आत्मा और परमात्मा
प्रियांशु सेठ
आत्मा और परमात्मा में इतना ही भेद है कि आत्मा केवल एक शरीर में निवास करता है और परमात्मा सारे जगत् में रमा हुआ है। वह जगत् के बाहर भी है। जैसे आत्मा शरीर का काम चलाता है, वैसे परमात्मा सारे संसार का काम चलाते हैं। मनुष्य का शरीर छोटा है, अल्प है, सीमित है; इसलिए जीवात्मा दुःखी होता है क्योंकि आनन्द अल्प में नहीं, भूमा में है। छान्दोग्य उपनिषद् में कहा है-
यौ वै भूमा तत्सुखमनल्पे सुखमस्ति।।७।२३।१।।
"भूमा ही सुख है; अल्प में सुख नहीं है।"
यह भूमा परमात्मा है, जो न किसी सीमा में है, न किसी देश या काल में बँधा है। यह परमात्मा का धाम है। यह जीवात्मा भी उसी को जानकर और उसके दर्शन करके आनन्दमय हो जाता है। उसी भूमा (परमात्मा) के सम्बन्ध में उपनिषद् का यह आदेश है-
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्।।
सोअश्नुते सर्वान् कामान्। सह ब्रह्मणा विपश्चितेती।। -तै० २।१।।
"जो उस पर ब्रह्म परमात्मा को जानता है, जो सत्य (सदा एकरस रहने वाला) न और अनन्त है और हृदय की गुफा के अन्दर परम आकाश हृदयाकाश में छिपा हुआ है, वह एकदम उस सर्वज्ञ ब्रह्म के साथ सारी कामनाओं को भोगता है।"
मुण्डक उपनिषद् ने भी उस भूमा का पता बतलाया है-
हिरण्मये परे कोषे विरजं ब्रह्म निष्कलम्।
तच्छुभ्त्रं ज्योतिषां ज्योतिस्तद् यदात्मविदो विदुः।। -मुण्डक० २।९।।
"सुनहरी परम कोष (हृदय) में निर्मल निरवयव ब्रह्म है, वह शुभ है, ज्योतियों की ज्योति है। उसको वे जानते हैं, जिन्होंने अपने-आपको पहचाना है।"
अपने-आपको पहचानने का यही प्रयोजन है कि जिसने आत्म-दर्शन कर लिये हैं। आत्मदर्शी ही उस परमात्मा को, हृदयाकाश में विराजमान उस प्यारे प्रियतम प्रभु को पा सकता है। इसमें कहीं यह न समझ लें कि बस ब्रह्म इतना ही है जो हृदयाकाश में बैठा है, अपितु-
स यश्चायं पुरुषे यश्चासावादित्ये स एक:।।तै० ३।१०।।
"जो यहाँ पुरुष (हृदयाकाश) में शुद्धस्वरूप है और वहाँ सूर्य में है, वह एक ही है।"
कठ-उपनिषद् में कहा है-"जो यहाँ है, वही वहाँ है। जो वहाँ है, वही फिर यहाँ है। वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है, जो इसमें भेद-सा देखता है।"
श्वेताश्वतर उपनिषद् ने तो स्पष्ट कह दिया-
"वह देव एक है। सारे भूतों में छिपा हुआ है। सर्वव्यापक है। सब भूतों का अन्तरात्मा है। कर्मों का अधिष्ठाता है। सब भूतों का आधार है। साक्षी है। चेतन है। केवल (शुद्ध एक तत्व) है और निर्गुण है।"
परमात्मा को उसका भक्त हर स्थान पर अनुभव करता है। इस सारे संसार को कितने प्रबल नियम से कोई सत्ता चला रही है! पर्वतों पर वर्षा होती है, हिम पड़ती है। तब नदियाँ, नाले, स्त्रोत बह निकलते हैं। वह सारा जल कल-कल करता नीचे की ओर दौड़ता हुआ, सैकड़ों-सहस्त्रों मील की लम्बी यात्रा करता हुआ, अन्त में समुद्र में जा मिलता है। उस समुद्र में से सूर्य द्वारा वह जल फिर ऊपर खींचा जाता है। तब वह वाष्प बनकर नीचे से ऊपर सहस्त्रों फ़ीट की ऊँचाई पर चला जाता है। फिर मेघों का रूप धारण करके पर्वतों में वर्षा बनकर या हिम बनकर अपनी यात्रा फिर से प्रारम्भ कर देता है। कैसा अटल