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वैदिक युग का साकार चित्रण



वैदिक युग का साकार चित्रण

लेखक- महामहोपदेशक पं० शांति प्रकाश, व्याख्यान वाचस्पति
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ

दिन तथा रात्रि की भांति सृष्टि और प्रलय का प्रवाह अनादि काल से अनन्त काल तक चलता रहता है। जैसे दिन के पश्चात् रात्रि और रात्रि पश्चात् दिन का क्रम है तथा दिन से पूर्व रात्रि और रात्रि से पूर्व दिन था, इसी प्रकार ब्रह्म-दिन और ब्रह्म-रात्रि का क्रम है।
इसी सृष्टि से पूर्व प्रलयकालीन रात्रि का तम था जिसमें कोई भी कार्य या दृश्य पदार्थ वर्तमान न था। केवल कारणरूप प्रकृति थी, जिसे शास्त्रों में अनिर्वचनीय और वेद में सदसत् कहा है। सत् कहने का कारण यह है कि प्रकृति परमाणुरूपेण विद्यमान थी। किन्तु उस समय सब कारोबार-व्यवहारादि का अभाव होने के कारण उसे 'असत्' भी कहा जा सकता है। इसीलिए वेद भगवान् ने कहा कि-

न सदासीन्नासदासीत्तदाणीम्।। -ऋग्वेद
ईश्वर ने अपनी ईक्षण शक्ति से प्रकृति को कार्यरूप में परिणत करके अनेक रूप बना दिया, जिससे इस सारे संसार- सूर्य, चन्द्रमा, पृथिवी आदि प्रकाशमय तथा अप्रकाशमय लोक-लोकान्तरों की रचना हुई।

यो अन्तरिक्षे रजसो विमान:।। -ऋग्वेद
ईश्वर अन्तरिक्ष में अनेक प्रकार के लोक-लोकान्तरों की रचना कर रहा है। और यह सब कार्य ईक्षण शक्ति से होता है। ईश्वर के स्वाभाविक ज्ञान-बल-क्रिया को शास्त्रों में ईक्षण कहा है-

तदैक्षत बहु स्यां प्रजाययेति।
ईश्वर ने इच्छा की कि बहुत प्रजावाला हो जाऊं। बस, ईश्वरीय स्वाभाविक ईक्षण होने पर प्रकृति में क्षोभ हुआ। जैसा कि जीव में इच्छा होने पर शारीरिक अंग-प्रत्यंग कार्य में प्रवृत्त हो जाते हैं, ईश्वर के ईक्षण से प्रकृति के परमाणुओं में गति होने लगी और महतत्त्व की उत्पत्ति हुई, उससे अहंकार, पुनः पंचतन्मात्रा, इन्द्रियां, पंच महाभूतादि प्रकट हुए।

