सुधार के दो साधन- ब्रह्म शक्ति व क्षात्र शक्ति
लेखक- पं० गंगा प्रसाद उपाध्याय
हर सुधार के दो मुख्य कारण हैं। एक ब्रह्म-शक्ति और दूसरी क्षात्र शक्ति। अर्थात् जब ब्राह्मण विद्वान् बुरे आचार व्यवहार के दोषों का विस्तार से तथा स्पष्ट रूप से खण्डन करते हैं और उनके उपदेशों का लोगों पर प्रभाव पड़ता है तथा वे सामाजिक अनाचार को छोड़ने के लिए स्वयं उद्यत हो जाते हैं तो एक प्रकार का सामाजिक वातावरण उत्पन्न हो जाता है जिसमें लोगों का अनाचार करने का साहस ही नहीं होता। फिर भी कुछ ऐसे मनचले होते हैं जिनमें नियमोल्लंघन की प्रवृत्तियां होती हैं वे समाज मत की परवाह नहीं करते। उनकी लाठी किसी के माल को छीनने का लिए तैयार रहती है। वे कहा करते हैं कि हम किसी से नहीं डरते। देखें हमारा कोई क्या करेगा? ऐसे लोग बहुत दूषित प्रथाओं को जीवित रखने में सहायता देते हैं। इनके लिए क्षात्र शक्ति अर्थात् सुदृढ़ शासक (राजा) की आवश्यकता होती है कि वह दूसरे लोगों को ऐसे आततायियों के प्रभाव से बचा सकें। इस प्रकार ब्राह्मण और राजा दोनों मिलकर सुधार का काम करते हैं।
भारत के भीषण महायुद्ध के पश्चात् इन दोनों शक्तियों का लगभग नाश हो गया। जो ब्राह्मण शेष रहे वे राजाओं के मुंह ताकते रहते थे। राजे तो 'अन्नदाता' कहलाते थे। जो 'अन्न' के दाता थे वे 'मन' के भी दाता थे। जैसा खाये अन्न, वैसा बने 'मन'। दरिद्र के विचार भी दरिद्र हो जाते हैं। ब्राह्मण विद्वान् शास्त्रों की भी ऐसी व्याख्या कर देते थे कि राजे लोग खुश जो जायें। जब राजों में बहु-पत्नी विवाह की प्रथा पड़ी अर्थात् जब राजे अपनी इन्द्रियों को वश में न रख सकें तो ब्राह्मणों ने शास्त्रों के उपदेशों की भी वैसी ही व्याख्या कर दी, जिसमें राजा साहब को अपनी इच्छापूर्ति का अवसर मिल सके।
यहां हम एक वर्तमान युग के रजा साहब का उल्लेख करते हैं। राजा साहब को शराब पीने की बुरी लत थी। वे शराब के बिना दो घण्टे भी नहीं रह सकते थे। उनके मन में आया कि एकादशी का उपवास रखना चाहिए। परन्तु एकादशी का व्रत और मद्यपान यह तो दो परस्पर विरोधी काम थे। उनका समन्वय कैसे होगा? एक दिन राजा साहब ने पक्का इरादा कर लिया कि व्रत रखेंगे और शराब न पियेंगे। किसी प्रकार दोपहर तक तो काट लिया, जब तीसरा पहर आया तो शराब न पीना उनकी शक्ति से बाहर की बात हो गई, और वे घबराने लगे। अब किया भी क्या जाये? शराब पीते है। तो व्रत का फल नष्ट हो जाता है। नहीं पीते तो जान की जोखों है। अन्त में पुरोहित जी ने आते ही समस्या को सरल कर दिया।
"महाराज! थोड़ी से शराब पी लें परन्तु उसमें कुछ बूंदे गंगाजल की डाल लें।"
पण्डितों को ऐसे चुटकुले बहुत आते थे। यदि किसी राजा का मन किसी सुन्दरी पर लट्टू हो गया तो पण्डित जी कहते- "महाराज! यज्ञ के एक यूप में कई गायें बंध सकती हैं परन्तु एक गाय को कई यूपों में नहीं बांध सकते। इसलिए एक पुरूष कई पत्नियों से विवाह कर सकता है परन्तु एक स्त्री कई पति नहीं कर सकती।"
महाराजा दशरथ भी इसी प्रकार की किसी युक्ति का शिकार हुए होंगे अन्यथा वे कैकेयी से विवाह करके अपनी मृत्यु का स्वयं साधन न बनते।
हम दूसरे मतों तथा देशों में भी ऐसा ही पाते हैं।
