मैं आर्य समाजी कैसे बना?
-श्रीयुत नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ
मेरा संक्षेप से यही उत्तर है कि मैं जन्म का आर्यसमाजी हूँ। क्योंकि जब हमारे पूज्य पिता स्वर्गीय पं० श्री निवास राव जी राव महोदय आर्य सामाजिक विचार के हुए थे, तब हमारा जन्म भी नहीं हुआ था। हमारे पिता जी बम्बई पुलिस फोर्स में एक बड़े अफसर थे। उनके दौरे की सीमा बम्बई से दक्षिण में रायपुर तक और उत्तर में अजमेर तक थी। वे प्राय: डाकुओं की देख भाल में रहते थे, इस दशा में कभी किसी अवसर पर जब वे उत्तर भारत में आये हुए थे, तब ठीक नहीं कह सकता, किस स्थान पर, किन्तु जयपुर अथवा अजमेर का अनुमान किया जा सकता है, स्वर्गीय पं० लेखराम जी आर्य मुसाफिर से भेंट हो गई थी। तभी से उनके विचार परिवर्तित हो गये। तभी से हमारे घर में आर्य समाज का प्रवेश समझिये। वैसे तो हमारे पिता जी कट्टर पौराणिक थे। सबसे बड़े भाई नारायण राव और उनके छोटे भाई भीम राव के यज्ञोपवीत संस्कार में ५०००) रुपया लगाया था और उस उत्सव में वैश्या नृत्य भी कराया था। पं० लेखराम जी से भेंट होने के पश्चात् हमारे पिता के विचारों में बहुत परिवर्तन हुआ। परन्तु हमारी माता श्रीमती कृष्णा बाई के विचार कभी नहीं बदले। मरणपर्यन्त उसने पूजा पाठ नहीं छोड़ा। यद्यपि पिता जी के विचार बदल गये थे, तथापि घर में उन्होंने माता जी के किसी कार्य में हस्तक्षेप नहीं किया और न मत परिवर्तन के लिए बल दिया। दुर्भाग्य से उन्हीं दिनों कई ऐसी दुर्घटनायें हुई जिससे माता जी का यह विचार दृढ़ हो गया कि पिता जी के मत परिवर्तन के कारण ही ये दुर्घटना में हुई; जैसे घर में बड़ी भारी चोरी का होना, बैंक में सहस्रों रुपयों का डूबना आदि।
पिता जी ने आर्य समाज के प्रायः सभी ग्रन्थ मंगा लिए थे। दृढ़ स्वाध्यायी थे। हमारा परिवार मधु सम्प्र दाय वैष्णव मत का था और मधु सम्प्रदाय द्वैत वादी सम्प्रदाय है और स्वामी जी भी द्वैत मानने वाले हैं। इसलिए पिता जी को अच्छा लगा कि वे द्वैत मत से बाहर नहीं जा रहे। यद्यपि हमारे पिता जी हृदय से आर्य समाजी हो गये थे परन्तु दक्षिण में जिस परिस्थति और मण्डल में वे रहते थे, अकेले ही थे, तथापि अपनी चाल ढ़ाल सब उधर के रूढ़ि के अनुरूप ही थे। घर में जो भी आता उसको उत्तर भारत के समाचार पत्र सुनाना, कभी सत्यार्थ प्रकाश, कभी आर्याभिविनय और कभी आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि सुनाना यह उनका नित्य कर्म था।
जब मैं आठ नौ वर्ष का था, तभी उन्होंने मुझे हिन्दी पढ़ाना आरम्भ कर दिया। यही हिन्दी आगे जाकर हमारे बड़े काम की सिद्ध हुई। मातृभाषा मराठी के साथ हिन्दी का भी सम्पुट लगाने मे हम को बड़ा लाभ हुआ।
इस प्रकार हम जन्म के आर्यसमाजी थे और बड़े होकर गुण और कर्म के आर्यसमाजी बन गये। इस प्रकार हम जन्म और गुण से आर्यसमाजी हैं। जहां तक मेरा अध्ययन, स्वाध्याय और अनुभव है वहां तक मैं इस निश्चय पर पहुंचता हूं कि स्वामी दयानन्द जी ने कोई नई बात नहीं चलाई। और ना ही उनका उद्देश किसी नये मत की स्थापना था। हां उन्होंने प्राचीन बातों को नये रूप में, नये प्रकाश में, सम्पूर्ण बल के साथ प्रकट किया। कहीं कहीं कट्टर रिफारमर-सुधारक की भांति सर्वथा परले सिरे पर जा बैठे हैं। सभी रिफारमर परले सिरे पर जा बैठते हैं, तब कहीं जनता अधि मार्ग तक बढ़ा करती है। महात्मा गांधी ने हाथ के बुने और हाथ की कती खादी पर जब इतना बल दिया तब कहीं लोग स्वदेशी पर आये। यही दशा है। सब से बड़ा स्तुत्य और प्रसंशा के योग्य आपका यह प्रयत्न रहा कि आर्यों के आदि मूलग्रन्थ वेदों को आपने निष्कलंक सिद्ध करने का पूर्ण प्रयत्न किया है और उस में वे बहुत कुछ सफल भी हुए, उनके विचारों की विजय हुई।
[नोट- आर्यसमाज की विचारधारा सामाजिक कुरीतियों की नाशयित्री और बौद्धिक क्रान्ति की प्रकाशिका है। इसके वैदिक विचारों ने अनेकों के हृदय में सत्य का प्रकाश किया है। इस लेख के माध्यम से आप उन विद्वानों के बारे में पढ़ेंगे जिन्होंने आर्यसमाज को जानने के बाद आत्मोन्नति करते हुए समाज को उन्नतिशील कैसे बनायें, इसमें अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। ये लेख स्वामी जगदीश्वरानन्द द्वारा सम्पादित "वेद-प्रकाश" मासिक पत्रिका के १९५८ के अंकों में "मैं आर्यसमाजी कैसे बना?" नामक शीर्षक से प्रकाशित हुए थे। प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
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