यह हमारी भूमि भी इस प्रकृति का एक अंग है। जब भूमि बनकर तैयार हुई, तो जलमग्न थी। तब पृथिवीस्थ अग्नि ने उस जल को सुखाना शुरू किया और जल ने अग्नि को शान्त किया। इस प्रकार जल से जो स्थान प्राणियों के निवास-योग्य प्रकट हुआ उसका नाम 'त्रिविष्टप' है जिसे आजकल की भाषा में तिब्बत कहते हैं। यहां पर सर्वतः प्रथम पानी तथा मनुष्य-समाज की उत्पत्ति हुई। ग्राम्य तथा अरण्य पशु पैदा हुए।
चींटी से हाथी-पर्यन्त सबके बन चुकने पर, मनुष्य-समाज का निर्माण हुआ। पृथिवी से सहस्त्रों नर-नारी युवावस्था में सहसा किन्तु एक-साथ प्रकट हुए। क्योंकि, बच्चे पैदा होने पर उनके भरण-पोषण का प्रबन्ध माता-पिता के अभाव में सम्भव न था। वे बच्चे नष्ट हो जाते। शेर-चीते उनका शिकार कर लेते। ऐसे बालक जीवित न रह सकते। अतः ईश्वर ने मानस सृष्टि युवावस्था-युक्त की। ये युवा स्त्री-पुरुष अपनी रक्षा आप कर सकते थे। सिंह-व्याघ्रादि से सुरक्षित रह सकते थे। भूमि पर उत्पन्न होने से चल-फिर-घूम और दौड़कर सभी कार्य करने में उनका शरीर समर्थ था। किन्तु अब शरीर-विकास के साथ ही बौद्धिक विकास की आवश्यकता भी थी। इन सहस्त्रों नारी-नररत्नों के साथ चार ऋषि-पुंगव उत्पन्न हुए जिनका नाम अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा है। क्रमशः ज्ञान, कर्म, उपासना तथा विज्ञान की एक-एक में प्रधानता थी। इन ऋषियों के हृदय में ऋग्यजु--सामाथर्व वेदचतुष्टय का आविर्भाव ईश्वर की ओर से हुआ। अतः ईश्वर ही ऋषियों का तथा संसार का आदिगुरु है। ऋषि लोग ईश्वरीयादेश से बोलने लग गए। ईश्वर ने ग्रामोफोन के रिकॉर्ड की भांति ऋषियों में पूर्व से वर्तमान ज्ञानयुक्त हृदय को प्रेरित किया। ऋषियों ने आत्मना उसका श्रवण करके प्रवृत्ति का प्रारम्भ किया। शेष सब मनुष्यों को शिक्षित-दीक्षित करना शुरू कर दिया। सबको समस्त ज्ञान-विज्ञान से अलंकृत किया। इन सब में ब्रह्मा जी अद्वितीय विद्वान् हुए। चारों वेदों को कण्ठाग्र कर लेने के कारण चतुर्मुख कहलाए।

जब मनुष्यों को प्यास लगी तो ऋषियों ने जल के गुण, मन्त्रों द्वारा गाए। स्वयं जलपान किया तथा अन्य मनुष्यों को जलपान का यथार्थ ढंग सिखाया। यह मनुष्यों का प्रथम जलपान था। मनुष्यों को भूख लगी। फलदार वृक्ष फलों से लदे खड़े थे। प्रकृति माता की शोभा पूर्ण यौवन पर थी। वसन्त ऋतु का समय था। अतः ऋषियों ने मन्त्रों द्वारा फलों के गुणों का व्याख्यान किया। गन्दुम आदि खाद्य पदार्थों की यथार्थता सार्थक की। स्वयं भोजन किया और अन्य मनुष्यों को भोजन करने की विधि बताई। यह मनुष्यों का प्रथम भोजन था। गौवें घास खाती हुई सन्मुख उपस्थित हुईं। ऋषियों ने गौ-स्तुतिपरक मन्त्र गाए, दुग्ध-दोहन-कला सिखाई। दुग्धपान किया और कराया तथा गौ-पालन-विधि का पूर्णतया प्रकाश हुआ। अश्वारोहण-विद्या सिखाई। भेड़-बकरी के पालन के लाभ बताए। पशु-रक्षा का आदेश किया।
स्त्री-पुरुष सब बराबर समझे गए। असमानता का चिन्ह तक न था। न परदा था और न दासी-भाव। परस्पर-गुण-कर्मानुसार विवाह होने लगे। वेदमन्त्रों का गान हुआ। विवाह-सम्बन्धी मन्त्रों की ध्वनि उठी। यज्ञाग्नि का प्रकाश किया गया और ब्रह्मचर्याश्रम के साथ गृहस्थ धर्म की प्रवृत्ति हुई। अन्यथा मनुष्य पशु-पक्षी आदि जन्तुओं को गुरु बनाकर तद्वत् माता-भगिनी-कन्यादि में विवेक-बुद्धि से शून्य होते, किन्तु वैदिक ज्ञान ने मार्ग-प्रदर्शन किया। गृहस्थाश्रम के धर्म चालू हो गए।
अब सन्तानोत्पत्ति होने लगी। सभी वैदिक संस्कार समयानुसार प्रवृत्त किए गए। समाजशास्त्र तथा मनुष्य-निर्माण-शास्त्रों को चरितार्थ होने का समय मिला। ब्रह्माजी से विराट्, उससे मनु, पुनः मरीच्यादि ऋषियों की उत्पत्ति हुई। पुनः इक्ष्वाकु के वंश का उद्गम हुआ। इक्ष्वाकु जी ब्रह्माजी की छठी पीढ़ी में माने जाते हैं। अब तक सब कार्य ऋषियों के आदेशानुसार वेद-विधान में होते थे। न भूमिपति थे, न किसानों की दरिद्रता। संग्रह करने की इच्छा अभी तक प्रकट न हुई थी। थोड़े-से मनुष्य थे और फलों-फूलों तथा खाद्य पदार्थों से लदी हुई पृथिवी। शुभ संस्करों से युक्त मनुष्य थे, अतः संग्रह को पाप समझा जाता था। यज्ञ का अर्थ परोपकार तथा पारस्परिक प्राणी मात्र की उन्नति करना समझा जाता था। इच्छा थी तो केवल लोक-संग्रह की। परस्पर सहानुभूति तथा सहायता की बाढ़ आई हुई थी। निकम्मे और निठल्ले लोगों को दस्यु और समाजद्रोही समझा जाता था जिनको कोई भी आश्रय न देता था।

