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गायत्री



गायत्री

स्वामी समर्पणानन्द

कर्मयोगी कहते हैं कि कर्म करो। भगवान् है या नहीं इस झगड़े में क्या मिलेगा?
भक्तियोगी कहते हैं कि नाम भजते रहो। यही सबसे बड़ा कर्म है।
परन्तु निरा नाम-भजन तो आलस्य और अकर्मण्यता का ही प्रच्छन्न और इसीलिये अति भयंकर रूप है।
दूसरी ओर भक्तिहीन कर्म चाबीहीन घड़ी के समान है, एक बार घड़ी खड़ी हो गई तो दुबारा कौन चलाए। भक्तिहीन कर्मयोग भारी मूर्खता है। शक्ति का भण्डार तो है पर हम उससे लाभ नहीं उठाते।
भगवान् भक्तों की बुद्धि को प्रेरणा देता है, परन्तु भक्त नाम आलसी और अकर्मण्य का तो नहीं।
"धियो यो न: प्रचोदयात्"। हम उसका ध्यान करें जो हमारी बुद्धियों और कर्मों को प्रेरणा दे। यह भक्तियोग है।
परन्तु यह प्रेरणा किसको मिलती है, क्या कर्महीन आलसियों को? कदापि नहीं। प्रेरणा उन्हें मिलती है जो निरन्तर उसे अपने अन्दर धारण करते हैं। यह कर्मयोग है। यह कर्मयोग कैसे है-
प्रभु को अपने अन्दर धारण करना सर्वश्रेष्ठ कर्म है।

प्रश्न उठता है कि प्रभु क्या कोई कुर्त्ता, धोती, पगड़ी एवं अंगरखा है जो धारण किया जाता है। इसका उत्तर वेद इन शब्दों में देता है।
"स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव।" ऋ० ५/५१/१५
हम सूर्य और चन्द्र के समान स्वस्ति मार्ग पर चलें।

इस भाव को ऋ० १०/२/३ मन्त्र में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है।
'आ देवानामपि पन्थामगन्म यच्छक्नवाम तदनुप्रवोढुम्।'
हम, जिस सुन्दर शासन-व्यवस्था में सूर्य चन्द्रादि देव, उस प्रभु की आज्ञानुसार चलते हैं उसी के अनुसार अपने जीवन-रथ को वहन करने में समर्थ हुए हैं। उतने अंश तक ही हमने देव-मार्ग का अनुसरण किया है।

बस यह अनुसरण-कर्म ही मनुष्य को प्रभु से प्रेरणा लेने का अधिकारी बनाता है।
इस प्रकार 'धीमहि' में कर्मयोग और 'धियो यो न: प्रचोदयात्' में समर्पणात्मक भक्ति-योग का अद्भुत समन्वय है।
यह देवों का अनुसरण ज्ञान, प्रयत्न और सुख अथवा सच्चिदानन्द इन तीन अङ्गों में बंटा हुआ है। प्रभु के जितने गुण वेद में वर्णित हैं, वे ज्ञान, प्रयत्न और सुख इन तीनों भागों में हैं। हमें सुखस्वरूप बनना है। इसलिये आवश्यक है कि हम समयग्ज्ञान प्राप्त करें और तदनुकूल प्रयत्न अथवा आचरण करें।

हमने ठीक ज्ञान और ठीक प्रयत्न किया है या नहीं, इसका प्रमाण है कि हमने पूर्णसुख प्राप्त किया है या नहीं? बस यह ज्ञान 'भू:' है, प्रयत्न 'भुवः' है और सुख 'स्व:' है।
यन्नदुःखेन साभिन्नम् न च ग्रस्तमनन्तरम्।
अभिलाषोपनीतम् च तत् सुखं स्व: पदास्पदम्।।

