Skip to main content

अष्टाङ्ग योग का उद्देश्य


अष्टाङ्ग योग का उद्देश्य

-प्रियांशु सेठ (वाराणसी)

मनुष्य जीवन दो उद्देश्यों से बंधा है- श्रेय: (धर्म-मार्ग) और प्रेय: (भोग-मार्ग)। भोगवादी मनुष्य प्रेय: को अपने जीवन का उद्देश्य चुनकर सदैव क्षणिक सुख के पीछे भटकता रहता है, जबकि ब्रह्मवादी मनुष्य श्रेय: को अपने जीवन का उद्देश्य चुनकर दीर्घकालिक सुख की प्राप्ति में तपोरत रहता है। यह दीर्घकालिक सुख आत्मा का सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा से मेल होना है। भोग से दीर्घकालिक सुख की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती क्योंकि यह अविद्या और दुःखादि दोषों से लिप्त है। दर्शनकारों ने तीन प्रकार के दुःखों (आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक) से सर्वथा छूट जाना जीवात्मा का अन्तिम लक्ष्य बताया है। इस अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचने की कुञ्जी ही "योग" है।

दार्शनिक जगत् में योग को सर्वमहत्त्वपूर्ण और प्रधान स्थान प्राप्त है। योग शब्द की निष्पत्ति युज् धातु से घञ् प्रत्यय से करण और भावार्थ में हुई है। व्याकरणाचार्य्य महर्षि पाणिनी ने गण पाठ में युज् धातु तीन प्रकार से प्रयोग में लायी हैं- "युज् समाधौ" (दिवादिगणीय) - समाधि, "युजिर योगे" (अधदिगणीय) - संयोग और "युज् संयमने" (चुरादिगणीय) - संयमन।
इनमें युज् समाधौ धातु योग को पूर्णतः परिभाषित करता है, क्योंकि शेष दो धातु से योग का उद्देश्य स्पष्टत: परिभाषित नहीं होता। इसमें योगसूत्र "अथ योगानुशासनम्" पर व्यास भाष्य का "योग: समाधि:" और भोज वृत्ति का "युज् समाधौ" वचन प्रमाण है। इससे स्पष्ट है कि समाधि की अवस्था में पहुँचना योग है, क्योंकि यह ब्रह्मसाक्षात्कार का साधन है। इसी को योगसूत्रकार महर्षि पतञ्जलि ने "योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:" लिखकर प्रतिपादित किया है- "चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है।" चित्त की कुल ५ अवस्थाएं होती हैं- (१) क्षिप्त (२) मूढ़ (३) विक्षिप्त (४) एकाग्र (५) निरुद्ध। प्रथम तीन अवस्था में योग नहीं हो सकता। एकाग्रावस्था में सम्प्रज्ञात योग और निरुद्धावस्था में असम्प्रज्ञात योग होता है।

प्रायः लोग यह समझते हैं कि योग का अर्थ मात्र आसन और प्राणायाम करना है, जबकि मुनि पतञ्जलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों को रोककर ब्रह्म में लीन होने की अवस्था प्राप्त करना योग है। ब्रह्मलीनता की यह अवस्था हमें तभी प्राप्त हो सकती है, जब हम अपनी आत्मा को ब्रह्मरूपी सानु शिखर पर पहुंचायें। अथर्ववेद [६/९१/१] ने "इमं यवमष्टायोगै:" की घोषणाकर आठ योगों द्वारा इस शिखर पर पहुंचने का मार्ग निर्देशित किया है। इन्हीं आठ योगों को मुनि पतञ्जलि ने योगदर्शन [२/२९] के सूत्र "यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि" में पिरोया है, जिन्हें अष्टाङ्ग योग कहा गया है। ब्रह्म शुद्धबुद्धमुक्त-सच्चिदानन्दस्वरूप है, जबकि जीवात्मा दुःख, काम, अविद्यादि बन्धनों से बंध है। इन्हीं दुःखों से पार होने की सीढ़ियों का नाम अष्टाङ्ग योग है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि।