धीरे-धीरे मनुष्य-समाज बढ़ने लगा। कुछ कुप्रवृत्तियों के लोग भी उत्पन्न हो गए और पदार्थों का संग्रह करने लगे। जो अच्छा उद्यान देखा, झट कह दिया कि यह मेरा है। लोभ का झंडा तैयार था। अब तक सम्पत्ति साँझी थी, हर व्यक्ति थोड़ी-सी मेहनत करके ईश्वरीय देन से लाभ उठा रहा था। उनका समय-यापन ईश्वर-भक्ति, वेद-विचार तथा लोक-परलोक-सुधार में व्यतीत होता था। किसी राजशक्ति की आवश्यकता न थी। दण्ड की दमन-नीति का चक्र न चला था। सभी लोग स्वछन्द और स्वतन्त्र रहकर भी प्राणीमात्र को आत्मवत् समझ रहे थे। पृथिवी परिवारवती थी। सभी लोग इस एक परिवार का खुद को अंग समझते थे। इसीलिए त्रिविष्टप आर्यों का आदि-जन्मभूमि स्वर्ग कहलाती थी। आर्यों का प्रथम जन्म स्वर्ग में हुआ। बाइबिल और कुरान ने इसे बहिश्त कहा, जिसे अथर्ववेद भी 'बहिष्ठ' कहता है। यहां बहुत ऊंचा यज्ञ हो रहा था, यह था 'प्राण यज्ञ'। हर प्राणी दूसरे प्राणियों को प्राण-शक्ति सम्पन्न कर रहा था। प्राण-दान की बाढ़ आई हुई थी।
किन्तु अब लोभ महाराज का जम्म हुआ। इसके अंकुर जड़ पकड़ने लगे। लोभ के बढ़ने पर अभिमान तथा अहंकार जी ने दर्शन दिए। क्रोध इनका सहचर था। काम ने भी अपनी सेना खूब सजाई। पुनः मोह का क्या ठिकाना! फिर लगे छीना-झपटी करने! दैवी संपत् को नष्ट तथा आसुरी संपत् को फलता-फूलता देख समस्त ऋषि-मुनि विष्णु की, संगठनरूप यज्ञ की स्तुति करने लगे और वेद के पवित्र शब्दों में पुकार उठे-