नियम है! यदि भगवान् जल को इस नियम में न रखते, तो ये सारे नद, नदियाँ और स्त्रोत सूख जाते; परन्तु करोड़ों-अरबों वर्ष व्यतीत हो गए और प्रभु के इस अटल नियम पर यह जल चल रहा है। इस सूर्य और चन्द्र को देखो! मनुष्य की बनाई हुई घड़ियाँ आगे-पीछे हो सकती हैं, परन्तु सूर्य और चन्द्र एक क्षण के लिए भी न लेट होते हैं, न समय से पूर्व दिखाई देते हैं। निस्सन्देह कोई महान् शक्ति या सत्ता या प्रभु है। वही ईश्वर है। वही सबका अन्तरात्मा है, वही परमात्मा है।
एक तो हमारे प्यारे प्रियतम का यह विराट् रूप है। संसार की हरेक वस्तु में साधक उसे अनुभव कर सकता है। इसमें भी वह दो प्रकार से दिखलाई देता है। एक तो समष्टि (सारे-के-सारे) जगत् के अन्तरात्मा के रूप में; दूसरे जब हम सूर्य, चन्द्र तथा अन्य नक्षत्रों और अग्नि इत्यादि में उसकी झलक देखते हैं, तो यह उसका व्यष्टि रूप होता है। फिर समष्टि जगत् में उसे तीन प्रकार से खेल खेलते हुए देखते हैं। एक तो जगत् की परम-प्रकृति (अस्ली उत्पादन कारण) है जिसे माया कहते हैं; दूसरे-जब इस प्रकृति से यह जगत् पहले सूक्ष्म रूप से बनता है, तब उसके अन्तरात्मा के रूप में; तीसरे-दृश्यमान स्थूल जगत् के अन्तरात्मा के रूप में। यह उसका तीन प्रकार का स्वरूप समष्टि जगत् से सम्बन्ध रखता है। यह समष्टि और व्यष्टि रूप में भगवान् का सारा कार्य स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। जब साधक इस प्रकार से जगत् की हरेक वस्तु में अपने प्रियतम को देखता है तब वह सूर्य, चन्द्र, वायु, जल इत्यादि को कार्य करते हुए देखकर वेद के शब्दों में पुकार उठता है-
कथं वातो नेलयति कथं न रमते मन:।
किमाप: सत्यं प्रेप्सन्तीर्नेलयन्ति कदा चन।। -अथर्व० १०।७।३७।।
"वायु क्यों बन्द नहीं होता? मन क्यों दम नहीं लेता? पानी किस सचाई को चाहते हुए कभी नहीं ठहरते? यह सब किसके नियम से बँधे हुए सदा अपने काम में तत्पर रहते हैं?"
यं कन्दसी अवसा तस्तभाने अभ्यैक्षेतां मनसा रेजमाने।
यत्राधि सूर उदितो विभाती कस्मै देवाय हविषा विधेम।। -ऋ० १०।१२१।६।।
"जिसकी रक्षा से थमे हुए, अपनी मर्यादा में खड़े हुए द्यौ और पृथिवी मन से काँपते हुए उसकी ओर देखते हैं, और जिसके अधीन सूर्य उदय होकर चमकता है, उस प्रभु की हम हवि से पूजा करें।"
उपनिषद् के शब्दों में साधक कह उठता है-
नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानां
एको बहूनां यो विदधाती कामान्।
तमात्मस्थं येअनुपश्यन्ति धीरा:
तेषां शान्ति: शाश्वती नेतरेषाम्।। -कठ० ५।१३।।
"नित्यों का नित्य, चेतनों का चेतन, अकेला ही जो बहुतों की कामनाओं को रचता है, उसको जो धीर पुरुष आत्मा के स्थिर देखते हैं, उनको सदा शान्ति होती है, औरों को नहीं।"
उस फैले हुए ब्रह्म की महिमा को देखकर और उसी को सारे जगत् का भी और अपना भी, सहारा समझकर साधक कहता है-
एषाअस्य परमा गतिरेषाअस्य परमा संपदेषोअस्य परमो लोक ऐषोअस्य परम आनन्द:।। -बृ० ४।३।३२।।
"यह (ब्रह्म) इस (आत्मा) की परम गति है। यह इस आत्मा की परम सम्पदा है। यह इसका परम लोक है। यही इसका परम आनन्द है।"
ऐसे परमात्मा को पाने, देखने और जानने का कौन-सा साधन है?
