भारतीय दर्शन और महर्षि दयानन्द का दृष्टिकोण
लेखक- आचार्य श्री उदयवीर जी शास्त्री
भारतीय दर्शन साधारण रूप से दो भागों में विभक्त हैं- आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन। आस्तिक दर्शनों में इन छह दर्शनों की गणना की जाती है- सांख्य, वैशेषिक, योग, न्याय, वेदान्त, मीमांसा। नास्तिक दर्शनों में चार्वाक दर्शन, बौद्ध दर्शन तथा जैन दर्शन माने जाते हैं। आस्तिक-नास्तिक दर्शनों का भेद वेदों की मान्यता एवं अमान्यता पर आधारित है। फलतः सभी आस्तिक दर्शन वेदों को न केवल प्रमाण, अपितु 'स्वतः प्रमाण' स्वीकार करते हैं; जबकि नास्तिक दर्शनों को वेदों का किसी प्रकार का प्रमाण तक भी स्वीकार नहीं। इसलिए आस्तिक-नास्तिक दर्शनों के प्रतिपाद्य सिद्धान्तों में अनेकत्र भेद का होना स्वाभाविक है; परन्तु जब आस्तिक दर्शनों में भी परस्पर भेदमूलक मान्यताएं सम्मुख आती हैं, तो यह बड़ा असमंजस-सा प्रतीत होता है।
महर्षि दयानन्द को अपने काल में सर्वसाधारण समाज की तथा समाज में मूर्द्धन्य समझे जाने वाले विशिष्ट अंगों की भी गिरती हुई दशा को सुधार की ओर परिवर्तित करने के लिए सभी तरह के व्यक्तियों के साथ जूझना पड़ा, उसने देखा, कि शास्त्रीय चर्चाओं में विद्वान् समझे जाने वाले व्यक्ति भी बाद आदि कथाओं में दार्शनिक पद्धति की कितनी उच्छृंखलता के साथ अवहेलना करते हैं। दार्शनिक तथ्यों को अपने निराधार मनघड़न्त विचारों के अनुसार तोड़-मरोड़ कर निर्लज्जता से जनता के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं। मूल दर्शनों की संस्थापना करने वालों को भी एक दूसरे का विरोधी बताते हैं, क्या साक्षात्कृतधर्मा ऋषि-मुनियों का कथन परस्पर विरुद्ध माना जा सकता है? सत्य सदा एक होता है, सत्य के दो रूप नहीं हो सकते, तब क्या दर्शनों में उन ऋषि-मुनियों ने सत्य का उत्पादन न कर असत्य को प्रस्तुत किया जाए? ऋषि ने दर्शनों की इस दुर्दशा को गहराई के साथ अन्तर्दृष्टि से देखा-परखा और एक सूत्र खोज निकाला, जिसमें सब दर्शन-माला में मोतियों के समान गुंथे हुए हैं।
सभी दर्शनों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय सृष्टि प्रक्रिया का विवरण प्रस्तुत करना है। निश्चित है, सृष्टि (जगत्=विश्व) की रचना का प्रकार एक ही हो सकता है। ऐसी कल्पना सर्वथा निराधार होगी, सर्गादिकाल में अपने अव्यक्त कारणों से विश्व की रचना के प्रकार अनेक हों, और एक-दूसरे से भिन्न हों। इसलिए दर्शनों के जिन व्याख्याकारों ने दर्शनों में विश्व के विभिन्न उपादान कारणों का एवं उनसे उत्पाद्यमान विश्व की विभिन्न रचना-प्रक्रिया का उल्लेख उभारा है, वह संगत नहीं कहा जा सकता है। इसको वास्तविक रूप से समझने और इसके समन्वय के लिए ऋषि ने अपने अमर-ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में वह सूत्र इस प्रकार प्रस्तुत किया है-
