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वेदाध्ययन की आवश्यकता



वेदाध्ययन की आवश्यकता

लेखक- स्वामी वेदरक्षानन्द सरस्वती
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ

वेदों के अध्ययन एवं प्रचार की आज अत्यन्त आवश्यकता है। वेदों के साचार अध्ययन में ही मानव की सुख-शान्ति एवं उज्ज्वल भविष्य निहित है। परन्तु यह हो कैसे? हम वेद को दिव्य काव्य मानते हैं। हम वेद को सत्यविद्याओं की पुस्तक स्वीकारते हैं कि वैदिकधर्म ही सार्वभौम धर्म है। किन्तु इस मान्यता इस स्वीकारोक्ति तथा इस दावे का मूल्य क्या है? जब तक कि हम वेदों को सर्वगम्य बनाकर उन्हें मनुष्यमात्र तक नहीं पहुंचाते? भारतीय इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब तक वेद की विचारधारायें मानवों में प्रचलित रहीं, तभी तक इस देश की संस्कृति एवं सभ्यता संसार में सर्वोपरि रही। जब से वेदों का संकोच प्रारम्भ हुआ है, तभी से वेदानुयायियों के दैन्य-भावनायुक्त जीवन के प्रकरण का प्रारम्भ हुआ है। यही नहीं, शनै: शनै: वेद से हम इतने दूर होते गये कि कालान्तर में वेदों के लुप्त हो जाने तक की कल्पना कर ली गई। वर्तमान युग में वेदों का तात्पर्य इतना दुर्गम हो गया है कि उनके वास्तविक अभिप्राय की अटकले-मात्र लगाई जा रही हैं।

वेद एक है और उसके चार काण्ड हैं। प्रथम ज्ञानकाण्ड का नाम ऋग्वेद है। दूसरे कर्मकाण्ड का नाम यजुर्वेद है। तीसरे उपासना काण्ड का नाम सामवेद है। चौथे विज्ञान काण्ड का नाम अथर्ववेद है। ज्ञानकाण्ड ऋग्वेद के अन्तिम सूक्त में कर्म के यथावत् पालन का संकेत करके कर्मकाण्ड यजुर्वेद में श्रेष्ठतम कर्म की शिक्षा दी गई है। कर्मकाण्ड यजुर्वेद का उपसंहार जिस अध्याय में हुआ है उसके अन्तिम मन्त्रों में उपासना का संकेत किया गया है और उपासना काण्ड सामवेद में उपासना की प्रतिष्ठा की गई है। सामवेद के अन्तिम मन्त्र में स्वस्तिपाठ है। स्वस्ति का अर्थ है सु-अस्ति, सु-अस्तित्व, विज्ञानमयपूर्ण जीवन। शरीर, बुद्धि, मेधा, चित्त और आत्मा की पूर्णता से मानव का स्वस्तिमय अथवा विज्ञानमय जीवन बनता है। स्वस्तिमय अथवा विज्ञानमय जीवन से युक्त पूर्ण पुरूष को ही विज्ञान की प्राप्ति होती है। सृष्टि, आत्मा और परमात्मा के इन्द्रियजन्य बोध का नाम ज्ञान है। आत्म-अवस्थिति द्वारा ब्रह्मस्थ होकर तीनों के साक्षात्कृत ज्ञान का नाम विज्ञान है। स्वस्ति का सम्पादन करके विज्ञान की प्राप्ति वेद के विज्ञानकाण्ड अथर्ववेद का प्रतिपाद्य है। स्वस्ति का सम्पादन और विज्ञान की उपलब्धि अभ्यास का विषय है। इसके लिए विज्ञानवेत्ता गुरु की आवश्यकता होती है। विज्ञानवान् गुरु के बिना इस मार्ग पर गति नहीं होती।

