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सन्ध्या



सन्ध्या

लेखक- आचार्य अभयदेव
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ

अब मेरे चौके में कोई न आवे। अब मैं सब कूड़ा-करकट निकालकर, साफ चौक लगाकर आत्मिक भोजन पकाने के लिए बैठा हूँ।
यही निश्चय करके मैं प्रतिदिन सायं-प्रातः जब आत्मिक भूख लगती है, चौका लगाकर पवित्रता से रसोई करना शुरू करता हूँ। परन्तु मेरे यार दोस्त ऐसे बेतकल्लुफ (दोस्तों को इससे ज्यादा और क्या कहूं) हो गए हैं कि मुझे अपना भोजन भी नहीं करने देते। जिन किन्हीं से दिन भर में या रात में जरा क्षणिक भी परिचय हो गया होता है वे निःशंक बेखटके मेरे चौके में चले आते हैं और मुझसे बात करने लगते हैं। और मैं भी रसिक (अपने को 'निर्लज्ज' कहते तो लज्जा आती है) हूं कि मुझे कुछ खबर तक नहीं रहती। कभी-कभी तो मिनटों तक दोस्तों से गप्पे उड़ती रहती हैं। एकदम जब खयाल आता है तो चिल्ला उठता हूं "हाय रे! यह तो मेरा चौका छूत हो गया। निकलो, यहां से भागो! मैं भोजन के लिए बैठा था।" सबको हटाकर फिर से चौका देता हूँ और फिर से भोजन बनाने बैठता हूं। किन्तु फिर भी वही हाल है। भला दिनभर के साथी इस समय के लिए कैसे हट जाएं? फिर-फिर चौका छूत होता है और मैं फिर-फिर शुरू से चूल्हा सुलगाता और दाल चढ़ाता रहता हूं। बड़ा हैरान हूं क्या करूं? बहुत देर हो जाती है। क्या दिनभर यही करता रहूं? इतना तो धीरज नहीं है। या यह भोजन ही न खाऊं? यह भी इच्छा नहीं है। अन्त में तंग आकर छूत, जूठा, जैसा भी कच्चा-पक्का खाना होता है, खा लेता हूं और छुटकारा पाता हूं। पर इस दूषित भोजन से क्या लाभ होना है? यही कारण है कि मेरी आत्मिक पुष्टि नहीं होने पाती। प्रतिदिन दोनों सन्ध्या वेलाओं में भोजन खाता जाता हूँ तो भी दुबला ही हूं।

एक नदी है जिसे सब यात्रियों को कभी न कभी पार करना है। बहुत से लोग इस नदी के तट पर वर्षों से आये बैठे हैं- बहुत आ रहे हैं, कोई दूर है, कोई समीप पहुंच चला है- ऐसे भी बहुत हैं जिन्हें खबर नहीं कि हमें कभी इस नदी को पार भी करना है, परन्तु ये सब इस बात में समान हैं कि कोई भी पारंगत नहीं। सब इसी पार हैं।
तटवर्ती लोग दूर तक पानी में जाते हैं और घबराकर लौट आते हैं। बड़े-बड़े यत्न करते हैं। नई-नई तदबीरें पार होने के लिए सोचते हैं। इधर से जाकर देखते हैं, कभी उधर से जाते हैं। परन्तु जब तक पार नहीं हो जाते तब तक कुछ नहीं। वे वही हैं जो अन्य हैं। उनमें कोई सच्ची महत्ता नहीं, कोई वैशिष्ट्य नहीं।
यह कौन सी नदी है? यह वह नदी है जोकि व्युत्थानता के राज्य की सीमा है और जिसके कि पार एकाग्रता और निरोध की पुण्यभूमि का विस्तार प्रारम्भ होता है, जिस पर कि प्रसिद्ध धारण, ध्यान और समाधि नामक उत्तरोत्तर प्रकाशमान साम्राज्य है और जहां पर बने हुए विभूतियों के दिव्यभवन कई कई यात्रियों को इसी किनारे से दीखने लगते हैं। यह वह नदी है कि जिसके पार गये हुए मनुष्य को अपने आत्मिक भोजन बनाने में ये 'यार दोस्त' विघ्न नहीं डाल सकते और इसलिए वह वहां निर्विघ्न आत्मिक पुष्टि प्राप्त कर सकता है।

तो इस नदी के पार कैसे जाय? यह तो स्पष्ट है कि जिस यात्री पर संसार के नाना विषयों से बंधा हुआ 'राग' रूपी बोझ लदा हुआ है वह तो इस नदी को पार नहीं कर सकता। वह डूब जाएगा, पर पार नहीं पहुंचेगा। इसलिए पहले तो इस 'राग' के बड़े भारी बोझे को उतारकर हलका वैरागी बनना होगा। फिर जो वैरागी है, वह किसी न किसी तरह बार-बार यत्न (अभ्यास) करता हुआ इसे तर ही जायेगा। जिसने सचमुच इस पार की वस्तुओं का राग छोड़ दिया है, उसे तो उस पार का प्रबल आकर्षण ही खींचने लगता है। यह पार क्यों न होगा?

हां, कोई वैरागी पूछ सकता है कि 'बार-बार यत्न' किस प्रकार का करना चाहिए। इस पर सन्त लोग बतलाते हैं कि-
१. कोई तो निरन्तर निरवच्छिन्न जप-रूपी पुल पर से उस पार पहुंच जाते हैं। ये लोग प्रणव या किसी अन्य जाप को करते हैं।
२. कोई ज्ञानी भक्त अपनी विचार सिद्धि द्वारा इस नदी पर से ऐसे गुजर जाते हैं कि उन्हें पता ही नहीं लगता कि हमने कोई नदी पार की है। ये लोग प्रारम्भ में मन को कहते हैं 'अरे चंचल मन! तू जा, कहां जाता है। तू जहां भी जाएगा वहां वे ही भगवान् ही तो हैं।' इस प्रकार उनका मन हरएक वस्तु में भगवान् को ही देखने से एक ही रंग में रंग जाता है।
३. दूसरे कोई भक्त अपना सबकुछ समर्पण करते हुए मन:समर्पण रूपी विमान द्वारा ऊपर ही से पार हो जाते हैं। जब सचमुच मन अपना नहीं रहता, भगवान् का हो जाता है तो वह और किसका चिन्तन करे? स्वयं निरुद्ध हो जाता है।
४. कोई प्राण के अनुसार चलने वाले 'सोहं' भावना की युक्ति से ऐसे ठीक घाट उतर जाते हैं कि इन्हें वहां जल का कुछ भी कष्ट नहीं होता, बल्कि जलधारा सहायक होती है। ये लोग सतत चलने वाले प्राण में निरन्तर मन द्वारा सोहं या ओ३म् का श्रवण करते हैं।
५. कोई इच्छाशक्तिवाले अपनी प्रबल इच्छा की बाहुओं से इसे तर कर पार कर जाते हैं।
६. इनके अतिरिक्त गुरूपदेश से प्राप्तव्य बहुत सी नौकाएं, डोंगियां आदि भी हैं जो कि वैरागियों को पार ले जाती हैं।

इस प्रकार के उपाय तो सैकड़ों हैं जिनसे कि इस नदी के पार पहुंचा जा सकता है। आओ, हम भी किसी न किसी उपाय से इस नदी से पार उतर जाएं और निर्विघ्न आत्मिक पुष्टि प्राप्त करें।

[साभार- तरंगित हृदय]

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