इंग्लैंड का राजा था अष्टम हेनरी। उसका बड़ा भाई मर गया था। उसकी स्त्री थी हस्पानियां देश के आरगन प्रदेश के राजा की कन्या कैथरायन। ईसाई धर्म के विधान के अनुसार बड़े भाई की विधवा से विवाह करना निषिद्ध है। परन्तु जब हेनरी सप्तम ने यह इच्छा की कि उसके राजकुमार हेनरी का विवाह उसके बड़े भाई की विधवा से हो जाये तो रोम के पोप से आज्ञा मांगी गई। पोप ने आज्ञा दे दी और कैथरायन अपने देवर हेनरी की वैधानिक पत्नी बन गई, उसका पति (अष्टम हेनरी) के नाम से इंग्लैंड की गद्दी पर बैठ। कैथरायन से एक पुत्री भी उत्पन्न हुई जिसका नाम था मेरी या मेरी ट्यूर। परन्तु मनचले बादशाह का मन एक दिन महाराणी की एक अनुचरी पर आसक्त हो गया। बहुविवाह विधान के विरुद्ध था। किया जाये तो क्या? पादरियों की शरण ली गई। खुशामदी पण्डितों, खुशामदी मौलवियों और खुशामदी पादरियों की न तो हिन्दुओं में कमी है, न मुसलमानों में, न ईसाइयों में। पादरियों ने अकल दौड़ाई और यह निर्णय किया कि बादशाह की पहली शादी कानून के विरुद्ध थी। इसलिए पोप महोदय के हस्तक्षेप के होते हुए भी कैथरायन को तलाक दे दी गई और दूसरी महाराणी जी आ विराजमान हुई।
इसीलिए मैंने ऊपर कहा है कि सुधार के लिए सुदृढ़ ब्राह्मणों और सुदृढ़ क्षत्रियों को आवश्यकता है।
मैंने १९४५ में शहपुराधीश जी के पुस्तकालय में एक पुस्तिका देखी, जिसमें हिन्दू शास्त्रों से बहुत से श्लोक और सूत्र मांस-भक्षण के पक्ष में उद्धृत किये गए थे। पुस्तक बहुत छोटी थी और लेखक की योग्यता की भी परिचायक न थी परन्तु उस पर पांच सौ (५००) का पारितोषिक लेखक को दिया गया था। यह पुस्तक शायद आर्य समाज के उस युग में लिखी गई थी जब आर्य समाज की दो पार्टियां हो गई थीं।
महाभारत के बहुत दिनों बाद तक यद्यपि ब्राह्मण शक्ति और क्षत्रिय शक्ति बहुत निर्बल हो गई थीं और न कोई उपदेष्टा ब्राह्मण रहा न कोई दण्ड देने वाला क्षत्रिय तथापि राजा और प्रजा का धर्म तो एक ही था और उनके शास्त्र भी एक थे।
परन्तु जब ईसाई और मुसलमान आये तो सुधार का काम और कठिन हो गया। शासकों ने हिन्दू धर्म की कुप्रथाओं को धर्म परिवर्तन का एक साधन बना लिया और उन कुप्रथाओं को दूर करने की इसलिए कोशिश की कि लोग उन बुराइयों के दोषों को समझकर धर्म परिवर्तन कर लें (अर्थात् ईसाई या मुसलमान हो जायें।) प्रजा ने इसका विरोध किया कि किसी विधर्मी को हमारे धर्म में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।
राजा राममोहन राय ने 'सती' की दूषित प्रथा को जो घोर निर्दयता पूर्ण थी, ईसाई मिशनरियों की सहायता से रुकवाया था, अतः ब्राह्मणों ने बहुत विरोध किया। उनका कहना था कि ईसाई शासकों को हिन्दू धर्म में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। इसके बहुत दिनों पश्चात् श्री रमेशचन्द्र दत्त (आर. सी. दत्त.) ने ऋग्वेद के अध्ययन से यह सिद्ध किया कि जिस वेद मन्त्र के आधार पर "सती प्रथा" (मृत पति के साथ जीवित पत्नी का दाह करना) वेद विहित बताई जाती है उसके पढ़ने में गलती हुई है। 'अग्रे' शब्द (एकार) के स्थान में 'अग्ने' (अकार) पढ़ लिया गया है, अस्तु। यह एक अलग विषय है।
हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि जब राजा और प्रजा के धर्म भिन्न-भिन्न होते हैं और धार्मिक संस्थाएं भी अलग-अलग होती हैं तो सुधार बहुत कठिन हो जाता है।