मुनि पतञ्जलि ने योगदर्शन [२/३०] में "यम" को पाँच अवस्थाओं में सन्निविष्ट किया है-
•अहिंसा- मन, वचन और कर्म से किसी भी प्राणी को कष्ट न देना "अहिंसा" है।
•सत्य- मन, वचन और कर्म से सत्यव्यवहार करना यम की दूसरी अवस्था "सत्य" है। सत्य में निष्ठा रखने से साधक वाक्सिद्ध बन जाता है।
•अस्तेय- मन, वचन और कर्म से चोरी (स्तेय) न करना "अस्तेय" है।
•ब्रह्मचर्य्य- वीर्य्यरक्षण करते हुए ज्ञानोपार्जन करना "ब्रह्मचर्य" है। साधक में ब्रह्मचर्य्य का व्रत देखकर मृत्यु भी भयभ्रष्ट हो जाया करती है।
•अपरिग्रह- निराभिमानी बनकर आवश्यकता से अधिक पदार्थों का संग्रह न करना "अपरिग्रह" है।

योगदर्शन [२/३२] के अनुसार "नियम" भी पाँच अवस्थाओं का योग है-
•शौच- द्वेषादि के त्याग से आन्तरिक और जलादि के द्वारा बाह्य शुचिता "शौच" है।
•सन्तोष- धर्मपूर्वक पुरुषार्थ करके लाभ में प्रसन्न और हानि में अप्रसन्न न होना "सन्तोष" है।
•तप- शारीरिक क्रान्ति और इन्द्रियों में सूक्ष्म विषयों को ग्रहण करने की शक्ति "तप" है।
•स्वाध्याय- वेदादि सत्यशास्त्रों को पढ़कर जीवन में चरितार्थ करना "स्वाध्याय" है। स्वाध्याय से ही साधक सम्प्रधारण करने के योग्य बनता है।
•ईश्वरप्रणिधान- ईश्वर की भक्ति या उपासना करते हुए ईश्वर की कृपा और प्रसन्नता का पात्र बनना "ईश्वरप्रणिधान" है। इससे सारे अहं-भाव नष्ट होकर जीवन में नम्रता का सञ्चालन होता है।

योगाभ्यासी के लिए "यम-नियम" का पालन प्रारम्भिक स्तर है। इसके पश्चात् ईश्वर, जीव और प्रकृति को सूक्ष्मता से जानने के लिए वह "आसन" लगाता है तथा मन पर नियन्त्रण पाने के लिए "प्राणायाम" करता है। मन नियन्त्रित हो जाने पर इन्द्रियाँ अपने रूपादि विषयों से पृथक् हो जाती हैं, इसी स्थिती का नाम "प्रत्याहार" है। अधिकार में किए हुए मन को ध्येय पदार्थ के साक्षात्कार के लिए शरीर के किसी एक स्थान हृदयाकाश, भ्रूमध्य, कण्ठ आदि में स्थिर कर देने का नाम "धारणा" है। धारणा की स्थिति सम्पादित करके धारणा के स्थल पर ध्येयवस्तु विषयक चिन्तन का एक प्रवाह बना रहना "ध्यान" है। ध्यान में जब अर्थ- ध्येयमात्र का प्रकाश रह जाए और ध्याता अपने स्वरूप से शून्य-सा हो जाये, उस अवस्था का नाम समाधि है। इन आठ परिश्रमसाध्य योगों के अनुष्ठान से ही आत्मा अविद्यादि दोषों से मुक्त होता है और प्रेयः मार्ग को त्यागकर अपने जीवन की उद्देश्यपूर्ति करता है। अतः उपरोक्त परिशीलन के आलोक में यह स्थापित होता है कि आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक दुःखों से छूटकर ब्रह्म से मेल होना ही अष्टाङ्ग योग का उद्देश्य है।

Comments

Popular posts from this blog

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो!

