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वैदिक पथानुगामी आर्य भरत और मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज का दर्शन



भ्रमोच्छेदन

वैदिक पथानुगामी आर्य भरत और मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज का दर्शन

लेखक- प्रियांशु सेठ, वाराणसी

[आर्यावर्त के स्थापित आदर्शों को कलंकित करने के कुत्सित प्रयासों के क्रम में महर्षि भरद्वाज द्वारा मांस परोसने के कुछ यूट्यूबर्स के अनर्गल प्रवाद का युवा गवेषक द्वारा मुंह तोड़ प्रामाणिक उत्तर दिया जा रहा है। -सम्पादक शांतिधर्मी]

महर्षि वाल्मीकि ने अपने काव्यग्रन्थ रामायण में वैदिक संस्कृति का वर्णन करते हुए एक अनुकरणीय जीवन पद्धति का चित्र प्रस्तुत किया है जो विभिन्न मतावलम्बियों के समक्ष एक आदर्श स्थापित करता है। साथ ही इससे यह भी सिद्ध होता है कि सम्पूर्ण विश्व में वेद के तुल्य अन्य कोई धर्मग्रन्थ नहीं है। धर्म के स्वरूप को परिभाषित करने में उनका यह काव्य पूर्णतः सक्षम है। इस ग्रन्थ में पावन वेदों की आज्ञाओं का अनुसरण कर सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त करने में तपोरत अनेक महान् आदर्श पात्रों का उल्लेख हमारी बुद्धि को प्रगल्भ, क्रियाशील, उदयशील और मोक्षमार्ग पर चलने के लिये सक्षम बनाता है। रामायण विश्व संस्कृति के इतिहास में प्रमुख स्थान रखता है। इस ग्रन्थ की महान् प्रतिष्ठा के लिए इससे बढ़कर दूसरा प्रमाण क्या होगा कि इसके रचयिता ‘महर्षि’, नायक ‘भगवान्’ और नायिका ‘देवी’ के पद से जाने जाते हैं।

रामायण काल में लोग पवित्र वेद सच्छास्त्रों के अनुसार अपनी जीवन का उत्कर्ष प्राप्त करते थे। एक सर्वव्यापक जगदीश्वर के अतिरिक्त अन्य किसी मूर्ति की पूजोपासना नहीं जानते थे और पञ्च-महायज्ञ के अतिरिक्त किसी पीर परस्ती को नित्यकर्म नहीं मानते थे। षट्प्रज्ञ का भाव तो उनकी मानसिक चर्या में भी शामिल नहीं था और न मांसाहार का वहमो-गुमान था। (हिंसाभिरभिवर्जितः) अर्थात् अयोध्या हिंसा से पूर्ण मुक्त थी (-अयोध्या० १००/४४)। उस काल के देवता दिव्यगुणयुक्त, सत्वगुणी, शांतात्मा, काम, क्रोध, लोभ, मोहाहंकार इन पांच विकारों से सुरक्षित, भक्त और पुण्यवान् हुआ करते थे।

दुर्भाग्यवश अभिमान का पुतला लंकापति रावण जब वेदों से अपनी इच्छानुसारी घृणित कामना पूर्ण न कर सका तो वेद की आज्ञाओं का उल्लंघन करने लगा। वेद-वचनों के उल्लंघन के मार्ग ने उसे और उसकी राक्षसी प्रजातियों के समूह को हिंसा, अशिष्टता और व्यभिचार के दलदल में धकेल दिया। कालांतर में इन्हीं को अपना प्रेरणास्रोत मानकर वाममार्गियों ने दुर्व्यसन, मद्यपान, व्यभिचार, मांसाहार जैसी अनेक मिथ्या कल्पनाओं का इतिहास में प्रक्षेप करके विकृत करने का प्रयास किया। इसी के आधार पर पेरियार जैसे वाममार्गियों ने असत्य को सत्य का मुखौटा पहनाकर नफरत के सौदागरों को आमन्त्रण भेजे और अंततः विधर्मियों ने तरह-तरह के आक्षेप रामायण के आदर्श पात्रों पर लगाने आरम्भ कर दिए। अब तक जो श्रीराम पर भिन्न-भिन्न आरोप लगाकर खुद के मत को श्रेष्ठ सिद्ध करने का असफल प्रयास किया करते थे, अब वही कुत्सित प्रयास श्रीराम के अनुज भरतजी पर लगाकर कर रहे हैं। जब उन्होंने श्रीराम से मिलने वन को प्रस्थान किया, मार्ग में उन्हें भरद्वाज मुनि के दर्शन हुए। मुनि भरद्वाज ने उन्हें और उनकी सेना को भरपेट भोजन के लिये मांस दिया।
आइए, अपने आदर्श भरतजी और भरद्वाज मुनि पर लगे इस मिथ्या आरोप का निराकरण और इसके पोषकों का मुखमर्दन कर सत्य को पुनर्स्थापित करें।

