Skip to main content

धर्म किसे कहते हैं?



धर्म किसे कहते हैं?

भद्रसेन

प्रगति चाहने वाले आज के अभिमन्यु रूपी युवकों के लिए वैचारिक स्तर पर जो पहला चक्रव्यूह बनाया जा रहा है- वह धर्म है। यह कैसे? 'धर्म विश्वस्य प्रतिष्ठा' तै०आ० १०,६२,१

धर्म शब्द धृ धातु से बनता है, जिस का धार्यते, सैव्यते सुख-प्राप्यते य: स धर्म: य: धारयतिस धर्म: जिसका सीधा सा भाव है, कि वे बातें, मान्यताएं, कार्य व्यवहार धर्म है जिस के धारण, पालन अपनाने से जीवन का वह- वह रूप, कार्य टिका रहे, सुदृढ़ हो। जैसे कि आपस में अच्छे ढंग से बोलने पर वक्ता-श्रोता का व्यवहार टिका रहता है। वे एक दूसरे से जुड़ कर सुख-स्नेह अनुभव करते हैं, पर आंखें होकर बोलने से परस्पर अशान्ति, ईर्ष्या, द्वेष, झगड़ा ही होता है। तभी तो मनुस्मृतिकार ने सही ढंग से बोलने अर्थात् सत्य-प्रिय वाणी को एक परखा हुआ धर्म कहा है? (सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात्, सत्यमप्रियम्। प्रियञ्च नानृतं ब्रूयादेष धर्म: सनातन:।। मनु० ४,१३८) यही बात हम आपस के सम्बन्धों में देखते हैं। जब एक सम्बन्धी अपने सम्बन्ध के अनुरूप रिश्ते को निभाता है, तो दोनों का सम्बन्ध सुदृढ़ होता है और दोनों सुखी, प्रसन्न होते हैं। अतः धर्म-पुल (धर्म एवं प्लव: महाभारत आरण्यक- ३२,३२) या नौका की तरह सहायक होकर जीवन यात्रा, कार्य-व्यवहार को सरल, सुखद बना देता है।
ऐसा सुखदायक धर्म आज सहायक होने के स्थान पर पीछे धकेलने वाला अधिक बना दिया गया है। यहां पहली बात तो यह है, कि धर्म एक न हो कर अनेक हैं। जिन पर परस्पर अनेक तरह-विरोध, खींचतान, धृणा, ईर्ष्या, द्वेष का व्यवहार चल रहा है। बात यहां तक जा पहुंची है, कि अपने धर्म वालों के लिए उस-उस धर्म को मानने मात्र से ही स्वर्ग, जन्नत आदि की प्राप्ति का विधान है, तो दूसरों के लिए नरक, दोज़ख़ आदि का निर्देश है। इस के साथ अपने से भिन्न धर्म वालों को म्लेच्छ, काफिर आदि शब्दों से निन्दित किया जाता हैं ऐसे वचन धर्मग्रन्थों में स्पष्ट रूप से मिलते हैं।

दूसरी बात- यह है, कि धर्म के भक्ति, पूजा-पाठ, तीर्थ, जप, तप, व्रत, पर्व जैसे एक से शब्द भी अलग-अलग रूप रखते हैं, जैसे कि प्रत्येक धर्म में ईश्वर भक्ति, इष्टभक्ति का सर्वप्रथम स्थान है। जिस से भक्त भगवान से जुड़कर दीपक की तरह प्रकाशमान हो जाए। पर आज ईश्वर, इष्टदेव के नाम पर एक लम्बी लाईन लग गई है। जबकि ईश्वर को मानने वाले सारे के सारे यह मानते हैं, कि इस दुनियां को बनाने-चलाने वाला ईश्वर ही है। सारे संसार में सूर्य, जल, वायु की एक ही व्यवस्था है। संसार के प्राकृतिक पदार्थ अन्न, फल, शरीर आदि सर्वत्र एक से ही हैं। अतः इन प्राकृतिक पदार्थों की एक रूपता और एक व्यवस्था से एक ही ईश्वर सिद्ध होता है। पुनरपि ईश्वर के नाम पर या ईश्वर के रूप में अनेक देवी-देवता, गुरु, अवतार, पीर, बाबा, माता, महापुरुष तथा मड़ी-मसान, वृक्ष आदि आए दिन नए-नए यहां जुड़ते जा रहे हैं। तब किस-किस को पूजें और किसी-किस को छोड़ें? क्योंकि हर एक की पूजा की सामग्री प्रक्रिया, व्रत, कथा, पर्व अलग-अलग हैं। एक समय में एक को ही अपनाया जा सकता है।