कृणोत धूमं वृषणं सखायोऽस्त्रेधन्त इतन वाजमच्छ।
अयमग्नि: पृतनाषाट् सुवीरो येन देवासोऽसहन्त दस्यून्।।
ऐ समान गुण-कर्म-स्वभावयुक्त मित्रो! इकट्ठे हो जाओ। अपने संगठन-यज्ञ को सुतरां दृढ़ करो, और इस संगठन-यज्ञाग्नि का बलवान् धुआं सर्वत्र फैला दो अर्थात्, इस संगठन से बाहर कोई दैवी शक्ति अवशिष्ट न रहे! हां, ध्यान रखना कहीं यह संगठन-बल तुम्हारा अपना नाश करनेवाला न हो। तुम सब मनसा-वाचा-कर्मणा एक-साथ गति करते हुए संसार की विभूतियों को सबके लिए बनाए रखने के हेतु, बहुत बड़े संग्राम को प्राप्त होओ। राष्ट्र के, समाज के, हर व्यक्ति तक अग्नि का पवित्र हुआ धुआं पहुंचा दो। यही मनुष्यों के हृदय में जलता हुआ अग्नि बड़ा वीर तथा समस्त आपत्तियों को दबानेवाला है। इसी जलती आग से प्रज्वलित होकर समस्त देवता स्वार्थी दस्यु राक्षसों के स्वार्थ का अन्त कर सकते हैं।

अब तक सर्वत्र ब्रह्मधर्म प्रधान था। उपदेश, यज्ञ-योग पठन-पाठन द्वारा धर्मपूर्वक सब अर्थ सिद्ध और मोक्ष का द्वार खुल रहा था। बिगड़े-तिगड़े मनुष्य, नेताओं के उपदेशामृत से सीधे मार्ग पर आ जाते थे। पर अब क्षत्र-बन्धु की आवश्यकता हुई, क्योंकि स्वार्थ की भीषणता बढ़ रही थी। केवल उपदेश से स्वार्थ-त्याग कठिन था। अतः वेदों से दण्डविधान-सम्बन्धी मन्त्रों का संग्रह करके राजनीति का संविधान घोषित किया गया, जो होते-होते पश्चात् मनु-धर्मशास्त्र के नाम से प्रख्यात हुआ।
सब देवताओं ने मिलकर अपने राजा को स्वयं देदीप्यमान होकर समाज तथा राष्ट्र को चमकानेवाला नेता चुना। उसकी पीठ पर दण्ड स्पर्श किया गया कि यदि मर्यादा भंग करोगे तो प्रजा का दण्ड तुम्हारे ऊपर भी है। वेदमन्त्रों द्वारा जल से आभिषिक्त किया। उसके अंगरक्षक, सेनापति, मन्त्रीमण्डलादि निश्चित हुए। ब्रह्मशक्ति तथा क्षत्रशक्ति द्वारा वैश्य धर्म की प्रवृत्ति हुई। खेती-बाड़ी तथा व्यापार द्वारा प्रजा की आवश्यकता-पूर्ति होने लगी। कलाकौशल-वृद्धि के लिए चौथा वर्ग प्रवृत्त हुआ। संगठन तथा मर्यादा-पालन में सब एक थे। कर्त्तव्य-दृष्टि से वर्ग चार हो गए, किन्तु ध्येय-दृष्टि से सब एक थे। पूर्ण सन्तोष था। यह राज्य-व्यवस्था सबके हृदयों में घर कर गई। हर एक वैयक्तिक रक्षा से निश्चिन्त होकर, राष्ट्ररक्षा में नियुक्त हो गया। स्वार्थी राक्षस प्रवृत्ति के लोगों की दाल गलनी बन्द हो गई। उनकी आधी शक्ति समाप्त हो गई। यदि कुछ दम-खम था भी तो उस पर हल्ला बोल दिया गया। वे भी सावधान थे। पर्याप्त माया के स्वामी बन चुके थे। शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित थे। बहकाना भी उनको आता था। अच्छी सेना सजाकर मैदान में डट गए। तिब्बत की स्वर्गभू: में घमासान रण हुआ। यह संसार का प्रथम महायुद्ध था, जो स्वर्गलोक में आदिसृष्टि में लड़ा गया, जिसको देवासुर-संग्राम के नाम से याद किया जाता है।
इसमें देवताओं-दैवी-शक्तियुक्त आर्यों की विजय हुई। राक्षस परास्त हुए। उनके दल-बल-राज्यादि को विनष्ट करके अब शिष्टों को समाज का अंग बनाया। असुरों ने भी अनुभव किया कि हम ठीक मार्ग पर न थे, अतः वे दैवी राज्य के अंगीभूत हो गए।
अब विचार हुआ कि भूमि थोड़ी है। मनुष्य-पशु आदि बढ़ रहे हैं। अतः नई बस्तियां बसानी उचित हैं। विद्वान् लोग विश्वकर्मा-रचित विमानों द्वारा समस्त भूमि का भ्रमण करने लगे और इस निश्चय पर पहुंचे कि ब्रह्मवती से सिन्धु नदी तक तथा हिमालय से विन्ध्य एवं समुद्र तक फैला हुआ यह भू-भाग मनुष्य के रहने योग्य बन चुका है। संसार-भर में सबसे अधिक सुन्दर है। वृक्ष-लतादि से लदा पड़ा है। नदियां इसमें कल्लोल करती हुई दौड़ रही हैं। इसमें छहों ऋतुओं का प्रवेश है। दुर्ग की भांति सर्वथा शत्रु से रक्षित है। समुद्र इसकी खाई है। हिमालय इसका सन्तरी है। तिब्बत-कश्मीरादि की नदियां इसका स्वर्ग हैं। पश्चिम तथा पूर्व के पर्वतीय दरें इसके सुदृढ़ द्वार हैं। आर्य महासागर द्वारा संसार के समस्त समुद्रों से मिला हुआ है।

