Skip to main content

साधू की कहानी



साधू की कहानी

लेखक- आचार्य मित्रसेन, एम०ए० सिद्धान्तालंकार
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ

एक दिन स्वामी ध्यानानन्द अपनी प्रचार-यात्रा को चल दिये। वे प्रचार करते हुए हिमालय पर्वत के पास पहुंचने वाले ही थे कि उन्हें कहीं से विचित्र ध्वनि सुनाई पड़ी। उन्होंने देखा कि धू धू करके जंगल जल रहा था। जंगल के निकट रहने वाले अपनी सम्पत्ति को बचाने का यत्न कर रहे थे। तभी सबका ध्यान एक आश्चर्यजनक घटना की ओर आकृष्ट हुआ। सभी के मुख से निकल पड़ा- "हाय! तनिक उस पेड़ की ओर तो देखो। बेचारी चिड़िया अपने घोंसले के आस-पास कैसी चक्कर लगा रही है! अरे! आग की लपटें घोंसले के पास तक पहुंच गई है, नन्ही-सी चिड़िया, अह! वह कर ही क्या सकती है? वह वहां से उड़ क्यों नहीं जाती?"
सभी मनुष्य अपनी सम्पत्ति की चिन्ता छोड़कर उसी चिड़िया की ओर देखने लगे। बहुत ही दर्दनाक दृश्य था, लपटें बढ़ते बढ़ते घोंसले के पास पहुंच गई, तब चिड़िया ने जो कार्य किया उसकी किसी को आशा तक न थी। वह शीघ्रता से घोंसले के पास उड़कर पहुंच गई। पहले उसने घोंसले के ऊपर दो तीन चक्कर लगाये और जब कोई उपाय न दीख पड़ा तो उसने अपने दोनों पंख नन्हें-नन्हें मुन्नों पर फैला दिये। देखते ही देखते वह घोंसला, चिड़िया और उसके बच्चे जल मरे।
सारी जनता दंग रह गई, इतना प्यार, अद्भुत प्रेम! और वह भी उस छोटी सी चिड़िया के हृदय में। साधु ध्यानानन्द भी हैरान थे, अचानक ही उनके मन में विचार आया जिसकी प्रेरणा से वे जनता की ओर मुड़े और बोले- "भाईयों और बहिनों! जिस चिड़िया के प्रेम को देखकर आप आश्चर्यचकित हो रहे हैं, शायद आपको पता नहीं कि इससे भी अधिक प्रेम का प्रदर्शन आपके लिए हो चुका है, इस बलिदान से बढ़कर भी एक और ने हमारे लिए अपनी बलि दे दी। वह हमें इससे भी अधिक प्यार करता था।"

कुछ क्षण रुककर उन्होंने फिर कहा- हम लोगों को अज्ञान और पाप के मार्ग से बचाने के लिए किस तरह प्रभु ने अपना एक पुत्र भेजा। उन्होंने उन्हें यह भी बताया कि किस तरह यह ईश्वर का बेटा उच्च घराने में पैदा हुआ और एक महान् योगी, सुधारक, उपकारक का जीवन बिताया। परन्तु अज्ञानी लोगों ने उसे एक बार नहीं, १४ बार जहर पिलाया और अन्त में किस क्रूर ढंग से दूध में शीशा पिलाकर समाप्त कर दिया। आज से लगभग ८० वर्ष पूर्व यह घटना राजस्थान में घटी थी।
फिर भी उस विश्वोपकारी महर्षि ने सदियों से रोगी विश्व को चंगा किया, अज्ञान के कारण अन्धे मानव को ज्ञान चाक्षु दिए, नाना रोग ग्रसित तथा छुआछात के कोढ़ी भारत को स्वस्थ किया, यहां तक कि जीवन्मृत लोगों में भी चेतना के प्राण फूंके। परन्तु क्या वह अपने जीवन को नहीं बचा सकता था? हां, उसने १३ बार मृत्यु को पीछे धकेल दिया और १४वीं बार यह सोचकर कि पिता प्रभु को उसके जीवन की आवश्यकता है, उसकी यही इच्छा है तो उसने प्रभु की इच्छा पूरी की। इसी हेतु उसने सारे शरीर पर विष से निकले रोगों के कष्ट सहन किये और मरते-मरते भी अपने हत्यारे को धन की थैली देकर कहा था- "जा विदेश भाग जा, नहीं तो तुझे पुलिस मृत्यु दण्ड दे देगी।" एक बार उसने कहा था- "मैं संसार को कैद कराने नहीं आया बल्कि कैद से छुड़ाने आया हूं।" क्योंकि वह बेड़ियां तोड़ने आया था बेड़ियां डालने नहीं।

उस साधु जिसका नाम महर्षि दयानन्द सरस्वती था, ने इतनी दया क्यों की? क्योंकि उन्हें मानवता से असीम प्रेम था, उन्हें दया में ही आनन्द आता था करुणा की वह साक्षात् मूर्ति ही था। उसे यह भी ज्ञान था कि मानव जानते और न जानते हुए अनेक पाप करते हैं, वे इस भयंकर अपराध के दण्ड को नहीं जानते और चूंकि वह हमसे बेहद प्यार करता था इसलिये उसने हमें पापाग्नि की लपटों से बचाया। चाहे स्वयं को इस हेतु शहीद कर दिया, यह हमारी मुक्ति के लिए ही था। यदि वह हमें पापों से बचाने को न चेताता तो समाधि का आनन्द ही भोगता। मानवता की रक्षा के लिए उसने आर्य समाज की स्थापना की, जो उसके निर्वाण प्राप्ति के बाद विश्व की रक्षा करता आया है।
पाप-पुण्य क्या है? लोग अब भी नहीं जानते हैं। यही कारण है कि वे निरन्तर पाप कर रहे हैं, उसका भयंकर दण्ड भी उनको भोगना पड़ता है इसीलिये सबका पतन हो गया और मानव ईश्वर की महिमा से वञ्चित हो गये हैं।