बस इस भू:, भुवः, स्व:, का ही संक्षिप्त रूप 'ओ३म्' है। ध्वनि-मात्र का आदि मूल 'अ' और स्थान कण्ठ है।
मध्य 'उ' और स्थान मुख का मध्य है। म् सब संगीतमय ध्वनियों का अन्त है और सच पूछिये तो ध्वनि मात्र का अन्त है, क्योंकि यही एक अक्षर है जो मुख बन्द करने पर भी बोला जा सकता है। इसका स्थान ओष्ठ है।
मकार ही एक ऐसा अक्षर है जो मुख बन्द करने पर भी बोला जा सकता है, इसीलिये यह समाप्ति का सूचक है और मधुर होने के कारण संगीतमयता का सूचक है। इसीलिये यह 'स्व:' का अर्थात् परम सुख का प्रतीक है।
यदि इनमें से एक-एक अंग का ही अभ्यास करें तो मनुष्य का पूर्णपरिपाक न होगा। पूर्णपरिपाक कराने वाला तो 'भूर्भुवः स्व:' का समन्वय है। इसलिये उस समन्वय को 'भर्ग:' ठीक परिपाक करने वाला कहा गया है।
परन्तु यह रूप पूर्णरूप से धारण किया गया तब समझना चाहिए 'जब' वह स्वादुतम अन्न के समान आग्रहपूर्वक वरण करके खाया जाय। जो अन्न खिन्न मन से जैसे-तैसे गले के नीचे उतार लिया जाता है वह 'धकेलेन्यम्' भले ही हो, वरेण्यम् नहीं कहला सकता।
वह स्वाद भी साधारण नहीं अलौकिक हो, जिसे तत् कहकर अनिर्वचनीयता का रूप दे दिया जाय।

अब इस मन्त्र में परमात्मा को सविता के नाम से कहा गया है, इसीलिये इस गायत्री को (गेय गीत को) सावित्री कहा गया है।
सविता का अर्थ है शासन का स्त्रोत, सू का अर्थ है शासन करना। सविता का अर्थ हुआ शासन करने वाला। राष्ट्र में जब राजा राज्य के नियमों का निर्माण करता है तब सविता, जब दण्ड देता है तब यम, जब अधिकारों का निर्णय करता है तो 'अर्यमा', जब शक्ति दिखाता है तो इन्द्र कहलाता है, परन्तु इन्द्र को भी शासन-सत्ता सविता से प्राप्त होती है। ऋग्वेद में स्पष्ट शब्दों में कहा है-
सविता यन्त्रै: पृथिवीमरम्णात् -ऋ० १०/१४९/१
सविता ने राज्य को नियन्त्रित करने वाले नियमों से धरती को रमणीय बना दिया। बस यह नियम बनाने वाला (विधान निर्मात्री सभा का रूप) रूप ही सविता रूप है।
हम 'भूर्भुवः स्व:' स्वरूप ओ३म् के उस परिपाक प्रगल्भ सविता रूप को जो अति वरेण्य है, सदा धारण करें, जिससे समर्पण की भावना पूरी हो और वह हमारी बुद्धियों को युक्ति-मार्ग पर चलावे। इस प्रकार-

१. ओ३म्- सच्चिदानन्द का विकसित रूप।
२. भू:- ज्ञान।
३. भुवः- कर्म।
४. स्व:- सुख है।
५. तत्- उस अनिर्वचनीय।
६. देवस्य- दिव्य-शक्ति-सम्पन्न।
७. सवितु:- नियम-निर्माण के अधिष्ठाता के।
८. भर्ग:- परिपाक प्रगल्भ।
९. वरेण्यम्- वरणीयतम रूप को।
१०. धीमहि- हम (केवल अकेला मैं नहीं सब) सब धारण करें। अनुसरण द्वारा आत्मसात् करें।
११. य:- जो।
१२. न:- हमारी (बहुवचन सर्वभूत हित का सूचक)।
१३. धियः- कर्म और प्रज्ञा को।
१४. प्रचोदयात्- सन्मार्ग पर चलावे।