इसके सम्बन्ध में उपनिषद् का आदेश है-
सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा
सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्।
अन्त: शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्त्रो
यं पश्यन्ति यतय: क्षीणदोषा:।। -मुण्डक० ३।१।५।।
"सचाई, तप, यथार्थ ज्ञान और ब्रह्मचर्य में यह आत्मा सदा पाया जाता है। जो शरीर के अन्दर शुद्ध ज्योतिर्मय है, उसको वे यतिजन देखते हैं जिनके दोष क्षीण हो गए हैं।"
प्रभु के दर्शनों के लिए दोषों का क्षीण होना आवश्यक है। इसलिए सचाई, तप, ज्ञान और ब्रह्मचर्य द्वारा अपने अन्दर योग्यता उत्पन्न कर लेनी चाहिए। तब यह प्यारा जहाँ सारे जगत् में दृष्टिगोचर होता है, वहाँ भक्त-हृदय में भी उसके दर्शन ज्योति के रूप में होते हैं।
बाह्य जगत् में प्यारे की महिमा अनुभव करते हुए अब आँखें बन्द करके अन्दर चलो। शरीर के व्यापार बाह्य जगत् से भी लाखों गुणा आश्चर्यजनक हैं। यह अन्दर का कारखाना भी प्रभु की कृपा ही से चलता है। बाहर के जगत् और अन्दर के कारखाने में यह भेद है कि बाहर तो परमात्मा, जीवतम्बूर प्रकृति-इन तीनों की सम्मिलित महिमा है। इसी मनुष्य-शरीर के अन्दर इन तीनों को निखरे हुए रूप में देखना है।
मनुष्य-शरीर को उपनिषदों ने 'ब्रह्मपुर' कहा है। छान्दोग्यउपनिषद् ने तो घोषणा की है कि-
अथ यदिदमस्मिन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म,दहरोअस्मिन्नन्तराकाश:,तस्मिन् यदन्तस्तदन्वेष्टव्यं तद्वाव विजिज्ञासितव्यमिति।। -छान्दोग्य० ८।१।।
"यह जो ब्रह्मपुर (शरीर) है, इसमें एक छोटा-सा आकाश है। अब उस (छोटे-से आकाश) के अन्दर जो कुछ है, उसका अन्वेषण करना चाहिए।"
यह है वह आत्मा, जो सारे पापों से अलग है। जरा और मृत्यु से परे है। शोक से परे है। भूख और प्यास से परे है। जो सच्ची कामनाओंवाला और सत्य सङ्गल्पोंवाला है।
तैत्तिरीयोपनिषद् में शिक्षावल्ली के छठे अनुवाक (१) में कहा है-
स य एषोअन्तर्हृदय आकाश:।तस्मिन्नयं पुरुषो मनोमय:।अमृतो हिरण्मय:।।
"यह जो हृदय के भीतर आकाश है, उसमें यह विशुद्ध प्रकाशस्वरूप अविनाशी मनोमय पुरुष परमेश्वर रहता है।"
कठ० ६।१३ में यह आदेश है-
उपलब्धस्य तत्त्वभाव: प्रसीदति।
"परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करने वाले साधक के लिए,परमात्मा का तात्त्विक स्वरूप (अपने-आप) शुद्ध हृदय में प्रत्यक्ष हो जाता है।"
