मैं आर्य समाजी कैसे बना?
-पं० अमर सिंह जी आर्यमुसाफिर
मैं आर्य समाजी कैसे बना? पुराणों को पढ़ने से।
पेशावर से कलकत्ता तक लम्बी जाने वाली सड़क पर जिला बुलन्दशहर में खुरजा से नौ मील अलीगढ़ की ओर अरनियां नामक एक छोटा सा ग्राम है, उसमें हमारा जन्म हुआ। हमारे पिता ठाकुर टीकम सिंह जी ने अनूपशहर जिला बुलन्दशहर में गंगा स्नान के पर्व के अवसर पर महर्षि दयानन्द जी महाराज को व्याख्यान देते हुए देखा। कुछ गुण्डों ने महर्षि के ऊपर झोली में भरकर धूल फेंकी। महर्षि के भक्त राजपूतों ने उनको पकड़ कर मारना पीटना चाहा।
महर्षि ने कहा, "ये बच्चे हैं, मारो मत।" राजपूतों ने कहा, "महाराज ये सब दाढ़ी मूँछों वाले जवान और बूढ़े बूढ़े भी हैं, बच्चे नहीं हैं, हम इनको दण्ड देंगे।" ऋषिवर ने कहा, "चाहे बूढ़े हों, कम समझ होने से बालक ही हैं, इसलिए कदापि मत मारो।" पिताजी ने ये शब्द अपने कानों से सुने, पर स्वामी जी का उपदेश नहीं सुना था। उन्होंने लोगों से पूछा, "यह स्वामी कौन हैं और क्या प्रचार करते हैं?" तो कई लोगों ने कहा कि यह स्वामी दयानन्द हैं और ईसाइयों का प्रचार करते हैं, कहते हैं कि चारों वेदों में मूर्तियों और गंगा आदि की पूजा कहीं नहीं लिखी। स्वामी जी महाराज के कुछ शब्दों को सुनकर पिता जी को सुनने के लिए श्रद्धा उत्पन्न हुई परन्तु यह ठीक-ठीक पता न लगा कि उनका वास्तविक उद्देश्य क्या है?
चानौख ग्राम से हमारे यहां एक बारात आई। चानौख के ठाकुर अवैतनिक न्यायधीश श्री महावीर सिंह जी ऋषि के परम भक्त और कट्टर आर्य समाजी थे। उनके भतीजे श्री ठाकुर गुरुवर सिंह जी भी कट्टर आर्य थे। उन लोगों ने जिले भर में आर्य समाज का बड़ा प्रचार किया और उनके प्रयत्नों से समीपवर्ती जिलों में भी बहुत प्रचार हुआ। उन्हीं के कुल से बारात हमारे यहां आई थी और ये दोनों सज्जन इसमें विद्यमान थे। उन्होंने आर्य समाज के सिद्धान्तों पर व्याख्यान दिए। हमारे ग्राम के राजपूतों ने धावा बोल दिया और उनके सब हथियार छीन लिए। पीछे कठिनता से शान्ति हुई। फिर हमारे घर के वृद्ध पुरुष चानौख से बालखा में गये तो वहां से सत्यार्थप्रकाश, ठाकुर गुरुवर सिंह की बनाई दो पुस्तकें पाप प्रदीप और जगत् हितैषी, पं० मुरारी लाल शर्मा का भजन पचासा इन पुस्तकों को ले आये और पहले पहल गांव के पांच आदमी आर्य बने। एक मेरे पिता के सगे छोटे भाई मेरे चाचा मुंशी सादन सिंह जी, चचा ठाकुर चैतराम सिंह जी, चचा ठाकुर बलवन्त सिंह जी, पटवारी जहौरीमल जी, ला० बलवन्त राम जी जरगर पश्चात् दो और बने चचा नारायण सिंह जी और चचा ठाकुर चेतराम सिंह जी और हमारे पिता जी भी आर्य बने परन्तु वे दूसरे ग्राम रकनपुर में रहते थे। अरनियां में आर्य समाज स्थापित हो गया। वार्षिकोत्सव धूमधाम से होने लगे। कई शास्त्रार्थ भी हुए पं० मुरारी लाल जी शर्मा गुरुकुल सिकन्दराबाद ने प्रान्तभर में प्रचार की धूम मचा रखी थी। यहां उनका बहुत आना जाना था। उन्होंने हमारे यहाँ बहुत प्रचार किया। चचा मुंशी सावनसिंह जी सारे इलाके में प्रचार करते थे तथा ग्राम में सत्यार्थप्रकाशादि की कथा प्रतिदिन रात्रि को करते और कराते थे। शंका समाधान और वादविवाद भी कराया करते थे। भाई साहब ठाकुर सरदार अमर सिंह जी राजपूत सभा के उपदेशक हुए और भाई साहब कुंवर सुखलाल जी आर्य मुसाफिर गुरुकुल सिकन्दराबाद में कई वर्ष काम करने के पश्चात् आर्य मिशन आगरा का कार्य श्रीमान् पं० भोजदत्त जी के साथ करने लगे। इन दिनों हमारा सारा परिवार आर्य्यसमाजी बन चुका था और मैं अकेला सनातन धर्मी था। चचा सावन सिंह जी जो वादविवाद कराया करते थे मैं उसमें विशेष रूप से भाग लेता था और आर्य समाज के सारे सिद्धान्तों के विरुद्ध बोलता था। हमारे समाज के सभासद मुझे समझाते और हराने का अपार प्रयत्न करते पर मुझे न हरा सके न समझा सके। मुंशी वेद राम जी हमारे क्षेत्र में एक प्रसिद्ध आर्य थे उनसे भी वादविवाद हुआ परन्तु मैं वश में न आया। ठाकुर देवी सिंह जी रईस रकनपुर हमारे क्षेत्र के माने