अतः प्रथम इसी को बसाने का निश्चय हुआ। हरिद्वार के मार्ग से पर्वतों को काटते, नदियों को लांघते हुए आर्य लोग अपने पूर्ण राज-वैभव और अनुभवी महापुरुषों के साथ इस भूमि में पहले-पहल अवतरित हुए। नदियों के तटों पर सर्वोत्तम नगर बसाये गए। जलयान का निर्माण करके जहाजों द्वारा तथा सड़कों-सरणियों द्वारा नगरों को परस्पर मिलाया गया। प्रत्येक व्यक्ति को सुखाद्य पदार्थों, पहरावों, औषध, शिक्षादिक सुविधाओं की गारंटी दी गई। राज्य-व्यवस्था को सुस्थिर रखने के लिए राजधानी सरयूतीर पर बनाई गई। यह अड़तालीस कोस लम्बी, बारह कोस चौड़ी थी। सीधे बाजार, चौपथ-युक्त नव द्वारों, अष्ट चक्रों, बुर्जों, परिखाओं, रक्षादलों, भुशुण्डी-शतघ्नी-तोमरादि से युक्त इस राजधानी की शोभा निराली थी। प्रथम मनु इसके अधिष्ठाता थे। नगरों में वेद-मन्दिरों की भरमार थी जहां वेदपाठी ऋषि-मुनि विराजमान होकर प्रजा को कल्याण-मन्त्र पढ़ा रहे थे। हर समय वेदध्वनि उठ रही थी। ईश्वरीय धर्म वेद का बोलबाला था। न कोई सम्प्रदायवाद था न मतमतान्तर। यज्ञधूम समय पर वर्षा लाते थे। विज्ञान का प्राबल्य था। अग्निष्वात्त अग्निष्वात विद्वान्, अपने-अपने कला-कौशल का चमत्कार दिखा रहे थे। नई भूमि की खोज हर समय जारी थी। आर्यों का आदिनिवास होने के कारण इस भू-महाखण्ड को त्रिविष्टप-समेत आर्यवर्त के नाम से पुकारा गया। मनुष्यों के समूह के समूह अपनी सभ्यता, अपने विद्वानों, अपनी गायों, अपने पशुओं तथा बाल-बच्चों और नाना प्रकार के भोग्य पदार्थों के साथ, इस देश से, राज्य-सहायता से निकल-निकलकर दूसरे भूखण्डों को बसा रहे थे। भूमि का जहां-जहां पानी सूखता गया, वहां-वहां मनुष्य-समूह पहुंच गए। ईश्वर के अमृतपुत्र ईश्वर की धरती पर छा गए। गो-भूमि का दोहन होने लगा। करोड़ों वर्षों तक संसार में शान्ति रही। विस्तृत भूमि थी। खाद्य सामग्री सर्वत्र विद्यमान थी। राज्य-सहायता सबको प्राप्त थी। कुलों के कुल-गोत्रों के गोत्र बिखर गए। हर देश में राज्य-स्थापना एक शैली से हुई। एक धर्म, एक वेशभूषा, एक सभ्यता, एक वेद, एक मन्त्र, एक विधिक्रम और एक ही प्रकार का राज्य-शासन सर्वत्र शोभा, छटा को बढ़ा रहा था। ये सब राज्य, अधिराज्य, मांडलिक राज्य अयोध्या के महाचक्रवर्ती राज्य में संविलिन थे। पृथिवीपति इक्ष्वाकु महाराज थे, जो सूर्य वंश के चमकते सितारे थे। इन्हीं के वंशज लाखों राजा अपनी प्रजा का पुत्रवत् लालन-पालन करते रहे। शासन-प्रणाली चुनाव पर आश्रित थी। चक्रवर्ती राजा इन्द्र, महेन्द्र, आदि पदवियों से विभूषित होता था जो मत-संग्रह द्वारा निर्वाचित होता था। मत-संग्रहकर्ता को मातलि कहा जाता था जो इन्द्र का सारथि प्रसिद्ध है। राजसभा में सभी वर्गों के प्रतिनिधि सम्मिलित होते थे। स्त्रियों को समानाधिकार प्राप्त थे। शूद्र वर्ग नीच नहीं समझा जाता था। शूद्रों को उच्च वर्णों में जाने को