ईश्वर प्राप्ति का उपाय पतञ्जलि प्रणीत यम-नियम
प्रियांशु सेठ
मूर्तिपूजा अर्वाचीन है, वेदादि शास्त्रों के विरुद्ध और अवैदिक है फिर हम अपने ईश्वर को कैसे प्राप्त करें? हमारी उपासना-विधि क्या हो?
उपासना का अर्थ है समीपस्थ होना अथवा आत्मा का परमात्मा से मेल होना। महर्षि पतञ्जलि द्वारा वर्णित अष्टाङ्गयोग के आठ अङ्गब्रह्मरूपी सर्वोच्च सानु-शिखर पर चढ़ने के लिए आठ सीढ़ियाँ हैं।
उनके नाम हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
यहां प्रत्येक का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया जाता है-
१-- यम पाँच हैं-
(१) अहिंसा- अहिंसा का अर्थ केवल किसी की हत्या न करना ही नहीं अपितु मन, वचन और कर्म से किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार कष्ट न देना, किसी को हानि न पहुंचाना और किसी के प्रति वैरभाव न रखना अहिंसा है। उपासक को चाहिए कि किसी से वैर न रखे, सबसे प्रेम करे। उसकी आँखों में सबके लिए स्नेह और वाणी में माधुर्य हो। पशुओं को मारकर अथवा मरवाकर उनके मांस से अपने उदर को भरनेवाले तीन काल में भी योगी नहीं बन सकते। साधक को प्रत्येक स्थान में, प्रत्येक समय और प्रत्येक परिस्थिति में अहिंसाव्रती होना चाहिए। 'अहिंसा परमो धर्म:' अहिंसा परम धर्म है। अहिंसा का उद्देश्य है मनुष्य के अन्दर छिपी हुई उग्र, क्रूर और पाशविक वृत्तियों को जड़मूल से उखाड़ फेंकना। जब मन में हिंसा की छाया तक न दिख पड़े, तब समझना चाहिए कि अहिंसा की सिद्धि हो गई, अहिंसा का फल क्या है?
महर्षि पतंजलि लिखते हैं-
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्याग:। -योगदर्शन साधन० ३५
हृदय में अहिंसा के प्रतिष्ठित होने पर अहिंसक के समीप सांप, बाघ आदि हिंसक प्राणी भी वैरभाव का परित्याग कर देते हैं।
अहिंसा की सिद्धि के बिना अन्य यमों की सिद्धि नहीं हो सकती, इसलिए यमों में इसे सर्वप्रथम स्थान दिया गया है।
(२) सत्य- सत्य द्वितीय यम है। साधक मन, वचन और कर्म से सत्य जाने, सत्य माने, सत्य बोले और सत्य ही लिखे, मिथ्या-असत्य न बोले, न मिथ्या व्यवहार ही करे। सत्यस्वरूप परमेश्वर को पाने के लिए साधक को सर्वथा सत्यनिष्ठ बनना होगा। सत्यस्वरूप प्रभु का साक्षात्कार करने के लिए उपासक को सत्य में ही जीना होगा, सत्यस्वरूप ही बनना होगा और सत्य के प्रति आंशिक नहीं सम्पूर्ण तथा सर्वोपरि लगाव रखना होगा। साधना की नींव रखने के लिए सत्यव्रती बनना अत्यावश्यक है। सत्य सबसे बड़ा व्रत है।
उपासक कहता है-
अहमनृतात्सत्यमुपैमि। -यजु० १/५
मैं असत्य को त्याग कर जीवन में सत्य को ग्रहण करता हूँ।
वेदादिशास्त्र सत्य की महिमा से भरे पड़े हैं।
उपनिषदों में कहा है-
सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा। -मुण्डको० ३/१/५
परमात्मा सत्य और तप से ही प्राप्त होता है।
सत्यमेव जयते नानृतम्। -मुण्डको० ३/१/६
सत्य की ही विजय होती है, असत्य की नहीं।
महाभारत में कहा गया है-
सत्यं स्वर्गस्य सोपानम्। -महा० उद्यो० ३३/४७
सत्य स्वर्ग की सीढ़ी है।
महर्षि मनु का कथन है-
नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्। -मनु० ८/८२
सत्य से बढ़कर कोई धर्म और असत्य से बढ़कर कोई पाप नहीं है।
सत्यभाषण का फल बताते हुए महर्षि पतञ्जलि कहते हैं-
सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्। -यो० द० साधन० ३६
सत्य में प्रतिष्ठित होने पर व्यक्ति वाक्सिद्ध हो जाता है।
सत्य के महत्त्व को समझकर जीवन में सत्य को धारण करो। सत्य में निवास करो। सत्य में मूर्त्तरूप बन जाओ। मन, वाणी और कर्म से सच्चे रहो।
(३) अस्तेय- यमों में तीसरा यम है अस्तेय। स्तेय का अर्थ है चोरी करना, अस्तेय का अर्थ है मन, वचन और कर्म से चोरी न करना। साधक चोरी न करे, सत्य व्यवहार करे। स्वामी की आज्ञा के बिना किसी पदार्थ को न उठाये। स्तेयरूपी अवगुण सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। व्यक्ति के लिए जितना आवश्यक है उससे अधिक पर अधिकार करने के लिए जो भी कार्य किया जाता है वह नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से चोरी ही है। आवश्यकता से अधिक खाना भी चोरी है। बस या रेल में टिकट न लेना और मेरे पास पास (Pass) अथवा 'सीजनल टिकट' है, ऐसा कहकर निकल जाना चोरी है। खोटा सिक्का चलाना अथवा दुकानदार द्वारा अज्ञान के कारण दिए गए अधिक धन को जेब में रख लेना भी चोरी है। उत्कोच (घूस) देकर काम बना लेना भी चोरी है।
