सांसारिक रिश्ते और आत्मा का सम्बन्ध
प्रियांशु सेठ
महाभारत के शान्तिपर्व में वर्णन आता
है कि भयंकर
युद्ध में पूर्ण
सफलता प्राप्त
कर लेने के
पश्चात् युधिष्ठिर
जी प्रसन्न
नहीं हुए; मरे
हुए सम्बन्धियों
के वियोग में
दुःखी होने लगे।
भाइयों ने बहुत
समझाया और विद्वानों ने भी; परन्तु मोह की जंजीर
बुरी तरह जकड़ी
है। युधिष्ठिर
पूर्ववत् अधीर हो
रहे। तब संसारी सम्बन्धियों की वास्तविक कथा उन्हें
सुनाई गई। इस
कथन के ये
श्लोक बड़े मार्मिक हैं-
यथा काष्ठं
च काष्ठं
च समेयातां
महोदधौ।
समेत्य च व्यपेयातां तद्वद् भूतसमागम:।।३६।।
ये चैव पुरुषा: स्त्रीभिर्गीतिवाद्दैरूपस्थिता:।
ये चानाथा:
परान्नादा: कालस्तेषु
समक्रिय:।।३७।।
मातापितृसहस्त्राणि पुत्रदारशतानि
च।
संसारेष्वनुभूतानि कस्य ते
कस्य वा वयम्।।३८।।
नैवास्य कश्चिद्
भवति नायं भवति
कस्यचित्।
पथि सङ्गतमेवेदं
दारबन्धुसुहृज्जनै:।।३९।।
"जैसे
महासागर में काष्ठ
के दो टुकड़े
दो ओर से
आकर एक स्थान
में मिल जाते
हैं, और समय
के अनुसार
फिर अलग-अलग
हो जाते हैं,
वैसे ही प्राणियों का भी समय
के अनुसार
संयोग-वियोग होता
रहता है। जो
पुरूष उत्तम स्त्रियों के बीच रहकर
गीत, वाद्य आदि
के सुखों को
भोगते रहते हैं
और जो पराये
अन्न के आसरे
जीवन धारण करने
वाले अनाथ पुरुष
हैं, काल दोनों
के संग समान
व्यवहार करता रहता
है अर्थात्
वे कोई भी
मृत्यु के दुःख
से छुटकारा
नहीं पा सकते।
इस संसार में
माता, पिता, स्त्री और पुत्र आदि
सैकड़ों तथा सहस्त्रों भाँति-भाँति के
सम्बन्ध दीख पड़ते
हैं, परन्तु
विचारपूर्वक देखने से
ये लोग किसके
माता-पिता हैं
और हम लोग
ही किसके आत्मीय बान्धव हैं, यह
स्पष्ट हो जाता
है। कोई भी
इस आत्मा का
आत्मीय नहीं है
और न यह
आत्मा किसी का
आत्मीय बन्धु हो
सकता है। जैसे
पथिक मार्ग में
गमन करते हुए,
थोड़े समय के
वास्ते एक स्थान
पर इकट्ठे
विश्राम करके फिर
यथायोग्य स्थान पर
गमन करते हैं,
इस संसार में
स्त्री, पुत्र और
स्वजनों की संगति
भी उसी भाँति
समझनी चाहिए।"
याज्ञवल्क्य व उनकी
पत्नी का इस
विषय पर चर्चा-
जब याज्ञवल्क्य
संन्यास-आश्रम में
जाने लगे, तो
उस समय जो
भारतीय जोत जगाने
वाली बातचीत
मैत्रेयी से हुई
है उससे तो
सांसारिक रिश्ते
और आत्मा का
सम्बन्ध पूरा-पूरा
स्पष्ट हो जाता
है। उपनिषद्
में वह कथा
इस प्रकार
है-
याज्ञवल्क्य की दो
पत्नियाँ थीं- मैत्रेयी और कात्यायनी।
उनमें से मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थी और
कात्यायनी गृहाश्रम
के कार्यों
में कुशल। याज्ञवल्क्य जब जीवन की
दूसरी अवस्था
को आरम्भ करने
के लिए तैयार
हुए, संन्यास
लेने लगे तो
उन्होंने कहा- "प्रिय
मैत्रेयी! मैं इस
आश्रम से अब
संन्यास में जा
रहा हूँ। मैं
चाहता हूँ कि
अपनी सम्पत्ति
तुम दोनों को
बाँट दूं।"
मैत्रेयी ने कहा-
"हे भगवन्!
यदि यह सारी
पृथिवी धन से
भरी हुई मेरे
पास हो, तो
क्या मैं इससे
अमर हो जाऊँगी?"
