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क्या वेदों में पुत्रोत्पत्ति का पक्षपात है?



क्या वेदों में पुत्रोत्पत्ति का पक्षपात है?

प्रियांशु सेठ

अथर्ववेद के तीसरे काण्ड, तेईसवें सूक्त का मन्त्र केवल 'पुत्र' उत्पत्ति का आदेश देता है अथवा क्या वेद में 'पुत्र एवं पुत्री' के प्रति भेदभाव करने का संकेत है?

समाधान- वेदों में स्त्री/पुत्री/नारी को विदुषी, वीरांगना, प्रकाश से परिपूर्ण, सुख-समृद्धि लाने वाली, इन्द्राणी, अलंकृता, वीरप्रसवा, अन्नपूर्णा, कर्त्तव्यनिष्ठ धर्मपत्नी इत्यादि आदरसूचक नामों से सम्मान दिया गया है। वेदों पर किसी भी विषय-विशेष को लेकर दोषापरण करना उचित नहीं। यह एक भ्रान्ति है कि वेदों में केवल पुत्र उत्पन्न करने को बढ़ावा दिया है। यदि इस भ्रांति का निवारण नहीं किया गया तो अन्य सम्प्रदाय वेदों पर पुनः झूठे आक्षेप करना शुरू कर देंगे।
सर्वप्रथम हम पुत्र शब्द पर चर्चा ही करेंगे ताकि सरलतापूर्वक 'पुत्र' शब्द का अर्थ तो समझ आ जाये।

प्रश्न:- पुत्र किसे कहते हो?
उत्तर:- जो आज्ञाकारी, दुःखों को दूर करनेवाला, अपने कार्यों के प्रति कर्त्तव्यनिष्ठ, सदाचारी, परोपकारी हो, वही पुत्र कहलाने योग्य है।

प्रश्न:- पुत्र का अर्थ पढ़ने पर तो केवल 'बेटा' ही प्रतीत होता है?
उत्तर:- नहीं। पुत्र शब्द के कई अर्थ हैं; जैसे- बेटा, त्राण इत्यादि।

१. बेटा- क्या हम केवल लड़कों को ही बेटा कहकर पुकारते हैं?

जैसे कोई अध्यापक या अध्यापिका अपने विद्यार्थियों को कोई कार्य करने के लिए पुकारते हैं तो क्या वह लड़के के लिए बेटा शब्द का प्रयोग करते हैं और लड़कियों के लिए बेटा शब्द का प्रयोग नहीं करते?
करते हैं न, छात्रा को भी बेटा नाम से पुकारा न!

२. त्राण- त्राण, पुत्र शब्द का ही पर्यायवाची है। इसका अर्थ 'दुःखों को दूर करनेवाला' होता है। दुःख को दूर पुत्र भी कर सकता है और पुत्री भी।

अब आइये! जानते हैं कि क्या वेदों में 'पुत्र व पुत्री' के प्रति भेदभाव करने का आदेश है अथवा वेदों में पुत्रोत्पत्ति पर ही जोर दिया गया है?

वेदज्ञान कालविभाग रहित सार्वकालिक, सार्वजनिक, सार्वदेशिक ज्ञान है, अतएव वेद में पुत्र, पुत्री के सम्बन्ध का पक्षपात न आदि में था, न अब है, न कभी होगा। वेदों में पुत्र व पुत्री के प्रति कोई भेदभाव नहीं है बल्कि स्त्रियों को पुरुष की भांति उचित सम्मान दिया गया है। यहां हम वेद के निम्न मन्त्रों का अवलोकन करेंगे-

पुमासं पुत्रं जनय तं पुमाननु जायताम्।
भवासि पुत्राणां माता जाताना जनयाश्च यान्।। -अथर्व० ३/२३/३

भावार्थः- हमारे घरों में वीर सन्ताने जन्म लें।
(यहां वेद में कहा है कि वीर सन्ताने जन्म लें फिर वीर पुरुष भी हो सकता है और स्त्री भी हो सकती है)

यास्तेऽ अग्ने सूर्य्ये रुचो दिवमातन्वन्ति रश्मिभि:।
ताभिर्नोऽ अद्य सर्वाभी रुचे जनाय नस्कृधि।। -यजु० १३/२२

भावार्थ:- जैसे ब्रह्माण्ड में सूर्य्य की दीप्ति सब वस्तुओं को प्रकाशित कर रुचियुक्त करती हैं, वैसे ही विदुषी श्रेष्ठ पतिव्रता स्त्रियां घर के सब कार्य्यों का प्रकाश करती हैं। जिस कुल में स्त्री और पुरुष आपस में प्रितियुक्त हों, वहां सब विषयों में कल्याण ही होता है।

