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महर्षि दयानन्द जी सरस्वती का शूद्रों के साथ महान उपकार



महर्षि दयानन्द जी सरस्वती का शूद्रों के साथ महान उपकार

लेखक- डॉ० शिवपूजनसिंह कुशवाहा
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ

महर्षि दयानन्द जी सरस्वती के प्रादुर्भाव के पूर्व शूद्रों, अछूतों व स्त्रियों के साथ अमानवता का व्यवहार किया जाता था। इनको समानाधिकार नहीं था। वेद-शास्त्रों के श्रवण करने तथा अध्ययन करने का प्रबल निषेध था। तत्कालीन सम्प्रदायप्रवर्तकों के इनके प्रति निम्नलिखित कठोर आदेश थे-
'श्रवणाध्ययनार्थप्रतिषेधात् स्मृतेश्च।' (वेदान्तदर्शन अ० १, पा० ३, सू० ३८)

आद्य श्री स्वामी शंकराचार्य जी महाराज का भाष्य-
"इतश्च न शूद्रस्थाऽधिकार: यदस्य स्मृते: श्रवणाध्ययनार्थप्रतिषेधो भवति, वेदश्रवणप्रतिषेधो वेदाध्ययनप्रतिषेधस्तदर्थज्ञानानुष्ठीनयोश्च प्रतिषेध: शूद्रस्य स्मर्यते। श्रवणप्रतिषेधस्तावत् - अथास्य वेदमुपश्रृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूरणम् इति। पद्यु ह वा एतच्छ्मशानं यच्छूद्रसस्तस्माच्छूद्रसमीपे नाध्येतव्यम् इति च। अतएवाऽध्ययनप्रतिषेध:। यस्य हि समीपेऽपि नाऽध्येतव्यं भवति, स कथमश्रृतमधीयीत। भवति च वेदोच्चारणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेद इति। अतएव चाऽर्थादर्थज्ञानानुष्ठानयो: प्रतिषेधो भवति- 'न शूद्राय मतिं दद्यात्' इति, 'द्विजातीनाम ध्ययनमिज्जा दानम्' इति च। येषां पुनः पूर्वकृत संस्कारवशाद् विदुरधर्मव्याधप्रभृतीनां ज्ञानोत्पत्तिस्तेषां न शक्यते फलप्राप्ति: प्रतिषेद्धुम्, ज्ञानस्यैकान्तिकफलत्वात्। 'श्रावयेच्चतुरो वर्णन्' इति चेतिहासपुराणाधिगमे चातुर्वर्ण्यस्याऽधिकास्मरणात्। वेदपूर्वकस्तु नास्त्यधिकार: शूद्राणामिति स्थितम्।"
भाष्य का अनुवाद-
"और इससे भी शूद्र का विद्या में अधिकार नहीं है, क्योंकि स्मृति उसके लिए श्रवण, अध्ययन और अर्थ का निषेध करती है। स्मृति में शूद्र के लिए वेद के श्रवण, वेद के अध्ययन और वेदार्थ के ज्ञान और अनुष्ठान का निषेध है। 'अथास्य वेदमुप०' (समीप से वेद का श्रवण करने वाले शूद्र के दोनों कानों को सीसे और लाख से भर दे) और 'पद्यु ह वा एतच्छ्मशानं०' (शूद्र निःसन्देह जङ्गम श्मशान है, इसलिए शूद्र के समीप में अध्ययन नहीं करना चाहिए) इस प्रकार श्रवण का निषेध है। इसी से अध्ययन का निषेध भी सिद्ध होता है, क्योंकि जिसके समीप में अध्ययन किस प्रकार कर सकता है? यदि शूद्र वेद का उच्चारण करे, तो उसकी जिह्वा काट देनी चाहिए। यदि वेद को याद करे, तो उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देने चाहिएं, ऐसी स्मृति भी है। इसी हेतु से अर्थात् शूद्र के लिए अर्थज्ञान और अनुष्ठान का भी निषेध होता है- 'न शूद्राय०' (ब्राह्मण को चाहिए कि शूद्र को वेदार्थ-ज्ञान न दे) और 'द्विजातीना०' (केवल द्विजों के लिए ही अध्ययन, यज्ञ और दान का विधान है)। परन्तु विदुर, धर्मव्याध आदि, जिनको पूर्वकर्म के संस्कारों से ज्ञान उत्पन्न हुआ था, उनके लिए फलप्राप्ति का निषेध नहीं किया जा सकता, क्योंकि ज्ञान अव्यभिचरित फल उत्पन्न करता है। 'श्रावयेच्च०' (चारों वर्णों को सुनावे) इस प्रकार स्मृति, इतिहास और पुराण का ज्ञान प्राप्त करने में चारों वर्णों के अधिकार बतलाती है। इससे सिद्ध हुआ कि वेदाध्ययनपूर्वक ज्ञान प्राप्त करने का शूद्र को अधिकार नहीं है।"