स्वामी दयानन्द के समय में यही कठिनाई थी। शासक ईसाई और प्रजा हिन्दू। जब बाल विवाह के विरुद्ध आवाज उठी तो पण्डित लोग चिल्लाये कि गवर्नमेंट को हमारे धर्म में हस्तक्षेप करने या हिन्दू ला (कानून) के बदलने का कोई अधिकार नहीं।
प्रायः छोटी लड़कियों का विवाह युवा (बड़ी आयु वालों) लोगों के साथ हो जाता था। दस या नौ साल की लड़की गृहस्थ धर्म पालन का भार नहीं उठा सकती थी। तब हिन्दू ललनाओं का जीवन संकट में था। उसके विरुद्ध सरकार की ओर से कानून बनाया गया, तब महात्मा तिलक जैसे सर्वोत्तम (संभ्रान्त) लोगों ने भी इसका विरोध किया। युक्ति वही थी कि ईसाई सरकार को हमारे धर्म में परिवर्तन करने का अधिकार नहीं।
स्वामी दयानन्द ने इस समस्या का एक नया समाधान निकाला, कि यदि कोई प्रथा वैदिक शास्त्रों के विरुद्ध है तो या तो पण्डित लोग इसका सुधार अपने हाथ में लें, अन्यथा हम इस दूषित प्रथा को बन्द करने में सरकार की सहायता लेने में संकोच न करेंगे।
सन् १८५६ ई. में ईसाई शासन की सहायता से श्री पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की कोशिश से विधवा पुनर्विवाह का कानून पास हो गया परन्तु यह कानून अलमारियों में पड़ा सड़ता रहा। जब इस प्रश्न को आर्य समाज ने अपने हाथ में लिया तो देश की काया पलट दी।
आर्यसमाजियों का कहना है कि हम यह स्वीकार करते हैं कि सुधार का मुख्य कर्त्तव्य तो ब्राह्मणों का है, सर्वसाधारण की मनोवृत्ति को यही बदल सकते हैं परन्तु यदि ब्राह्मण मन्द हो जायें या लकीर के फकीर हो जायें या स्वयं सुधार का उत्तरदायित्व अपने सिर पर न लें तो कुमार्ग पर चलती हुई पथभ्रष्ट जनता को उसके भाग्य पर नहीं छोड़ देना चाहिए। सरकार की सहायता भी लेनी चाहिए।
उद्देश्य है सुधार! सुधार में दोनों शक्तियों अर्थात् ब्रह्म-शक्ति और क्षात्रशक्ति की आवश्यकता है। आर्य समाज ने कई बार सुधार के विषय में सरकार से मदद ली है।
बाल-विवाह के विरुद्ध कानून पास कराने का श्रेय है श्री हरविलास शारदा को जो आर्य समाज के एक प्रतिष्ठित नेता थे, और जिनके नाम पर इस कानून को शारदा एक्ट कहते हैं।
जन्म-मूलक जाति-पांति तोड़कर विवाह करने के सम्बन्ध में जो एक्ट (कानून) पास हुआ और जिसको आर्य समाज विवाह एक्ट कहते हैं उसको पास कराने वाले श्री घनश्याम सिंह जी गुप्त थे जो ४० वर्ष से अधिक समय से अब तक आर्य समाज का नेतृत्व कर रहे हैं।
स्वामी दयानन्द का सुधार कार्य केवल भारतवर्ष तक सीमित नहीं है। आर्य समाज एक सार्वभौमिक संस्था है। संसार का उपकार करना अर्थात् आध्यात्मिक, शारीरिक, आचार तथा अर्थ सम्बन्धी उन्नति करना उसका ध्येय है।
महाभारत के पश्चात् इन पांच हजार सालों में जो बुराइयां भारतवर्ष या दूसरे देशों में फैल गईं और जिनके कारण समस्त मानव जाति असत्य मार्ग पर चल पड़ी उन बुराइयों को दूर करने का प्रोग्राम स्वामी दयानन्द ने संसार के समक्ष रखा है। यदि आर्य समाज के लोग श्रद्धा, सुदृढ़ गति और ऋजुता के साथ आगे बढ़ेंगे तो पक्की आशा है कि हम वैदिक धर्म के उस युग को ला सकें जो महाभारत से बहुत पूर्व विद्यमान था।
यही आस अटक्यो रहे, अलि गुलाब के मूल।
अयि है बहुरि वसन्त ऋतु, इन डारन बहु फूल।।
[स्त्रोत- वैदिक सार्वदेशिक : सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली का साप्ताहिक मुख-पत्र का ३० मई से ५ जून, २०१९ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
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