देव उद्योगी पुरुष को चाहते हैं
लेखक- पं० युद्धिष्ठिर मीमांसक
प्रेषक- प्रियांशु सेठ
इच्छन्ति देवा: सुन्वन्तं न स्वप्नाय स्पृहयन्ति। यन्ति प्रमादमतन्द्रा:।। -ऋग्वेद ८/२/१८
(देवा:) विद्वान् लोग (सुन्वन्तम्) उत्तम कार्य करने वाले व्यक्ति को ही (इच्छन्ति) चाहते हैं। (स्वप्नाय) स्वप्नशील अर्थात् आलसी पुरुष को (न) नहीं (स्पृहयन्ति) चाहते। (अतन्द्रा:) आलस्यरहित = उद्योगी पुरुष (प्रमादम्) अत्यन्त हर्ष को (यन्ति) प्राप्त होते हैं।
इस मन्त्र में बताया है कि उद्योगी कर्मशील व्यक्ति ही संसार में सुख ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं। तथा संसार के श्रेष्ठ पुरुष भी कर्मशील व्यक्ति को ही चाहते हैं, और उसी की सहायता करते हैं, आलसी की नहीं। विश्व का इतिहास इस बात का साक्षी है कि साधारण परिस्थिति के व्यक्ति भी अपनी अनवरत कर्मशीलता से अन्ततः परम उत्कर्ष को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। आलसी पुरुष उद्योग न करके अपने भाग्य को ही कोसा करते हैं।
अतएव भर्तृहरि ने कहा है-
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपु:।
नास्त्युद्यमसमो बन्धु: कुर्वाणो नावसीदति।। नीतिशतक ८६
अर्थात्- आलस्य शरीर में बैठा हुआ मनुष्य का महान् शत्रु है। क्योंकि अन्य शत्रु तो बाहर से आक्रमण करते हैं, अतः उनसे बचा जा सकता है। परन्तु आलस्य तो शरीर में बैठा हुआ अन्दर से ही आक्रमण करता है, अतः उससे बचना बहुत कठिन है। उद्यम के समान मनुष्य का कोई मित्र नहीं है। क्योंकि उद्योगी मनुष्य को कभी पछताना नहीं पड़ता।
अतः जो व्यक्ति या समाज या जाति या देश अपना उत्कर्ष चाहते हों, और संसार में अपने सहयोगी बनाना चाहते हों, उनको उचित है कि शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक सब प्रकार के आलस्य को सर्वथा छोड़ देवें, और उद्योगी पुरुषार्थी बनने का प्रयत्न करें। संसार में प्रत्येक कार्य पुरुषार्थ से निष्पन्न होता है। इसीलिये शास्त्रकारों ने कहा है- उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी। धन सम्पत्ति की प्राप्ति सब मनोकामनाओं की पूर्ति उद्योग से ही होती है। अतएव कई पुरुषार्थी व्यक्तियों का कहना है कि 'असम्भव' शब्द ही भाषा में से निकाल देना चाहिए, क्योंकि उद्योगी पुरुष के लिए संसार में कुछ भी असम्भव नहीं है।
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