जब सुकेशा ऋषि ने महर्षि पिप्पलाद से यह पूछा कि सोलह कला वाले पुरुष भगवान् के दर्शन कहाँ होते हैं? तो महर्षि ने उत्तर दिया-
इहैवान्त: शरीरे, सोम्य!स पुरुषो यस्मिन्नेता: षोडश कला: प्रभवन्तीति।। -प्रश्न० ६।२।।
"हे प्रिय! यहाँ इस शरीर में ही वह पुरुष है, जिसमें सोलह कलाएँ प्रकट होती हैं।"
कहीं बाहर भटकने की आवश्यकता नहीं। इसी हॄदय में प्रभु का साक्षात्कार हो जाता है। प्रभु के दर्शन पाने के लिए इसी शरीर के अन्त:करण, हृदय-देश में प्रवेश करना होता है। कहीं और जाने की जरूरत नहीं रहती। इस हृदय-देश में प्यारे को पाकर मानव किस प्रकार कृतकृत्य हो जाता है, इसका उल्लेख तैत्तिरीयोपनिषद् (६।२) ने इस प्रकार किया है-
आप्नोति स्वाराज्यम्।आप्नोति मनसस्पतिम्।वाक्पति:चक्षुष्पति:।श्रोत्रपतिर्विज्ञानपति:।एतत्ततो भवति।।
"वह स्वराज्य को प्राप्त कर लेता है। मन के स्वामित्व को पा लेता है। वह वाणी का स्वामी हो जाता है। नेत्रों का स्वामी, कानों का स्वामी, विज्ञान का स्वामी हो जाता है। उस पहले बतलाये हुए साधन से यह फल होता है।"
इतना मीठा फल कौन प्राप्त नहीं करना चाहता? तब आओ, हम उसके दर्शन के सीधे साधन को अपनाएँ। और यह केवल कथनमात्र ही नहीं है, इतिहास बतलाता है कि जिन्होंने प्रभु के दर्शन पा लिए, वे कैसा अनुभव करने लगे। इस सम्बन्ध में ऋषि त्रिशंकु ने अपना जो अनुभव बतलाया है, उसे तैत्तिरीयोपनिषद् ने इन शब्दों में प्रकट किया है-
अहं वृक्षस्य रेरिवा।कीर्ति: पृष्ठं गिरेरिव।ऊर्ध्वपवित्रो वाजिनिव स्वमृतमस्मि।द्रविणं सुवर्चसम्।सुमेषा अमृतोक्षित:।। -तैत्ति० १०।१।।
"मैं संसार-वृक्ष का उच्छेद करनेवाला हूँ। मेरी कीर्ति पर्वत के शिखर की भाँति उन्नत है। अन्नोत्पादन की शक्ति से युक्त सूर्य में जैसे उत्तम अमृत है, उसी प्रकार मैं भी अतिशय पवित्र अमृत-स्वरूप हूँ। परमानन्द-रूप अमृत में निमग्न और श्रेष्ठ धारणा-युक्त बुद्धि से सम्पन्न हूँ।"
ब्रह्म-प्राप्ति के पश्चात् त्रिशंकु ऋषि ने अपनी शक्ति का जो अनुभव किया, यह उसी को अभिव्यक्ति है। इसमें स्पष्ट बतला दिया गया है कि परमात्मा को प्राप्त करके भक्त हरके शक्ति का स्वामी बन जाता है, जन्म-मरण के बन्धन से भी छूट जाता है।
नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन-रात।
ऋषि दयानन्द ने 'ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका' में यजुर्वेद के ११वें अध्याय के मन्त्रों की व्याख्या करते हुए लिखा है-