धर्मात्मा आर्य भरत

आर्य मर्यादाओं के निष्पादक पुरुषोत्तम श्रीराम के अनुज निःस्पृह भरतजी का चरित्र बड़ा ही विशद, आदर्श, उज्ज्वल और निष्कलंक है। भरतजी धर्म और नीति के जानने वाले, सत्यप्रतिज्ञ, सदाचारी, विनय की मूर्ति, सद्गुणसम्पन्न और भक्ति-प्रधान कर्मयोगी थे। तितिक्षा, वात्सल्य, अमानिता, सौम्यता, सरलता, मधुरता, क्षमा, दया, वीरता, व्यवहार-कुशलता और सहृदयता आदि गुणों से वे लालित्य और जाज्वल्यमान थे। उनकी वेदों के अध्ययन के प्रति प्रगाढ़ रुचि को वाल्मीकिजी ने वर्णित किया है-

ते चापि मनुजव्याघ्रा वैदिकाध्य्यने रताः।
पितृशुश्रूषणरता धनुर्वेदे च निष्ठिताः।। -वाल्मीकि-रामायण, बालकाण्ड, सर्ग १८, श्लोक ३६-३७
अर्थात्- वे पुरुषसिंह राजकुमार प्रतिदिन वेदों के स्वाध्याय, पिता की सेवा तथा धनुर्वेद के अभ्यास में दत्तचित्त रहते थे।

भरतो वाक्यं धर्माभिजनवाञ्छुचिः। -वाल्मीकि-रामायण, अयोध्या० ७२/१६
अर्थात् भरत धार्मिक कुल में उत्पन्न हुए थे और उनका हृदय शुद्ध था।

अरण्यकाण्ड में, जब लक्ष्मण श्रीराम के समक्ष हेमन्त ऋतु का वर्णन करते हैं और भरत की प्रशंसा करते हैं, वे भरत को धर्मात्मा कहकर सम्बोधित करते हैं-

अस्मिंस्तु पुरुषव्याघ्र काले दुःखसमन्वितः।
तपश्चरति धर्मात्मा त्वद्भक्त्या भरतः पुरे।। -वा० रा०, अरण्य० १६/२७

अर्थात् पुरुषसिंह श्रीराम! इस समय धर्मात्मा भरत आपके लिए बहुत दुःखी हैं और आप में भक्ति रखते हुए नगर में ही तपस्या कर रहे हैं।

भरत की पितृ-भक्ति-
विवाह पश्चात् दशरथजी की आज्ञा पाकर जब भरत शत्रुघ्नसहित अपने मामा केकयनरेश युधाजित् के साथ ननिहाल चले गए थे तो एक दिन इनको एक अप्रिय स्वप्न आया, जिसके कारण ये मन-ही-मन बहुत संतप्त हुए थे। मित्रों की गोष्ठी में हास्यविनोद करने पर भी प्रसन्न नहीं हुए। हृदय से स्वप्न का भय दूर न होने के कारण इन्होंने पिताजी के पास जाने का निश्चय किया तथा मार्ग में सात रातें व्यतीत करके आठवें दिन अयोध्यापुरी पहुंचे। माता कैकेयी से पिताश्री दशरथ के स्वर्गवास का समाचार पाने पर शोक के कारण भरतजी की जो दशा हुई तथा पिता के लिए जिस प्रकार से इन्होंने विलाप किया है, उससे इनके श्रद्धा-समन्वित सच्चे पितृ-प्रेम का पता चलता है। माता ने धैर्य धारण करने के लिए कहा, तब उत्तर में कहते हैं-