श्री रामानुजाचार्य और शूद्र-
वेदान्तदर्शन १/३/३८ के "श्रीभाष्य" में श्री रामानुजाचार्य जी इस सूत्र का भाष्य यों करते हैं-
"(शूद्रस्य वेदश्रवणतदध्ययनतदर्थानुष्ठानानि प्रतिषिध्यन्ते। पद्यु हु वा एतत् श्मशानं यत्छूद्र: तस्मात् शूद्रसमीपे नाध्येतव्यम् - (वसिष्ठस्मृति १८/१), तस्मात् शूद्रो बहुपशुरयज्ञिय इति। बहुपशु: पशुसदृश इत्यर्थः। अननुश्रृण्वतोऽध्ययनतदर्थज्ञानतदर्यानुष्ठानानि न सम्भवन्ति। अतस्तान्यपि प्रतिषिद्धान्येव। स्मर्यते च श्रवणादिनिषेध:। अथ हास्य वेदमुश्रृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रति पूरणमुदाहरणे जिह्वाच्छेदो धारणो शरीरभेद इति। न चास्योपदिशेद् धर्मम् न चास्य व्रतमादिशेत् (मनु० ४/८०) इति च। अतः शूद्रस्यानधिकार इति सिद्धम्।"
अर्थात्- "शूद्र के लिए वेद का श्रवण, अध्ययन और उनका अनुष्ठान व आचरण प्रतिषिद्ध है। शूद्र चलता-फिरता श्मशान है। अतः उसके समीप अध्ययन न करना चाहिए; वह पशु समान है। जब वेद का श्रवण ही उसके लिए निषिद्ध है, तो अध्ययन, उनके अर्थज्ञान और वैदिक आचरण तो सम्भव ही नहीं। शूद्र वेद सुन ले, तो उसके कानों को सीसे और लाख से भर देना चाहिए। वेदमन्त्र का वह उच्चारण करे, तो उसकी जीभ काट देनी चाहिए और वेदमन्त्र को याद करे, तो उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े का डालने चाहिएं। इसलिए शूद्र का वेदाध्ययन और ब्रह्मविद्या में सर्वथा अनधिकार है।"

पुष्टिमार्ग के आचार्य श्री वल्लभाचार्य जी और शूद्र-
'ब्रह्मसूत्र' १/३/३८ पर भाष्य करते हुए वे लिखते हैं-
"दूरे ह्याधिकारचिन्ता वेदस्य श्रवणाध्ययनमर्थज्ञानं त्रयमपि तस्य (शूद्रस्य) प्रतिषिद्धम्। तत्सन्निधावन्यस्य च। अथास्य वेदमुपश्रृण्वतस्त्रयुजतुभ्यां श्रोतपरिपूरणमिति। पद्यु ह वा एतत् श्मशानं यच्छूद्रस्तत् - समीपे नाध्येतव्यमिति। उच्चारणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेद: (गौतम समृ० १२/४)। स्मृतियुक्त्याऽपि वेदार्थे न शूद्राधिकार इत्याह। स्मृतेश्च 'वेदाक्षरविचारेण शूद्र: पतति तत्क्षण त्' (पराशर स्मृ० १/६३) इति। स्मार्तपौराणिकज्ञानादौ तु कारणविशेषेण शूद्रयोनौ गतानां महतामधिकार:। तथापि न कर्मजातिशूद्राणाम्।तस्मान्नास्ति वैदिके क्वचिदपि शूद्राधिकार इति स्थितम्।"
अर्थात्- "शूद्र के लिए वेदश्रवण करने, पढ़ने और उसके अर्थज्ञान तीनों का निषेध है। अतः उसके वेदाधिकार की चिन्ता तो बहुत दूर का विषय है। शूद्र यदि वेद के मन्त्रों को सुन ले, तो उसके कानों को सीसे और लाख से भर देना चाहिए। उच्चारण करे, तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिए, मन्त्र याद कर ले, तो उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देने चाहिएं। वेद के एक अक्षर के विचार से भी शूद्र उसी क्षण में पतित हो जाता है, ऐसा पराशर-स्मृति आदि में कहा है। स्मृति और पुराणों के ज्ञान में भी अधिकार किसी विशेष कारण शूद्रकुलोत्पन्न महापुरुषों का ही है; जाति या जन्म से शूद्रों का नहीं। इसलिए वैदिक ज्ञान में तो कहीं भी शूद्रों का अधिकार नहीं है, यह सिद्ध होता है।"