"(पूर्वपक्ष) जैसे सत्यासत्य और दूसरे ग्रन्थों का परस्पर विरोध है वैसे अन्य शास्त्रों में भी है। जैसा सृष्टिविषय में छह शास्त्रों का विरोध है। मीमांसा कर्म, वैशेषिक काल, न्याय परमाणु, योग पुरुषार्थ, सांख्य प्रकृति और वेदान्त ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानता है; क्या यह विरोध नहीं है? (उत्तरपक्ष) प्रथम तो बिना सांख्य और वेदान्त के दूसरे शास्त्रों में सृष्टि की उत्पत्ति प्रसिद्ध नहीं लिखी और इनमें विरोध नहीं, क्योंकि तुमको विरोधाविरोध का ज्ञान नहीं। मैं तुमसे पूछता हूं कि विरोध किस स्थल में होता है? क्या एक विषय में अथवा भिन्न-भिन्न विषयों में? (पूर्वपक्ष) एक विषय में अनेकों का परस्पर विरुद्ध कथन हो, उसको विरोध कहते हैं, यहां भी सृष्टि का एक ही विषय है। (उत्तरपक्ष) क्या विद्या एक या दो? (पूर्वोपक्ष) एक है। (उत्तरपक्ष) जो एक है तो व्याकरण, वैद्यक, ज्योतिष आदि का भिन्न-भिन्न क्यों है? जैसा एक विद्या में अनेक अवयवों का एक-दूसरे से भिन्न प्रतिपादन होता है, वैसे ही सृष्टि विद्या के भिन्न-भिन्न छह अवयवों का शास्त्रों में प्रतिपादन करने से इनमें कुछ भी विरोध नहीं। जैसे घड़े के बनाने में कर्म, समय, मिट्टी, विचार, संयोग-वियोग आदि का पुरुषार्थ, प्रकृति के गुण और कुम्मार कारण है; वैसे ही सृष्टि का जो कर्म कारण है, उसकी व्याख्या मीमांसा में, समय की व्याख्या वैशेषिक में, उपादान कारण की व्याख्या न्याय में, पुरुषार्थ की व्याख्या योग में, तत्त्वों के अनुक्रम से परिगणन की व्याख्या सांख्य में और निमित्तकारण जो परमेश्वर है उसकी व्याख्या वेदान्त शास्त्र में है। इससे कुछ भी विरोध नहीं। जैसे वैद्यक शास्त्र में निदान, चिकित्सा, औषधिदान और पथ्य के प्रकरण भिन्न-भिन्न कथित हैं, परन्तु सबका सिद्धान्त रोग की निवृत्ति है, वैसे ही सृष्टि के छह कारण हैं। इनमें से एक-एक कारण की व्याख्या एक-एक शास्त्रकार ने की है। इसलिए इनमें कुछ भी विरोध नहीं। इसकी विशेष व्याख्या सृष्टि प्रकरण में कहेंगे।"
एवमेव पूर्व निर्देशानुसार इस विषय को अष्टम समुल्लास के सृष्टि प्रकरण-प्रसंग में इस प्रकार बताया है-
"(पूर्वपक्ष) सृष्टि विषय में वेदादि शास्त्रों का अवरोध है व विरोध? (उत्तरपक्ष) अविरोध है। (पूर्वपक्ष) जो अविरोधी है तो-
तस्माद्वा एत्तस्मादात्मन आकाश: सम्भूत:, आकाशाद्वायु:, वायोरग्नि:, अग्नेराप:, अद्भ्यः पृथिवी, पृथिव्या ओषधयः, ओषधिभ्योऽन्नम्, अन्नाद्रेतः रेतसः पुरुषः स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः।।
यह तैत्तिरीय उपनिषद् (ब्रह्मानन्द वल्ली) का वचन है। उस परमेश्वर और प्रकृति से आकाश अवकाश अर्थात् जो कारणरूप द्रव्य सर्वत्र फैल रहा था उस को इकट्ठा करने से अवकाश उत्पन्न सा होता है। वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि विना आकाश के प्रकृति और परमाणु कहां ठहर सकें? आकाश के पश्चात् वायु, वायु के पश्चात् अग्नि, अग्नि के पश्चात् जल, जल के पश्चात् पृथिवी, पृथिवी से ओषधि, ओषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से पुरुष अर्थात् शरीर उत्पन्न होता है। यहां आकाशादि क्रम से और छान्दोग्य में अग्न्यादि; ऐतरेय में जलादि क्रम से सृष्टि हुई। वेदों में कहीं पुरुष, कहीं हिरण्यगर्भ आदि से मीमांसा में कर्म, वैशेषिक काल, न्याय में परमाणु, योग में पुरुषार्थ, सांख्य में प्रकृति और वेदान्त में ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानी है। अब किसको सच्चा और किसको झूठा मानें?