दृष्टान्त में कही गई उस वफादार चिड़िया की मृत्यु की भांति महर्षि दयानन्द विश्व के उपकार को बलिदान दे गया। आज उसका उत्तराधिकारी आर्य समाज और ग्रन्थ उस अधूरे कार्य को पूर्ण कर रहे हैं। इस प्रकार वह अब भी जीवित है और इसीलिए जीवित है कि हम भी जीवित रह सकें तथा अनन्त काल तक के लिए नया आध्यात्मिक जीवन तथा अन्त में मुक्ति प्राप्त कर सकें परन्तु ये सभी हमें उसी समय प्राप्त हो सकती है जब हम स्पष्ट रूप से आर्य समाज की शरण में आ जावें और उसके सिद्धान्तों के अनुसार उसे मुक्तिदाता स्वीकार कर लें।

Comments

Popular posts from this blog

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो!

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो! वर्तमान समय में मनुष्यों ने भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय अपनी मूर्खता से बना लिए हैं एवं इसी आधार पर कल्पित धर्म-ग्रन्थ भी बन रहे हैं जो केवल इनके अपने-अपने धर्म-ग्रन्थ के अनुसार आचरण करने का आदेश दे रहा है। जैसे- ईसाई समाज का सदा से ही उद्देश्य रहा है कि सभी को "ईसाई बनाओ" क्योंकि ये इनका ग्रन्थ बाइबिल कहता है। कुरान के अनुसार केवल "मुस्लिम बनाओ"। कोई मिशनरियां चलाकर धर्म परिवर्तन कर रहा है तो कोई बलपूर्वक दबाव डालकर धर्म परिवर्तन हेतु विवश कर रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक सम्प्रदाय साधारण व्यक्तियों को अपने धर्म में मिला रहे हैं। सभी धर्म हमें स्वयं में शामिल तो कर ले रहे हैं और विभिन्न धर्मों का अनुयायी आदि तो बना दे रहे हैं लेकिन मनुष्य बनना इनमें से कोई नहीं सिखाता। एक उदाहरण लीजिए! एक भेड़िया एक भेड़ को उठाकर ले जा रहा था कि तभी एक व्यक्ति ने उसे देख लिया। भेड़ तेजी से चिल्ला रहा था कि उस व्यक्ति को उस भेड़ को देखकर दया आ गयी और दया करके उसको भेड़िये के चंगुल से छुड़ा लिया और अपने घर ले आया। रात के समय उस व्यक्ति ने छुरी तेज की और उस...

मैं आर्यसमाजी कैसे बना?

मैं आर्यसमाजी कैसे बना? -श्री फैड्रिक जी फॉक्स एम०डी० (शिकागो) आर्य समाजी बनने से पूर्व के जीवन पर जब मैं दृष्टि डालता हूं और १४ वर्ष की आयु के पूर्व के उन दिनों को याद करता हूँ जबकि मैं ईसाई चर्च के संडे स्कूल (रविवारीय स्कूल) का विद्यार्थी था तो विदेशीय लोगों के प्रति मेरी दिलचस्पी की मधुर स्मृतियां मेरे मानस चक्षुओं के समक्ष उपस्थित हो जाती हैं। विदेश की घटनाओं को जानने और वहां की कहानियों को पढ़ने और सुनने की मेरी सदैव विशेष रुचि रही है। मिशनरियों द्वारा सुनाई जाने वाली कहानियों को सुनने के लिए जितना मैं उत्सुक रहता था उतना शायद ही कोई रहता हो। प्रतिवर्ष मुझे ऐसा लगता था कि भारत, चीन, अफ्रीका अथवा अन्य अज्ञात एवं रहस्यमय देशों में से किसी में अकाल पड़ने वा महामारी के फैल जाने की कहानी आयगी और पीडितों की सहायता के लिए धन की याचना की जायगी। उनके धर्म की चर्चा होगी और मूर्तियों की तस्वीरों का प्रदर्शन होगा जिनको विशेष वर्ग पूजता है। मैं सोचता था कि ये निर्धन लोग ईसाई क्यों नहीं और ईसाइयों जैसा उनका धार्मिक विश्वास क्यों नहीं है, ऐसा सोचने का कारण यह था कि मैं यह मानता था क...

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर प्रियांशु सेठ हमारे पौराणिक भाइयों का कहना है कि मूर्तिपूजा प्राचीन काल से चली आ रही है और तो और वेदों में भी मूर्ति पूजा का विधान है। ईश्वरीय ज्ञान वेद में मूर्तिपूजा को अमान्य कहा है। कारण ईश्वर निराकार और सर्वव्यापक है। इसलिए सृष्टि के कण-कण में व्याप्त ईश्वर को केवल एक मूर्ति में सीमित करना ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव के विपरीत है। वैदिक काल में केवल निराकार ईश्वर की उपासना का प्रावधान था। वेद तो घोषणापूर्वक कहते हैं- न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः। हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः।। -यजु० ३२/३ शब्दार्थ:-(यस्य) जिसका (नाम) प्रसिद्ध (महत् यशः) बड़ा यश है (तस्य) उस परमात्मा की (प्रतिमा) मूर्ति (न अस्ति) नहीं है (एषः) वह (हिरण्यगर्भः इति) सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों को अपने भीतर धारण करने से हिरण्यगर्भ है। (यस्मात् न जातः इति एषः) जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा जो प्रसिद्ध है। स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्य...