मनुष्य चोरी क्यों करता है? चोरी का वास्तविक कारण मनुष्य की अनगिनत इच्छाएं और अनियन्त्रित इन्द्रियाँ हैं। चोरी से बचने के लिए साधक को अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित, इन्द्रियों को अनुशासित और मन को वश में करना होगा।
अस्तेय की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-
अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्।। -यो० द० साधन० ३७
मनुष्य के हृदय में अस्तेय की प्रतिष्ठा हो जाने पर उसके सामने संसार के सब रत्न स्वयमेव उपस्थित हो जाते हैं अर्थात् अस्तेय में प्रतिष्ठित व्यक्ति को कभी धन-रत्न का अभाव नहीं रहता।
(४) ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य दो शब्दों के मेल से बना है- ब्रह्म और चर्य। ब्रह्म का अर्थ है ईश्वर, वेद, ज्ञान और वीर्य। चर्य का अर्थ है चिन्तन, अध्ययन, उपार्जन और रक्षण। इस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ होगा-साधक ईश्वर का चिन्तन करे, ब्रह्म में विचरे, वेद का अध्ययन करे, ज्ञान का उपार्जन करे और वीर्य का रक्षण करे।
ब्रह्म में विचरण के लिए मन का विषय-वांसनाओं से सर्वथा मुक्त होना अत्यावश्यक है। विषय-वासनाओं में कामवासना सबसे प्रबल और घातक है, अतः ब्रह्मचर्य का अर्थ प्रमुख रूप से वीर्यरक्षण किया जाता है। साधक जितेन्द्रिय हो, लम्पट न हो।
ब्रह्मचर्य का उद्देश्य है- खाये हुए अन्न को ओजशक्ति में परिवर्तित कर देना है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है- मनुष्य में विद्यमान पाशविक शक्तियों को संयमित करना, उनका संरक्षण करना, उन्हें उच्च स्तर की ओर उन्मुख करना और खाये हुए अन्न को ओजशक्ति में रूपान्तरित कर देना।
ब्रह्मचर्य की महिमा महान् है। उपनिषदों में कहा गया है-
नाअयमात्मा बलहीनेन लभ्य:। -मुण्डको० ३/२/४
ब्रह्मचर्य से हीन व्यक्ति परमात्मा को नहीं पा सकता।
साधक के लिए ब्रह्मचर्य उसी प्रकार आवश्यक है, जैसे विद्युत से चलनेवाली गाड़ी के लिए विद्युत्। इसके बिना साधक योगमार्ग में उन्नति नहीं कर सकता। ब्रह्मचर्य की शक्ति द्वारा ही चंचल इन्द्रियों और कुटिल मन पर विजय पाई जा सकती है। वेद में ब्रह्मचर्य की महिमा के सम्बन्ध में कहा गया है-
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत। -अथर्व० ११/५/१९
ब्रह्मचर्य और तप के द्वारा विद्वान् लोग मौत को भी मार भगाते हैं।
महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-
ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः। -यो० द० साधन० ३८
ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित होने पर वीर्यलाभ होता है। अर्थात् ब्रह्मचर्य-प्रतिष्ठित व्यक्ति के देह में परमेश्वर की विमल ज्योति प्रकाशित होती है।
उपस्थेन्द्रीय के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों पर भी नियन्त्रण रखना चाहिए। आंखों के रूप में जाने से,कानों को शब्दों की ओर दौड़ लगाने से, नासिका को गन्ध की ओर भागने से, जिह्व को रसपान से, त्वचा को स्पर्श-आनन्द में मग्न होने से रोको। सभी इन्द्रियों का निरोधरूपी ब्रह्मचर्य साधक को ब्रह्म-साक्षात्कार की ओर ले जाएगा।
(५) अपरिग्रह- अपरिग्रह का अर्थ है- आवश्यकता से अधिक पदार्थों का संग्रह न करना। साधक उतने ही पदार्थों का संग्रह करे जितने सादा जीवन के लिए आवश्यक हैं। किसी भी वस्तु को क्रय करने से पहले गम्भीरतापूर्वक सोच लो। यदि उनके बिना काम न चलता हो तभी खरीदो। पदार्थों के अधिक संग्रह से आज मानव दुःख पा रहा है।
विषयों के अर्जन, रक्षण, क्षय (नाश), सङ्ग (उपभोग), हिंसा (संग्रह में पर-पीड़ा) आदि दोषों को देखकर उनको स्वीकार न करना, उन्हें त्याग देना अपरिग्रह है।
अपरिग्रह का एक अर्थ अभिमान न करना भी है। साधक विनम्र बने। वह निरभिमानी हो, अभिमान कभी न करे। विद्या, धन, जल, बल आदि जिन बातों पर मनुष्य अभिमान करता है, उनमें से एक भी ऐसी नहीं है, जिस पर अभिमान किया जा सके।
अपरिग्रह का फल क्या है?
महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-
अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्ता सम्बोध:। -यो० द० साधन० ३९
अपरिग्रह में प्रतिष्ठा-दृढ़ता होने पर पूर्वजन्म के कारणों का बोध होता है।
ये पांच यम मिलकर उपासना-योग का प्रथम अङ्ग है।
२-- नियम भी पांच हैं-
(१) शौच- शौच के अर्थ है पवित्रता। साधक अन्दर और बाहर से पवित्र रहे। राग-द्वेष के त्याग से आन्तरिक और जलादि के द्वारा बाह्य सम्पादित करनी चाहिए। शरीर की दशा का मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है, अतः शरीर को स्नान से पवित्र करना चाहिए। वेश-भूषा भी पवित्र हो रहने का स्थान भी साफ-सुथरा हो। गन्दे और जहां समान अस्त-व्यस्त पड़ा हो ऐसे स्थान पर भी मन नहीं लग सकता। अन्तः शुद्धि का भी ध्यान रखना चाहिए। अण्डा, मांस-मछली खानेवाले, शराब पीनेवाले, सिगरेट, बीड़ी, चरस, गांजा, अफीम सेवन करने वालों का मन भी दूषित हो जाता है।
शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्ग:। -यो० द० साधन० ४०
पवित्रता में प्रतिष्ठित होने पर अपने अङ्ग से विरक्ति और दूसरे स्त्री-पुरुषों के साथ सङ्गति से भी वितृष्णा हो जाती है।
शौच से बुद्धि की शुद्धि, मन की विमलता, एकाग्रता, इन्द्रियजय और आत्मदर्शन की योग्यता प्राप्त होती है।
(२) सन्तोष- सन्तोष का अर्थ बहुत गलत समझा गया है। सन्तोष का अर्थ हाथ पर हाथ रखकर निठल्ला बैठना नहीं है। सन्तोष का अर्थ है- आलस्य छोड़कर सदा पुरुषार्थ करना। धर्मपूर्वक पुरुषार्थ करके लाभ में प्रसन्न और हानि में अप्रसन्न न होना। 'सन्तोष' सुख और शान्ति प्राप्त करने की कुञ्जी है।
महर्षि पतंजलि कहते हैं-
सन्तोषादनुत्तमसुखलाभ:। -यो० द० साधन० ४२
सन्तोष की सिद्धि होने पर ऐसा सुख प्राप्त होता है जिससे बढ़कर और कोई सुख नहीं है। वह सुख वर्णनातीत है।
महर्षि व्यास लिखते हैं-
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हत: षोडशीं कलाम्।। -महा० शान्ति० १७६/४६
इस संसार में काम्य वस्तु का जो उपभोगजनित सुख है अथवा स्वर्ग का जो महान् सुख है, वह तृष्णाक्षय से उतपन्न होने वाले सुख के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं है।
हां, एक बात का ध्यान रखें। सन्तोष सांसारिक बातों में ही करना चाहिए, साधना में नहीं। साधना में तो असीम असन्तोष होना चाहिए। साधक को प्रभु के प्रति अपनी भक्ति और प्रेम से कभी सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए।
(३) तप- तप के सम्बन्ध में भी अनेक भ्रान्तियाँ फैली हुई हैं। कोई समझता है कि एक पाँव पर खड़े रहना अथवा एक या दोनों हाथ ऊपर खड़े रखने का नाम तप है। कोई समझता है कि शीत ऋतु में ठण्डे पानी में खड़ा रहना तप है। कोई समझता है कि ग्रीष्मकाल में पञ्चाग्नि तपना तप है। किसी के अनुसार स्वयं को पृथिवी में गाड़ देना तप है। किसी के मत में कीलों पर लेटना तप है। वस्तुतः यह सब-कुछ तप नहीं है। तप का वास्तविक अर्थ है- 'द्वन्द्वसहनं तप:'- कष्ट आने पर भी धर्मकार्यों को करते जाना तप है। हानि-लाभ, जीवन-मरण, सुख-दुःख, भूख-प्यास, हर्ष-शोक में सम रहने का नाम तप है।
तप का धातु- अर्थ है- 'तप दाहे'- जलना-जलाना। अग्नि के दो गुणों का सदा ध्यान रखना चाहिए- यह पदार्थों को शुद्ध करती है और तेजयुक्त है। तप भी एक प्रचण्ड प्रक्रिया है जो मनुष्य के मलों को जलाकर उसे आत्मचैतन्य के प्रकाश से उद्भासित करती है।
तप का फल है बल की प्राप्ति। जिस तप से शरीर में कान्ति, ओज और तेज की वृद्धि नहीं होती, वह तप नहीं है।
तप न करने पर योग में गति नहीं हो सकती। जैसा कि कहा गया है-
नातपस्विनो योग: सिध्यति।
जो तपस्वी नहीं है, उससे योग में सिद्धि-लाभ नहीं हो सकता।
उपनिषदों में कहा गया है-
तपसा चीयते ब्रह्म। -मुण्डको० १/१/८
ब्रह्म की प्राप्ति तप द्वारा ही सम्भव है।
वेद में कहा है-
प्रियांशु सेठ
मूर्तिपूजा अर्वाचीन है, वेदादि शास्त्रों के विरुद्ध और अवैदिक है फिर हम अपने ईश्वर को कैसे प्राप्त करें? हमारी उपासना-विधि क्या हो?