द्वैतवाद-प्रचारक श्री मध्वाचार्य (स्वामी आनन्द तीर्थ जी महाराज) और शूद्र-
वेदान्त दर्शन १/३/३८ पर 'अणुभाष्य' में वे लिखते हैं-
"श्रवणे त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रपरिपूरणम्, अध्ययने जिह्वाच्छेद:, धारणे हृदयविदारणम् इति प्रतिषेधात्। 'नाग्निनं यज्ञ: शूद्रस्य तथैवाध्ययनं कुत:। केवलैव तु शुश्रूषा त्रिवर्णानां विधीयते' इति स्मृतेश्च। विदुरादीनां तूत्पन्नज्ञानत्वान्न कश्चिद् विशेष:।"
अर्थात्- "यदि शूद्र वेद के शब्द को सुन ले तो उसके कान को सीसे और लाख से भर देना चाहिए और वेद के अध्ययन करने पर उसकी जिह्वा काट डालनी चाहिए और अर्थ का ज्ञान व निश्चय करने पर उसके हृदय के टुकड़े कर देने चाहिएं। शूद्र को अग्निहोत्र, यज्ञ, अध्ययनादि का अधिकार नहीं, उसका कार्य केवल तीन वर्णों की सेवा है, ऐसा स्मृति में कहा है। विदुर आदि को जन्म से ही ज्ञान उत्पन्न हो गया था। अतः उसमें कुछ विशेषता नहीं।"

श्री निम्बार्काचार्य जी और शूद्र-
ब्रह्मसूत्र १/३/३८ का भाष्य "वेदान्त-पारिजातसौरभ" में लिखा है-
"शूद्रो नाधिकियते। शूद्रसमीपे नाध्येतव्यभित्यादिना तस्य वेदश्रवणादिप्रतिषेधात्। न चास्योपदिशेद् धर्ममित्यादि स्मृतिश्च।"
अर्थात्- "शूद्र का वेदाध्ययन का अधिकार नहीं है। शूद्र के समीप अध्ययन नहीं करना चाहिए। इस विधान से उसके वेदश्रवणादि का निषेध है। स्मृति में भी कहा है कि शूद्र को धर्म का उपदेश नहीं देना चाहिए।"

इन पांच आचार्यों ने शूद्रों के साथ किस प्रकार का अत्याचार व अमानवता का व्यवहार किया है।
कवष, ऐलूष, ऐतरेय ऋषि कौन थे? क्या वे ब्राह्मण थे? नहीं, वे जन्मना शूद्र, दासीपुत्र होते हुए भी वेदमन्त्रों के प्रचारक थे तथा ऋग्वेद के ब्राह्मण 'ऐतरेय-ब्राह्मण' को बनाने वाले 'ऐतरेय' दासीपुत्र थे।

श्री रामानुजाचार्य जी वैष्णव मत के थे और वैष्णव मत के प्रवर्तक "शठकोप" थे जो कंजर जाति के थे।
स्वामी महेश्वरानन्दगिरि: महामण्डलेश्वर, कनखल भी लिखते हैं-
"एवं श्री रामानुजाचार्यसम्प्रदायेऽपि 'पल्ली' संज्ञकस्य शूद्रस्य कुले जात: शठकोप:, सच गुणकर्मभ्यामेव ब्राह्मण्यमधिगत्य श्रीवैष्णसंप्रदायस्य परमाचार्य: संवृत इति दिव्यसूरिचरित्रचतुर्थसप्तर्गोक्त वचनैरेतत् विदितं भवति। श्रेष्ठ श्रीवैष्णवाचार्य्य: 'शठकोपोऽन्त्यजात्मज:'। जन्मकर्म - विशुद्धानां ब्राह्मणानामभूद् गुरु:।"
अर्थात्- "श्री रामानुजाचार्य-सम्प्रदाय में भी 'पल्ली' नाम के शूद्र के कुल में उत्पन्न शठकोप गुण, कर्म से श्री वैष्णव सम्प्रदाय के परमाचार्य हुए, यह 'दिव्यसूरिचरित्र' के चतुर्थसर्ग के वचन से विदित होता है। श्रेष्ठ श्रीवैष्णवाचार्य 'शठकोप' अन्त्यज-उत्पन्न थे। वे जन्म-कर्म से विशुद्ध ब्राह्मणों के भी गुरु हुए।"

