Skip to main content

सिख-धर्मग्रन्थों में मातृशक्ति का गौरव


सिख-धर्मग्रन्थों में मातृशक्ति का गौरव

-ज्ञानी श्रीसतसिंह प्रीतम, एम०ए०

सिख सम्प्रदाय के दो मूल ग्रन्थ हैं- एक 'आदि-ग्रन्थसाहिब', जिसका सम्पादन गुरु अर्जुनदेवजी ने किया। इसमें गुरु नानक, गुरु अंगद, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अर्जुनदेव, गुरु तेगबहादुर तथा भारत के अन्य संत और भक्तों की वाणियाँ हैं। दूसरा 'दशम ग्रन्थ' है, जिसके रचयिता संत-सिपाही गुरु गोविन्दसिंहजी हैं। गुरु गोविन्दसिंहजी एक सच्चे कर्मयोगी थे। माता-सम्बन्धी विचार उनके दशम ग्रन्थ में अधिक है। आदिग्रन्थ की जय-वाणी में गुरु नानकदेवजी मां से ही सृष्टि का होना लिखते हैं।

एका माई जुगति वियाई तिनि चेले परवाण।
इकु संसारी इकु भण्डारी इकु लाए दीवाण।।
अर्थात् 'एक ही माता जब युक्ति से ब्रह्मद्वारा प्रसूत हुई, तब उससे ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवजी की उत्पत्ति हुई।'

गुरु अर्जुनदेवजी ब्रह्म को पिता और माता शब्द द्वारा सम्बोधित करते हैं-
तुम मात पिता हम बारिक तेरे तुमरी कृपा महि सूख घनेरे।

गुरु गोविन्दसिंहजी ने दशम-ग्रन्थ में अपना जीवन-चरित्र स्वयं लिखा है। आप अपने पिछले जन्म की कथा लिखते हुए कहते हैं कि पिछले जन्म में मैंने ब्रह्म (परब्रह्म परमात्मा) तथा माता काली की उपासना की थी। आप महाकाल, अकाल, अकाल पुरुष आदि नामों से ब्रह्म को पुकारते थे तथा ब्रह्म और शक्ति में अभेद मानते थे। उन्होंने दशम-ग्रन्थ में माता की स्तुति बड़े सुन्दर शब्दों में की है। जैसे-
होई कृपा तुमरी हम पै, तु सभै सवाने गुन हों धरिहौं।
जीय धार विचार तब वरबुध, महा अग्नि गुणकों हरिहौं।।
बिन खण्ड कृपा तुमरी कबहूँ, मुख ते नहीं अच्छर हौं करहौं।
तुमरो करे नाम किधें तुलहा, जिस बाक समुद्र बिखै तरहौं।।

और-
संकट हरन, सभ सिद्ध की करन,
चण्ड तारन तारन, शरण लोचन विशाल है।
आदिजा के आहि, बहै अन्त को न पारावार
शरण उबारण, करण प्रतिपाल है।।
असुर संघारन, अनिक दुख नासन,
सु पतित उधारन छुड़ाये जम जाल है।
देवी वर लायक, सु बुध हूँ की दायक,
सु देहि बर पायक बनावै ग्रंथ हाल है।।

इस पद में गुरु गोविन्दसिंहजी ने दशम-ग्रन्थ की रचना के समय मातृ-कृपा के लिए प्रार्थना की है। गुरु गोविन्दसिंहजी दशम-ग्रन्थ में सृष्टि की रचना लिखते समय माता अर्थात् भवानी का आविर्भाव इस प्रकार लिखते हैं। आप माता को निम्नतर ईश्वर नहीं मानते थे, अपितु ब्रह्म से अभिन्न मानते थे। जैसे-
प्रथम काल सब जगको ताता,
ताते तेज भयो विख्याता।
सोई भवानी नाम कहाई,
जिन एह सगली सृष्टि बनाई।।

उनके विचार से प्रभु की ज्योति, जो सृष्टि के आदि में संसार की उत्पत्ति का कारण बनी, माता ही हुई। छक्के पातशाही १० में आप लिखते हैं-
अटल छत्र धरनी तुही आदि देव,
सकल मुनि जना तोहि जिस दिन सरेव।
तुही काल आकाल की जोति छाजै,
सदा जय सदा जय सदा जय विराजै।
यही दास मांगै कृपा सिंधु कीजै,
स्वयम् ब्रह्मकी भक्ति सर्वत्र दीजै।।