याज्ञवल्क्य ने उत्तर
में कहा- "नहीं
प्रिये! जैसे अमीर
लोगों का जीवन
होता है वैसे
ही तेरा जीवन
होगा; परन्तु
धन से अमरत्व (अमर होने) की
कोई आशा नहीं
है।"
मैत्रेयी ने तब
फिर कहा- "जब
इस धन से
मैं अमर नहीं
हो सकूँगी
तो इसे लेकर
मैं क्या करूँगी? केवल वह वस्तु,
जो आप जानते
हैं, वही मुझे
बतलाइए।"
याज्ञवल्क्य ने कहा-
"तुम तो हमारी
पहले ही प्यारी हो। अब यह
बात पूछने से
तो तुमने प्रीति को और भी
बढ़ा दिया है।
अहो आदरणीय!
मैं तेरे लिए
इस रहस्य को
खोलूँगा, ध्यान से
सुनो!"
मैत्रेयी- "जी,
आपकी अनुकम्पा!"
तब याज्ञवल्क्य
ने कहा-
"हे
मैत्रेयी !पति, पति
की कामना के
लिए प्यारा
नहीं होता है,
किन्तु पति आत्मा
के लिए प्यारा होता है। इसी
प्रकार हे मैत्रेयी! पत्नी, पत्नी की
कामना के लिए
प्यारी नहीं होती,
किन्तु पत्नी आत्मा
की कामना के
लिए प्यारी
होती है। ऐसे
ही पुत्र,
पुत्रों की कामना
के लिए प्यारे नहीं होते, किन्तु पुत्र आत्मा की
कामना के लिए
प्यारे होते हैं।
हे मैत्रेयी!
धन, धन की
कामना के लिए
प्यारे नहीं होते,
अपितु धन आत्मा
की कामना के
लिए प्यारे
होते हैं। ऐसे
ही पशु, ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, पृथिवी
आदि लोक, अग्नि
देवता भी इनकी
कामना के लिए
प्यारे नहीं होते,
किन्तु ये सब
आत्मा की कामना
के लिए ही
प्रिय होते हैं।
हे मैत्रेयी!
कोई वस्तु हो,
वह सब उसके
लिए प्यारी
नहीं होती, किन्तु हरेक वस्तु आत्मा
के लिए ही
प्यारी होती है।"
निस्सन्देह आत्मा सबको
साक्षात् प्यारा
है और इस
संसार में जो
कुछ हमें प्यारा लगता है, वह
केवल इसलिए कि
वह हमारे आत्मा
के अनुकूल
है। सर्दियों
में धूप-आग
कितनी भली प्रतीत होती है। गर्मियों में दोनों काटने
को दौड़ती हैं।
क्यों? केवल इसलिए
कि सर्दियों
में धूप और
अग्नि आत्मा के
अनुकूल होती हैं।
हम इनके सेवन
के लिए स्वयं
इनके निकट जाते
हैं। परन्तु
गर्मियों में ये
आत्मा के प्रतिकूल हो जाती हैं
और हम इनसे
दूर भागते हैं।
यही बात शेष
सब पदार्थों
के लिए है।
पति हो या
पत्नी, पुत्र हो
या पिता, लोक-सेवा
हो या परिवार-सेवा, राजनीति
हो या धर्म-सभा,
जो कोई हो
या जो कुछ
हो, सब इसलिए
प्यारा है कि
वह आत्मा की
प्रीति का कारण
है। हाँ, आत्मा
सदा-सर्वदा
प्यारा है।
परन्तु इस संसार
में यह क्या
हो रहा है?
जिस आत्मा के
लिए सारी वस्तुएं प्यारी हैं, उसी
आत्मा को मनुष्य भूल बैठा है।
बारात तो जा
रही है और
दूल्हे का पता
ही नहीं।
कठोपनिषद् में नचिकेता के अन्तिम
प्रश्न का उत्तर
देकर यम ने
संसारी लोगों के
कल्याण के लिए
घोषणा की कि-
इह चेदशकद्
बोद्धुं प्राक्शरीरस्य
विस्त्रस:।
त: सर्गेषु
लोकेषु शरीरत्वाय
कल्पते।।
"यदि
शरीर का पतन
होने से पहले-पहले
इस मनुष्य-शरीर
में ही (भक्त)
परमात्मा का साक्षात् कर सका (तब
तो ठीक है);
नहीं तो फिर
वह अनेकों
कल्पों तक, नाना
लोकों और योनियों में शरीर धारण
करने को विवश
होता है।"
याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से भी यही
कहा कि-
आत्मा वा अरे
द्रष्टव्य: श्रोतव्यो
मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:।
"सचमुच,
हे मैत्रेयी!
आत्मा ही है,
जो दर्शन करने
योग्य है, मनन
करने योग्य है
और निदिध्यासन
करने (ध्यान देने)
के योग्य है।"
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