आद्य शंकराचार्य जी महाराज के अनुयायी उपर्युक्त महामण्डलेश्वर जी ने तो श्री आद्य शंकराचार्य जी महाराज के वेदान्तदर्शन १/३/३८ के भाष्य पर भी टीका-टिप्पणी करते हुए लिखा है-
"साक्षाद्वेदविरुद्धत्वात्, स्मृतिष्वेतादृशं वच:। प्रक्षिप्तं स्यान्नृशंसैस्तु स्वार्थान्धैर्जनशत्रुभि:।"
अर्थात्- "(शूद्रों का जिह्वाच्छेदन आदि की आलोचना करते हुए लिखते हैं कि) ऐसा स्मृतिवचन तो साक्षात् वेद-विरुद्ध है, प्रक्षिप्त हैं।"

इन्होंने स्वयं भी श्री आद्य शंकराचार्य के भाष्य का खण्डन कर दिया।

आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द जी सरस्वती और शूद्र-
आर्यसमाज कोई सम्प्रदाय, मजहब या मत नहीं है यह एक संस्था है, जिसका उद्देश्य हिन्दू-समाज में प्रविष्ट सभी कुरीतियों का मूलोच्छेद करना और वैदिकधर्म का प्रचार करना है।

महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं-
"वेद पढ़ने-सुनने का अधिकार सब को है। देखो! गार्गी आदि स्त्रियां और छान्दोग्य में जनश्रुति शूद्र ने भी वेद 'रैक्यमुनि' के पास पढ़ा था और यजुर्वेद के २६वें अध्याय के दूसरे मन्त्र में स्पष्ट लिखा है कि वेदों के पढ़ने और सुनने का अधिकार मनुष्यमात्र को है।"

"यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय।।" (यजु० २६/२)

महर्षि दयानन्द जी कृत भाष्यम्-
"अस्याभिप्रायः - परमेश्वर: सर्वमानुष्यैर्वेदा: पठनीया: पाठचा इत्याज्ञां ददाति। तद्यथा - (यथा) येन प्रकारेण (इमाम्) प्रत्यक्षभूतामृग्वेदादिवेदचतुष्टयीं (कल्याणीम्) कल्याणसाधिकां (वाचम्) वाणीं (जनेभ्य:) सर्वेभ्यो मनुष्येभ्योऽर्थात् सकलजीवोपकाराय (आवदानि) आसमन्ताद् उपदिशानि, तथैव सर्वैर्विद्वद्भि: सर्वमनुष्येभ्यो वेदचतुष्टयी वागुपदेष्टव्येति।
अत्र कश्चिदेवं ब्रूयात्जनेभ्यो द्विजेभ्य इत्यध्याहार्य्य, वेदाध्ययनाध्यापने तेषामेवाधिकारत्वात्।
नैव शक्यम् - उत्तरमन्त्रभागार्थविरोधात्। तद्यथा - कस्य - कस्य वेदाध्ययनश्रवणेऽधिकारोऽस्तीत्याकांक्षायामिदमुच्यते। (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्राह्मणक्षत्रियाभ्यां, (अर्य्याय) वैश्याय (शूद्राय), (चारणाय) अतिशूद्रायान्त्यजाय, (स्वाय) स्वात्मीयाय पुत्राय भृत्याय च, सर्वे: सैषा वेदचतुष्टयी श्राव्येति। (प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह०) यथाहमीश्वर: पक्षपातं विहाय सर्वोपकारकरणेन सह वर्त्तमान: सन्, देवानां विदुषां प्रिय:। दातुर्दक्षिणायै सर्वस्वदानाय प्रियश्च भूयासं स्याम्, तथैव भवद्भि: सर्वैर्विद्वद्भिरपि सर्वोपकारं सर्वप्रियाचरणं मत्वा सर्वेभ्यो वेदवाणी श्राव्येती। यथायं (मे) मम काम: समृध्यते, तथैवैवं कुर्वताम् (अर्य काम: समृध्यताम्) इयमिष्टसुखेच्छा समृध्यतां सम्यग् वर्धताम्। यशाद: सर्वमिष्टसुखं मामुपनमति, (उप मादो नमतु) तथैव भवतोऽपि सर्वमिष्टसुखमुपनमतु सम्यक् प्राप्नोत्विति।
मया युष्मभ्यमयमाशीर्वादो दीयत इति निश्चेतव्यम्। यथा मया वेदविद्या सर्वार्था प्रकाशिता, तथैव युष्माभिरपि सर्वार्थोपकर्त्तव्या। नात्र वैषम्यं किञ्चित् कर्त्तव्यमिति। कुत:? यथा मम सर्वप्रियार्था पक्षपातरहिता च प्रवृत्तिरस्ति, तथैव युष्माभिराचरणे कृते मम प्रसन्नता भवति, नान्यथेति। अस्य मन्त्रस्यायमेवार्थोऽस्ति। कुत:? 'बृहस्पते अति यदर्थ:' इत्युत्तरस्मिन् मन्त्रेहीश्वरार्थस्यैव प्रतिपादनात्।"

