते अधम अधम अति नारी। -अरण्य०, दो० ३४/चौ० २
अर्थात्- जो अधम से भी अधम हैं; स्त्रियां उनमें भी अत्यन्त अधम हैं।
अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि। -अरण्य०, दो० ४४
अर्थात्- युवती स्त्री अवगुणों की मूल, पीड़ा देनेवाली और सब दुःखों की खान है।
सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय।। -अरण्य०, सो० ५
अर्थात्- स्त्री जन्म से ही अपवित्र है, किन्तु पति की सेवा करके वह अनायास ही शुभ गति प्राप्त कर लेती है। आज भी 'तुलसीजी' भगवान को प्रिय हैं और चारों वेद उनका यश गाते हैं।
स्त्री को जन्म से अपवित्र बतलाकर आप क्या सिद्ध करना चाहते थे? जब पति (पुरुष) की सेवा करके स्त्री शुभगति को प्राप्त होती है तो क्या वह पुरुष आकाश से जन्म लेता है?
अवगुन आठ सदा उर रहहीं।
साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।। -लंका०, दो० १५/चौ० १ और २
अर्थात्- स्त्री का स्वभाव सब सत्य ही कहते हैं कि उसके हृदय में आठ अवगुण सदा रहते हैं- साहस, झूठ, चञ्चलता, माया (छल), भय, अविवेक (मूर्खता), अपवित्रता और निर्दयता।
यहां तुलसीदास ने रावण को तीर और स्त्री को निशाना बनाकर प्रहार किया है। यह एक अच्छा नुस्खा अपनी 'नानापुराण-निगमागसम्मत' बुद्धि से बतला दिया। यही आपने पुनः अरण्यकाण्ड में दोहराया है-
भ्राता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी।। -अरण्य०, दो० १६/चौ० ३
यहां स्त्रीमात्र पर एक अति घृणित लांछन लगाकर तुलसीबाबा ने अपनी घटिया मानसिकता का प्रदर्शन किया है। आपके उक्त कथन का अभिप्राय यह है कि स्त्रियां ऐसी कुबुद्धि होती हैं कि वे केवल सुन्दर पुरुष चाहती हैं, चाहे रिश्ते में वह उनका भाई, पिता, पुत्रादि क्यों न हो। क्या गोसाईंजी के इस कथन से यह ध्वनि नहीं निकलती कि स्त्रियां इस प्रकार की भ्रष्ट जीव हैं कि वे अपने भाई आदि से भी, यदि वे रूपवान हों तो, अपनी काम-पिपासा को सन्तुष्ट करा लेने में तनिक भी नहीं हिचकती? माना कि यह वचन शूर्पणखा के प्रति कहा गया है लेकिन विचारणीय बात यह है कि इस वचन की कथन-शैली सैद्धान्तिक है न कि वैयक्तिक। दूसरी अर्द्धाली से उक्त ध्वनि और भी स्पष्ट हो जाती है-
होइ बिकल सक मनहि न रोकी। जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी।।
इसमें स्त्रीमात्र को पुंश्चली, भ्राता-पिता आदि के भी सौन्दर्य पर मुग्ध होनेवाली तथा इन्द्रिय-लोलुप कहा गया है। गोसाईंजी की सम्मति में संसार की समस्त बुराइयों और दुर्गुणों की जड़ तथा सद्गुणों की नाशक स्त्रियां ही हैं। जब स्त्री की निन्दा करके आपके हृदय में ठंडक मिल गया तो नारी विषयक मत की पूर्णाहुति यह कहकर कर दी कि-
काह न पावक जारि सक का न समुद्र समाइ।
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ।।
•श्रीराम के पिता दशरथजी का पुनः जीवित हो उठना
मृत शरीर का कुछ क्षण के लिए जीवित होकर आशीर्वाद देना यानी ईश्वर के नियम के साथ समझौता करना, यह केवल तुलसीजी के हवाईकिले में सम्भव हो सकता है।
तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए।
अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा।। -लंका०, दो० १११/चौ० १
अर्थात्- उसी समय दशरथजी वहां आये। पुत्र (श्रीरामजी) को देखकर उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल छा गया। छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित प्रभु ने उनकी वन्दना की और तब पिता ने उनको आशीर्वाद दिया।
इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं कि वेद-विरुद्ध, विज्ञान व सृष्टि-नियम के विपरीत, हास्यप्रद कथाओं के कारण तुलसीकृत रामचरितमानस त्याज्य है। तुलसीदास ने रामचरितमानस के द्वारा अन्धविश्वास के समर्थन में बहुत बड़ा योगदान दिया है। स्वामी दयानन्दजी आर्यसमाज के आठवें नियम में लिखते हैं- 'अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।' यदि आप अपने ऐतिहासिक ग्रन्थ रामायण पर विधर्मियों द्वारा लगाए झूठे आक्षेपों को नहीं सुनना चाहते तो महर्षि वाल्मीकिजीकृत "रामायण" अवश्य पढ़ें और इन विधर्मियों को मुंहतोड़ जवाब दें। मैं आशा करता हूं, जो तुलसीदास के कारण इस अन्धविश्वास रूपी जाल में पथभ्रष्ट हैं उनको इस लेख से वेद का सन्मार्ग मिलेगा।
[स्त्रोत- आर्ष क्रान्ति : आर्य लेखक परिषद् का मुख पत्र का जुलाई २०१९ का अंक]
[स्त्रोत- आर्ष क्रान्ति : आर्य लेखक परिषद् का मुख पत्र का जुलाई २०१९ का अंक]
Comments
Post a Comment