तीसरी सोचने वाली बात यह भी है, कि भक्ति, पूजा, व्यवहार बनते जा रहे हैं। कुछ ने दूसरों की जगह पूजा, भक्ति करने का धन्धा अपना लिया है और यह व्यापार 'हींग लगे न फिटकड़ी- रंग भी चोखा होय' के अनुसार बिना मूलधन के ही, यहां परिपाक पर अच्छा धन प्राप्त होता है और उस के साथ जहां वस्त्र, फल आदि अन्य पदार्थ भी प्राप्त होते हैं, वहां मान-सम्मान पूर्वक गुरु जैसा प्रतिष्ठित पद भी प्राप्त होता है।

यहां चौथी विचारणीय बात यह है, कि भक्ति, पूजा, प्रेरणा, हृदयशुद्धि, जीवन की पवित्रता (धर्मस्य (भूषणं) निर्व्याजता- नीति ८३- नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति,  न तस्सत्यं यच्छलेनाभ्युपेतम् महा० उद्योगत्र ३५,४९- सत्यं न तद् यच्छल दोषयुक्तम् चाणक्य राजनीत शास्त्र ८,३५) का माध्यम न बन कर हर प्रकार की इच्छापूर्ति, पाप माफी जीवन की सफलता, उद्धार का साधन, जीवन का उद्देश्य बन चुकी है। तभी तो यह कहा जाता है- 'कलियुग नाम आधार, सो सुखी- जो नाम आधार, हरि नाम सिमर- बने तेरे बिगड़े काम'।

ऐसा ही सच्चा-सुच्चा बनाने वाला धर्म केवल नाम स्मरण, पूजा-पाठ तक सीमित हो गया है। जीवन शुद्धि से उस का सम्बन्ध, वास्ता नहीं है। तभी तो भगत जी शब्द का भाव होशियार, भोला, ठग (बगुलाभक्त) हो गया है।
इस के साथ धर्म के तीर्थ यात्रा, देवदर्शन, जप, तप, स्मरण, ध्यान, स्नान, व्रत, कथा, पर्व आदि की आए दिन संख्या बढ़ती जाती है। तभी तो पत्र-पत्रिकाओं में प्रत्येक मास के प्रारंभ में उस-उस मास के व्रत, पर्व की सूचना छपती है। उस में कोई विरला दिन ही खाली होता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति क्या-क्या करे? क्या-क्या न करे? जैसे कि हर दिन के अर्थात् सोम, मंगल या एकादशी आदि के व्रत, उपवास की अनोखी से अनोखी महिमा बताई जाती है। तब सब को मानने पर व्यक्ति प्रायः बिना खाए ही रहेगा। ऐसी स्थिति में व्यक्ति कुछ कार्य करने में समर्थ कैसे रहेगा?

आज धर्म के रूप में समझे जाने वाले तीर्थ व्रत, पर्व, पूजा-पाठ, नामस्मरण, जप-तप हर सिद्धि के साधक मान लिए गए हैं। तभी तो इन के समर्थन में सैकड़ों कहानियां प्रचलित कर दी गई हैं। धर्म के इन रूपों को हर दोष का निवारक घोषित किया जाता है और ऐसी अनेक कहानियां शास्त्रों के वचन सुनाए जाते हैं।

[स्त्रोत- आर्य जगत् : आर्य प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा का साप्ताहिक पत्र का १९-२५ मई, २०१९ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

Comments

Popular posts from this blog

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो!