इस प्रकार इन १४ अंगों से युक्त गायत्री को श्वास-प्रश्वास के संगीत में मिलाकर मनुष्य अपने जीवन में उस स्थान पर जा पहुंचे जहां हमारे जीवन का नेता यह गायत्री मन्त्र हमें पहुंचाना चाहता है, सो इसके पीछे-पीछे (अनु) चलते-चलते वहीं हम स्थित हो जावें जहां इसका ठहरने का स्थान है तो हम कह सकेंगे कि हमने गायत्री का अनु-स्थान= अनुष्ठान कर लिया। यह है गायत्री का अनुष्ठान।
यहां इस लघु लेख की समाप्ति से पूर्व एक बात की ओर विशेष ध्यान दिलाना आवश्यक है इसलिये उसको विशेष रूप से पृथक् करके वर्णन करते हैं। यह है सविता देवता का स्वरूप, परन्तु इसका निरूपण करने से पूर्व हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि यह शब्द किस धातु से बना है। यह शब्द 'सू प्रेरणे' इस तुदादिगण की धातु से बना है। इसके लिए दो ही प्रमाण पर्याप्त हैं।

पहिला तो 'विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्न आसुव' यह प्रसिद्ध मन्त्र है इसमें, परासुव और आसुव पद स्पष्ट रूप से तुदादिगण की सूचना दे रहे हैं।
ऋग्वेद में ४/५३/३ मन्त्र में सविता के साथ पड़ा हुआ प्रसुवन् शब्द स्पष्टतया तुदादिगण की 'सू प्रेरणे' इस धातु की ओर निर्देश कर रहा है।
इसी प्रकार ऋग्वेद ३/३३/६ में कवियों की वाग्धारा कहती है- 'तस्य वयम् प्रसवे यामउर्वी:' उस इन्द्र के शासन में हम दूर तक चल रहे हैं, यहां प्रसव शब्द का अर्थ बच्चा जानना नहीं, किन्तु शासन है। इसी प्रकार वेद में 'सवितु: प्रसवेऽश्विनोबाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्' यह तीनों एक साथ आते हैं जिसका अर्थ है कि यह कर्म्म सविता के शासन में अश्वियों के साधन से पूषा के हाथों से हो रहा है, सो सविता देवता वही है, जब किसी राष्ट्र के प्रताप का उदय होता है। उससे पूर्व राष्ट्र के उत्साहमय अभ्युत्थान की उषा आती है, फिर राज्य का नियम निर्माण होता है, फिर शासन। यही बात ऋग्वेद ५/८२/२ इस मन्त्र के 'अनुप्रयाणमुषसो विराजति', इन शब्दों में कही है। सवितादेव उषा के प्रयाण के पीछे विराजमान होता है।

यही बात सायणाचार्य ने ऋग्वेद १०/१३९/१ मन्त्र की व्याख्या में इन शब्दों में स्पष्ट कही है। उषस: प्रादुर्भावानन्तरं सूर्यस्योदयात् पूर्वम् य: कालस्याभिमानी देव: सवितोच्यते। अर्थात् उषा के प्रादुर्भाव के पश्चात् सूर्योदय से जो काल है, उस समय का सूर्य सविता कहलाता है। बस, स्पष्ट है कि व्यक्ति के जीवन से लेकर मानव, राष्ट्र के जीवन तक कर्मयोग के उत्साह के जन्म के पश्चात् कर्म में लगने से पूर्व भावी कार्यक्रम के सम्पूर्ण नियम बना लेने चाहिए। कर्मयोग में हाथ-पैर चलेंगे किन्तु उससे पूर्व हमारी बुद्धियों को नियम बनाने के निमित्त ठीक प्रेरणा मिलनी चाहिए, यही सविता देवता का काल है, सो इसी समय 'धियो यो न: प्रचोदयात्' यह प्रार्थना कितनी ठीक बैठती है। यह सहृदयों के रसास्वादन का विषय है, वाग्विलास का नहीं, बस इसको जानकर सावित्री का मर्म समझ में आता है। प्रभु की कृपा हो कि हम इसे समझकर गायत्री का ठीक अनुष्ठान करने में समर्थ हों।

[स्त्रोत- परोपकारी : महर्षि दयानन्द सरस्वती की उत्तराधिकारीणी परोपकारिणी सभा का मुख पत्र का जुलाई प्रथम २०१९ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

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