(उत्तरपक्ष) इसमें सब सच्चे, कोई झूठा नहीं। झूठा वह है जो विपरीत समझता है, क्योंकि परमेश्वर निमित्त और प्रकृति जगत् का उपादान कारण है।... छह शास्त्रों में अविरोध देखो इस प्रकार है। मीमांसा में- 'ऐसा कोई भी कार्य जगत् में नहीं होता कि जिस के बनाने में कर्मचेष्टा न की जाय।' वैशेषिक में- 'समय न लगे विना बने ही नहीं।' न्याय में- 'उपादान कारण न होने से कुछ भी नहीं बन सकता।' योग में- 'विद्या, ज्ञान, विचार न किया जाय तो नहीं बन सकता।' सांख्य में- 'तत्त्वों का मेल न होने से नहीं बन सकता।' और वेदान्त में- 'बनाने वाला न बनावे तो कोई भी पदार्थ उत्पन्न हो न सके।' इसलिये सृष्टि छह कारणों से बनती है; उन छह कारणों की व्याख्या एक-एक की एक-एक शास्त्र में है, इसलिए उनमें विरोध कुछ भी नहीं?"
[सत्यार्थप्रकाश, अष्टम समुल्लास; पृष्ठ १८९-१९०, उक्त संस्करण]
उक्त सन्दर्भों द्वारा भारतीय दर्शनों में अविरोध प्रकट करने के लिए ऋषि ने जो सूत्र सुझाया, उसका तात्पर्य केवल इतना है कि दर्शनों के मुख्य प्रतिपाद्य विषय-सृष्टि प्रक्रिया अर्थात् सर्ग रचना के विभिन्न कारण रूप अंगों का उत्पादन एक-एक दर्शन में हुआ है; इसलिए प्रत्येक दर्शन परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। सर्ग रचना रूप एक ही अर्थ का विवरण प्रस्तुत करने में सबका तात्पर्य है। सर्ग रचना के प्रसंग से सर्ग के स्त्रष्टा परमात्मा का तथा भोक्ता जीवात्मा का विशद वर्णन भी दर्शनों के प्रतिपाद्य विषय में आ जाता है। इसी क्रम से भोक्ता जीवात्मा के भोग साधन देह इन्द्रिय आदि का विवरण प्रसंगानुसार दर्शनों में प्रस्तुत किया गया है।
मीमांसा- शास्त्र में कर्मों का वर्णन है। ये कर्म ऐहिक एवं पारलौकिक फलों के उत्पादक हैं। सामाजिक अथवा मानवीय दृष्टि से यह कर्म यज्ञा-अनुष्ठान रूप हैं और मानव के एवं प्राणिमात्र के अभ्युदय तथा सुख-सुविधा व अनुकूलता का साधन समझा जाता है। गहन शास्त्रीय दृष्टि से विचारने से प्रतीत होता है, यह कर्म समस्त विश्व में अनुस्यूत हैं; उस कर्म व क्रिया को प्रतीक रूप में प्राणी के अभ्युदय के लिए प्रस्तुत शास्त्र में संकलित किया गया। इससे पूर्व भी यह सब अनुष्ठान ऋषियों द्वारा बोधित मानव समाज में क्रमानुक्रमपूर्वक चले आते हैं। सृष्टि-रचना में इनके अनुषक्त होने की भावना शास्त्र द्वारा अनेक प्रकार से प्रकट हो गई है। इस रूप में जगत्स्त्रष्टा की भावना को उपनिषद् यह कहकर प्रकट करते हैं-
"आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्,
नान्यत् किञ्चन भिषत्।
स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति।
स इमांल्लोका नष्टजत।" [ऐतरेय उपनिषद्, प्रारम्भिक भाग]