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो! वर्तमान समय में मनुष्यों ने भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय अपनी मूर्खता से बना लिए हैं एवं इसी आधार पर कल्पित धर्म-ग्रन्थ भी बन रहे हैं जो केवल इनके अपने-अपने धर्म-ग्रन्थ के अनुसार आचरण करने का आदेश दे रहा है। जैसे- ईसाई समाज का सदा से ही उद्देश्य रहा है कि सभी को "ईसाई बनाओ" क्योंकि ये इनका ग्रन्थ बाइबिल कहता है। कुरान के अनुसार केवल "मुस्लिम बनाओ"। कोई मिशनरियां चलाकर धर्म परिवर्तन कर रहा है तो कोई बलपूर्वक दबाव डालकर धर्म परिवर्तन हेतु विवश कर रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक सम्प्रदाय साधारण व्यक्तियों को अपने धर्म में मिला रहे हैं। सभी धर्म हमें स्वयं में शामिल तो कर ले रहे हैं और विभिन्न धर्मों का अनुयायी आदि तो बना दे रहे हैं लेकिन मनुष्य बनना इनमें से कोई नहीं सिखाता। एक उदाहरण लीजिए! एक भेड़िया एक भेड़ को उठाकर ले जा रहा था कि तभी एक व्यक्ति ने उसे देख लिया। भेड़ तेजी से चिल्ला रहा था कि उस व्यक्ति को उस भेड़ को देखकर दया आ गयी और दया करके उसको भेड़िये के चंगुल से छुड़ा लिया और अपने घर ले आया। रात के समय उस व्यक्ति ने छुरी तेज की और उस...

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर प्रियांशु सेठ हमारे पौराणिक भाइयों का कहना है कि मूर्तिपूजा प्राचीन काल से चली आ रही है और तो और वेदों में भी मूर्ति पूजा का विधान है। ईश्वरीय ज्ञान वेद में मूर्तिपूजा को अमान्य कहा है। कारण ईश्वर निराकार और सर्वव्यापक है। इसलिए सृष्टि के कण-कण में व्याप्त ईश्वर को केवल एक मूर्ति में सीमित करना ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव के विपरीत है। वैदिक काल में केवल निराकार ईश्वर की उपासना का प्रावधान था। वेद तो घोषणापूर्वक कहते हैं- न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः। हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः।। -यजु० ३२/३ शब्दार्थ:-(यस्य) जिसका (नाम) प्रसिद्ध (महत् यशः) बड़ा यश है (तस्य) उस परमात्मा की (प्रतिमा) मूर्ति (न अस्ति) नहीं है (एषः) वह (हिरण्यगर्भः इति) सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों को अपने भीतर धारण करने से हिरण्यगर्भ है। (यस्मात् न जातः इति एषः) जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा जो प्रसिद्ध है। स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्य...

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती प्रियांशु सेठ आजकल सदैव देखने में आता है कि संस्कृत-व्याकरण से अनभिज्ञ विधर्मी लोग संस्कृत के शब्दों का अनर्थ कर जन-सामान्य में उपद्रव मचा रहे हैं। ऐसा ही एक इस्लामी फक्कड़ सैयद अबुलत हसन अहमद है। जिसने जानबूझकर द्वेष और खुन्नस निकालने के लिए गायत्री मन्त्र पर अश्लील इफ्तिरा लगाया है। इन्होंने अपना मोबाइल नम्बर (09438618027 और 07780737831) लिखते हुए हमें इनके लेख के खण्डन करने की चुनौती दी है। मुल्ला जी का आक्षेप हम संक्षेप में लिख देते हैं [https://m.facebook.com/groups/1006433592713013?view=permalink&id=214352287567074]- 【गायत्री मंत्र की अश्लीलता- आप सभी 'गायत्री-मंत्र' के बारे में अवश्य ही परिचित हैं, लेकिन क्या आपने इस मंत्र के अर्थ पर गौर किया? शायद नहीं! जिस गायत्री मंत्र और उसके भावार्थ को हम बचपन से सुनते और पढ़ते आये हैं, वह भावार्थ इसके मूल शब्दों से बिल्कुल अलग है। वास्तव में यह मंत्र 'नव-योनि' तांत्रिक क्रियाओं में बोले जाने वाले मन्त्रों में से एक है। इस मंत्र के मूल शब्दों पर गौर किया जाये तो यह मंत्र अत्यंत ही अश्लील व...