-डॉ० रूपचन्द्र 'दीपक' प्रधान आर्य समाज श्रृंगारनगर, लखनऊ
यन्मे छिद्रं चक्षुषो हृदयस्य मनसो वातितृण्णं बृहस्पतिर्मे तद्दधातु।
शं नो भवतु भुवनस्य यस्पति:। -यजुर्वेद ३६/२
पदार्थ :- (यत्) जो (में) मेरे (चक्षुष:) नेत्र की, (हृदयस्य) अन्तःकरण की (छिद्र) न्यूनता (वा) वा (मनस:) मन की (अतितृण्ण्म्) व्याकुलता है (तत्) उसको (बृहस्पति:) ईश्वर (मे) मेरे लिए (दधातु) पूर्ण करे। (य:) जो (भुवनस्य) संसार का (पति:) रक्षक है, वह (न:) हमारे लिए (शम्) कल्याणकारी (भवतु) होवे।
नेत्रों के छिद्र
नेत्रों के कुछ छिद्र निम्नलिखित हैं-
(१) दृष्टिदोष अर्थात् ठीक से न देख पाना।
(२) जिस वस्तु वा मनुष्य पर दृष्टि पड़े, उसे भीतर तक न समझ पाना।
(३) किसी पर कुदृष्टि डालना।
(४) नेत्रों में स्नेह का अभाव। यह बहुत बड़ी कमी है। इसे दूर करने हेतु वेद में प्रार्थना की गयी है-
मित्रस्याऽहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। -यजुर्वेद ३६/१८
अर्थात् मैं सब प्राणियों को स्नेह की दृष्टि से देखूं।
(५) उत त्व: पश्यन्न ददर्श वाचम्। -ऋग्वेद १०/७१/४
यदि हम नेत्रवान् होकर भी शत्रु-मित्र की पहचान न कर पाये, अपने सामने बाधारूप पड़े क्षणिक सुख को अनदेखा न कर पाये और धर्म-अधर्म के मध्य खींची सूक्ष्म रेखा न देख पाये, तो फिर हम कैसे नेत्रवान् हैं?
हृदय के छिद्र
भौतिक हृदय मनुष्य के शरीर का एक अंग है, जो रक्त के शोधन एवं परिभ्रमण का कार्य करता है। मन्त्र में बताया गया हृदय कोई दिखायी देने वाली वस्तु नहीं, अपितु भावों का केन्द्र है। इसे अन्तःकरण भी कह देते हैं। वैसे मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार के समूह को अन्तःकरण कहते हैं किन्तु बोल-चाल में हृदय, मन एवं अन्तःकरण का एक-दूसरे के लिए प्रयोग होता आ रहा है। इस भावात्मक हृदय के मुख्य तीन दोष हैं-
परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम्।
वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम्।। -मनुस्मृति १२/५
अर्थात्-
(१) चोरी। कर्म से चोरी करना तो शारीरिक दोष है। किन्तु इससे पहले हृदय से चोरी का भाव उत्पन्न होता है। ऐसा भाव रखना ही हृदय से चोरी कहलाता है।
(२) अनिष्ट चिन्तन; किसी के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, घृणा और शत्रुता का भाव रखना। इस बुरे भाव के कारण मनुष्य मनुष्य का शत्रु बना हुआ है। वह अन्यों को दुःख पहुंचाता है और अपने हृदय में धधकती अग्नि के कारण स्वयं भी दुःख पाता रहता है।
(३) मिथ्यानिश्चय; किसी के प्रति भूल कर बैठना वा गलतफहमी रखना। संसार में इसके कारण अनेक कष्ट उत्पन्न हो जाते हैं। अनेक बार यह देखा गया है कि गलतफहमी के कारण दो व्यक्तियों के मध्य कटुता उत्पन्न हो गयी। कुछ तमाशा देखने वाले लोग मित्रों के बीच भी गलतफहमी उत्पन्न करा देते हैं। अतः इस दोष को छोटा न समझें।
मन की व्याकुलता
यत्तु दुःखसमायुक्तमप्रीतिकरमात्मन:।
तद्रजो प्रतिपं विद्यात्सततं हारि देहिनाम्।। -मनुस्मृति १२/२८
रजोगुण के कारण प्रीति एवं प्रसन्नता का अभाव और दुःख की अनुभूति होती है। चित्त एकाग्र न होने से चञ्चलता आती है। सत्त्वगुण की कमी के कारण मन में सुख एवं प्रकाश का अभाव और अशान्ति उत्पन्न होती है। ऐसी अवस्था में बाह्य साधनों की बहुलता भी वास्तविक सुख नहीं दे पाती और व्याकुलता बनी रहती है।
पानी में मीन प्यासी
अपां मध्ये तस्थिवांसं तृष्णाविदत् जरितारम्।
मृडा सुक्षत्र मृडय।। -ऋग्वेद ७/८९/४
हे प्रभो! आप सर्वव्यापक, संसार के स्वामी, सबके रक्षक एवं सुखप्रदाता हैं। मेरी इन्द्रियों के दोषों, बुद्धि की भूलों एवं अहंकार के कारण मन में व्याकुलता बनी है। ऐसा लगता है, जैसे पानी में रहते हुए भी मछली प्यासी हो। अतः आप कृपा कीजिए और मुझे पापों, तापों एवं दुःखों से छुड़ाकर सुख, शान्ति एवं आनन्द प्रदान कीजिए।
[स्त्रोत- दयानन्द सन्देश : आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट का मासिक पत्र का जून २०१९ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
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