उपासना का अर्थ है समीपस्थ होना अथवा आत्मा का परमात्मा से मेल होना। महर्षि पतञ्जलि द्वारा वर्णित अष्टाङ्गयोग के आठ अङ्गब्रह्मरूपी सर्वोच्च सानु-शिखर पर चढ़ने के लिए आठ सीढ़ियाँ हैं।
उनके नाम हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
यहां प्रत्येक का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया जाता है-
१-- यम पाँच हैं-
(१) अहिंसा- अहिंसा का अर्थ केवल किसी की हत्या न करना ही नहीं अपितु मन, वचन और कर्म से किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार कष्ट न देना, किसी को हानि न पहुंचाना और किसी के प्रति वैरभाव न रखना अहिंसा है। उपासक को चाहिए कि किसी से वैर न रखे, सबसे प्रेम करे। उसकी आँखों में सबके लिए स्नेह और वाणी में माधुर्य हो। पशुओं को मारकर अथवा मरवाकर उनके मांस से अपने उदर को भरनेवाले तीन काल में भी योगी नहीं बन सकते। साधक को प्रत्येक स्थान में, प्रत्येक समय और प्रत्येक परिस्थिति में अहिंसाव्रती होना चाहिए। 'अहिंसा परमो धर्म:' अहिंसा परम धर्म है। अहिंसा का उद्देश्य है मनुष्य के अन्दर छिपी हुई उग्र, क्रूर और पाशविक वृत्तियों को जड़मूल से उखाड़ फेंकना। जब मन में हिंसा की छाया तक न दिख पड़े, तब समझना चाहिए कि अहिंसा की सिद्धि हो गई, अहिंसा का फल क्या है?
महर्षि पतंजलि लिखते हैं-
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्याग:। -योगदर्शन साधन० ३५
हृदय में अहिंसा के प्रतिष्ठित होने पर अहिंसक के समीप सांप, बाघ आदि हिंसक प्राणी भी वैरभाव का परित्याग कर देते हैं।
अहिंसा की सिद्धि के बिना अन्य यमों की सिद्धि नहीं हो सकती, इसलिए यमों में इसे सर्वप्रथम स्थान दिया गया है।
(२) सत्य- सत्य द्वितीय यम है। साधक मन, वचन और कर्म से सत्य जाने, सत्य माने, सत्य बोले और सत्य ही लिखे, मिथ्या-असत्य न बोले, न मिथ्या व्यवहार ही करे। सत्यस्वरूप परमेश्वर को पाने के लिए साधक को सर्वथा सत्यनिष्ठ बनना होगा। सत्यस्वरूप प्रभु का साक्षात्कार करने के लिए उपासक को सत्य में ही जीना होगा, सत्यस्वरूप ही बनना होगा और सत्य के प्रति आंशिक नहीं सम्पूर्ण तथा सर्वोपरि लगाव रखना होगा। साधना की नींव रखने के लिए सत्यव्रती बनना अत्यावश्यक है। सत्य सबसे बड़ा व्रत है।
उपासक कहता है-
अहमनृतात्सत्यमुपैमि। -यजु० १/५
मैं असत्य को त्याग कर जीवन में सत्य को ग्रहण करता हूँ।
वेदादिशास्त्र सत्य की महिमा से भरे पड़े हैं।
उपनिषदों में कहा है-
सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा। -मुण्डको० ३/१/५
परमात्मा सत्य और तप से ही प्राप्त होता है।
सत्यमेव जयते नानृतम्। -मुण्डको० ३/१/६
सत्य की ही विजय होती है, असत्य की नहीं।
महाभारत में कहा गया है-
सत्यं स्वर्गस्य सोपानम्। -महा० उद्यो० ३३/४७
सत्य स्वर्ग की सीढ़ी है।
महर्षि मनु का कथन है-
नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्। -मनु० ८/८२
सत्य से बढ़कर कोई धर्म और असत्य से बढ़कर कोई पाप नहीं है।
सत्यभाषण का फल बताते हुए महर्षि पतञ्जलि कहते हैं-
सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्। -यो० द० साधन० ३६
सत्य में प्रतिष्ठित होने पर व्यक्ति वाक्सिद्ध हो जाता है।
सत्य के महत्त्व को समझकर जीवन में सत्य को धारण करो। सत्य में निवास करो। सत्य में मूर्त्तरूप बन जाओ। मन, वाणी और कर्म से सच्चे रहो।
(३) अस्तेय- यमों में तीसरा यम है अस्तेय। स्तेय का अर्थ है चोरी करना, अस्तेय का अर्थ है मन, वचन और कर्म से चोरी न करना। साधक चोरी न करे, सत्य व्यवहार करे। स्वामी की आज्ञा के बिना किसी पदार्थ को न उठाये। स्तेयरूपी अवगुण सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। व्यक्ति के लिए जितना आवश्यक है उससे अधिक पर अधिकार करने के लिए जो भी कार्य किया जाता है वह नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से चोरी ही है। आवश्यकता से अधिक खाना भी चोरी है। बस या रेल में टिकट न लेना और मेरे पास पास (Pass) अथवा 'सीजनल टिकट' है, ऐसा कहकर निकल जाना चोरी है। खोटा सिक्का चलाना अथवा दुकानदार द्वारा अज्ञान के कारण दिए गए अधिक धन को जेब में रख लेना भी चोरी है। उत्कोच (घूस) देकर काम बना लेना भी चोरी है।