ब्रह्म की भक्ति प्रदान करनेवाली माता ही है। माता से ही भक्ति की याचना की गयी है। आप माता को जगत्-जननी, अन्नदैनी, ब्रह्माण्ड-सरूपी आदि विशेषणों से स्मरण करते हैं-
तुही जगत जननी अनन्ती अकाल,
तुही अन्नदैनी सभनको सम्भाल।
तुही खण्ड ब्रह्माण्ड भूमं स्वरूपी,
तुही विष्णु, शिव, ब्रह्म, इन्द्रा अनूपी।।

माता के खेल तथा शक्ति की महिमा 'दशम-ग्रन्थ' में गुरुजी की कविता में दर्शनीय है-
तुही सब जगत को अपावै छुपावै,
बहुड़ आपे छिनक में बनावै खपावै।
जुगो जुग सकल खेल तुम्हीं रचायो,
तुमन खेलका भेद किनहँ न पायो।
तुमन कुदरती खेल कीनो अपारा,
तुमन तेज सो कोट रवि शशि उजारा।
तुही अम्बके शक्ति कुदरति भवानी
तुमन कुदरति जोति घट घट समानी।।

गुरु गोविन्दसिंहजी ने 'दशम-ग्रन्थ' में चण्डी-चरित्र को तीन बार लिखा है- दो बार ब्रजभाषा में, एक बार पंजाबी में। उसके अन्त में माहात्म्य लिखते हैं-
जे जे तुमरे ध्यान को नित उठि ध्यैंहैं संत।
अंत लहैंगे मुक्ति फुलु, पावहिंगे भगवंत।।
संत सहाई सदा जग मांई,
जह तह साधन होई सहाई।
दुर्गा-पाठ बनाया सभै पौड़ायाँ
फेर न जूनी आया जिन इहं गाइया।।
अंतर ध्यान भई जग माई
तब लंकुढीए गिरा अलाई।
मम बाना कछनी इहु लीजै
अपने सरब पंथ में दीजै।।

गुरुजी ने सिखों को आज्ञा दी कि पूजा के धन को ग्रहण न करना; क्योंकि यह विष-तुल्य है। एक बार सिख-सेवकों ने गुरु गोविन्दसिंहजी की शिकायत उनकी माता से की कि 'जो दान आता है वह सब गुरुजी ब्राह्मणों या दीनों को दे देते हैं।' माताजी ने गुरुजी को बुलाया और पूछा- 'पुत्र! क्या बात है?' उस समय गुरु गोविन्दसिंहजी ने जो वचन कहे, वे स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य हैं-

ज्यों जननी निज तनुजको निरख जहर नहीं देत।
स्यों पूजाके धान को मेरो सिख न लेत।
'जिस प्रकार मां अपने पुत्र को देखकर भी विष नहीं देती, उसी प्रकार पूजा के धान को मेरे सिखों को नहीं लेना चाहिए; क्योंकि यह विष के समान सिख धर्म को विनाश के कगार पर ले जायगा।'

आज सिख-सम्प्रदाय के लिए यह शब्द एक चेतावनी है। गुरुद्वारों के धन का सदुपयोग होना चाहिए। सिख को कर्मयोगी बनकर स्वयं कमाना चाहिए। सिख-सम्प्रदाय हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए बनाया गया था। आज स्थिति चिन्तनीय हो रही है! यह समय विचारपूर्वक चेतने और सँभलने का है।

[स्त्रोत- कल्याण : गीताप्रेस गोरखपुर का शक्ति उपासना अंक; वर्ष ६१; जनवरी १९८७ ई०; पृष्ठ ४७२-४७३; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

Comments

Popular posts from this blog

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो!