"वही परमात्मा अपनी कृपा से उन (उपासकों) को युक्त करके उनके आत्माओं में बड़े प्रकाश (बृहज्ज्योति:) को प्रकट करता है और वही सविता उन उपासकों को ज्ञान और आनन्दादि से परिपूर्ण कर देता है।" (ऋग्० भा० भूमिका)
वहाँ ऋषि ने इस मन्त्र का भी उल्लेख किया है-
श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा,आ ये धामानि दिव्यानि तस्थु:। -यजुर्वेद ११।५।।
"हे मोक्ष-मार्ग का पालन करनेवाले मनुष्यो! तुम सब लोग सुनो कि जो दिव्य लोकों अर्थात् मोक्ष-सुखों को पूर्व प्राप्त हो चुके हैं, उसी उपासना-योग से तुम लोग भी उन सुखों को प्राप्त होओ। इसमें सन्देह मत करो। इसलिए मैं तुमको उपासना योग से युक्त करता हूँ।"
उपासना-योग के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द अपना यह अनुभव लिखते हैं-
"जो मनुष्य पूर्वोक्त रीति से परमेश्वर को सबका आत्मा जान के उसकी उपासना करता है, वह अपनी सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त होता है, यह बात प्रजापति परमेश्वर सब जीवों के लिए वेदों में बताता है।"
इसके बाद ऋषिवर आदेश करते हैं-
"जब मनुष्य उपासना-योग से परमेश्वर को प्राप्त होके प्रमादरहित होता है, तभी जानों की वह मोक्ष को प्राप्त हुआ।" (ऋ० भा० भूमिका)
अब यह तो ज्ञात हो गया कि वह शुद्ध, बुद्ध, मुक्त-स्वभाव, अजर, अमर, सर्व-व्यापक भगवान् जहाँ सारे जगत् में ओत-प्रोत है, वहां इस ब्रह्मपुर (हृदय) में भी विराजमान है। इस शुद्ध ब्रह्म के दर्शन कैसे पायें?
छान्दोग्य उपनिषद् में एक सुन्दर कथा आती है- छः ऋषि वैश्वानर की उपासना जानने के लिए अश्वपति के पास गए।अश्वपति के पूछने पर पहले ऋषि औपमन्यव ने कहा-
"मैं उसको द्यौ में उपासता हूँ।
दूसरे ऋषि सत्यज्ञ ने कहा-
"मैं आदित्य में उपासता हूँ।"
तीसरे इन्द्रद्युम्न ने कहा-
"मैं वायु में उपासता हूँ।"
चौथे जन ने कहा-
"मैं आकाश में उपासता हूँ।"
बुडिल ने कहा-
"मैं जलों में उपासता हूँ।"
छठे ऋषि औद्दालक ने कहा-
"मैं पृथिवी में उपासता हूँ।"
तब अश्वपति ने सबकी बात सुनकर कहा-
"तुम इस वैश्वानर आत्मा को मानों अलग-अलग मान रहे हो। तुमको जानना चाहिए कि इस वैश्वानर आत्मा का द्यौ तो केवल सिर है, सूर्य नेत्र है, वायु प्राण है, आकाश धड़ है, जल बस्ति है और पृथिवी केवल पाँव है। वह सारे विश्व का अन्तरात्मा है,ऐसा जानते हुए तुम उसे उपासो!"