सर्ग से पूर्व एक आत्मा ही था; अन्य कोई पदार्थ व्यापार या क्रिया करता हुआ न था। क्योंकि तब यह समस्त विश्व अपने मूल उपादान कारण में लीन था। उस ब्रह्म रूप आत्मा ने ईक्षण किया- मैं लोकों का निर्माण करूँ। उसने इन सब लोकों को बनाया। उसी को अन्यत्र 'स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च' कहा है। उस जगत्स्त्रष्टा में अनन्त ज्ञान, बल, क्रिया सम्भव है। वह उपादान तत्त्वों को अपनी अनन्त शक्ति से ज्ञानपूर्वक प्रेरित कर जगत् की रचना करता है। परमात्मा के 'प्रेरणा रूप, कर्म अथवा क्रिया के प्रतीक रूप में मीमांसा शास्त्र द्वारा यज्ञादि कर्म का वर्णन किया गया है।'
वैशेषिक- के लिए कहा गया, वह कालरूप कारण का वर्णन करता है। प्रत्येक कार्य के होने में काल अवश्य कारण रहता है इस शास्त्र के व्याख्याकारों ने कहा है- 'जन्यानां जनक: कालो जगतामाश्रयो मत:।' समस्त उत्पन्न होने वाले पदार्थों का काल कारण होता है। इसी मान्यता को स्वीकार करते हुए महाभारत आदि में कहा गया है-
काल: सृजति भूतानि काल: संहरते प्रजा:।
वस्तुमात्र की उत्पत्ति और संहार आदि में सर्वत्र काल की कारणता निर्बाध स्वीकार की जाती है। इस आधार पर श्वेताश्वतर उपनिषद् की प्रारम्भिक दूसरी कण्डिका में विश्व के कारणों का विवरण देने की भावना से उपनिषद्कार 'काल' का सर्वप्रथम उल्लेख किया है। इस मान्यता का मूल आधार वैशेषिक का यह सूत्र है-
नित्येष्वभावादनित्येषु भावात् कारणे कालारख्येति। [२/२/९]
देर, जल्दी, एक साथ, पर, ऊपर, छोटा, बड़ा आदि व्यवहार नित्य पदार्थों में नहीं होता, अनित्यों में होता है, इससे सिद्ध है- कार्यमात्र के कारण रूप में 'काल' का नाम लिया जाता है। यह विवरण वैशेषिक दर्शन प्रस्तुत करता है।
न्याय शास्त्र- के विषय में कहा गया- वह उपादान कारण का दर्शन कराता है। विचारणीय है- न्यायदर्शन में जिस प्रकार तत्त्वों का निरूपण किया गया है, उसका उल्लेख दर्शन के प्रथम सूत्र में है; पर वहां परमाणु या किसी मूल कारण तत्त्व का नाम तक नहीं। सत्यार्थप्रकाश में यह बात न्याय-दर्शन के किस विवरण के आधार पर लिखी गई है, यह ऋषि के गम्भीर अध्ययन एवं तत्त्वविवेचन के सूक्ष्मेक्षण को अभिव्यक्त करता है। शरीरादि-उत्पत्ति के प्रसंगवश चौथे अध्याय के प्रथम आह्निक में इसका स्पष्ट विवरण उपलब्ध होता है। वहां तीन सूत्र [११ से १३] द्रष्टव्य है।
उनका संक्षिप्त सार केवल इतना है, कि परम सूक्ष्म पृथिव्यादि परमाणुओं से स्थूल पृथिव्यादि तथा देहादि की उत्पत्ति होती है। वे परमाणु अतीन्द्रिय होते हुए भी व्यक्त हैं। व्यक्त जगत् अपने समानजातीय व्यक्त परमाणुओं से उत्पन्न हो सकता है। परमाणु से जगदुत्पत्ति का इतना स्पष्ट निर्देश अन्य किसी दर्शन में नहीं है। यद्यपि यह तथ्य ऋषि की दृष्टि से ओझल नहीं था कि न्यायदर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय जगत् के उपादान कारण का विवरण प्रस्तुत करना नहीं है; यह बात तृतीय समुल्लास के इस प्रसंग के प्रश्न का उत्तर देते हुए ऋषि ने लिखी है। वहां का लेख है-
"प्रथम तो बिना सांख्य और वेदान्त के दूसरे चार शास्त्रों में सृष्टि की उत्पत्ति प्रसिद्ध नहीं लिखी।"