मनुष्य चोरी क्यों करता है? चोरी का वास्तविक कारण मनुष्य की अनगिनत इच्छाएं और अनियन्त्रित इन्द्रियाँ हैं। चोरी से बचने के लिए साधक को अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित, इन्द्रियों को अनुशासित और मन को वश में करना होगा।
अस्तेय की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-
अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्।। -यो० द० साधन० ३७
मनुष्य के हृदय में अस्तेय की प्रतिष्ठा हो जाने पर उसके सामने संसार के सब रत्न स्वयमेव उपस्थित हो जाते हैं अर्थात् अस्तेय में प्रतिष्ठित व्यक्ति को कभी धन-रत्न का अभाव नहीं रहता।
(४) ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य दो शब्दों के मेल से बना है- ब्रह्म और चर्य। ब्रह्म का अर्थ है ईश्वर, वेद, ज्ञान और वीर्य। चर्य का अर्थ है चिन्तन, अध्ययन, उपार्जन और रक्षण। इस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ होगा-साधक ईश्वर का चिन्तन करे, ब्रह्म में विचरे, वेद का अध्ययन करे, ज्ञान का उपार्जन करे और वीर्य का रक्षण करे।
ब्रह्म में विचरण के लिए मन का विषय-वांसनाओं से सर्वथा मुक्त होना अत्यावश्यक है। विषय-वासनाओं में कामवासना सबसे प्रबल और घातक है, अतः ब्रह्मचर्य का अर्थ प्रमुख रूप से वीर्यरक्षण किया जाता है। साधक जितेन्द्रिय हो, लम्पट न हो।
ब्रह्मचर्य का उद्देश्य है- खाये हुए अन्न को ओजशक्ति में परिवर्तित कर देना है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है- मनुष्य में विद्यमान पाशविक शक्तियों को संयमित करना, उनका संरक्षण करना, उन्हें उच्च स्तर की ओर उन्मुख करना और खाये हुए अन्न को ओजशक्ति में रूपान्तरित कर देना।
ब्रह्मचर्य की महिमा महान् है। उपनिषदों में कहा गया है-
नाअयमात्मा बलहीनेन लभ्य:। -मुण्डको० ३/२/४
ब्रह्मचर्य से हीन व्यक्ति परमात्मा को नहीं पा सकता।
साधक के लिए ब्रह्मचर्य उसी प्रकार आवश्यक है, जैसे विद्युत से चलनेवाली गाड़ी के लिए विद्युत्। इसके बिना साधक योगमार्ग में उन्नति नहीं कर सकता। ब्रह्मचर्य की शक्ति द्वारा ही चंचल इन्द्रियों और कुटिल मन पर विजय पाई जा सकती है। वेद में ब्रह्मचर्य की महिमा के सम्बन्ध में कहा गया है-
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत। -अथर्व० ११/५/१९
ब्रह्मचर्य और तप के द्वारा विद्वान् लोग मौत को भी मार भगाते हैं।
महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-
ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः। -यो० द० साधन० ३८
ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित होने पर वीर्यलाभ होता है। अर्थात् ब्रह्मचर्य-प्रतिष्ठित व्यक्ति के देह में परमेश्वर की विमल ज्योति प्रकाशित होती है।
उपस्थेन्द्रीय के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों पर भी नियन्त्रण रखना चाहिए। आंखों के रूप में जाने से,कानों को शब्दों की ओर दौड़ लगाने से, नासिका को गन्ध की ओर भागने से, जिह्व को रसपान से, त्वचा को स्पर्श-आनन्द में मग्न होने से रोको। सभी इन्द्रियों का निरोधरूपी ब्रह्मचर्य साधक को ब्रह्म-साक्षात्कार की ओर ले जाएगा।
(५) अपरिग्रह- अपरिग्रह का अर्थ है- आवश्यकता से अधिक पदार्थों का संग्रह न करना। साधक उतने ही पदार्थों का संग्रह करे जितने सादा जीवन के लिए आवश्यक हैं। किसी भी वस्तु को क्रय करने से पहले गम्भीरतापूर्वक सोच लो। यदि उनके बिना काम न चलता हो तभी खरीदो। पदार्थों के अधिक संग्रह से आज मानव दुःख पा रहा है।
विषयों के अर्जन, रक्षण, क्षय (नाश), सङ्ग (उपभोग), हिंसा (संग्रह में पर-पीड़ा) आदि दोषों को देखकर उनको स्वीकार न करना, उन्हें त्याग देना अपरिग्रह है।
अपरिग्रह का एक अर्थ अभिमान न करना भी है। साधक विनम्र बने। वह निरभिमानी हो, अभिमान कभी न करे। विद्या, धन, जल, बल आदि जिन बातों पर मनुष्य अभिमान करता है, उनमें से एक भी ऐसी नहीं है, जिस पर अभिमान किया जा सके।
अपरिग्रह का फल क्या है?
महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-
अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्ता सम्बोध:। -यो० द० साधन० ३९
अपरिग्रह में प्रतिष्ठा-दृढ़ता होने पर पूर्वजन्म के कारणों का बोध होता है।
ये पांच यम मिलकर उपासना-योग का प्रथम अङ्ग है।
२-- नियम भी पांच हैं-
(१) शौच- शौच के अर्थ है पवित्रता। साधक अन्दर और बाहर से पवित्र रहे। राग-द्वेष के त्याग से आन्तरिक और जलादि के द्वारा बाह्य सम्पादित करनी चाहिए। शरीर की दशा का मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है, अतः शरीर को स्नान से पवित्र करना चाहिए। वेश-भूषा भी पवित्र हो रहने का स्थान भी साफ-सुथरा हो। गन्दे और जहां समान अस्त-व्यस्त पड़ा हो ऐसे स्थान पर भी मन नहीं लग सकता। अन्तः शुद्धि का भी ध्यान रखना चाहिए। अण्डा, मांस-मछली खानेवाले, शराब पीनेवाले, सिगरेट, बीड़ी, चरस, गांजा, अफीम सेवन करने वालों का मन भी दूषित हो जाता है।
शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्ग:। -यो० द० साधन० ४०
पवित्रता में प्रतिष्ठित होने पर अपने अङ्ग से विरक्ति और दूसरे स्त्री-पुरुषों के साथ सङ्गति से भी वितृष्णा हो जाती है।
शौच से बुद्धि की शुद्धि, मन की विमलता, एकाग्रता, इन्द्रियजय और आत्मदर्शन की योग्यता प्राप्त होती है।
(२) सन्तोष- सन्तोष का अर्थ बहुत गलत समझा गया है। सन्तोष का अर्थ हाथ पर हाथ रखकर निठल्ला बैठना नहीं है। सन्तोष का अर्थ है- आलस्य छोड़कर सदा पुरुषार्थ करना। धर्मपूर्वक पुरुषार्थ करके लाभ में प्रसन्न और हानि में अप्रसन्न न होना। 'सन्तोष' सुख और शान्ति प्राप्त करने की कुञ्जी है।
महर्षि पतंजलि कहते हैं-
सन्तोषादनुत्तमसुखलाभ:। -यो० द० साधन० ४२
सन्तोष की सिद्धि होने पर ऐसा सुख प्राप्त होता है जिससे बढ़कर और कोई सुख नहीं है। वह सुख वर्णनातीत है।
महर्षि व्यास लिखते हैं-
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हत: षोडशीं कलाम्।। -महा० शान्ति० १७६/४६
इस संसार में काम्य वस्तु का जो उपभोगजनित सुख है अथवा स्वर्ग का जो महान् सुख है, वह तृष्णाक्षय से उतपन्न होने वाले सुख के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं है।
हां, एक बात का ध्यान रखें। सन्तोष सांसारिक बातों में ही करना चाहिए, साधना में नहीं। साधना में तो असीम असन्तोष होना चाहिए। साधक को प्रभु के प्रति अपनी भक्ति और प्रेम से कभी सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए।
(३) तप- तप के सम्बन्ध में भी अनेक भ्रान्तियाँ फैली हुई हैं। कोई समझता है कि एक पाँव पर खड़े रहना अथवा एक या दोनों हाथ ऊपर खड़े रखने का नाम तप है। कोई समझता है कि शीत ऋतु में ठण्डे पानी में खड़ा रहना तप है। कोई समझता है कि ग्रीष्मकाल में पञ्चाग्नि तपना तप है। किसी के अनुसार स्वयं को पृथिवी में गाड़ देना तप है। किसी के मत में कीलों पर लेटना तप है। वस्तुतः यह सब-कुछ तप नहीं है। तप का वास्तविक अर्थ है- 'द्वन्द्वसहनं तप:'- कष्ट आने पर भी धर्मकार्यों को करते जाना तप है। हानि-लाभ, जीवन-मरण, सुख-दुःख, भूख-प्यास, हर्ष-शोक में सम रहने का नाम तप है।
तप का धातु- अर्थ है- 'तप दाहे'- जलना-जलाना। अग्नि के दो गुणों का सदा ध्यान रखना चाहिए- यह पदार्थों को शुद्ध करती है और तेजयुक्त है। तप भी एक प्रचण्ड प्रक्रिया है जो मनुष्य के मलों को जलाकर उसे आत्मचैतन्य के प्रकाश से उद्भासित करती है।
तप का फल है बल की प्राप्ति। जिस तप से शरीर में कान्ति, ओज और तेज की वृद्धि नहीं होती, वह तप नहीं है।
तप न करने पर योग में गति नहीं हो सकती। जैसा कि कहा गया है-
नातपस्विनो योग: सिध्यति।
जो तपस्वी नहीं है, उससे योग में सिद्धि-लाभ नहीं हो सकता।
उपनिषदों में कहा गया है-
तपसा चीयते ब्रह्म। -मुण्डको० १/१/८
ब्रह्म की प्राप्ति तप द्वारा ही सम्भव है।
वेद में कहा है-
अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते। -ऋ० ९/८३/१
जिसने तप की भट्टी में अपने शरीर को तपाया नहीं है, ऐसा कच्चा व्यक्ति उस प्रभु को नहीं पा सकता।
महर्षि पतंजलि ने लिखा है-
कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपस:। -यो० द० साधन० ४३
तप से अशुद्धि का नाश होकर शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि मिलती है। तप के द्वारा शारीरिक क्रान्ति और इन्द्रियों में सूक्ष्म विषयों को ग्रहण करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है।