परन्तु उपासना का सबसे उत्तम स्थान हृदय-देश है। बाह्य जगत् में छायारूप दर्शन होते हैं; हृदय में ही उसके साक्षात् ज्योति-स्वरूप में दर्शन होते हैं, क्योंकि इस मनुष्य हृदय में देखने वाला जीवात्मा भी वहीं विद्यमान है। इस हृदय-देश या ब्रह्मलोक में जीवात्मा और परमात्मा दोनों ही स्पष्ट देखे जाते हैं।
कठोपनिषद् की तीसरी वल्ली में आदेश है-
छायातपयोरिव ब्रह्मलोके।
"ब्रह्मलोक में छाया और धूप की भाँति आत्मा और परमात्मा दोनों का स्वरूप अलग-अलग स्पष्ट दिखाई देता है।"
कठोपनिषद् की चौथी वल्ली में बड़े रहस्य और मर्म की जो बात यम ऋषि ने नचिकेता को बतलाई है वह यह है-
अंगुष्ठमात्र: पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति।
ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते।। -एतद्वै तत्।।१२।।
"भूत से भविष्य-पर्यन्त का स्वामी पूर्ण परमेश्वर (आत्मनि मध्ये) जीवात्मा में अंगुष्ठ-परिणाम होकर विराजमान है- जब यह निश्चय हो जाता है, तब मनुष्य चिन्तित नहीं होता। यह एक रहस्य की बात है।"
मनुष्य-देह में परमात्मा सर्वत्र उसी प्रकार से व्यापक है, जैसे सारे संसार में। एवं जीवात्मा की जोत भी सारे मानव-शरीर में जंगती है, परन्तु मानव-शरीर में हृदय इन दोनों के मिलाप का विशेष स्थान है; और चूंकि हृदय अंगुष्ठमात्र है, अतः उसका निवासी भी अंगुष्ठमात्र हुआ। परमेश्वर (परमात्मा) का ध्यान भी वहीं अंगुष्ठमात्र ही के रूप में होगा। यम ने स्पष्ट रूप से यह रहस्य खोल दिया है कि परमात्मा के दर्शन मानव-देह में जीवात्मा के स्थान अर्थात् हृदय ही में होते हैं। इससे आगे ऋषि फिर कहते हैं-
अंगुष्ठमात्र: पुरुषो ज्योतिरिवाधूमक:।
ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य स उ श्व:।। -एतद्वै तत्।।१३।।
"भूत और भविष्य का स्वामी वह अंगुष्ठमात्र पूर्ण निर्धूम ज्योति के समान शुभ्त्र, निर्मल और कान्तिमान् है। वह ही आज साक्षात् करने योग्य है और वही कल साक्षात्करणीय है- बस, यह मर्म की बात है।"
यहाँ ऋषि ने अत्यन्त अन्तरंग-रहस्य प्रकट कर दिया है कि अंगुष्ठमात्र हृदय-प्रदेश में परमात्मा के दर्शन शुभ्र और निर्मल ज्योति के रूप में होते हैं।
कठोपनिषद में कहा है-
न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्।
हृदा मनीषी मनसाअभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।। -कठ० ६।९।।
"इसका रूप (आँखों से) देखने के लिए नहीं है, न कोई आँखों से इसको देख सकता है। यह हृदय से, बुद्धि से, मन से प्रकाशित होता है। जो जानते हैं, वे अमृत हो जाते हैं।"
आत्मा को आत्मा ही से देखा जा सकता है। बाहर और अन्दर के इन्द्रिय तो सहायक बन सकते हैं। मन केवल भगवान् के मन्दिर के द्वार तक साधक को पहुँचा देता है। तब द्वार खुलवाना और दर्शन करना, यह केवल आत्मा का ही काम रह जाता है।"
परन्तु इस साक्षात् दर्शन के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना होगा। तिलों से तेल ऐसे ही नहीं निकलता। कोल्हू बनवाना होता है। बैल लाना होता है। सारी सामग्री एकत्रित करनी पड़ती है। फिर कोल्हू में तिलों को डालकर पेलना होता है, तब तेल मिलता है। मक्खन को प्राप्त करने के लिए भी बड़ा प्रयत्न करना होता है। लकड़ियों में से अग्नि प्रकट करने के लिए पसीना बहाना होना है। रगड़ते-रगड़ते प्राण फूलने लगता है, तब अग्नि के दर्शन होते हैं। अतएव परमात्मा के दर्शन के लिए जब यत्न प्रारम्भ किया है, तो अब इसे जारी रखो। यदि आरम्भ में कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ, तो भी अधीर न हो जाओ। 'पंचदशी' में ठीक कहा है-
कालेन हि पच्यन्ते कृषिर्गभदियो यथा।
तद्वदात्मविचारोअपि शनै: कालेन पच्यते।।
"खेती और गर्भ आदि जैसे तुरन्त ही तैयार नहीं हो जाते, इनके पकने में कुछ समय लगता ही है, इसी प्रकार आत्म-विचार भी धीरे-धीरे काल पाकर परिपक्व हुआ करता है।"
प्रयत्न करते रहो और परमात्मा की कृपा की प्रतीक्षा करो!
दर्शन अवश्य ही होंगे।
Comments
Post a Comment