इसका स्पष्ट तात्पर्य यही है, कि सृष्टि की उत्पत्ति के मुख्य कारण उपादान और निमित्त का केवल दो शास्त्रों में वर्णन किया गया है, सांख्य और वेदान्त में। सांख्य में उपादान कारण का विस्तृत विवरण है, तथा वेदान्त में निमित्त कारण का। जगत् का उपादान कारण प्रकृति और निमित्त कारण ब्रह्म है। शेष चार शास्त्रों में इन्हीं के अंगभूत तत्त्वों का विवेचन हुआ है; इसलिए इन सब में विरोध की आशंका सर्वथा निर्मूल है।
यह स्पष्ट है- ऋषि ने परमाणु को अनित्य माना है और उसे अव्यक्त नित्य प्रकृति से उत्पन्न हुआ बताया है। अष्टम समुल्लास के इस प्रसंग में ऋषि ने संस्कृत-सन्दर्भ इस प्रकार लिखा है-
"नित्यायाः सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्थायाः प्रकृतेरुत्पन्नानां परमसूक्ष्माणां पृथक् पृथग्वर्त्तमानानां तत्त्वपरमाणूनां प्रथमः संयोगारम्भः संयोगविशेषादवस्थान्तरस्य स्थूलाकारप्राप्तिः सृष्टिरुच्यते।।"
यह संस्कृत सन्दर्भ ऋषि का अपना लिखा प्रतीत होता है। परन्तु इसका मूल योगदर्शन [१/४४ सूत्र] के व्यासभाष्य की वाचस्पति मिश्रकृत टीका-तत्त्ववैशादी में उपलब्ध है।
ऋषि ने इन्हीं आधारों पर उपादान कारण के रूप में परमाणु के साथ प्रकृति का प्रायः सर्वत्र प्रथम निर्देश किया है। तात्पर्य यह है कार्यमात्र समस्त विश्व का मूल उपादान कारण प्रकृति है; तथा स्थूल जगत् की उत्पत्ति से पूर्व का कारण पृथिव्यादि परमाणु हैं। इसी कारण उक्त सन्दर्भ के अन्त में 'संयोगविशेषाद-वस्थान्तरस्य स्थूलाकार प्राप्ति:' पद दिए गए हैं।
इस प्रकार उक्त पंक्तियों द्वारा यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि न्याय में उपादान कारण के विवरण की वास्तविकता क्या है और उसके रहते शास्त्र के अविरोध एवं समन्वय का स्वरूप क्या हो सकता है।
योग- में "पुरुषार्थ एवं विद्या, ज्ञान, विचार न किया जाये, तो नहीं बन सकता।" मानव द्वारा की गई प्रत्येक रचना में उक्त सभी बातों की आवश्यकता रहती है। इसी के अनुरूप सर्ग रचना में इनका अनुमान किया जाता है। योगशास्त्र आत्मज्ञान अथवा तत्त्वसाक्षात्कार एवं आत्माऽनात्मविवेक की प्रयोगात्मक पद्धति का विवरण प्रस्तुत करता है। अभ्यास अथवा प्रयोग के लिए आचरण में आने वाले विनिय अंगों का एक विशेष अनुक्रम रहता है। यदि उसी प्रकार अभ्यास या प्रयोग किया जाता है, तो सिद्धि रचना की सफलता सम्भावित रहती है। प्रयोगात्मक पद्धति की इसी विशेषता का निर्देशन योगशास्त्र करता है, जो रचनामात्र में अपेक्षित है। इसका विरोध किसी के साथ सम्भव नहीं, न इसकी उपेक्षा की कहीं सम्भावना है। सर्ग रचना के इसी अंश का अभिव्यञ्जन योगशास्त्र करता।