मानव की प्रत्येक सम्पत्ति, उसकी प्रत्येक उपलब्धि, उसकी बुद्धि, हृदय, चित्त, मन, ज्ञान-कर्मन्द्रियां उसके विचार व भावनायें, उसके संस्कार व प्रवृत्तियां, उसकी भौतिक प्राप्तियां- सबकुछ 'भूताय' भूतमात्र, प्राणिमात्र के लिए हैं। मानव ने जब-जब इस चेतावनी की उपेक्षा की है, तब-तब ही ठोकरें खानी पड़ी हैं। न केवल भौतिक उपलब्धियां, अपितु मानसिक व बौद्धिक विचारधारायें भी इसी विशाल लक्ष्य को लिये हैं। जिस प्रकार भौतिक शक्तियों के संग्रह एवं संकुचित प्रयोग से मानवजाति ओर संकट आये हैं तथैव विचारों एवं विद्याओं का संकोच से भी भयंकर आपदायें आई हैं। भौतिक संकुचन से वैचारिक एवं विद्यासम्बन्धी संकुचन कहीं अधिक भयानक होता है। इस दूसरे प्रकार के संकोच का परिणाम अनन्तकाल तक मानवों को भोगना पड़ता है। यही नहीं, स्वयं विचारों और विद्याओं के स्वस्थ अस्तित्व एवं अभिवर्धन के लिए भी यह नितान्त आवश्यक है कि संकोच के स्थान में 'विश्व जनहिताय' का लक्ष्य अभिमुख रहे। अन्ततः किसी भी वस्तु के अस्तिव का अभिप्राय परार्थ ही तो है। यदि परार्थ के स्थान में उसका लघु स्वार्थों के लिए उपयोग होने लगे, तो न केवल उपयोक्ता, परन्तु वस्तु भी, दोनों ही भ्रष्ट एवं नियति-नियत कर्त्तव्य से च्युत होने के दोषभागी बनते हैं।
हमारे देश में इसी कारण विद्या के लक्ष्य रखा गया था 'विमुक्ति'। विद्या वह है जो स्वयं मुक्त हो, उदार हो, विशाल हो और अपने व्यसनी को भी उदार, मुक्त और विशाल बना दे। इसी कसौटी पर हम यदि वेद और वैदिक विद्याओं को परखें, तो हम मानवों के मस्तक लज्जा एवं ग्लानि से झुक जाते हैं। हमने वेदों को संकुचित कर दिया। उनके पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन, श्रवण-मनन सब पर कठिन अंकुश लगा दिये। इतना डराया और घबराया गया अबोध जनता को कि अशुद्ध पाठ के भय से सर्वनाश की आशंका आ गई और फलतः समाज का एक अत्यन्त विशाल भाग वेदों से वंचित हो गया। मानवता की जड़ों पर कुठाराघात करने वाली वेद के तथाकथित ठेकेदारों की निकृष्ट एवं संकुचित मनोवृत्ति का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि समाज के श्रमिक शूद्रवर्ग तथा उस नारी वर्ग को जिसकी पूजा को स्वर्गोपलब्धि का साधन कहा गया था, एकबारगी ही वेद के अध्ययन से अधिकारच्युत कर दिया गया। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के उद्घोषक महामानव किस प्रकार अपने हृदय को इतना कठोर बना सके कि 'स्त्रीशूद्रो नाधीयताम' के वचन उनके मुख से निकल पाये। यह कैसी विडम्बना है?

वेद के संकोच के भयंकर अपराध का फल आज तक हम ही नहीं समस्त मानवजाति भोग रही है। कहां वेदों के उदात्त, महतो महान्, हिमालय के सर्वोच्च शिखर के समान उज्ज्वल, प्राणपोषक एवं उदारतम विचार व भावनायें और कहां इस युग में प्रचलित भय, आशंका, निराशा, मृत्यु एवं स्वार्थ की चरमसीमा को भी पार करनेवाली महाविनाशकारी, जघन्य, कुत्सितातीत अमानवीय भावनायें। वेद जीवन में विश्वास करना सिखाता है मृत्यु में नहीं। वेद 'उद्यानं ते पुरुष' का उद्घोष करता है तो वर्तमान विचारधारायें दुःखमय जीवन, अनास्था, अनुत्साह, नीरसता, अकर्मण्यता, भीरुता, अविश्वास एवं अत्यंत काले भविष्य की ओर संकेत करने वाली हैं। मानवजाति का भविष्य तभी समुज्ज्वल होगा, जब वेद की उदात्त शिक्षाओं का मनन एवं आचरण होने लगेगा। आइये, वेद में श्रद्धा रखने वाले हम सब मानव इस यज्ञ की सफलता के लिए कटिबद्ध हो जायें।
-'सर्वहितकारी' से साभार

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