(४) स्वाध्याय- नियम का चतुर्थ अङ्ग है स्वाध्याय। स्वाध्याय का अर्थ है- वेद का अध्ययन-अध्यापन और ऋषि-मुनियों द्वारा लिखित सत्यशास्त्रों को पढ़ना-पढ़ाना। वेद परमात्मा का दिव्यज्ञान है। यह मानव-कर्त्तव्यों का बोधक शास्त्र है, ज्ञान और विज्ञान का अगाध भण्डार है। अपने कर्त्तव्यों को जानने के लिये वेद का स्वाध्याय करना ही चाहिए। ऋषि-मुनिकृत ग्रन्थों में वेदों का व्याख्यान है, इसलिए उन्हें भी पढ़ना चाहिए। इस विषय में महर्षि दयानन्द सरस्वती लिखते हैं-
"महर्षि लोगों का आशय जहां तक हो सके वहां तक सुगम और जिसके ग्रहण में समय थोड़ा लगे, इस प्रकार की रचना करने का होता है और क्षुद्राशय लोगों की मनसा ऐसी होती है कि जहां तक बने वहां तक कठिन रचना करनी, जिसको बड़े परिश्रम से पढ़के अल्प-लाभ उठा सकें; जैसे पहाड़ का खोदना, कौड़ी का लाभ होना, और आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा है कि एक गोता लगाना, बहुमूल्य मोतियों का पाना।" -सत्यार्थप्रकाश, तृतीय समुल्लास
मोक्ष-विधायक ग्रन्थों का पढ़ना ही स्वाध्याय है। समाचार-पत्र पढ़ना, नावल, किस्से, कहानियां और अश्लील पुस्तकें पढ़ना स्वाध्याय नहीं है। साधक को सदा उत्तम ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिए।
उपनिषदों में कहा है-
स्वाध्यायान्मा प्रमद:। -तैत्तिरीयोप० शिक्षा ११
स्वाध्याय में, वेद के अध्ययन में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए।
स्वाध्याय का अर्थ है सत्पुरुषों का सङ्ग। साधक को सदा सज्जनों की संगति में रहना चाहिए। सत्सङ्ग से मनुष्य ऊंचा उठता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती का सत्सङ्ग पाकर नास्तिक, शराबी और कबाबी मुंशीराम परम आस्तिक स्वामी श्रद्धानन्द बन गए। महता अमीरचन्द भी बदल गए। पं० लेखराम आर्यमुसाफिर, पं० गुरुदत्त जी विद्यार्थी आदि कितनों के जीवन पलट गए।
स्वाध्याय का एक और अर्थ है- प्रतिदिन परमात्मा के सर्वोत्तम नाम 'ओ३म्' का अर्थपूर्वक जप करना।
वेद में कहा है-
ओ३म् क्रतो स्मर। -यजु० ४०/१५
हे कर्मशील जीव! तू ओ३म् का स्मरण कर।
और
ओ३म् प्रतिष्ठ। -यजु० २/१३
तू ओ३म् में प्रतिष्ठित हो जा अथवा ओ३म् को ओ३म् नामक परमात्मा को अपने हृदय-मन्दिर में बिठा ले।
महर्षि पतंजलि में स्वाध्याय का फल बताते हुए कहा है-
स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोग:। -यो० द० साधन० ४४
स्वाध्याय से इष्ट देवता-परमेश्वर का दर्शन, साक्षात्कार होता है।
(५) ईश्वरप्रणिधान- नियमों में ईश्वरप्रणिधान का स्थान सर्वोच्च है। ईश्वरप्रणिधान के दो अर्थ हैं- एक, बिना किसी इच्छा, आकांक्षा और मांग के अपने-आपको, अपने सब कामों को, अपने सब संकल्पों को प्रभु को समर्पित कर देना। जो परमात्मा से कुछ मांगते हैं, उन्हें तो प्रभु केवल वही वस्तु देता है, जो वे मांगते हैं, परन्तु जो कुछ नहीं मांगते, उन्हें परमेश्वर सब-कुछ देता है। और अन्त में अपने आपको भी दे देता है, अपना साक्षात्कार भी करा देता है। दूसरा अर्थ है- हृदय में ईश्वर का प्रेम रखते हुए, ईश्वर की विशेष भक्ति या उपासना करते हुए ईश्वर की कृपा, दया और प्रसन्नता का पात्र बनना। ईश्वरप्रणिधान से अहं-भाव नष्ट होता है और जीवन में नम्रता आती है। इसका फल क्या है?
समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्। -यो० द० साधन० ४५
ईश्वरप्रणिधान से योग के सर्वोच्च फल समाधि की सिद्धि होती है।
ये पांच नियम मिलकर उपासना योग का दूसरा अङ्ग कहलाता है।
३-- आसन- यह योग का तीसरा अंग है। महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन का अर्थ है-
स्थिरसुखमासनम्। -यो० द० साधन० ४६
शरीर न हिले, न डुले, न दुखे और चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग न हो, ऐसी अवस्था में दीर्घकाल तक सुख से बैठने को आसन कहते हैं।
साधक को ऐसे आसन में बैठना चाहिए जिसमें कष्ट न होकर स्थिर सुख की प्राप्ति हो। आसन के दृढ़ होने पर उपासना सरल हो जाती है। एक आसन में निश्चलतापूर्वक बैठने से श्वास-प्रश्वास की गति संयत होने लगती है और मन भी लय होने लगता है। आसन निरन्तर अभ्यास से ही सिद्ध किया जा सकता है। बिना हिले-डुले तीन घण्टे तक एक ही आसन में बैठना आसनजय कहलाता है। आसनजय के पश्चात् साधक योग के श्रेष्ठ और गुरुतर विषय प्राणायाम की ओर अग्रसर होने लगता है। योगसाधना के लिए मुख्यासन चार हैं-- सिद्धासन, पद्मासन, स्वस्तिकासन और सुखासन।
४-- प्राणायाम- प्राणायाम राजयोग का चौथा अङ्ग है। प्राण और मन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जहां-जहां प्राण जाता है, वहां-वहां मन भी जाता है। यदि प्राण वश में हो जाए तो मन बिना प्रयास के स्वयं वश में हो जाता है।
प्राणायाम क्या है?