अर्थात्- "(यथेमां वाचं कल्याणीं०) इस मन्त्र का अभिप्राय यह है कि वेदों के पढ़ने-पढ़ाने का सब मनुष्यों को अधिकार है, और विद्वानों को उनके पढ़ाने का। इसलिए ईश्वर आज्ञा देता है कि- हे मनुष्य लोगो! जिस प्रकार मैं तुमको चारों वेदों का उपदेश करता हूं, उसी प्रकार से तुम भी उनको पढ़ के सब मनुष्यों को पढ़ाया और सुनाया करो। क्योंकि यह चारों वेद रूप वाणी सब की कल्याण करने वाली है तथा (आवदानि जनेभ्य:) जैसे सब मनुष्यों के लिए मैं वेदों का उपदेश करता हूं, वैसे ही सदा तुम भी किया करो।
प्रश्न- "जनेभ्य:" इस पद से द्विजों ही का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि जहां कहीं सूत्र और स्मृतियों में पढ़ने का अधिकार लिखा है, वहां केवल द्विजों ही का ग्रहण किया है?
उत्तर- यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि जो ईश्वर का भी अभिप्राय द्विजों ही के ग्रहण करने का होता, तो मनुष्यमात्र को उनके पढ़ने का अधिकार कभी न देता जैसा कि इन मन्त्र में प्रत्यक्ष विधान है-
(ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्य्याय च स्वाय चारणाय) अर्थात् वेदाधिकार जैसा ब्राह्मण वर्ण के लिए है, वैसा ही क्षत्रिय, अर्य्य=वैश्य, शूद्र, पुत्र, भृत्य और अतिशूद्र के लिए भी बराबर है- क्योंकि वेद ईश्वरप्रकाशित है। जो विद्या का पुस्तक होता है, वह सब का हितकारक है, और ईश्वररचित पदार्थों के दायभागी सब मनुष्य अवश्य होते हैं। इसलिए उनका जानना सब मनुष्यों को उचित है, क्योंकि वह माल सब के पिता का सब पुत्रों के लिए है, किसी वर्ण विशेष के लिए नहीं।...।"

महर्षि दयानन्द जी के इस उपर्युक्त भाष्य का समर्थन तथा उसी प्रकार का भाष्य अनेक आर्य विद्वानों ने भी किया है। चतुर्वेदभाष्यकार पं० जयदेव शर्मा 'विद्यालंकार' मीमांसातीर्थ; पं० श्रीपाद दामोदर सातवलेकर; शास्त्रार्थ-महारथी पं० जे० पी० चौधरी जी काव्यतीर्थ; पं० मनसाराम जी 'वैदिकतोप'; स्वामी नित्यानन्द जी महाराज व स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी महाराज; पं० भूमित्र शर्मा आर्योपदेशक; पं० शिवशंकर शर्मा 'काव्यतीर्थ'; श्री ओम् प्रकाश त्यागी, मंत्री सार्वदेशिक सभा; पं० धर्मदेव जी 'विद्यामार्तण्ड'; डॉ० निरूपण 'विद्यालंकार' एम०ए०, पी-एच-डी०।

पौराणिक पण्डितों में श्री उव्वट, महीधर, पं० ज्वालाप्रसाद मिश्र, पं० दीनानाथ शास्त्री ने यजु० (२६/२) के जो अर्थ किए हैं वे अशुद्ध तथा भ्रमपूर्ण हैं। बहुत से उदार पौराणिक विद्वानों ने भी महर्षि दयानन्द जी के भाष्य का समर्थन किया है। यथा-

(क) परलोकवासी पं० सत्यव्रत जी सामश्रमी, कलकत्ता- जो आर्यसमाजी नहीं थे, उन्होंने "ऐतरेयालोचनम्" नामक संस्कृत में एक पुस्तक लिखी है। यह 'ऐतरेय-ब्राह्मण' की विस्तृत भूमिका है। इस ब्राह्मण का रचयिता महीदास नामक दासीपुत्र शूद्र था। जब शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार ही नहीं, तो महीदास ने 'ऐतरेय-ब्राह्मण' का निर्माण कैसे किया? इस प्रश्न को उठा कर आचार्य पं० सत्यव्रत जी सामश्रमी ने उत्तर दिया है कि 'शूद्र' ब्राह्मणग्रन्थ की रचना कर सकता है या नहीं यह तो साधारण बात है। हम तो ब्राह्मणग्रन्थों में यहां तक पाते हैं कि शूद्र मन्त्र-द्रष्टा तक हुए हैं।