अभिषेक्ष्यति रामं तु राजा यज्ञं नु यक्ष्यते।
इत्यहं कृतसंकल्पो हृष्टो यात्रामयासिषम्।।२७।।
तदिदं ह्यन्यथाभूतं व्यवदीर्ण मनो मम।
पितरं यो न पश्यामि नित्यं प्रियहिते रतम्।।२८।।
क स पाणिः सुखस्पर्शस्तातस्याक्लिष्टकर्मणः।
यो हि मां रजसा ध्वस्तमभीक्ष्णं परिमार्जति।।३१।। -अयोध्या०, सर्ग ७२

अर्थात् मैंने तो यह सोचा था कि महाराज श्रीराम का राज्याभिषेक करेंगे और स्वयं यज्ञ का अनुष्ठान करेंगे- यही सोचकर मैंने बड़े हर्ष के साथ वहां से यात्रा की थी।।२७।। किन्तु यहां आने पर सारी बातें मेरी आशा के विपरीत हो गयीं। मेरा हृदय फटा जा रहा है, क्योंकि सदा अपने प्रिय और हित में लगे रहने वाले पिताजी को मैं नहीं देख रहा हूं।।२८।। हाय! अनायास ही महान् कर्म करनेवाले मेरे पिता का वह कोमल हाथ कहां है, जिसका स्पर्श मेरे लिए बहुत ही सुखदायक था? वे उसी हाथ से मेरे धूलिधूसर शरीर को बार-बार पोंछा करते थे।।३१।।

भरत की मातृ-भक्ति-
दशरथ-पुत्रों में अपनी माताओं के लिए अनुरक्ति और ममत्व का भाव विद्यमान था। ननिहाल में उस दुःस्वप्न के कारण भरत मानसिक अशान्ति व अस्थिरता से इतना व्याकुल हो गए थे कि वे वसिष्ठ द्वारा उन्हें अयोध्या ले जाने वाले दूतों (सिद्धार्थ, विजय, जयन्त अशोक और नन्दन -अयोध्या० ६८/५) से पूछते हैं-

आर्या च धर्मनिरता धर्मज्ञा धर्मवादिनी।
अरोगा चापि कौसल्या माता रामस्य धीमतः।।८।।
कञ्चित् सुमित्रा धर्मज्ञा जननी लक्ष्मणस्य या।
शत्रुघ्नस्य च वीरस्य अरोगा चापि मध्यमा।।९।।
आत्मकामा सदा चण्डी क्रोधना प्राज्ञमानिनी।
अरोगा चापि मे माता कैकेयी किमुवाच ह।।१०।। -अयोध्या, सर्ग ७०

अर्थात् धर्म को जानने और धर्म ही की चर्चा करनेवाली बुद्धिमान् श्रीराम की माता धर्मपरायणा आर्या कौसल्या को तो कोई रोग या कष्ट नहीं है?।।८।। क्या वीर लक्ष्मण और शत्रुघ्न की जननी मेरी मझली माता धर्मज्ञा सुमित्रा स्वस्थ और सुखी हैं?।।९।। जो सदा अपना ही स्वार्थ सिद्ध करना चाहती और अपने को बड़ी बुद्धिमती समझती है, उस उग्र स्वभाववाली कोपशीला मेरी माता कैकेयी को तो कोई कष्ट नहीं है? उसने क्या कहा है?।।१०।।

कैकेयी की इच्छानुसार राजा दशरथ द्वारा श्रीराम को वनवास भेजने पर माता कौसल्या के दुःख की अनुभूति भरत भलीभांति कर सकते थे। वे माता कैकेयी से कहते हैं-

तथा ज्येष्ठा हि मे माता कौसल्या दीर्घदर्शिनी।
त्वयि धर्मे समास्थाय भगिन्यामिववर्तते।। -अयोध्या०, ७३/१०
अर्थात् मेरी बड़ी माता कौसल्या भी बड़ी दूरदर्शिनी हैं। वे धर्म का ही आश्रय लेकर तेरे साथ बहिन का-सा बर्ताव करती हैं।

भरत का भ्रातृ-स्नेह-
वेद के उद्घोष ‘मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्’ (अथर्व० ३/३०/३) की सार्थकता अयोध्या राजकुमारों के जीवन-चरित्र में दृष्टिगोचर होती है। रामायण में इनके भ्रातृ-प्रेम के बहुशः वर्णन हैं, जो हृदय को आह्लादित कर देने के साथ व्यावहारिक शिक्षा को भी प्रकाशित कर देने वाले हैं-

पिता ही भवति ज्येष्ठो धर्ममार्यस्य जानतः। -अयोध्या० ७२/३३
अर्थात् धर्म के ज्ञाता श्रेष्ठ पुरुष के लिए बड़ा भाई पिता के समान होता है।

