गायत्री-महिमा
प्रियांशु सेठ
वेदों, उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों आदि सभी शास्त्रों में गायत्री मन्त्र के जप का आदेश दिया है। यहां गायत्री जप के सम्बन्ध में 'देवी भागवत' के ये श्लोक देखिये-
गायत्र्युपासना नित्या सर्ववेदै: समीरिता।
यया विना त्वध: पातो ब्राह्मणस्यास्ति सर्वथा।।८९।।
तावता कृतकृत्यत्वं नान्यापेक्षा द्विजस्य हि।
गायत्रीमात्रनिष्णातो द्विजो मोक्षमवाप्नुयात्।।९०।।
"गायत्री ही की उपासना सनातन है। सब वेदों में इसी की उपासना और शिक्षा दी गई है, जिसके बिना ब्राह्मण का सर्वथा अध:-पतन हो जाता है।।८९।। द्विजमात्र कि लिए इतने से ही कृतकृत्यता है। अन्य किसी उपासना और शिक्षा की आवश्यकता नहीं। गायत्रीमात्र में निष्णात द्विज मोक्ष को प्राप्त होता है।।९०।।"
गायत्री-मन्त्र को जो गुरु-मन्त्र कहा गया है, तो इसमें विशेष तथ्य है। चारों वेदों में इसका वर्णन है। ऋग्वेद में ६/६२/१० का मन्त्र गायत्री मन्त्र ही है। सामवेद के १३/३/३ उत्तरार्चिक में और यजुर्वेद में दो-तीन स्थानों में गुरुमन्त्र का आदेश है। ३/३५, ३०/२ और ३६/३ पर अथर्ववेद में तो यह सारा रहस्य ही खोल दिया है कि यह वेद-माता, गायत्री-माता, द्विजों को पवित्र करनेवाली, आयु, स्वास्थ्य, सन्तान, पशु, धन, ऐश्वर्य, ब्रह्मवर्चस् देनेवाली और ईश्वर दर्शन करानेवाली है। छान्दोग्योपनिषद् ने भी इसकी महिमा का गायन किया है।
बादरायण के ब्रह्मसूत्र १/१/२५ पर शारीरिक भाष्य में श्री शंकराचार्य जी ने लिखा है, "गायत्री-मन्त्र के जप से ब्रह्म की प्राप्ति होती है।"
भगवान् मनु ने यह आदेश दिया है- "तीन वर्ष तक साधनों के साथ गायत्री का जप करते रहने से जप-कर्त्ता को परब्रह्म की प्राप्ति होती है।"
योऽधीतेऽहन्यहन्येतांस्त्रीणि वर्षाण्यतन्द्रित:।
स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूत: खमूर्तिमान्।। -मनु० २/८२
इसी प्रकार महाभारत के भीष्मपर्व ४/३८ में और मनुस्मृति के दूसरे अध्याय के अन्य श्लोकों में भी गायत्री-मंत्र की महानता प्रकट की गई है।
महर्षि व्यास का कथन है, "पुष्पों का सार मधु है, दूध का सार घृत है और चारों वेदों का सार गायत्री है। गंगा शरीर के मल धो डालती है और गायत्री-गंगा आत्मा को पवित्र कर देती है।"
अत्रि ऋषि का यह कथन बड़ा मार्मिक है- "गायत्री आत्मा का परम शोधन करनेवाली है।"
महर्षि स्वामी दयानन्द जी महाराज ने 'सत्यार्थप्रकाश' के तृतीय समुल्लास में मनु भगवान् का एक श्लोक देकर यह आदेश किया है-
"जंगल में अर्थात् एकान्त देश में जा, सावधान होकर जल के समीप स्थित होके नित्य-कर्म को करता हुआ सावित्री अर्थात् गायत्री मन्त्र का उच्चारण, अर्थ-ज्ञान और उसके अनुसार अपने चाल-चलन को करे, परन्तु यह जप मन से करना उत्तम है।"