"नन्वेवमार्याणामार्यत्वप्रतिपादकधर्माणां यागादीनां विधायको ब्राह्मणग्रन्थस्तस्य प्रवचनं कर्तृत्वं कथमनार्ये तत्र दासीपुत्रे सम्भवेन्नामेति चेत् अत्र ब्रूम:। यागादिविधायकब्राह्मणग्रन्थस्य प्रोक्तृत्वं तुकिं तुच्छम्, मन्त्रद्रष्टृत्वमपि ज्ञायते दासीपुत्रस्यापि तद्यथा श्रुतं तावत्रैव कवषमैलूषोपाख्यानम्।"
अर्थात्- कवष ऐलूष की कथा से तो यहां तक पाया जाता है कि शूद्र मन्त्रद्रष्टा तक हुए हैं।
इतना लिखने पर भी आचार्य के हृदय को सन्तोष न हुआ तो वे शूद्रों का वेदाधिकार सिद्ध करने के लिए बड़े गर्व से महर्षि दयानन्द जी सरस्वती के भाष्य का अवतरण देते हुए लिखते हैं-
"शूद्रस्य वेदाधिकारे साक्षाद् वेदवचनमपि प्रदर्शितं स्वामिदयानन्देन (वाजसनेयि-संहिता २६/२), यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय इति तदेवं वेदविधे: पक्षपातदोषभावत्र्व न कथमपीति स्पष्टम्।" (ऐतरेयालोचनम् पृष्ठ १७)
अर्थात्- "शूद्रों के वेदाधिकार में स्वामी दयानन्द जी ने साक्षात् यजुर्वेद (२६/२) के वचन 'यथेमां वाचं कल्याणीम्' को प्रदर्शित किया है। और इस प्रकार यह भी स्पष्ट है कि वेद के विधान में किसी तरह के पक्षपात का दोष नहीं लगाया जा सकता।"

आचार्य सामश्रमी जी की पुष्टि में पं० आत्माराम जी अमृतसरी बढ़ौदा अपने "Maharshi Dayanand Saraswati and Untouchability" शीर्षक अंग्रेजी-लेख में लिखते हैं-
"But a well-known Sanskrit scholar of Bengal Pandit Satyavrat Samasrami, who is neither a member nor a supporier of the Arya Samaj and who is well-known for his Sanskrit research work to the Government of India, has in his latest book 'Aitareya-Alochana' not only gives a similar translation and exposition of this epoch-making mantra but has in plain words, by giving reference of Swami Dayanand Saraswati and the translation which the great Rishi Dayanand made fifty years ago, corroborated every word of the same. He like Rishi Dayanand says that from Brahmin down to the Cobbler every human being is entitled to the study of the Vedas.",
अर्थात्- "बंगाल के प्रसिद्ध संस्कृत-गवेषक पं० सत्यव्रत सामश्रमी जो कि आर्य समाज के न तो सदस्य और न समर्थक हैं और भारतीय सरकार के सुप्रसिद्ध संस्कृत-गवेषक हैं, अपनी अन्तिम पुस्तक 'ऐतरेयालोचन' में ऋषि दयानन्द जी के अनुवाद का उद्धरण देते हैं, जिसको ५० वर्ष पूर्व महान् ऋषि दयानन्द जी ने किया था। वह ऋषि दयानन्द जी के सदृश ही कहने हैं कि ब्राह्मणों से लेकर अछूतों तक प्रत्येक मानव को वेदाध्ययन का अधिकार है।"

(ख) कविवर श्री दुलारेला जी भार्गव, सम्पादक पाक्षिक "सुधा" लखनऊ, अपने "महर्षि दयानन्द और नारी-समाज" शीर्षक लेख में नारी व सभी जाति के बालिका-विद्यार्थियों को वेदाधिकार सिद्ध करने के लिए यजु० (२६/२) पर महर्षि दयानन्द जी के भाष्य को प्रस्तुत करते हैं।

(ग) पौराणिक पण्डित गंगाप्रसाद जी शास्त्री, चाह इन्दारा, दिल्ली, यजु० (२६/२) पर महीधरभाष्य की आलोचना करते हुए महर्षि दयानन्द जी सरस्वती के समान ही अर्थ करके सब को वेदाधिकार सिद्ध करते हैं। वे अर्थ करते हैं- "हे शिष्यों! जिस प्रकार मैं इस वेदवाणी को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, मित्र, शत्रु सब के लिए कहता हूं, उसी प्रकार तुम भी इसका सब मनुष्यों को उपदेश दिया करो "