सांख्य- में "तत्वों का मेल न होने से नहीं बन सकता।" 'तत्वों का मेल' इन पदों से केवल संयोग मात्र अपेक्षित नहीं है। कार्य मात्र के मूलभूत तत्व सत्त्व, रजस्, तमस् का परस्पर एक दूसरे में मिथुनीभूत हो जाना 'मेल' का तात्पर्य है। इन गुणों का ऐसा मेल तत्त्वों की एक भिन्न अवस्था को अभिव्यक्त करने में समर्थ होता है। परस्पर नितान्त विजातीय इन गुणों (प्रकृति रूप मूल तत्त्वों) के मिथुनीभूत होने के प्रकार की कोई सीमा नहीं है, इसी कारण ये गुण मिथुनीभाव की प्रक्रिया से अनन्त प्रकारों में परिणत हो जाते हैं, जिसे विश्व के रूप में क्रान्तदर्शी मानव देखने का प्रयास करता रहता है। सत्त्व रजस्तमो रूप मूल प्रकृति के विविध परिणामों की प्रक्रिया का विवरण सांख्यदर्शन प्रस्तुत करता है। इस प्रकार वास्तविक तथ्य के रूप में विश्व का उपादान कारण त्रिगुणात्मक प्रकृति है। ऋषि ने इसी मान्यता को आदर दिया है, जैसा कि इसी लेख में प्रथम निर्देश किया गया है।
वेदान्त- में 'बनाने वाला न बनावे तो कोई भी पदार्थ उत्पन्न न हो सके।' यह अत्यन्त स्पष्ट एवं निर्विवाद तथ्य है, कि वेदान्त दर्शन जगत्स्त्रष्टा ब्रह्म का सर्वांग पूर्ण विवरण प्रस्तुत करता है।
इस प्रकार छहों दर्शन सृष्टि रचना सम्बन्धी अपेक्षित विविध साधनांगों का निरूपण करते हैं, जो एक-दूसरे के पूरक हैं।
यदि ऋषि के द्वारा सुझाये गये दार्शनिक समन्वय के इस सिद्धान्त को गम्भीरता एवं उदारतापूर्वक लिया जाये, तो तथाकथित नास्तिक दर्शनों के साथ भी समन्वय के मार्ग में कोई भारी अनिवार्य रुकावट दिखाई नहीं देती। तब ऐसा प्रतीत होता है, कि विभिन्न आचार्यों ने अपने काल में तत्त्व जिज्ञासा की पूर्ति के लिए जिस अंश व अंग का तात्कालिक अभ्युदय एवं अन्य सामाजिक सुविधाओं व अनुकूलताओं के लिए अधिक उपयोगी समझा, उसका सुझाव दिया, जिसकी कालान्त में स्वार्थी अखाड़ेबाजों ने अपनी संकुचित सिद्धि के लिए साधन बना डाला, मूल आचार्य का सद्भावना पूर्ण लक्ष्य सर्वथा तिरोहित कर दिया गया। आइये, इस पर विचार करें।
चार्वाक- दर्शन चेतन-अचेतन रूप में तत्त्वों का विवेचन प्रस्तुत करता है। चार्वाक दर्शन की इस मान्यता को जब विचार-कोटि में लाया जाता है, कि इस समस्त चर-अचर एवं जड़-चेतन जगत् का मूल आधार तत्त्व केवल जड़ है, तब उसका तात्पर्य केवल इतने अर्थ के प्रतिपादन में समझना चाहिए, कि इस लोक में मानव मात्र की सुख-सुविधा- और सब प्रकार के अभ्युदय के लिए सर्वप्रथम तथाकथित जड़तत्त्व की यथार्थता और उसकी प्राणि-कल्याणकारी उपयोगिता को जानना परम आवश्यक है। उसकी उपेक्षा कर संसार में हमारा सुखी रहना सम्भव न होगा।
चार्वाक दर्शन के सामने जब यह जिज्ञासा की जाती है कि क्या जड़ तत्त्व से अतिरिक्त चेतन तत्त्व का नित्य अस्तित्व नहीं माना जाना चाहिए? तब समाधान रूप में चार्वाक दर्शन का यही कहना है, कि चेतन के अस्तित्व से उसे कोई इन्कार नहीं है, पर वह नित्य है, या कैसा है, कहां से आता है, कहां जाता है? संसार को बनाने वाला कौन है? इत्यादि विचार-मन्थन उस समय तक अनपेक्षित है, जब तक उन तत्त्वों की यथार्थता व उपयोगिता को नहीं जान लिया जाता, जिन पर हमारा वर्तमान अस्तित्व निर्भर है। मरने के बाद क्या होगा? इसकी अपेक्षा यह अधिक आवश्यक है, कि हम जीवित कैसे रह सकते हैं।