प्रोत्साहन मिलता था। सत्यकामादि के उदाहरण विद्यमान हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के कर्ता महीदास जी शूद्रा-पुत्र थे, किन्तु ब्राह्मणों के सरताज बने तथा वेद के भाष्यकार। उच्च वर्णों को नीच कर्म करने पर अधिक दण्ड मिलता था। उनको वर्ण-परिवर्तन द्वारा नीचे के वर्णों में लाने की व्यवस्था राजसभा करती थी। गुरुकुलों तथा विद्या पाने का सर्वत्र जाल बिछा हुआ था। लोग वर्णाश्रम-मर्यादाओं का लोप करना पाप समझते और वैदिक-मर्यादा-पालनार्थ प्राण तक न्योछावर कर देते थे। पशुरक्षा का सु-प्रबन्ध था। मांस खाना सबसे बड़ा पाप था। मृत पशु के चमड़े को प्रयोग में लाया जाता था, किन्तु पशु मारने की आज्ञा न थी। गौ-घात का दण्ड मृत्युरूप में था। गोचर-भूमियों की अधिकता थी। हर घर में गो-पालन, दधि-मन्थन, यज्ञ-भाग आवश्यक था। जन-साधारण की अवस्था यह थी कि चोरी-चकारी का नाम तक न था। न कंजूसी थी, न खोटा छल-कपटयुक्त व्यवहार-कारोबार। सर्वत्र नशे तथा मद्यपान का निषेध था। पंच महायज्ञों का प्राबल्य, मूर्खता का नाश तथा दुराचार और जुआबाजी का अन्त था। सर्वत्र धन-धान्य से भरपूर, रोगों से दूर, शान्तावस्था में लोग थे। राजा-प्रजा, धनी-निर्धन, सेव्य-सेवकवर्ग परस्पर सहयोगी थे। कलह-द्वेष को जानते तक न थे।
युवावस्था तथा बालपन की मौत कहीं न थी। पृथिवी शस्यशालिनी श्यामलता-युक्त थी। महामारी, राजयक्ष्मा, विषूचिका तथा अन्य रोगों का बीज अभी नहीं पनपा था। मकानों को ताले नहीं लगाए जाते थे। सुन्दरी स्त्रियां भूषणों से लदकर निर्भीक सर्वत्र विचर सकती थीं। कुदृष्टि से देखने का किसी को साहस न था। नर-नारी सुवर्ण-मुक्तादि भूषणों से सुसज्जित थे। बाजूबन्द की प्रथा अधिक थी। प्रत्येक मजदूर सुवर्ण मुद्रक पाता था। लोग दीर्घायुष्य थे। एक सौ से चार सौ वर्ष तक की आयु का परिमाण था। दीर्घ सत्र सर्वत्र जारी थे। लंगरखाने खुले हुए थे। दूध के प्याऊ हर नगर में थे। घी बेचना पाप समझा जाता था। दो से आठ गौएँ हर घर में थीं। शेष पशु अतिरिक्त थे। गौएँ मनों दूध देनेवाली भी बहुत थीं। इनको कामधेनु कहा जाता था। राजा लोग भी हल चलाकर खेती-बाड़ी का कार्य अपने हाथ से करते थे। विद्यादान, गोदान, सुवर्ण-दानादि बहुत होता था। लोग मकान बनाकर सुपात्रों को दान कर देते थे। विद्वानों, बुद्धिमानों का बड़ा नाम था। इनको दान-दक्षिणादि की पुष्कल राशि हर आर्यगृह से स्वयं पहुंचायी जाती थी और ये लोग निश्चिन्त होकर विद्या-विस्तार, धर्म-प्रचारादि कर्मों में लगे रहते थे। प्रजावर्ग सुखी था, राजवर्ग धर्मपरायण। विड्वर्ग दानवीर तथा शूद्रवर्ग कर्त्तव्यपरायण था। सर्वत्र सुख-शान्ति का साम्राज्य और वैदिक धर्म का बोलबाला हो रहा था। वेद की जयध्वनि से आकाश गूंज रहा था। एक भाषा, एक भूषा, एक विचार के कारण अव्याहत गति से आर्य लोगों का सर्वत्र आवागमन होता था।