चरक ऋषि ने 'चरक-संहिता' में यह कहा है कि "जो ब्रह्मचर्य-सहित गायत्री की उपासना करता है और आँवले के ताजा (वृक्ष से अभी-अभी तोड़े हुए) फलों के रस का सेवन करता है, वह दीर्घ-जीवी होता है।"
य एतां वेद गायत्रीं पुण्यां सर्वगुणान्विताम्।
तत्त्वेन भरतश्रेष्ठ स लोके न प्रणश्यति।। -महाभारत, भीष्मपर्व अ० ४ श्लोक १६
पं० रामनारायणदत्त शास्त्री पाण्डेय 'राम' कृत अनुवाद- "भरतश्रेष्ठ! जो लोक में स्थित इस सर्वगुणसम्पन्न पुण्यमयी गायत्री को यथार्थ रूप से जानता है वह कभी नष्ट नहीं होता है।"
चतुर्णामपि वर्णानामाश्रमस्य विशेषत:।
करोति सततं शान्तिं सावित्रीमुत्तमां पठन्।। -महाभारत, अनुशासनपर्व, अ० १५० श्लोक ७०
"जो उत्तम गायत्री मन्त्र का जप करता है, वह पुरुष चारों वर्णों और विशेषत: चारों आश्रमों में सदा शान्ति स्थापन करता है।"
या वै सा गायत्रीयं वाव सा येयं पृथिव्यस्यां हीद्ं सर्व भूतं प्रतिष्ठितमेतामेव नातिशीयते। -छान्दोग्योपनिषद् ३/१२/२
"निश्चय से जो पृथिवी है, निश्चय यह वह गायत्री है। जो यह इस पुरुष में शरीर है। इसी में ये प्राण प्रतिष्ठित है। इसी शरीर को ये प्राण नहीं लांघते।"
'गायत्री-मंजरी' में तो गायत्री ही को सब-कुछ वर्णन कर दिया गया है और लिखा है-
भूलोकस्यास्य गायत्री कामधेनुर्मता बुधै:।
लोक आश्रयणेनामुं सर्वमेवाधिगच्छति।।२९।।
"विद्वानों ने गायत्री को भूलोक की कामधेनु माना है, संसार इसका आश्रय लेकर सब-कुछ प्राप्त कर लेता है।"
स्मृतियों में गायत्री का वर्णन कुछ इस प्रकार से है-
ब्रह्मचारी निराहार: सर्वभूतहिते रत:।
गायत्र्या लक्षजाप्येन सर्वपापै: प्रमुच्यते।। -संवर्तस्मृति:, श्लोक २१९
जो ब्रह्मचारी निराहार सब प्राणियों के कल्याण के लिए गायत्री को एक लाख जपता है वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।
गायत्रीं यस्तु विप्रो वै जपेत नियत: सदा।
स याति परमं स्थानं वायुभूत: खमूर्तिमान्।। -संवर्तस्मृति:, श्लोक २२२
जो ब्राह्मण जितेन्द्रिय होकर सर्वदा गायत्री का जप करता है वह वायु और आकाशरूप हो परमस्थान (मोक्ष) को प्राप्त करता है।
सहस्त्रपरमां देवीं शतमध्यां दशावराम्।
गायत्रीं यो जपेद्विप्रो न स पापेन लिप्यते।। -अत्रिस्मृति:, अ० २, श्लोक ९
जो ब्राह्मण गायत्री को १११० बार जपता है वह पापों से लिप्त नहीं होता।
सर्वेषां जप्यसूक्तानामुचां च यजुषां तथा।
साम्नां वैकाक्षरादीनां गायत्रीं परमो जप:।। -बृहत्पराशरस्मृति:, अध्याय ३, श्लोक ४
जप करने योग्य सब सूक्तों में वैसा ही ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के और एक अक्षर आदि के मध्य में गायत्री जप श्रेष्ठ है।
एकाक्षरेअपि विप्रस्य गायत्र्या अपि पार्वति। -गायत्री तन्त्रम् (तृतीय पटल:)
गायत्री के एक अक्षर को जाननेवाले ब्राह्मण को नमस्कार है।