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो! वर्तमान समय में मनुष्यों ने भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय अपनी मूर्खता से बना लिए हैं एवं इसी आधार पर कल्पित धर्म-ग्रन्थ भी बन रहे हैं जो केवल इनके अपने-अपने धर्म-ग्रन्थ के अनुसार आचरण करने का आदेश दे रहा है। जैसे- ईसाई समाज का सदा से ही उद्देश्य रहा है कि सभी को "ईसाई बनाओ" क्योंकि ये इनका ग्रन्थ बाइबिल कहता है। कुरान के अनुसार केवल "मुस्लिम बनाओ"। कोई मिशनरियां चलाकर धर्म परिवर्तन कर रहा है तो कोई बलपूर्वक दबाव डालकर धर्म परिवर्तन हेतु विवश कर रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक सम्प्रदाय साधारण व्यक्तियों को अपने धर्म में मिला रहे हैं। सभी धर्म हमें स्वयं में शामिल तो कर ले रहे हैं और विभिन्न धर्मों का अनुयायी आदि तो बना दे रहे हैं लेकिन मनुष्य बनना इनमें से कोई नहीं सिखाता। एक उदाहरण लीजिए! एक भेड़िया एक भेड़ को उठाकर ले जा रहा था कि तभी एक व्यक्ति ने उसे देख लिया। भेड़ तेजी से चिल्ला रहा था कि उस व्यक्ति को उस भेड़ को देखकर दया आ गयी और दया करके उसको भेड़िये के चंगुल से छुड़ा लिया और अपने घर ले आया। रात के समय उस व्यक्ति ने छुरी तेज की और उस...

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर प्रियांशु सेठ हमारे पौराणिक भाइयों का कहना है कि मूर्तिपूजा प्राचीन काल से चली आ रही है और तो और वेदों में भी मूर्ति पूजा का विधान है। ईश्वरीय ज्ञान वेद में मूर्तिपूजा को अमान्य कहा है। कारण ईश्वर निराकार और सर्वव्यापक है। इसलिए सृष्टि के कण-कण में व्याप्त ईश्वर को केवल एक मूर्ति में सीमित करना ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव के विपरीत है। वैदिक काल में केवल निराकार ईश्वर की उपासना का प्रावधान था। वेद तो घोषणापूर्वक कहते हैं- न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः। हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः।। -यजु० ३२/३ शब्दार्थ:-(यस्य) जिसका (नाम) प्रसिद्ध (महत् यशः) बड़ा यश है (तस्य) उस परमात्मा की (प्रतिमा) मूर्ति (न अस्ति) नहीं है (एषः) वह (हिरण्यगर्भः इति) सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों को अपने भीतर धारण करने से हिरण्यगर्भ है। (यस्मात् न जातः इति एषः) जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा जो प्रसिद्ध है। स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्य...

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती प्रियांशु सेठ आजकल सदैव देखने में आता है कि संस्कृत-व्याकरण से अनभिज्ञ विधर्मी लोग संस्कृत के शब्दों का अनर्थ कर जन-सामान्य में उपद्रव मचा रहे हैं। ऐसा ही एक इस्लामी फक्कड़ सैयद अबुलत हसन अहमद है। जिसने जानबूझकर द्वेष और खुन्नस निकालने के लिए गायत्री मन्त्र पर अश्लील इफ्तिरा लगाया है। इन्होंने अपना मोबाइल नम्बर (09438618027 और 07780737831) लिखते हुए हमें इनके लेख के खण्डन करने की चुनौती दी है। मुल्ला जी का आक्षेप हम संक्षेप में लिख देते हैं [https://m.facebook.com/groups/1006433592713013?view=permalink&id=214352287567074]- 【गायत्री मंत्र की अश्लीलता- आप सभी 'गायत्री-मंत्र' के बारे में अवश्य ही परिचित हैं, लेकिन क्या आपने इस मंत्र के अर्थ पर गौर किया? शायद नहीं! जिस गायत्री मंत्र और उसके भावार्थ को हम बचपन से सुनते और पढ़ते आये हैं, वह भावार्थ इसके मूल शब्दों से बिल्कुल अलग है। वास्तव में यह मंत्र 'नव-योनि' तांत्रिक क्रियाओं में बोले जाने वाले मन्त्रों में से एक है। इस मंत्र के मूल शब्दों पर गौर किया जाये तो यह मंत्र अत्यंत ही अश्लील व...