राघवः स हि मे भ्राता ज्येष्ठः पितृसमो मतः।। -अयोध्या० ८५/९
अर्थात् श्रीरघुनाथजी मेरे बड़े भाई हैं। मैं उन्हें पिता के समान मानता हूं।

भरत अपने सभी भाइयों से बहुत प्रेम करते थे, लेकिन श्रीराम से उनका विशेष लगाव था। भ्राता श्रीराम के वनवास का समाचार सुनकर भरत के मुख से जो गद्गद वाणी निकल पड़ती है, वह रामायणकालीन संस्कृति की प्रेरणाप्रद श्रेष्ठता को प्रकट करती है-

निवर्तयित्वा रामं च तस्याहं दीप्ततेजसः।
दासभूतो भविष्यामि सुस्थितेनान्तरात्मना।। -अयोध्या० ७३/२७
अर्थात्- श्रीराम को लौटा कर उद्दीप्त तेजवाले उन्हीं महापुरुष का दास बनकर स्वस्थचित्त से जीवन व्यतीत करूँगा।

रामः पूर्वो हि नो भ्राता भविष्यति महीपतिः।
अहं त्वरण्ये वत्स्यामि वर्षाणि नव पञ्च च।। -अयोध्या० ७९/८
अर्थात् श्रीरामचन्द्रजी हम लोगों के बड़े भाई हैं, अतः वे ही राजा होंगे। उनके बदले मैं ही चौदह वर्ष तक वनवास करूँगा।

यदि त्वार्ये न शक्ष्यामि विनिवर्तयितुं वनात्।
वने तत्रैव वत्स्यामि यथार्यो लक्ष्मणस्तथा।। -अयोध्या० ८२/१८
अर्थात् यदि मैं आर्य श्रीराम को वन से न लौटा सकूंगा तो स्वयं भी नरश्रेष्ठ लक्ष्मण की भांति वहीं निवास करूँगा।

देखिए, कितनी उच्च भावना और भक्ति है! कितना पवित्र भाव है! कितनी निरभिमानता और कितना त्याग है!

मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज का दर्शन और आक्षेप का उत्तर

वाल्मीकिजी ने एक ओर जहाँ अयोध्या राजकुमारों के जीवन-वृत्तान्त को प्रकट किया है, वहीं अपने समकालीन अनेक महान् तपस्वियों का उल्लेख भी किया है। उन्होंने प्रतिपादित कर दिया है कि काव्य तभी विश्व-विश्रुति का कारण बनकर कुसुमित होता है, जब उसमें वर्णित पात्रों के साथ-साथ उनके मार्गदर्शक का भी उल्लेख हो। रामायण में मुनि भरद्वाज वाल्मीकिजी के शिष्य के रूप में वर्णित हैं (बाल० २/४,५)। भरद्वाज का आश्रम प्रयाग में स्थित था। वह नाना प्रकार के वृक्षों और फूलों से सुशोभित था (अयोध्या० ५४/४,५)। इन्हीं के परामर्श पर श्रीरामजी ने चित्रकूट में अपना आश्रम बनाया था (बाल० १/३१, अयोध्या० ५४/२८)। मुनि भरद्वाज इनका सत्कार नाना प्रकार के अन्न, रस और फल-मूल देकर करते हैं (अयोध्या० ५४/१८)। अग्निपुराण के इस श्लोक से भी यही सिद्ध है-
शृंगवेरं प्रयागं च भरद्वाजेन भोजितः।। -अध्याय ६, श्लोक ४६
अर्थ- शृंगवेरपुर के पश्चात् प्रयाग में भरद्वाज महर्षि ने उनको भोजन कराया।