कृणोमि ते प्राजापत्यमा योनिं गर्भ एतु ते।
विन्दस्व त्वं पुत्रं नारि यस्तुभ्यं शमसच्छमु तस्मै त्वम्भव।। -अथर्व० ३/२३/५

भावार्थः- प्राजापत्य कर्म से हमें सन्तान प्राप्त हों। माता सन्तान के लिए व सन्तान माता के लिए शांति देनेवाली हों।

मम पुत्रा: शत्रुहणोऽथो मे दुहिता विराट्।
उताहमस्मि संजया पत्यौ मे श्लोक उत्तम:।। -ऋ० १०/१५९/३

भावार्थः- मेरे पुत्र शत्रुओं को मारनेवाले हैं, ये कभी शत्रुओं से अभिभूत नहीं होते और निश्चय से मेरी पुत्री विशिष्टरूप से तेजस्विनी होती है और मैं सम्यक् शत्रुओं को जीतनेवाली होती हूँ, मेरे पति में उत्कृष्ट यश होता है। मेरे पति भी वीरता के कारण यशस्वी होते हैं। माता-पिता के वीरता के होने पर ही सन्तानों में भी वीरता आती है। माता-पिता का जीवन यशस्वी न हो तो सन्तानों का जीवन कभी यशस्वी नहीं हो सकता।

आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे राजन्यु: शूरऽइषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशु: सप्ति: पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठा: सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे न: पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधय: पच्यन्तां योगक्षेमो न: कल्पताम्।। -यजु० २२/२२

भावार्थः- विद्वानों को ईश्वर की प्रार्थनासहित ऐसा अनुष्ठान करना चाहिए कि जिससे पूर्णविद्या वाले शूरवीर मनुष्य तथा वैसे ही गुणवाली स्त्री, सुख देनेहारे पशु, सभ्य मनुष्य, चाही हुई वर्षा, मीठे फलों से युक्त अन्न और औषधि हों तथा कामना पूर्ण हो।

स्त्री-विषय में उपनिषदों का कथन है-

नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसक:।
यद्यच्छरीरमादत्ते तेने तेने स युज्यते।। -श्वेता० उ० ५/१०

जीवात्मा स्त्रीलिंगी, पुल्लिंगी व नपुंसकलिंगी नहीं है। ये लिंग शरीर के हैं। जिस-जिस शरीर का यह ग्रहण करता है, उस-उस से वह रक्षित किया जाता है।

अथ य इच्छेद् दुहिता मे पण्डिता जायेत सर्वमायुरियादिति।
तिलौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तम् अश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै। -बृह० उ० ६/४/१७

जो चाहे कि मेरी पण्डिता कन्या हो, पूरी आयु भोगे, तो तिल तथा चावल पका कर घी डालकर पति पत्नी खाएं। ऐसा करने से पण्डिता कन्या उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं।

गृह सूत्र के वचन भी देख सकते हैं-

अमोऽहमस्मि सा त्वं सा त्वमस्यमोऽहम्। -पार० गृ० १/६/३

अर्थात् मैं ज्ञान पूर्वक तेरा ग्रहण करता हूँ, तू भी ज्ञान पूर्वक ग्रहण करती है। तू ज्ञानवती है, मैं भी ज्ञानवान् हूं।

पं० अमरसिंह ने पुत्र पुत्री में भेद न मानते हुए लिखा है-

आत्मजस्तनय: सूनु: सूत: पुत्र:।
स्त्रियां त्वमी आहुर्दुहितरं सर्वे।। -अमरको० १/६/२७

अर्थात् आत्मज, तनय, सूनु, सूत, पुत्र शब्द जैसे पुमान् को कहते हैं वैसे ही ये शब्द स्त्रीलिंग में पुत्री का भी कथन करते हैं।

श्रदस्मै. यजु० ८/५, पुंमासं पुत्रं जनय. अथर्व० ३/२३/३, पुंमासं पुत्रमाघेहि. अथर्व० ५/२५/१०-१३ तथा स्त्रैषूयम्. अथर्व० ६/११/३ इन सभी मन्त्रों में पुत्र प्राप्ति तथा वीर पुत्रों की प्रार्थना है, पुत्री प्राप्ति के निषेध का कथन कहीं नहीं है।

इन समस्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि वेद में पुत्र पुत्री में किसी भी प्रकार का भेदभाव व पक्षपात नहीं है।

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