गायत्रीरहितो विप्र: स एव पूर्वकुक्कुरः ।।१४६।। -गायत्रीतन्त्रम् (तृतीय पटल:)
गायत्रीमन्त्र से रहित ब्राह्मण प्रत्येक जन्म में कुक्कुर होकर हड्डी खाता है।
पुराणों ने भी गायत्री की महिमा का गुणगान गाया है-
तावताकृतकृत्यत्वं नान्यापेक्षा द्विजस्य हि।
गायत्रीमात्रनिष्णातो द्विजो मोक्षमवाप्नुयात्।।९०।। -श्रीमद्देवीभागवते महापुराणे, द्वादशस्कन्धे, अध्याय ८
केवल गायत्रीमन्त्र को जानने में दक्ष द्विज मोक्ष को प्राप्त होता है। इसके जप करने से ही सब कर्त्तव्य पूर्ण हो जाते हैं। द्विज को दूसरे कर्मों की अपेक्षा नहीं है।
एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायाम: परन्तप:।
सावित्र्यास्तु परन्नास्ति मौनात् सत्यं विशिष्यते।। -अग्निपुराणे, २१५ अध्याय, श्लो० ५
एकाक्षर (ओ३म्) पर ब्रह्म है। प्राणायाम परम तप है। सावित्री (गायत्री) से उत्तम दूसरा मन्त्र नहीं है, मौन से सत्यवाणी श्रेष्ठ है।
गयकं त्रायते पाताद् गायत्रीत्युच्यते हि सा। -श्री शिवमहापुराणे विद्येश्वरसंहितायाम् अ० १५ श्लोक १६
गान करनेवाले का पाप से रक्षा करती है, इससे यह गायत्री कहलाती है।
गायत्री छन्दसां माता माता लोकस्य जाह्नवी।
उभे ते सर्वपापानां नाशकारणतां गते।।६३।। -नारद-पुराण अध्याय ६
ऋ० कु० रामचन्द्र शर्मा सम्पादक 'सनातनधर्म पताका' कृत अनुवाद-
गायत्री छन्दों की माता है और गंगा लोकों की माता है, ये दोनों सब पापों के नाश की कारण हैं।
गायत्री वेदजननी गायत्री ब्राह्मणप्रसू:।
गातारं त्रायते यस्माद् गायत्री तेन गीयते। -स्कन्दपुराणम् ४ काशीखण्डे अ० ९, श्लोक ५३
गायत्री वेद की माता व गायत्री ब्राह्मणप्रसू: है। यह शरीर की रक्षा करती है इसलिए इसे गायत्री कहते हैं।
श्री पं० मदनमोहन जी मालवीय कहा करते थे कि "गायत्री-मन्त्र एक अनुपम रत्न है। गायत्री से बुद्धि पवित्र होती है और आत्मा में ईश्वर का प्रकाश आता है। गायत्री में ईश्वर-परायणता का भाव उत्पन्न करने की शक्ति है।"
माण्डले (बर्मा) जेल की काल-कोठरी में बैठकर 'गीता-रहस्य' लिखने वाले बाल गङ्गाधर तिलक ने लिखा था- "गायत्री मन्त्र के अन्दर यह भावना विद्यमान है कि वह कुमार्ग छुड़ाकर सन्मार्ग पर चला दे।"
महात्मा गांधी तो गायत्री-मन्त्र के निरन्तर जप को रोगियों तथा आत्मिक उन्नति चाहने वालों के लिए बहुत उपयोगी बताया करते थे।
महर्षि स्वामी दयानन्द जी के जीवन में कई बार ऐसा हुआ कि उन्होंने चित्त को एकाग्र तथा बुद्धि को निर्मल बनाने के लिए गायत्री-मन्त्र का जप बतलाया। इतना बड़ा महत्त्व रखनेवाला यह गुरु-मन्त्र है।
गायत्री-मन्त्र यह है-
ओ३म् भूर्भुवः स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।
।।ओ३म्।।
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