हुए और बड़े समझदार व्यक्ति थे। समस्त क्षेत्र में उनका बड़ा आदर था। वे ब्राह्मण थे परन्तु राजपूतों के इतिहास से उन्हें विशेष प्रेम था। स्वयं बड़े वीर थे इसलिए ब्राह्मण होते हुए भी ठाकुर कहाते थे। मेरे पिता के साथ उनका ऐसा प्रेम था कि दोनों सगे भाईयों से भी अधिक प्रेम से रहते थे। मैं उनको ताऊजी कहता था। उनको मेरा कट्टर सनातनी होना बहुत खटकता था। उन्होंने मुझे पं० मुरारी लाल जी शर्मा और आर्य प्रतिनिधि सभा यू०पी० के कई उपदेशकों को सौंपा परन्तु वे मुझे आर्य न बना सके। मैं अधिक पढ़ना चाहता था। भाई कुंवर सुखलाल जी आर्य मुसाफिर के साथ मैं आर्य मुसाफिर विद्यालय में पढ़ने के लिए इस विचार से चला गया कि वहां अधिक पढ़कर आर्य समाज का खण्डन किया जा सकेगा। मेरा विवाह १३-१४ वर्ष की आयु में हो चुका था। मुझे आगरा पहुंचकर यह पता लगा कि विद्यालय में विवाहित लड़के प्रविष्ट नहीं किये जाते। मैंने विद्यालय के उन कार्यों में भाग लेना आरम्भ किया जो प्रतिदिन वहां के विद्यार्थियों से कराई जाती थी। श्री पं० भोजदत्त जी के सुपुत्र श्री डा० लक्ष्मीदत्त जी आर्य मुसाफिर और पं० तारादत्त जी बी०ए०, एल०एल०बी० वकील आर्य मुसाफिर विद्यालय और मुसाफिर पत्र को चलाते थे। डा० महोदय शास्त्रार्थ महारथी थे। मेरी तर्कशक्ति उन्हें बहुत पसन्द आई। वहां वह तर्कशक्ति उस समय समाज के विरुद्ध प्रयुक्त होती थी परन्तु दूरदर्शी डाक्टर महोदय और वकील महोदय यह ताड़ गए कि इस शक्ति को अच्छे मार्ग में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। उन्होंने मुझे विद्यालय में इस नियम पर प्रविष्ट कर लिया कि पाठ्यक्रम पूरा न होने तक घर नहीं जाऊंगा या ऐसे समय में जा सकूँगा जब धर्मपत्नी घर पर न होगी। मैं प्रसन्नतापूर्वक विद्यालय में प्रविष्ट हो गया। इन दिनों एक पौराणिक पण्डित हमें संस्कृत पढ़ाते थे। उनसे मैंने भागवत पुराण को पढ़ा। जैसे जैसे मैं उसे पढ़ता गया मुझे अपने पुराने पौराणिक विचारों से घृणा होने लगी। फिर पं० बिहारीलाल जी शास्त्री काव्यतीर्थ हमारे विद्यालय के अध्यापक और आचार्य बने। तब तो श्रीमद्भागवतादि पुराणों को पढ़कर मेरे विचार पौराणिकता से हटकर आर्य समाजिक बने। इसपर सान चढ़ने लगी और आर्य समाज के एक दो सिद्धान्त पर मेरा ऐसा विश्वास जमा जैसे दो और दो चार पर दृढ़ विश्वास होता है।
अब तो मैंने पुराणों की बहुत खोज कर ली है। कितने ही शास्त्रार्थ पुराणों पर पौराणिक दल के सेनापतियों, दिग्गजों से बड़े बड़े शास्त्रार्थ करके उन्हें परास्त किया और दावा है कि संसार भर का कोई बड़ा से बड़ा पौराणिक पण्डित पुराणों को प्रमाणिक सिद्ध नहीं कर सकता और मेरा खुला चैलेंज है कि जिस को हिम्मत हो वह मेरे सामने पुराणों को मानने योग्य सिद्ध करे।
मेरा दृढ़ विश्वास है कि जब तक हिन्दू इन अट्ठारह पुराणों को मानते रहेंगे तब तक कदापि उन्नति नहीं कर सकेंगे और किसी भी सभ्यमत के समक्ष हिन्दू खड़े नहीं हो सकते। इसलिए मैंने अपने उद्देश्यों में पुराणों का खण्डन करना भी विशेष उद्देश्य बना लिया है। मैं पुराणों को पढ़कर आर्य समाजी बना हूँ, जो भी पक्षपात छोड़कर पुराणों को पढ़ेंगे वे अवश्य आर्य समाजी बन जाएंगे। परमेश्वर पौराणिकों को सुबुद्धि दे जिससे उन्हें पढ़कर उनसे बचें।
[नोट- आर्यसमाज की विचारधारा सामाजिक कुरीतियों की नाशयित्री और बौद्धिक क्रान्ति की प्रकाशिका है। इसके वैदिक विचारों ने अनेकों के हृदय में सत्य का प्रकाश किया है। इस लेख के माध्यम से आप उन विद्वानों के बारे में पढ़ेंगे जिन्होंने आर्यसमाज को जानने के बाद आत्मोन्नति करते हुए समाज को उन्नतिशील कैसे बनायें, इसमें अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। ये लेख स्वामी जगदीश्वरानन्द द्वारा सम्पादित "वेद-प्रकाश" मासिक पत्रिका के १९५८ के अंकों में "मैं आर्यसमाजी कैसे बना?" नामक शीर्षक से प्रकाशित हुए थे। प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
Comments
Post a Comment