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द्वेषरूपी महानद से पार होवो



द्वेषरूपी महानद से पार होवो

लेखक- पं० युद्धिष्ठिर मीमांसक
प्रेषक- प्रियांशु सेठ

द्विषो नो विश्वतोमुखाति नावेव पारय।
अप न: शोशुचदघम्।। -अथर्व० ४/३३/७

हे (विश्वतोमुख) सब ओर मुखवाले परमात्मन्! (इव) जैसे नौका चलानेवाला नाविक (नावा) नौका द्वारा यात्रियों को सुखपूर्वक नदी के पार उतारता है, वैसे ही आप (न:) हमको (द्विष:) द्वेषरूपी महानद के (अति पारय) पार उतारिये। हे प्रभो! आपकी कृपा से (न:) हमारा (अघम्) पाप हमसे (अप) दूर होकर (शोशुचत्) नष्ट हो जावे।

इस मन्त्र में द्वेष-नद से पार उतरने और पापों से बचने का उपदेश किया है। परमात्मा को इस मन्त्र में 'विश्वतोमुख' (सब ओर मुखवाला) नाम से स्मरण किया गया है। मुख शब्द से यहां गर्दन के ऊपर का भाग अभिप्रेत है। इस भाग में मुख्यतया आंख, कान और जिह्वा ये तीन इन्द्रियां अपना कार्य करती हैं। इनका कार्य यथाक्रम देखना, सुनना और उपदेश देना है। अतः 'विश्वतोमुख' शब्द का अर्थ सब ओर देखनेवाला, सब ओर सुननेवाला, तथा सब ओर उपदेश देनेवाला है। अर्थात् परमेश्वर सर्वत्र एकरस व्याप्त होकर सब प्राणियों के शुभाशुभ कर्मों को जानता तथा उनको बुरे कर्मों से बचने का उपदेश देता है। जो व्यक्ति यह अनुभव करता है कि सर्वव्यापक प्रभु मेरे सब कर्मों को जानते हैं, उनसे छिपकर मैं कहीं कोई दुष्कर्म नहीं कर सकता, वह सब प्रकार के पापों से बच जाता है।

संसार में अनेक ऐसे अवसर आते हैं कि जिनमें कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्धारण करना अत्यन्त कठिन होता है। उस समय सबके अन्तर्यामी भगवान् प्रत्येक पुरुष के हृदयाकाश में उपदेश करते हैं कि तुझे यह कार्य करना चाहिए, और यह नहीं करना चाहिए। जो पुरुष प्रभु की इस अन्तर्ध्वनि पर ध्यान देकर तदनुसार आचरण करते हैं, वह सर्वदा पापों से बचे रहते हैं। अतः पापों से बचने के लिए इस मन्त्र में 'सर्वतोमुख' प्रभु से ही प्रार्थना की है।

द्वेष जहां स्वतन्त्र एक महापाप है, वहां यह अनेक महापापों का मूलकारण भी है। द्वेष के आधीन होकर मनुष्य इस संसार में अनेक प्रकार के अकर्तव्यों को कर डालता है। अतएव इस मन्त्र में मुख्यतया द्वेषरूपी महानद से पार होने के लिए प्रभु से प्रार्थना की है। जो पुरुष जगदीश्वर को वस्तुतः 'विश्वतोमुख' समझते हैं, वे कभी संसार में पाप कर्मों से युक्त नहीं होते।

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