निर्दोष जीवों के मांस के भूखे अधर्मी लोग अपने गले में हड्डी अटकाकर यह चीत्कार किया करते हैं कि मुनि भरद्वाज ने भरत और उनकी सेना के आतिथ्य-सत्कार में जो भोजन दिया था उसमें मांस विद्यमान था। इससे वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हिन्दुओं के पूर्वज आर्य मांस का सेवन किया करते थे। अपने पैगम्बरों के पक्षधर्ताओं ने यह आक्षेप अपनी आंख में बालू भरकर बरजबान कर लिया है। जब हम इन मतावलम्बियों के ग्रन्थों से मांसभक्षण का हवाला देकर प्रश्न करते हैं तो इनकी सभा मातम-ए-कयामत से बख्शने की भीख मांगने पर मजबूर हो जाती है क्योंकि इनके ग्रन्थों के अनुसार मांसाहार की सम्मति न केवल इनके राक्षस कोटि के पूर्वज बल्कि स्वयं इनका खुदा देता है। इन्हीं का पक्ष लेने के लिए ये मतवादी हमारे ग्रन्थों पर मिथ्या दोषारोपण करके अपने मत की वकालत किया करते हैं।
भरत का मांस खाना सम्पूर्ण वाल्मीकि-रामायण में कहीं नहीं लिखा तथा भरद्वाज द्वारा सत्कार में मांस देनेवाला प्रकरण भी मुनि भरद्वाज के आचरण और सिद्धान्तों के बिल्कुल विपरीत है। यथा-

(१) जब मृत क्रौंच पक्षियों के जोड़े को देखकर वाल्मीकि के मुख से करुण वाणी काव्य (श्लोक) के रूप में प्रस्फुटित हुई, तब मुनि भरद्वाज वहां उपस्थित थे (बाल० २/७-२१)। वहाँ मरे पक्षी तक के मांस खाने का जिक्र नहीं है।

(२) हम यह सिद्ध कर चुके हैं कि जब राम, सीता और लक्ष्मणसहित भरद्वाज के आश्रम पहुंचते हैं तो मुनि उनका सत्कार अन्न और फल-मूल देकर करते हैं। यह भी ज्ञातव्य है कि मुनिराज के चारों ओर मृग, पक्षी और मुनि लोग बैठे थे और श्रीराम का स्वागतपूर्वक सत्कार करने के बाद भरद्वाज जी धर्मयुक्त वचन रामचन्द्र से बोले (अयोध्या० ५४/१९,२०)। अर्थात् भरद्वाज के आश्रम के समीप मुनि-मण्डली भी थी। अब बताइये, जिसकी गणना मुनियों की कोटियों में हो रही हो और जिसे मुनि-मण्डली में उच्च स्थान प्राप्त हो, वह भला किसी धर्मात्मा या उसकी सेना के आतिथ्य-सत्कार में मांस दे सकता है?

(३) अयोध्या० ९१/३२ के अनुसार भरद्वाज मुनि भरत और उनकी सेना के पशुओं के लिए शालाएं बनवाते हैं। यह उदाहरण भरद्वाज की महानता को प्रकट करता है।

(४) धर्मज्ञ मुनि ने क्रमशः वसिष्ठ और भरत को अर्घ्य, पाद्य तथा फलादि निवेदन करके उन दोनों के कुल का कुशल समाचार पूछा। वसिष्ठ और भरत ने भी मुनि के शरीर, अग्नि, शिष्यवर्ग, वृक्ष तथा मृग-पक्षी आदि का कुशल समाचार पूछा (अयोध्या० ९०/६,८)। यहां मुनि के शिष्यवर्ग (शिष्येषु) का उल्लेख मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वहां कोई गुरुकुल था और भरद्वाज के पास विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। इससे यह भी पता चलता है कि मुनि भरद्वाज की जीवों के प्रति अत्यन्त दयापूर्ण दृष्टि थी, अन्यथा भरत और वसिष्ठ जीवों का कुशल समाचार तो न पूछते।
भरत को आमिष भोजन बिल्कुल अभीष्ट नहीं था, अन्यथा वे उसी समय भरद्वाज से मांसयुक्त भोजन निवेदन कर सकते थे। भरत का संकल्प देखिए-
वीर रघुनन्दन! मैं भी चौदह वर्षों तक जटा और चीर धारण करके फल-मूल का भोजन करता हुआ आपके आगमन की प्रतीक्षा में नगर से बाहर ही रहूंगा। -अयोध्या० ११२/२३,२४

इन उदाहरणों से सिद्ध है कि भरद्वाज मुनि के मन के संसार में जीवों के प्रति करुणा व स्नेहयुक्त भाव भरे थे। उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में हमारे पूर्वजों, आर्य भरत और मुनि भरद्वाज आदि वैदिक पथानुगामियों पर मांसाहार का दोषारोपण करना अज्ञानता और अनर्गल प्रलाप ही है।

[स्त्रोत- शांतिधर्मी मासिक पत्रिका का मई २०१९ का अंक]

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