(घ) परलोकवासी आचार्य पं० इन्दिरारमण जी शास्त्री अपने "अन्त्यजों का वेदाधिकार" शीर्षक लेख में महर्षि दयानन्द जी के वेदभाष्य का समर्थन करते हुए लिखते हैं- "... स्वामी दयानन्द ने इस मन्त्र द्वारा शूद्रों के वेदाध्ययन का अधिकार प्रमाणित किया है। जब अध्ययनाधिकार सिद्ध हो चुका, तब यज्ञ में अधीत मन्त्रों के उद्गान का और तत्सम्बद्ध वैदिक कर्मों के अनुष्ठान का अधिकार भी स्वतः प्राप्त हो जाता है।"

(ङ) श्री आर० के० मुखर्जी का कथन है- "It is contended that this refers to the equal right of all classes to the study of the Veda."
श्री मुखर्जी ने यह निष्कर्ष निकाला है कि "वेदों का अध्ययन करने का सभी वर्गों के व्यक्तियों को समान अधिकार था।"

(च) श्री वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य, स्वामी भगवदाचार्य जी महाराज पण्डितराज परमहंस, परिव्राजक, वेदरत्न, निरुक्त-भाषण, व्याकरण-शिरोमणि, विद्याभास्कर, सहित्यालंकार यजु० (२६/२) का संस्कृत में भाष्य करते हुए लिखते हैं-
"यथेमां वाचमिति। अत्र किं चिद्वक्तव्यम्। स्वामिदयानन्देन यथेमामि-त्यारभ्य चारणाय चेत्यन्तेन शूद्राणामपि वेदेऽधिकार इति साधितम्। दयानन्द स्वामिना मन्त्रार्थभागेन सर्वेषां वेदेष्वधिकार इत्युक्तम्। तत्तु समीचीनमेव।"
अर्थात्- "यहां कुछ वक्तव्य है। स्वामी दयानन्द ने 'यथेमां...' के भाष्य में 'चारणाय' शूद्र को भी वेदाधिकार है; यह सिद्ध किया है। स्वामी दयानन्द जी मन्त्रार्थ में सब के लिए वेदों में अधिकार कहते हैं यह समीचीन है।..."

पुनः आप अपने एक लेख में महर्षि दयानन्द जी के भाष्य को स्पष्ट स्वीकार करते हुए लिखते हैं- "वेद ईश्वरीय पुस्तक है। जैसे द्विजाति, वैसे ही शूद्र भी भगवान् की उत्पादित प्रजा है। हस्तपादादि, जिह्वा, नेत्रादि और स्मरणशक्ति आदि भी ब्राह्मणादि और शूद्रों के समान ही हैं। अतः जैसे पण्डित ब्राह्मणादि वेदपाठ कर सकते हैं वैसे ही पण्डित शूद्र भी वेदपाठ कर सकता है। रही प्रमाण की बात। प्रमाण की अपेक्षा तब हुआ करती है जब पाप और पुण्य का विकट प्रश्न उपस्थित हो। पाप तभी होता है जब किसी के साथ अन्याय, अनाचार, अत्याचार, दुराचार और बलात्कार आदि किए जाएं। ऐसे ही पुण्य भी तभी होता है जब किसी के साथ न्याय, सदाचार, उपकार आदि किए जाते हैं। जहां यह सब न हो, वहां पाप और पुण्य का विचार नहीं उठ सकता। इसके पढ़ने से पाप तो होता नहीं, धर्म भी नहीं होता। वेद पढ़ने से धर्म तब होता है, जब वेदोपदिष्ट सदाचार का पालन किया जाए। वेदों के केवल पाठ करने से भी धर्म होता है, इस कथन में मेरा अपना विश्वास नहीं है। ऐसी स्थिति में वेदाध्ययन में शूद्राधिकार के समर्थन के लिए प्रमाण ढूंढने के लिए मुझे कुछ भी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। किंच, वेद ईश्वरीय ग्रन्थ है। ईश्वर ने कहीं यह कहा हो कि शूद्र इसे न पढ़ें, ऐसा मुझे स्मरण नहीं है। अतः सब के समान ही शूद्र भी वेद पढ़ सकता है। मैक्समूलर आदि अनेक विदेशीय विद्वान् वेदों को पढ़ गए और समझ गए। उन पर उन्होंने टीका-टिप्पणी भी की और उनका अनुवाद भी किया। उन्होंने कभी किसी से यह नहीं पूछा कि, "हमें वेदों के पढ़ने का अधिकार है कि नहीं?" वेद पढ़ने से उन्हें नरक मिला हो या ईश्वर से दण्ड मिला हो, यह भी नहीं कहा जा सकता। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 'यथेमां वाचं कल्याणीम्' इस मन्त्र से शूद्राधिकार सिद्ध किया है, वह बहुत हद तक समुचित है।..."