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो! वर्तमान समय में मनुष्यों ने भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय अपनी मूर्खता से बना लिए हैं एवं इसी आधार पर कल्पित धर्म-ग्रन्थ भी बन रहे हैं जो केवल इनके अपने-अपने धर्म-ग्रन्थ के अनुसार आचरण करने का आदेश दे रहा है। जैसे- ईसाई समाज का सदा से ही उद्देश्य रहा है कि सभी को "ईसाई बनाओ" क्योंकि ये इनका ग्रन्थ बाइबिल कहता है। कुरान के अनुसार केवल "मुस्लिम बनाओ"। कोई मिशनरियां चलाकर धर्म परिवर्तन कर रहा है तो कोई बलपूर्वक दबाव डालकर धर्म परिवर्तन हेतु विवश कर रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक सम्प्रदाय साधारण व्यक्तियों को अपने धर्म में मिला रहे हैं। सभी धर्म हमें स्वयं में शामिल तो कर ले रहे हैं और विभिन्न धर्मों का अनुयायी आदि तो बना दे रहे हैं लेकिन मनुष्य बनना इनमें से कोई नहीं सिखाता। एक उदाहरण लीजिए! एक भेड़िया एक भेड़ को उठाकर ले जा रहा था कि तभी एक व्यक्ति ने उसे देख लिया। भेड़ तेजी से चिल्ला रहा था कि उस व्यक्ति को उस भेड़ को देखकर दया आ गयी और दया करके उसको भेड़िये के चंगुल से छुड़ा लिया और अपने घर ले आया। रात के समय उस व्यक्ति ने छुरी तेज की और उस

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर प्रियांशु सेठ हमारे पौराणिक भाइयों का कहना है कि मूर्तिपूजा प्राचीन काल से चली आ रही है और तो और वेदों में भी मूर्ति पूजा का विधान है। ईश्वरीय ज्ञान वेद में मूर्तिपूजा को अमान्य कहा है। कारण ईश्वर निराकार और सर्वव्यापक है। इसलिए सृष्टि के कण-कण में व्याप्त ईश्वर को केवल एक मूर्ति में सीमित करना ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव के विपरीत है। वैदिक काल में केवल निराकार ईश्वर की उपासना का प्रावधान था। वेद तो घोषणापूर्वक कहते हैं- न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः। हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः।। -यजु० ३२/३ शब्दार्थ:-(यस्य) जिसका (नाम) प्रसिद्ध (महत् यशः) बड़ा यश है (तस्य) उस परमात्मा की (प्रतिमा) मूर्ति (न अस्ति) नहीं है (एषः) वह (हिरण्यगर्भः इति) सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों को अपने भीतर धारण करने से हिरण्यगर्भ है। (यस्मात् न जातः इति एषः) जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा जो प्रसिद्ध है। स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्य

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती प्रियांशु सेठ आजकल सदैव देखने में आता है कि संस्कृत-व्याकरण से अनभिज्ञ विधर्मी लोग संस्कृत के शब्दों का अनर्थ कर जन-सामान्य में उपद्रव मचा रहे हैं। ऐसा ही एक इस्लामी फक्कड़ सैयद अबुलत हसन अहमद है। जिसने जानबूझकर द्वेष और खुन्नस निकालने के लिए गायत्री मन्त्र पर अश्लील इफ्तिरा लगाया है। इन्होंने अपना मोबाइल नम्बर (09438618027 और 07780737831) लिखते हुए हमें इनके लेख के खण्डन करने की चुनौती दी है। मुल्ला जी का आक्षेप हम संक्षेप में लिख देते हैं [https://m.facebook.com/groups/1006433592713013?view=permalink&id=214352287567074]- 【गायत्री मंत्र की अश्लीलता- आप सभी 'गायत्री-मंत्र' के बारे में अवश्य ही परिचित हैं, लेकिन क्या आपने इस मंत्र के अर्थ पर गौर किया? शायद नहीं! जिस गायत्री मंत्र और उसके भावार्थ को हम बचपन से सुनते और पढ़ते आये हैं, वह भावार्थ इसके मूल शब्दों से बिल्कुल अलग है। वास्तव में यह मंत्र 'नव-योनि' तांत्रिक क्रियाओं में बोले जाने वाले मन्त्रों में से एक है। इस मंत्र के मूल शब्दों पर गौर किया जाये तो यह मंत्र अत्यंत ही अश्लील व