महर्षि पतंजलि लिखते हैं-
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम:। -यो० द० साधन० ४९
आसन सिद्ध होने पर श्वास और प्रश्वास की गति को रोकने का नाम प्राणायाम है।
महर्षि मनु ने प्राणायाम की महत्ता के सम्बन्ध में लिखा है-
दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मला:।
तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषा: प्राणस्य निग्रहात्।। -मनु० ६/७१
जैसे अग्नि में तपाने से स्वर्णादि धातुओं के मल नष्ट होकर वे शुद्ध हो जाते हैं, वैसे ही प्राणायाम के द्वारा मन आदि इन्द्रियों के दोष दूर होकर वे निर्मल हो जाती हैं।
५-- प्रत्याहार- प्रत्याहार का अर्थ है- पीछे लौटाना। इन्द्रियों को उनके भोंगों से लौटाने का नाम प्रत्याहार है। जब आंखें खुली रहने पर भी रूप को देखना बन्द कर दें, कान शब्दों का सुनना बन्द कर दें, नासिका गन्ध का ग्रहण न करे, जिह्वा रस को न चखे और त्वचा स्पर्श का अनुभव न करे, उस अवस्था का नाम प्रत्याहार है।
मोटे शब्दों में कहें तो मन को एक लक्ष्य पर एकाग्र करने के लिए उसे बाह्य विषयों से समेटने का नाम प्रत्याहार है। बाह्य विषयों से हटने पर ही मन को ध्यान-लक्ष्य पर केन्द्रित किया जा सकता है प्रत्याहार वह महान् कुञ्जी है जो धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारों को खोल देती है।
६-- धारणा- अष्टाङ्ग योग के पूर्वकथित यमादि पांच अङ्ग योग का बहिरङ्ग है, भूमिकामात्रा है, वास्तविक योग नहीं है। योग का आरम्भ धारणा से होता है। धारणा का अर्थ है- मन को एकाग्र करना, मन को किसी एक विषय पर केन्द्रित करना।
महर्षि पतंजलि लिखते हैं-
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। -यो० द० विभूति० १
चित्त को किसी देश-स्थानविशेष में, शरीर के भीतर या बाहर बांधने-लगाने का नाम धारणा है।
नाभिचक्र, हृदय, भ्रूमध्य, नासिकाग्र या ब्रह्मरन्ध आदि किसी स्थान पर चित्त को ठहरा रखने का नाम धारणा है।
७-- ध्यान- धारणा की परिपक्वता का नाम ही ध्यान है-
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्। -यो० द० विभूति० २
धारणा में प्रत्यय-ज्ञान का एक-सा बना रहना ही ध्यान है।
जिस स्थान पर चित्त को एकाग्र किया गया है, उस एकाग्रता का ज्ञान तैलधारावत् निरन्तर एक-सा बना रहे और उस समय अन्य किसी प्रकार का ज्ञान या विचार चित्त में न आने पाए, इस अवस्था को ही ध्यान कहते हैं।
८-- समाधि- निरन्तर अभ्यास और वैराग्य में सम्यक् अवस्थिति होने से एकाग्रता बढ़ती है तथा अखण्ड क्रम से गतिमान रहती है, फिर अन्ततः प्रगाढ़ ध्यान में निमग्न होने की अवस्था आती है, जो राज-योग की आठवीं अवस्था है। इसी को समाधि कहते हैं।
पतंजलिजी कहते हैं-
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि:।-यो० द० विभूति० ३
ध्यान में जब अर्थ- ध्येयमात्र का प्रकाश रह जाए और ध्याता (उपासक) अपने स्वरूप से शून्य-सा हो जाये, उस अवस्था का नाम समाधि है।
योग के इन आठ अङ्गों को साधे बिना कोई भी साधक साधना में सफल नहीं हो सकता, अतः प्रत्येक उपासक, साधक, भक्त को इनका अभ्यास करना चाहिए।
यहां प्रार्थना की एक रूपरेखा दी जा रही है-
योगेयोगे तवस्तरं वाजेवाजे हवामहे।
सखाय इन्द्रमूतये।। -ऋ० १/३०/७
हे सच्चिदानन्दस्वरूप! हे सर्वाधार! हे करुणामृतवारिधे! हे सर्वशक्तिमन्! हे न्यायकारिन्! हे परमदेव प्रभो! आप ज्योतिपुत्र और आनन्द के अथाह सागर हो। देव! आपको मेरा नमस्कार हो, बारम्बार नमस्कार हो।
ओ३म्। भूर्भुवः स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।। -यजु०३६/३
हे सर्वरक्षक! सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर! आप सकल जगत् के उत्पादक और वरण करने योग्य हैं। हम आपसे कामना करने योग्य, आनन्दप्रद, शुद्ध एवं तेजस्वरूप का ध्यान करते हैं। आप हमारी बुद्धियों को श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करें।
अतः अपने प्रियतम प्रभु को अष्टाङ्गयोग के इन्हीं आठ अङ्गब्रह्मरूपी सर्वोच्च आठ सीढ़ियों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
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