इस प्रकार छः ऐसे विद्वानों ने महर्षि दयानन्द जी के भाष्य का समर्थन किया है, जो 'आर्यसमाजी' न हैं और न थे।

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मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो! वर्तमान समय में मनुष्यों ने भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय अपनी मूर्खता से बना लिए हैं एवं इसी आधार पर कल्पित धर्म-ग्रन्थ भी बन रहे हैं जो केवल इनके अपने-अपने धर्म-ग्रन्थ के अनुसार आचरण करने का आदेश दे रहा है। जैसे- ईसाई समाज का सदा से ही उद्देश्य रहा है कि सभी को "ईसाई बनाओ" क्योंकि ये इनका ग्रन्थ बाइबिल कहता है। कुरान के अनुसार केवल "मुस्लिम बनाओ"। कोई मिशनरियां चलाकर धर्म परिवर्तन कर रहा है तो कोई बलपूर्वक दबाव डालकर धर्म परिवर्तन हेतु विवश कर रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक सम्प्रदाय साधारण व्यक्तियों को अपने धर्म में मिला रहे हैं। सभी धर्म हमें स्वयं में शामिल तो कर ले रहे हैं और विभिन्न धर्मों का अनुयायी आदि तो बना दे रहे हैं लेकिन मनुष्य बनना इनमें से कोई नहीं सिखाता। एक उदाहरण लीजिए! एक भेड़िया एक भेड़ को उठाकर ले जा रहा था कि तभी एक व्यक्ति ने उसे देख लिया। भेड़ तेजी से चिल्ला रहा था कि उस व्यक्ति को उस भेड़ को देखकर दया आ गयी और दया करके उसको भेड़िये के चंगुल से छुड़ा लिया और अपने घर ले आया। रात के समय उस व्यक्ति ने छुरी तेज की और उस...

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर प्रियांशु सेठ हमारे पौराणिक भाइयों का कहना है कि मूर्तिपूजा प्राचीन काल से चली आ रही है और तो और वेदों में भी मूर्ति पूजा का विधान है। ईश्वरीय ज्ञान वेद में मूर्तिपूजा को अमान्य कहा है। कारण ईश्वर निराकार और सर्वव्यापक है। इसलिए सृष्टि के कण-कण में व्याप्त ईश्वर को केवल एक मूर्ति में सीमित करना ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव के विपरीत है। वैदिक काल में केवल निराकार ईश्वर की उपासना का प्रावधान था। वेद तो घोषणापूर्वक कहते हैं- न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः। हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः।। -यजु० ३२/३ शब्दार्थ:-(यस्य) जिसका (नाम) प्रसिद्ध (महत् यशः) बड़ा यश है (तस्य) उस परमात्मा की (प्रतिमा) मूर्ति (न अस्ति) नहीं है (एषः) वह (हिरण्यगर्भः इति) सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों को अपने भीतर धारण करने से हिरण्यगर्भ है। (यस्मात् न जातः इति एषः) जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा जो प्रसिद्ध है। स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्य...

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती प्रियांशु सेठ आजकल सदैव देखने में आता है कि संस्कृत-व्याकरण से अनभिज्ञ विधर्मी लोग संस्कृत के शब्दों का अनर्थ कर जन-सामान्य में उपद्रव मचा रहे हैं। ऐसा ही एक इस्लामी फक्कड़ सैयद अबुलत हसन अहमद है। जिसने जानबूझकर द्वेष और खुन्नस निकालने के लिए गायत्री मन्त्र पर अश्लील इफ्तिरा लगाया है। इन्होंने अपना मोबाइल नम्बर (09438618027 और 07780737831) लिखते हुए हमें इनके लेख के खण्डन करने की चुनौती दी है। मुल्ला जी का आक्षेप हम संक्षेप में लिख देते हैं [https://m.facebook.com/groups/1006433592713013?view=permalink&id=214352287567074]- 【गायत्री मंत्र की अश्लीलता- आप सभी 'गायत्री-मंत्र' के बारे में अवश्य ही परिचित हैं, लेकिन क्या आपने इस मंत्र के अर्थ पर गौर किया? शायद नहीं! जिस गायत्री मंत्र और उसके भावार्थ को हम बचपन से सुनते और पढ़ते आये हैं, वह भावार्थ इसके मूल शब्दों से बिल्कुल अलग है। वास्तव में यह मंत्र 'नव-योनि' तांत्रिक क्रियाओं में बोले जाने वाले मन्त्रों में से एक है। इस मंत्र के मूल शब्दों पर गौर किया जाये तो यह मंत्र अत्यंत ही अश्लील व...