जैनबौद्धदर्शन- ये दर्शन जड़ तत्त्व से अतिरिक्त चेतन तत्त्व के स्वतन्त्र अस्तित्व का उपदेश करते हैं। जैनदर्शन चेतन (आत्म) तत्त्व को जहां संकोच विकासशील बताता है, दूसरा उसे ज्ञानस्वरूप मानकर क्षणिक कहता है, और उसके निर्विकार भाव को अक्षुण्ण बनाये रखना चाहता है। बौद्ध-दर्शन में विभिन्न अधिकारी-स्तर की भावना से ज्ञान-रूप (अथवा विज्ञान रूप) चेतनतत्त्व का विवेचन उस स्थिति तक पहुंचा दिया गया है, जहां यह प्रतिपादन किया जाता है कि समस्त चराचर जड़-चेतन जगत् उस विज्ञान का ही आभास है। बाह्य का स्वतन्त्र अस्तित्व कुछ नहीं। ये सब तत्त्व विचार के विभिन्न स्तर हैं। फलतः चेतन-अचेतन के विभिन्न प्रकार के विवेचन में परस्पर विरोध की न होकर जिज्ञासु अधिकारी के कल्याण की भावना अधिक है।
इस प्रसंग में वस्तुभूत तथ्य यह ज्ञात होता है, कि तथाकथित नास्तिक दर्शन के मूल प्रवक्ताओं ने ईश्वर- अथवा ऐसी परमशक्ति, जो समस्त विश्व का नियन्त्रण करती है उसके अस्तित्व का निषेध नहीं किया। उन्होंने किन्हीं विशेष परिस्थितियों से बाधित होकर वैसा प्रवचन किया। वे परिस्थितियां चाहे जिज्ञासु जनों की योग्यता पर आधारित रही हों, प्रतीत होता है- उस-उस काल के लोक कर्त्ता व्यक्तियों ने ईश्वर या तत्सम्बन्धी मान्यताओं को अवाञ्छनीय सामाजिक संघर्ष का अनवेक्षित कारण समझकर लोगों को सुझाया हो, कि अरे भाई! इन अदृश्य तत्त्वों को थोड़े समय के लिए एक ओर रहने दो, अपने वर्तमान जीवन को सुधारो, सबके कल्याण के लिए, सदाचार पर ध्यान दो, परस्पर सहानुभूति से रहना सीखो, उससे हमारा यह लोक सुखमय होगा, और परलोक भी। ऐसे आचरणों से ईश्वर तक भी पहुंचा जा सकता है। उन्होंने समाज के सदाचार पर अधिक बल दिया। इसकी तब अपेक्षा रही होगी। वस्तुतः इसकी अपेक्षा सदा रहती है। उन प्रवक्ताओं का तात्पर्य ईश्वर के अस्तित्व तथा वेदों की मान्यता के नकार में नहीं समझना चाहिए तब ऐसे विरोध की भावना इन दर्शनों के मूल में कहां रह जाती है?
आदि प्रवक्ताओं के जन कल्याणकारी लक्ष्य विभिन्न विचारों की इन काली-पीली आंधियों में तिरोहित हो चुके हैं। तत्त्व की खोज में यही भावना जिज्ञासु को सच्चाई के अन्तिम लक्ष्य तक पहुंचा सकती है, कि सृष्टि के इस अनवरत प्रवाह में वे सब विचार अपने स्थान व अपने स्तर पर ठीक हैं, सत्य से अधिचारित हैं। उनमें छिपे यथार्थ को उभार लाने के लिए आज तक जो सफल प्रयास किये गए हैं, उनसे दार्शनिक तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को समझने में पूरा सहयोग प्राप्त हुआ है।
इस लघुकाय लेख में, प्रकट किए विचार दिग्दर्शनमात्र हैं। आर्य विद्वान् इस पर गम्भीर विचार कर उपयुक्त सुझाव देंगे, तो बड़ा कार्य होगा।
[स्त्रोत- आर्य मर्यादा : आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का प्रमुख पत्र का मार्च २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
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