पर अब जो कुछ हो रहा है, संसार को विदित है। उस परम पुनीत तथा लुप्त-प्राय वैदिक धर्म के पुनरुद्धार के लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती का शुभागमन हुआ, जिन्होंने आर्यसमाज की स्थापना द्वारा समस्त प्रकार के देश, वेश, विचार, सम्प्रदाय, जात आदि के भेदों को मिटा डाला। विशुद्ध वैदिक सूर्य की ज्योति दिखाई। काश! कि आर्य लोग अपनी देवसेना सजाकर संसार के रंगमंच पर सहस्त्रों बलिदान देते हुए, एक अखण्ड महाचक्रवर्ती राज्य की स्थापना द्वारा, समस्त ध्वान्ति-भ्रान्ति का निवारण कर दें। असुर-प्रवृत्तियों का क्षय, राक्षसी चालों का विलय और वैदिक धर्म का सर्वत्र जयगान हो! इस देवसेना में भर्ती होने के लिए, महर्षि दयानन्द का सच्चा सेनानी बनने के लिए, पाप का नाश, धर्म का बोल बाला करने के लिए, वैदिक धर्म का नाद संसार-भर में गुंजाने के लिए, धर्म की तीक्ष्ण बाल से अधिक बारीक तेज तलवार की धार पर चलने के लिए, क्या कोई है तैयार? उत्तर की प्रतीक्षा में हूं।
नोट- यह लेख 'आर्य' साप्ताहिक के श्रावणी पर्व पर प्रकाशित स्वाध्याय अंक २४ अगस्त सन् १९५३ में प्रकाशित हुआ था।

[साभार- वैदिक ज्ञान-धारा]

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